अंबेडकर ने अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय (1913—1916) में पढ़ाई की और वह जॉन ड्यूई से बहुत प्रभावित थे जो उस समय कोलंबिया में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर और देश के सबसे जाने-माने जन बुद्धिजीवी थे। अंबेडकर ने ड्यूई के लेक्चर सुने, उनकी किताबें पढ़ीं और उनके विचारों को अपने साथ वापिस ले आए। भारत में अंबेडकर ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ कई सालों तक सविनय अवज्ञा अभियान चलाया। महात्मा गाँधी की दंभी कृपा से भरपूर सुधारों से जूझे। और फिर इस सबके बाद अपने साथ के लगभग दस लाख अछूतों के साथ उन्होंने सार्वजनिक रूप से हिंदू धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म में धर्मांतरण कर लिया।
आधुनिक विज्ञान के प्रति अपने रवैये और मनोदशा के मामले में अंबेडकर ने ड्यूई का अनुसरण किया क्योंकि उसी में वह संभावना निहित थी जिसके द्वारा केवल प्रमाणों (जो उन्हें इकट्ठा करने के हर संभव प्रयास के बाद मिलते हैं) के आधार पर पड़ताल करने,जाँचने, विभेद करने और निष्कर्ष निकालने की एक सामूहिक, प्रजातांत्रिक इच्छाशक्ति को विकसित करने के द्वारा अनजाँची परंपराओं और पूर्वाग्रहों को चुनौती दी जा सकती थी। विज्ञान में ही यह संभावना है कि सभी विचारों को परिकल्पना माना जाए तथा उन्हें उनके परिणामों के आधार पर जाँचा जाए। यह विश्वास करने में भी अंबेडकर ने ड्यूई का ही अनुसरण किया कि आधुनिक वैज्ञानिक थ्योरियों का विषयवस्तु यह माँग करता है कि सभी लोग उसे तर्क के आधार पर स्वीकार करें, सार्वभौमिक रूप से, क्योंकि यह थ्योरियाँ वैज्ञानिक रवैये के सर्वाधिक सुव्यवस्थित चलनों से उपजती हैं। उनका मानना था कि आधुनिक विज्ञान के साथ एक नए प्रकार के ज्ञान की उत्पत्ति हुई है जो ज्ञान की धर्मशास्त्राधारित, आध्यात्मिक और लोकातीत बुनियादों की जगह ले सकता है।
ड्यूई ही की तरह अंबेडकर विश्वास करते थे कि बुद्धिजीवियों के सामने सबसे महत्त्वपूर्ण काम यह है कि विज्ञान के भाव और विषयवस्तु के संदर्भ में विरासत में मिले सांस्कृतिक मूल्यों और सामाजिक नैतिकता का पुनर्निर्माण किया जाए। कर्तव्य साधन के लिए इस्तेमाल किए जाने के अलावा विज्ञान की आध्यात्मिक और नैतिक प्रासंगिकताएँ भी हैं।
बुद्ध को समझने के लिए भी अंबेडकर ने ड्यूई की वैज्ञानिक मनोदशा के प्रति अपनी कटिबद्धता को आधार बनाया। अंबेडकर ने बुद्ध को एक ड्यूई-समान व्यवारिकतावादी और यथास्थिति के वैज्ञानिक आलोचक के रूप में समझा। अंबेडकर ने ड्यूई के इस आह्वान को कि वैज्ञानिक पड़ताल की रोशनी में दर्शनशास्त्र और समाज का पुननिर्माण करना होगा को बुद्ध के जीवन का केंद्रीय संदेश बना दिया। इसका एक अच्छा कारण था क्योंकि आखिरकार बुद्ध भी अपने समय में ब्राह्मण पुरोहितों के रहस्यवादी आदर्शवाद के विरोधी थे। ड्यूई के विचारों ने अंबेडकर की मदद की कि वे सिद्धार्थ गौतम के ऐतिहासिक विद्रोह को भारत में ‘समानता, स्वतंत्रता तथा बंधुता’ के एक नागरिक धर्म की अपनी खोज के लिए प्रासंगिक बना सकें। ऐसा नहीं कि ड्यूई अंबेडकर की एक मात्र प्रेरणा थे — उनके अपने प्रदेश में 19वीं सदी के मजबूत जातिविरोधी आंदोलनों ने उनपर महत्त्वपूर्ण असर डाला तथा साथ ही कई शास्त्रविरोधी, वैदिक धर्म विरोधी, भौतिक संप्रदायों तथा शाखाओं ने भी जो हमेशा से हिंदू धर्म के हाशिए पर मौजूद रही थीं। लेकिन ड्यूई और उनके सामान्य अमेरिकी अनुभव ने अंबेडकर के लिए एक ऐसे सेतु का काम किया जिसने विरोध की पुरानी दलित परंपराओं और उनके आत्मचेतन उदार और सेकुलर विश्वदृष्टि को साथ जोड़ा। बुद्ध के संदेश में वैज्ञानिक मनोदशा को केंद्रीय महत्त्व देने के द्वारा अंबेडकर ने दलित नव-बौद्धों के लिए सुव्यवस्थित पड़ताल के लिए सम्मान को भी उनके धार्मिक कर्तव्यों का हिस्सा बना दिया।
हालाँकि चीनी ज्ञानोदय, मई 4 आंदोलन, पर ड्यूई के प्रभाव का अच्छा-खासा लेखा-जोखा मौजूद है जैसा कि आज के चीन पर उनके जारी प्रभाव का भी, लेकिन अधूरे भारतीय ज्ञानोदय के साथ उनके परोक्ष संबंध के बारे में दलित शोधकर्ताओं और भारतीय सामाजिक आंदोलनों के विद्यार्थियों के छोटे-से दायरे के बाहर बहुत कम लोग जानते हैं। दुर्भाग्यवश, ये शोधकर्ता भी अंबेडकर के अमेरिकी अनुभव तथा ड्यूई के लिए उनके आदरभाव को सिर्फ उनकी जीवनी की एक तफसील ही मानते है मानो उसका कोई बड़ा महत्त्व नहीं हो। अंबेडकर के अमेरिकी अनुभव की सबसे अधिक पड़ताल दलित आंदोलनों की अमेरिकी शोधकर्ता एलियनॉर जेलियट ने की है। लेकिन वह भी उसे खास महत्त्व नहीं देतीं: ”अंबेडकर पर अमेरिकी प्रभाव का कोई खास महत्त्व नहीं है। इस बात की संभावना अधिक है कि अमेरिका में उन प्रारंभिक सालों में उनके स्वभाविक झुकावों और दिलचस्पियों ने विकास के लिए अच्छी जमीन पाई … और जिसने उन्हें उनके लोगों के लिए आदर और समानता के जीवन के लिए लंबी लड़ाई लडऩ की ताकत दी।’’ बात चाहे अंबेडकर की सोच की हो या भारत में धर्मनिरपेक्षता तथा समसामयिक संघर्षों के लिए उनकी किसी भी संभावित प्रासंगिकता की, ड्यूई के दार्शनिक विचारों के रचनात्मक प्रभाव का बहुत ही कम मूल्यांकन किया गया है।
अंबेडकर का ‘तूफान में संगीत’
अक्तूबर 14, 1956 का दिन भारत के दलित समुदाय के लिए खास महत्त्व रखता है। उस दिन भीमराव अंबेडकर ने सार्वजनिक रूप से हिंदू धर्म का त्याग किया और बौद्ध धर्म में धर्मांतरण किया। कुछ ही समय बाद अंबेडकर की मृत्यु हो गई। कहा जाता कि इस धरती पर उन्होंने अपने आखिर के घंटों में अपनी पुस्तक बुद्ध और उनका धम्म को अंतिम रूप देते हुए गुजारे। यह पुस्तक भारत में नव बौद्धों द्वारा एक पवित्र ग्रंथ के रूप में स्वीकार की गई है।
