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उप्र चुनाव : विकास नहीं, नफरत की जीत

भाजपा के घोषणापत्र और ध्रुवीकरण के उसके तथा अन्य पार्टियों के प्रयास का विश्लेषण करते हुए यह इस आलेख में स्पष्ट किया गया है कि उत्तरप्रदेश चुनाव में विकास से ज्यादा नफरत का मुद्दा कामयाब रहा। नेहा दाभाड़े का विश्लेषण :

गत 11 मार्च 2017 को उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे घोषित हुए। भाजपा को इस चुनाव में जबरदस्त सफलता मिली। भारत के सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य की विधानसभा में भाजपा को तीन-चौथाई से भी अधिक बहुमत मिल गया। भाजपा नेता इस जीत का श्रेय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चमत्कारिक नेतृत्व और भाजपा की ‘‘सबका साथ सबका विकास‘‘ की नीति को दे रहे हैं परंतु राजनीतिक टिप्पणीकारों और चुनाव विश्लेषकों के अनुसार भाजपा की जीत के पीछे सिर्फ ये दो कारण नहीं थे। चुनावी समर की शुरूआत से ही भाजपा यह मानकर चल रही थी कि उसे यादव, जाटव और मुस्लिम मत नहीं मिलेंगे क्योंकि ये समुदाय पारंपरिक रूप से दूसरी पार्टियों को वोट देते आए हैं। उसने इन तीन समुदायों को छोड़कर, अन्य सभी समुदायों के वोट हासिल करने की रणनीति पर काम करना शुरू किया। इसके लिए पार्टी ने पहचान की राजनीति का इस्तेमाल किया और उसके प्रचार में धर्म और धार्मिक प्रतीकों का खुलकर इस्तेमाल किया गया।

उत्तरप्रदेश चुनाव में जीत का जश्न मनाते भाजपा कार्यकर्ता

सन् 2013 में मुजफ्फरनगर में हुई साम्प्रदायिक हिंसा से भाजपा को सन् 2014 के आम चुनाव में जबरदस्त फायदा हुआ था। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के चलते, भाजपा को उत्तरप्रदेश में लोकसभा की 80 में से 73 सीटें हासिल हो गईं थीं। पिछले एक वर्ष में राज्य में साम्प्रदायिक हिंसा की कोई बड़ी घटना तो नहीं हुई परंतु बिजनौर और कुछ अन्य स्थानों पर छुटपुट हिंसा हुई। उत्तरप्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान, राजनीतिक दलों ने मतदाताओं का धार्मिक ध्रुवीकरण करने की पुरजोर कोशिश की। इसके लिए नफरत फैलाने वाले भाषणों का भी इस्तेमाल किया गया।

इस लेख में हम नफरत फैलाने वाले भाषणों और वक्तव्यों को वर्गीकृत कर, भाजपा की मुसलमानों के संबंध में रणनीति की विवेचना करने का प्रयास कर रहे हैं। पहली श्रेणी में उन वक्तव्यों को शामिल किया गया है जो पार्टी के आधिकारिक चुनाव घोषणापत्र में शामिल मुद्दों से संबंधित थे। इन मुद्दों में राममंदिर, मुंहजबानी तलाक और पशुवधगृहों पर प्रतिबंध शामिल हैं। दूसरी श्रेणी में वे वक्तव्य हैं जो समाजवादी पार्टी की नीतियों और कार्यक्रमों के विरूद्ध और उन्हें गलत ठहराने के लिए दिए गए थे। भाजपा ने समाजवादी पार्टी पर मुसलमानों का तुष्टिकरण करने का आरोप लगाया और मुसलमानों के बारे में यह कहा कि वे केवल समाजवादी पार्टी का साथ देते हैं। तीसरी श्रेणी में वे वक्तव्य हैं जिनका उद्देश्य मुलसमानों का दानवीकरण करना था।

