अशांत असंख्य लहर लिए
उमड़-घुमड़ रहा है समंदर
उस समंदर के बीच
स्थिर खड़ा है एक द्वीप।
देखती हूं आकाश में उड़ रहे पंछियों को
और दूर-दूर देश जाते जहाजों को
समा जाती हैं असंख्य लहरें मुझमें
मन तरंगित हो उठता है।
अचानक ही घिर जाती हूं
अनंत अपार सघन उदासी से।
यादों में कौंध उठता है
उस द्वीप का एक घना जंगल
मेरा हृदय तपने लगता है।
मानो वैशाख की दोपहर में
सूरज के नीचे खड़ी हूं।
अनंत लहरें जैसे समंदर में
सवाल उठते कई मन में
स्वाधीन देश में
तुम हो कैद में
तुम्हारे लिए नया कानून बना
तुम्हारे साथ मिलना हुआ मना।
क्यों?
जंगल के खूंखार जानवर भी
मिलजुल गए हैं मानव के संग
और अति खूंखार बताए जाते हो तुम
मानव होकर भी।
क्यों?
खाली बदन, सपाट सूरत
खड़े हो जाते हो सड़क किनारे
तुम निकले फर्ज अपना निभाने
लेकिन लोग समझे आए हो रिझाने
अखिर क्यों?
कब तक रहोगे जड़वत स्थिर
अब मानो तुम बात हमारी
प्रकट करो ध्वनियां अपनी सारी
प्रतिध्वनित होगी धरती भी।
तुम हो जारवा तो हम हैं संताली
दोनों का परिचय एक है आदिवासी
तुम भी छीनो अपना हक-अधिकार
तुम भी आदिवासी हम भी आदिवासी
सिनगी, सिदो, बिरसा के उत्तराधिकारी
(फारवर्ड प्रेस, बहुजन साहित्य वार्षिक, मई 2014 अंक में प्रकाशित)
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