14 अप्रैल को देश बीआर आंबेडकर की जयंती मनाएगा। अपने शुरूआती जीवन में वे अछूत प्रथा के शिकार बने और उन्हें मूलभूत मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया। इसके बाद भी वे एक महान न्यायविद, संविधान निर्माता और सबसे आगे बढ़कर भारत की एकता के प्रतिबद्ध रक्षक के रूप में उभरे। पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन के शब्दों में वे एक ‘करूणामय विद्रोही’ थे।
जैसे-जैसे समय गुज़र रहा है, आंबेडकर के विचारों और सिद्धांतों की स्थायी प्रासंगिकता और भारतीय राष्ट्र के निर्माण में उनकी महती भूमिका सामने आ रही है। वे संवैधानिक नैतिकता पर ज़ोर देते थे। उनकी विचारधारा, सामाजिक असमानता को चुनौती देती थी और दमितों के प्रति सहानुभूति पर उनका बहुत ज़ोर था। वे चाहते थे कि नया उभरता भारतीय राष्ट्र समानता और सभी के लिए समान अवसरों की उपलब्धता की मज़बूत नींव पर खड़ा हो। यदि आंबेडकर भारत के एक अत्यंत प्रभावशाली नेता बन सके तो उसका कारण यह था कि भारत के सामाजिक और आर्थिक यथार्थ की उन्हें गहरी समझ थी और वे इसका समालोचनात्मक मूल्यांकन कर सके। उन्हें सबसे ज्यादा शोषित और दमित वर्गों की बदहाली के कारणों का अहसास था। वे शिक्षा, संगठन और आंदोलन के ज़रिए इन वर्गों को सशक्त और उन्नत बनाने के पैरोकार थे। वे राष्ट्र का निर्माण नीचे से ऊपर की ओर करना चाहते थे और उनके विचार तब तक प्रासंगिक बने रहेंगे, जब तक कि समाज के कमज़ोर तबकों की समस्याओं और मुद्दों पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता।
भारत की स्वतंत्रता अपने साथ कई त्रासदियां लेकर आई। स्वतंत्रता के साथ हुआ देश का विभाजन। भारत और पाकिस्तान अलग-अलग राष्ट्र बने और लाखों लोग रातोंरात विस्थापित और शरणार्थी बन गए। देश के पश्चिमी और पूर्वी हिस्सों में भयावह सांप्रदायिक हिंसा हुई जिसमें हज़ारों लोगों की जानें गईं। इस हिंसा का चरम था नाथूराम गोडसे के हाथों गांधीजी की हत्या।
एक ऐसे समय में जब भारत का अस्तित्व ही खतरे में हो, आंबेडकर के कंधों पर देश का संविधान बनाने की ऐतिहासिक और अत्यंत कठिन ज़िम्मेदारी थी। जिस समय कई लोग यह संदेह व्यक्त कर रहे थे कि भारत एक राष्ट्र रह भी सकेगा या नहीं, उस समय उन्होंने दुर्लभ परिपक्वता, बुद्धिमत्ता और उदारता का परिचय देते हुए संविधान का निर्माण आम सहमति के आधार पर किया। इसी संविधान के कारण हम आज एकाधिकारवादी या धर्म-आधारित राज्य की बजाए एक प्रजातंत्र हैं। यदि भारत आज प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता की मज़बूत नींव पर खड़ा और सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित गणतंत्र है तो इसका श्रेय काफी हद तक डा. आंबेडकर को जाना चाहिए। उन्होंने परस्पर विरोधी मतों में सामंजस्य स्थापित किया और दूसरों के विचारों को समुचित महत्व देकर संविधान का निर्माण किया। हमें आंबेडकर का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और समाजवाद को भारतीय प्रजातांत्रिक गणराज्य के मूलभूत लक्ष्यों में शामिल किया।
20वीं सदी के उत्तरार्ध में कई अध्येता आंबेडकर और गांधी का तुलनात्मक अध्ययन करने में व्यस्त रहे। देश के कई प्रतिभाशाली विद्वानों ने गांधी और आंबेडकर को एक दूसरे का कटु विरोधी बताया। यह तुलना जारी रह सकती है परंतु आंबेडकर की 126वीं जयंती पर हमें यह समझना होगा कि गांधी और आंबेडकर की दृष्टि साझा थी। भारतीय समाज के समक्ष प्रस्तुत चुनौतियों से मुकाबला करने के लिए हमें आंबेडकर की विश्वदृष्टि का इस्तेमाल करना होगा।