भाजपा का चुनाव घोषणापत्र और उससे संबंधित वक्तव्य

भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में कम से दो पूर्णतः धर्म-आधारित मुद्दे शामिल किए गए थे और इन दोनों के संबंध में भाषणों आदि में अत्यंत भड़काऊ टिप्पणियां की गईं। पहला मुद्दा था राममंदिर और दूसरा मुंहज़बानी तलाक। भारतीय जनता युवा मोर्चा के राज्य महासचिव और मथुरा के माथ विधानसभा क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी कुंवर सिंह निषाद ने कहा, ‘‘मां का दूध पिया है तो एक ईंट मस्जिद के नाम पर लगाकर दिखाओ, फिर हम तुम्हें तुम्हारी औकात दिखाएंगे‘‘। इसके बाद, निषाद पर साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने के आरोप में प्रकरण दर्ज किया गया। भगवान राम और उनका मंदिर, लंबे समय से हिन्दुत्व की राजनीति के केन्द्र में रहा है और वह एक ऐसा हथियार है जिसका प्रयोग भाजपा जब चाहे तब करती आ रही है। इस चुनाव में भी इस मुद्दे को खोद निकाला गया और भाजपा ने वादा किया कि अगर वह सत्ता में आई तो राममंदिर बनवाएगी।

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, केन्द्रीय मंत्रीय कलराज मिश्र, केशव प्रसाद मौर्य (अब उपमुख्यमंत्री, दायें से दूसरे) और योगी आदित्यनाथ( अब मुख्यमंत्री) 29 जनवरी 2017 को भाजपा का घोषणापत्र जारी करते हुए

भाजपा ने यह भी वायदा किया कि वह मुस्लिम महिलाओं की ‘‘राय‘‘ जानने के बाद, उच्चतम न्यायालय से यह अनुरोध करेगी कि मुंहज़बानी तलाक पर प्रतिबंध लगाया जाए। मुंहज़बानी तलाक के मुद्दे का प्रयोग मुसलमानों को बर्बर और घोर दकियानूसी बताने के लिए किया जाता रहा है। भाजपा नेता साक्षी महाराज ने अपने एक अत्यंत विवादास्पद वक्तव्य में कहा कि ‘‘जनसंख्या वृद्धि, हिन्दुओं के कारण नहीं हो रही है। जनसंख्या, उन लोगों के कारण बढ़ रही है जो चार बीवियों और चालीस बच्चों में विश्वास रखते हैं।‘‘ उनके इस वक्तव्य के बाद, साक्षी महाराज को चुनाव आयोग ने कारण बताओ नोटिस भेजा। इसके पहले उन्हीं ने हिन्दू महिलाओं से यह अपील की थी कि वे कम से कम चार बच्चे पैदा करें ताकि देश की हिन्दू आबादी बढ़ सके। उन्होंने यह भी कहा था कि ‘‘हिन्दू घटा, देश बंटा‘‘।

भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में कैराना और गाय के मुद्दे भी शामिल थे। इन मुद्दों का इस्तेमाल भी मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए किया गया। मुजफ्फरनगर दंगों के एक आरोपी संजय बालियान, जो अब केन्द्र में मंत्री हैं, ने उत्तरप्रदेश में पशुवधगृहों को बंद करने की आवश्यकता बताई। उन्होंने कहा कि पशुवधगृहों से साम्प्रदायिक सौहार्द प्रभावित हो रहा है। दादरी में मोहम्मद अखलाक की हत्या और गुजरात के ऊना में दलितों के साथ हिंसा का देशव्यापी विरोध होने के बावजूद, गाय अभी भी राष्ट्रवाद का प्रतीक बनी हुई है। ‘‘गोरक्षक‘‘ खुलेआम कानून का उल्लंघन कर रहे हैं और सरकारें उनकी बेज़ा हरकतों को नजरअंदाज कर रही हैं।

समाजवादी पार्टी की नीतियों पर हमला

समाजवादी पार्टी को मुसलमानों का तुष्टिकरण करने का दोषी बताकर उस पर हमला करना भी भाजपा की रणनीति का हिस्सा था। सबसे डरावना था प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वह वक्तव्य, जिसने चुनाव प्रचार को अत्यंत निम्न स्तर पर पहुंचा दिया। प्रधानमंत्री ने कहा, ‘‘गांव में अगर कब्रिस्तान बनता है, तो गांव में श्मशान भी बनाना चाहिए। अगर रमजान में बिजली मिलती है तो दिवाली में भी मिलना चाहिए, अगर होली में बिजली मिलती है तो ईद पर भी बिजली मिलनी चाहिए। भेदभाव नहीं होना चाहिए‘‘। इस वक्तवय का उद्देश्य विभिन्न समुदायों को धार्मिक आधार पर बांटना था और इस कथित भेदभाव की ओर लोगों का ध्यान खींचना था कि सरकारें, कब्रिस्तानों की चहारदीवारी बनाने पर तो धन खर्च कर रही है परंतु शमशानघाटों के निर्माण पर ध्यान नहीं दे रही।