अंबेडकर का बौद्ध धर्म कि ओर मुडऩा विश्वास के लिए एक लंबी खोज के बाद हुआ। उन्हें ऐसे धर्म की खोज थी जिसमें उनकी रुहानियत का लंगर ऐसी विश्वदृष्टि में स्थिर हो जो उनके समुदाय के लोगों की मानवीयता का हृास न करे। एक पुनर्निर्मित बौद्ध धर्म कि ओर मुडऩे का मतलब था आध्यात्मवाद और ब्रह्माण्डोत्पत्ति संबंधी उस चमकीली परत को नाश करना जिससे हिंदू धर्म ने वर्गीकरण और स्वभाविक असमानता के अपने केंद्रीय मूल्यों को ढका हुआ था। उनके अमेरिकी अनुभव ने, ड्यूईवादी वैज्ञानिक मनोदशा तथा उनसे पहले हुए दूसरे जातिविरोधी विद्रोहियों के संघर्षों ने अंबेडकर को बुद्ध कि ओर अग्रसर किया।
अंबेडकर ने कोलंबिया में तीन साल बिताए जहाँ उन्होंने अर्थशास्त्र में पीएचडी की। ऐसा लगता है कि उन्होंने वहाँ कोलंबिया के जितने भी सर्वोच्च प्रोफेसर थे उनके पाठयक्रमों का अध्ययन किया, उनका क्षेत्र चाहे कुछ भी रहा हो। इनमें ड्यूई, एडविन सेलिगमेन, जेम्स हार्वी, रॉबिनसन तथा अलेक्जैंडर गोल्डनवीजर शामिल थे जिन्होंने उन्हें एक आशावादी, वृहद तथा व्यवहारिकतावादी ज्ञान के भंडार से परिचित करवाया। लेकिन ऐसा लगता है कि अगर कोई अंबेडकर के गुरु बनने के सबसे करीब थे तो वह ड्यूई थे। उन्होंने ने केवल उनके विचारों का जीवन भर अनुसरण किया, बल्कि उनकी पत्नी सविता अंबेडकर के अनुसार वह ”बड़े खुश होकर क्लास में पढ़ाते हुए जॉन ड्यूई के हाव-भाव की नकल करते थे — उनकी क्लास में बैठने के तीस साल बाद।’’ हालाँकि यह ज्ञात नहीं कि क्या ड्यूई को इस बात की जानकारी थी कि उनका अंबेडकर पर क्या प्रभाव पड़ा है और उनके द्वारा दूर-दराज के लाखों अजनबियों पर। जितना मैं जान पाई हैं, उन दोनों का आपस में कोई सीधा संपर्क नहीं था, हालाँकि इस बात का कुछ प्रमाण है कि ड्यूई भारत में उपनिवेश विरोधी संघर्ष में छिटपुट दिलचस्पी लिया करते थे। कोलंबिया में बिताए सालों के बाद, अंबेडकर ने लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स से डीएससी की डिग्री प्राप्त की और फिर इम्तिहान पास किया, और फिर 1923 में हमेशा के लिए भारत आ गए।
वापिस आने के एक दशक से भी अधिक समय तक अंबेडकर इस बात के प्रति आशान्वित थे कि राजनैतिक और आर्थिक बदलावों — मसलन, शिक्षा, वोट का अधिकार, आदि — के द्वारा निम्न जातियाँ राष्ट्रीय मुख्यधारा में जुड़ जाएँगी। दूसरे शब्दों में कहें तो अंबेडकर ने अपनी शुरुआत धार्मिक प्रश्न से नहीं की थी। वामपंथ कि ओर झुकाव रखने वाले अपने समय के बाकी समाज सुधारकों की तरह अंबेडकर ने ढाँचागत सुधारों को प्राथमिकता दी और उम्मीद की कि धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्र अपने-आप बदलेंगे। लेकिन अछूतों के घोर संघर्षों, जैसे कि उनके अलग-अलग पानी के तालाबों से पानी पीने का मामला (महाड में प्रसिद्ध सविनय अवज्ञा अभियान), अबतक उनके लिए वर्जित हिंदू मंदिरों में प्रवेश का अधिकार (पुणे और नासिक के मंदिर प्रवेश आंदोलन), और दलितों के लिए अलग निर्वाचन अधिकारों के सवाल पर महात्मा गाँधी के साथ उनकी कटु बहस (1932 का प्रसिद्ध पूना पैक्ट जिसमें गाँधी विजयी हुए), इन सबने इस बात का एहसास करवाया कि अछूतों का आगे बढऩा तबतक नामुमकिन है जबतक कि पहले हिंदू धर्म केंद्रीय मूल्यों में बदलाव न लाया जा सके। साल 1935 कर हिंदू धर्म के त्याग की घोषणा की। कथित रूप से उन्होंने महात्मा गाँधी को कहा कि ”मैं हिंदू पैदा हुआ था, लेकिन मैं हिंदू मरूँगा नहीं।’’ इस मोहभंग के साथ उनकी उस नए विश्वास के लिए गंभीर खोज शुरू हो गई जिसमें उनके ‘समानता, स्वतंत्रता और बंधुता’ के मूल्यों को आधार बनाया जा सके। अपनी गहरी धार्मिक मनोदशा के चलते अंबेडकर धर्म कि ओर पीठ नहीं मोड़ सके जैसा कि दक्षिण भारत में पेरियार के गैर-ब्राह्मण, आत्मसम्मान आंदोलन ने किया था, और जिसकी सिफारिश अधिकांश मार्क्सवादी कर रहे थे। अंबेडकर की खोज बीस साल बाद खत्म हुई जब उन्होंने बौद्ध धर्म में धर्मांतरण किया।
अंबेडकर भारत में धार्मिक तर्क के (यूरोपीयाई) ज्ञानोदय प्रकार की आलोचना का मामला तय कर रहे थे। उन्होंने जाहिर तौर पर और बार-बार फ्रांसिसी क्रांति के आदर्शों ‘समानता, स्वतंत्रता और बंधुता’ का भारत के प्रजातांत्रिक आंदोलनों के लिए उपयुक्त आदर्शो के रूप में आह्वान किया। इसके अलावा, फ्रांसिसी ज्ञानोदय के बुद्धिजीवियों की ही तरह अंबेडकर ने पुराने मूल्यों की सतत समीक्षा और क्रांति के लिए वैज्ञानिक तर्क को नए मानक के तौर पर प्राथमिकता देने का प्रयास किया। गैलीलियो, न्यूटन और डार्विन के आधुनिक विज्ञान के सत्यवर्धक मूल्यों और पद्धतियों के प्रति अपनी पसंद को लेकर अंबेडकर एकदम स्पष्ट थे। अंबेडकर के अनुसार वे बुद्ध तथा प्राचीन वैदिक धर्म विरोधी भौतिकवादियों और संशयवादियों की शिक्षाओं से पूरी तरह मेल खाते थे।
सब क्रांतिकारियों के सामने एक सदा बना रहने वाले प्रश्न कि ‘क्या किया जाना चाहिए?’ का उत्तर अंबेडकर ने यह साहसपूर्ण आह्वान करते हुए दिया कि उस विश्वदृष्टि का जो जाति की अनुमति देती है और उसे सही ठहराती है उसका नाश किया जाना चाहिए। यह काम पूरा करने के लिए उन्होंने ड्यूईवादी बुद्ध का निर्माण किया।
अंबेडकर के ड्यूईवादी बुद्ध
अंबेडकर के बुद्ध सिखाते हैं कि तथ्यों और मूल्यों के बीच के फासले को कैसे पाटा जाए अर्थात् इन दो बातों के बीच कि हम जिस दुनिया में रहते हैं उसके बारे में हम क्या जानते हैं और हम अपने साथी मनुष्यों के साथ कैसा बरताव करते हैं। बुद्ध की एक शिक्षा जिसका उल्लेख अंबेडकर के भाषणों, साक्षात्कारों और लेखों में बार-बार आता है वह यह है कि बुद्ध प्रज्ञा (अंधविश्वास की बजाय बुद्धि तथा अलौकिक की बजाय लौकिक), करुणा और समता में एक रिश्ता कायम करते हैं। इन तीनों में प्रज्ञा का स्थान केंद्रीय है। उसके बिना बाकी दोनों डगमगा सकती हैं। इस तरह अंबेडकर के बुद्ध सिखाते हैं कि ‘सब भावावेश और सब सद्गुणों का रास्ता प्रज्ञा से होते हुए जाना चाहिए … क्योंकि बुद्धि के बिना, उदारता हमें निरुत्साहित कर सकती है तथा प्रेम बुराई का समर्थन कर सकता है’। खास ड्यूईवादी शब्दों में कहें तो अंबेडकर ने बुद्ध को वैज्ञानिक मूल्यों के नबी के रूप में देखा जिन्हें अगर जड़ पकडऩे दी जाए तो वे एक ऐसी नागरिक संस्कृति का निर्माण करेंगे जो ‘स्वतंत्रता, समता और बंधुता के’ बुनियादी मूल्यों का आदर करेगी।