उदाहरण के लिए, आंबेडकर और नेहरू को समझना आज पहले से कहीं अधिक आवश्यक हो गया है। धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और प्रजातंत्र के मुद्दों पर हाल में कई विवाद उठ खड़े हुए हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि आंबेडकर और नेहरू के विचारों की समानताओं को सामने लाया जाए। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आंबेडकर, भारत में धर्मनिरपेक्षता के संस्थापक थे। उन्होंने हिन्दू धर्म के सामाजिक पदक्रम को चुनौती देने के लिए बौद्ध धर्म का इस्तेमाल किया। उनका यह मानना था कि ज्ञान, करूणा और समानता पर आधारित बौद्ध धर्म, दमितों की मुक्ति का साधन बन सकता है। वे आधुनिक भारतीय संदर्भों में बौद्ध धर्म, प्रजातंत्र और समाजवाद का समिश्रण करना चाहते थे। नेहरू एक प्रतिबद्ध प्रजातांत्रिक समाजवादी थे। इन शब्दों के इस्तेमाल की आलोचना की जा सकती है परंतु कोई इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकता कि प्रजातांत्रिक समाजवाद ने आधुनिक भारत के निर्माण में अत्यंत सकारात्मक भूमिका निभाई। इस संदर्भ में हमें यह अध्ययन करना चाहिए कि नेहरू और आंबेडकर की प्रजातांत्रिक समाजवाद की अवधारणा के विकास में क्या भूमिका थी। हम बिना किसी संकोच के आंबेडकर को समाजवाद की एक ऐसी अवधारणा का जनक कह सकते हैं जो अधिक प्रजातांत्रिक और सबको साथ लेकर चलने वाली थी और जो समाज के सबसे निचले वर्गों की उन्नति की राह प्रशस्त करती थी।
नेहरू और आंबेडकर के विचारों की समानताओं को समझना, हाशिए पर पड़े वर्गों को प्रजातांत्रिक समाजवाद के सिद्धांतों से लाभांवित करने के लिए ज़रूरी है।
बुद्ध और मार्क्स अलग-अलग युगों के व्यक्ति थे। परंतु आंबेडकर यह जानते थे कि भारत जैसे जटिल समाज में समाजवाद की स्थापना के लिए इन दोनों के विचारों की प्रासंगिकता है। ज़ाहिर है कि आंबेडकरवादियों और मार्क्सवादियों का राष्ट्र निर्माण के लिए एक मंच पर आना न केवल संभव वरन वांछनीय भी है।
आंबेडकर और भगत सिंह के विचारों के मेल से हम आंबेडकर के दमित वर्गों की मुक्ति के अभियान को अधिक क्रांतिकारी और आमूल परिवर्तनवादी बना सकते हैं।
कुछ लोग आंबेडकर और भगत सिंह में कोई भी समानता होने से इंकार कर सकते हैं परंतु हमें यह समझना होगा कि ये दोनों करोड़ों किसानों और श्रमजीवियों की चेतना का हिस्सा हैं।
आंबेडकर ने औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का समग्र मूल्यांकन किया। इसमें ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल व ब्रिटिश सरकार के सीधे शासन-दोनों दौर की अर्थव्यवस्था शामिल है। इस मूल्यांकन से आंबेडकर ने हमें यह सिखाया कि इतिहास को किस तरह से हाशिए के लोगों के परिप्रेक्ष्य से देखा जा सकता है। जिस समय आंबेडकर ने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया, उस समय कुछ पश्चिमी अध्येता और हिन्दू राष्ट्रवादी, संस्कृत, ब्राह्मणवाद और आर्य सिद्धांतों के आधार पर एक आधुनिक हिन्दू धर्म का निर्माण कर रहे थे। हिन्दू धर्म के संदर्भ में आंबेडकर की सोच अधिक समाजशास्त्रीय और वैज्ञानिक थी। उन्होंने हिन्दू कोड बिल तैयार किया जो महिलाओं की समानता और उनके सशक्तिकरण का एक मज़बूत उपकरण था। इससे यह स्पष्ट है कि वे उन वर्गों के प्रति विशेष चिंता रखते थे जो पितृसत्तात्मक सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के शिकार थ। दुर्भाग्यवश, जनसंघ और आरएसएस ने हिन्दू कोड बिल का विरोध किया।
आबंडकर का कहना था कि अगर जाति व्यवस्था नष्ट हो जाए तो अछूत प्रथा अपने आप समाप्त हो जाएगी। उनका ‘एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट’ सामाजिक समानता का घोषणापत्र है।
उन्होंने भारत में जातिगत और लैंगिक भेदभाव के परस्पर रिश्तों को उजागर किया और कानून द्वारा महिलाओं के सशक्तिकरण के एक नए युग का सूत्रपात किया। उन्होंने भारतीय संदर्भों में जाति और वर्ग के मुद्दों पर जिस बहस की शुरूआत की वह आज भी महत्वपूर्ण है।
स्वतंत्र भारत की उनकी अवधारणा सर्वाधिक क्रांतिकारी थी क्योंकि वह जाति के उन्मूलन पर आधारित थी, जो आर्थिक समाजवाद से अधिक आधारभूत है।
आंबेडकर संवैधानिक प्रजातंत्र के जबरदस्त हामी थे और उनका मानना था कि संवैधानिक तरीकों से सामाजिक बदलाव लाया जा सकता है।
यह लेख ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ के दिनांक 14 अप्रैल, 2015 के संस्करण में प्रकाशित लेख का अद्यतन संस्करण है।
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