मुसलमानों का दानवीकरण

भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ, जो अब उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, लगातार यह कहते रहे हैं कि ‘‘अगर कैराना से एक विशेष समुदाय के आतंक के कारण हिन्दुओं का पलायन नहीं रोका गया तो वह क्षेत्र नया कश्मीर बन जाएगा।” इस वक्तव्य का उद्देश्य हिन्दुओं के मन में यह भय पैदा करना था कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश में मुसलमान उनके लिए खतरा बन गए हैं। यह इस तथ्य के बावजूद कि अनेक नागरिक समाज संगठनों और सरकार द्वारा की गई अलग-अलग पड़तालों में यह सामने आया है कि भाजपा सांसद हुकुम सिंह द्वारा कैराना से पलायन कर गए हिन्दू परिवारों की जो सूची जारी की गई थी, उसमें कई गलतियां और कमियां थीं। सूची में शामिल कई लोग बेहतर रोजगार की तलाश में कैराना से बाहर गए थे और उनके परिवार अभी भी वहां रह रहे थे। कुछ मृतकों के नाम भी सूची में शामिल थे और कुछ ऐसे लोगों के भी, जो अब भी कैराना में रह रहे हैं।

मतदान बूथ के बाहर खड़े मतदाता

लव जिहाद के मुद्दे का इस्तेमाल काफी समय से मुसलमानों और इस्लाम के प्रति भय पैदा करने के लिए किया जाता रहा है। यह कहा जाता है कि मुसलमान युवक, हिन्दू युवतियों को अपने प्रेमजाल में फंसा लेते हैं और उसके बाद उनसे शादी कर उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बना लेते हैं। भाजपा ने यह तय किया है कि इस ‘‘सामाजिक बुराई‘‘ से निपटने के लिए वह ‘‘मजनू-विरोधी‘‘ दस्ते बनाएगी। भाजपा मुखिया अमित शाह ने इन दस्तों के गठन के लक्ष्य को स्पष्ट करते हुए कहा कि उनका उद्देश्य ‘‘युवा महिला विद्यार्थियों को परेशान किए जाने से बचाना है‘‘। भाजपा के एक अन्य नेता सुनील भाराला ने अपने एक भड़काऊ भाषण में कहा कि ‘‘भोलीभाली लड़कियां, लव जिहाद के निशाने पर हैं। मुजफ्फरनगर दंगे लव जिहाद के कारण ही हुए थे‘‘। यह विडंबना ही है कि पूर्व सपा सरकार ने जहां यह दावा किया था कि डायल 1090 आपातकालीन सेवा राज्य में सफलतापूर्वक चल रही है, वहीं भाजपा का कहना था कि अगर वह सत्ता में आई तो वह इस तरह के दस्तों का गठन करेगी। हिन्दू महिलाओं के ‘‘सम्मान‘‘ और ‘‘पवित्रता‘‘ की मुस्लिम पुरूषों से रक्षा करने की अपील भी की गई। यह प्रचार न केवल मुस्लिम युवकों को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करता है वरन् महिलाओं के अपने जीवनसाथी चुनने के अधिकार पर भी डाका डालता है।

कैराना और लव जिहाद जैसे मुद्दे उठाकर इस्लाम के प्रति डर पैदा करने का प्रयास तो किया ही गया, यहां तक कहा गया कि मुसलमानों को राजनीति से बहिष्कृत कर दिया जाए और उनके नागरिक अधिकार छीन लिए जाएं। भाजपा विधायक सुरेश राणा ने कहा, ‘‘अगर मैं चुनाव जीतता हूं तो कैराना, देवबंद और मुरादाबाद में कर्फ्यू लगा दिया जाएगा’’। इसके बाद उन पर भारतीय दंड संहिता की धारा 505 और 125 के तहत नफरत फैलाने और लोगों के बीच शत्रुता उत्पन्न करने का प्रयास करने के आरोप में प्रकरण दर्ज किया गया। वैश्विक स्तर पर इस्लाम के खिलाफ जो अभियान चलाया जा रहा है, उसकी गूंज भी उत्तरप्रदेश के चुनाव में सुनाई पड़ी। योगी आदित्यनाथ ने अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के उस आदेश का समर्थन किया जिसके तहत सात मुस्लिम देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया गया है। न केवल यह, बल्कि योगी आदित्यनाथ का विचार है कि भारत में भी आतंकवाद को नियंत्रित करने के लिए इस तरह की कार्यवाही की जानी चाहिए।

रामपुर में समर्थकों से मिलते आजम खान

अन्य राजनीतिक दलों ने भी किए ध्रुवीकरण के प्रयास

दूसरी पार्टियों के राजनेताओं ने भी धर्म का राजनीति में इस्तेमाल करने से परहेज नहीं किया। राज्य के पूर्व मंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान ने अपने एक भाषण में अपरोक्ष रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तुलना रावण से की। उन्होंने कहा, ‘‘130 करोड़ भारतीयों पर शासन करने वाला राजा, रावण का पुतला जलाने लखनऊ आता है। वह यह भूल जाता है कि सबसे बड़ा रावण लखनऊ में नहीं बल्कि दिल्ली में रहता है’’। एमआईएम नेता असादुद्दीन ओवैसी ने महाराष्ट्र में म्युन्सिपल चुनाव के प्रचार के दौरान कहा, ‘‘मुंबई महानगरीय क्षेत्र में 21 प्रतिशत मुसलमान हैं। बंबई नगर निगम के 37,000 करोड़ रूपए के बजट में मुसलमानों का हिस्सा 7,770 करोड़ बनता है। एमआईएम के कम से कम 20 सदस्यों को चुनकर बीएमसी में भेजें और हम यह सुनिश्चित करेंगे कि मुस्लिम-बहुल वार्डों को उनका उचित हिस्सा मिले’’।

क्या चुनाव धर्मनिरपेक्ष गतिविधि है?

इसी वर्ष उच्चतम न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 123(3) की विवेचना करते हुए यह स्पष्ट किया कि चुनावों में उम्मीदवार धर्म अथवा जाति के नाम पर वोट नहीं मांग सकते। ‘‘जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के अंतर्गत धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के नाम पर अपील करना अस्वीकार्य है और वह भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में आता है, और किसी भी ऐसे चुनाव को रद्द करने का पर्याप्त आधार है, जिसमें इस तरह की अपील की गई हो। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि अपील उम्मीदवार के धर्म के नाम पर की गई हो या उसके चुनाव एजेंट के धर्म के नाम पर या प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार के धर्म के नाम पर या मतदाताओं के धर्म के नाम पर’’, उच्चतम न्यायालय ने कहा। यह निर्णय अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में चुनावों के दौरान धर्म के नाम पर वोट मांगना और धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति या व्यक्तियों पर हमले करना बहुत आम है।

जिस तरह के मुद्दे राजनेताओं द्वारा चुनावों में उठाए जाते हैं, उनके संदर्भ में यह निर्णय स्पष्ट करता है कि भारत जैसे प्रजातांत्रिक देश में चुनाव, धर्मनिरपेक्ष गतिविधि है। परंतु उपरलिखित सभी वक्तव्य सीधे धर्म के नाम पर उपयोग करते हैं। क्या भारत में सचमुच चुनाव धर्मनिरपेक्ष गतिविधि है? यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है और इसका उत्तर खोजा जाना आवश्यक है। भारतीय प्रजातंत्र, धर्मनिरपेक्षता, बहुवाद और समानता पर आधारित है। परंतु यह दुःखद है कि संवैधानिक पदों पर विराजमान जनप्रतिनिधि, धर्म का इस्तेमाल लोगों को बांटने और समाज का ध्रुवीकरण करने के लिए कर रहे हैं।

चुनाव और मत देने का अधिकार, नागरिकों का वह हथियार है जिसका प्रयोग वे अपने नागरिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकारों को हासिल करने और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए करते हैं। अगर चुनाव में पहचान और धर्म की राजनीति हावी हो जाएगी तो यह हमारे धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र के लिए एक बड़ा खतरा होगी। अगर चुनाव के पहले समाज को धु्रवीकृत कर दिया जाएगा तो लोग सबसे अच्छे उम्मीदवार को नहीं चुन सकेंगे। इस बात की आवश्यकता है कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम और उच्चतम न्यायालय के उक्त निर्णय के प्रकाश में, धर्म के नाम पर वोट मांगने और समाज को ध्रुवीकृत करने के प्रयासों का कड़ाई से विरोध किया जाए।


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लेखक के बारे में

नेहा दाभाड़े

नेहा दाभाड़े विधि स्नातक और टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल सांईसेस से एमएसडब्ल्यू हैं। वे मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और वर्तमान में सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म, मुंबई में उपनिदेशक हैं

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