जिस प्रकार से अंबेडकर प्रज्ञा कि व्याख्या करते हैं और उसे प्रजातांत्रिक बदलाव में केंद्रीय स्थान देते है वहाँ ड्यूई की उपस्थिति सबसे अधिक महसूस की जा सकती है, और यहीं अंबेडकर ”वैकल्पिक ज्ञानमिमांसा’’ के सभी समसामयिक समर्थकों से एकदम अलग नजर आते हैं। अपनी पुस्तक जाति का विनाश, जो उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण बुद्ध और उनका धम्म के 20 साल पहले लिखी गई थी, में अंबेडकर पहले ही साफतौर पर प्रोफेसर ड्यूई को स्मरण कर चुके थे ”जो मेरे शिक्षक थे और जिनका मैं बहुत ऋणी हूं,’’ जिसमें उन्होंने विचारात्मक सोच के द्वारा ”धारणाओं में परिवर्तन’’ की अपनी परियोजना को परिभाषित किया।
संक्षेप में, जाति के विनाश में अंबेडकर अपने साथी भारतीयों को उत्साहित करते हैं कि वे परम सत्य या अस्तित्व के निर्विवाद और अपरिवर्तनीय ज्ञान की खोज को त्याग दें अर्थात् ऐसा ज्ञान जिसे ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म आदर्श बनाए हुए था। ऐसे शब्दों में जिनमें ड्यूई की प्रतिध्वनि साफ-साफ सुनाई देती है, अंबेडकर ज्ञान का एक नया आदर्श प्रस्तुत करते हैं। ऐसा आदर्श जो बदलाव को स्वीकार करता है और हर उस बात की जिसे स्थाई मान लिया गया है उसकी निरंतर समीक्षा करता है।
अंबेडकर का मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन का आह्वान ड्यूई के दो लंबे उद्घरणों पर आधारित है (स्रोतों का उल्लेख किए बिना) जिसके अनुसार हमारा फर्ज है कि ”हम अतीत की सारी की सारी उपलब्धियों को संरक्षित और आगे हस्तांतरित न करें लेकिन केवल उतने ही को जो भविष्य में बेहतर समाज के निर्माण में सहायक हो’’ और यह कि हमें ”अतीत को वर्तमान का प्रतिद्वंद्वी’’ नहीं बनाना है, ”और वर्तमान कमोबेश अतीत की सीमा ही है’’। दमित ज्ञानमिमांसाओं से इसका अंतर साफ है: विरासत में मिले मूल्यों को आलोचनात्मक दृष्टि से जाँचना है, न कि उन्हें बेहतर सत्यों के रूप में ‘विशेषाधिकार’ देने हैं।
विचारात्मक सोच, जिसे अंबेडकर ड्यूई के ढंग से समझते हैं, ही सनातन के तिलिस्म को तोड़ेगी। वह कहते हैं कि हमारा अधिकांश जीवन बिना विचारे तथा आदतानुसार जीया जाता है। केवल ऐसी कोई स्थिति जो हमारे सामने दुविधा लाती है वही हमें मजबूर करती है कि हम अपनी आदतों पर और जो दार्शनिक धारणाएँ उन आदतों को समर्थन देती हैं उनके बारे में पुनर्विचार करें।
वैज्ञानिक ज्ञान और सामाजिक मूल्यों के वर्गीकरण के अंबेडकर के पंसदीदा समाधान पर ड्यूईवादी सोच की मुहर नजर आती है। उनका समाधान कहता है कि विज्ञान के उपयोगिता संबंधी और नैतिक आशयों के बीच जो दीवार है उसे तोड़ दिया जाए। अंबेडकर भारतीय समाज में प्राकृतिक नियमों को समझने और आस्थाओं का निर्धारण करने के प्राथमिक साधन के रूप में उसी वैज्ञानिक क्रांति को इस्तेमाल करने की हिमायत करते हैं जिसके द्वारा बैलगाड़ी की जगह रेलगाड़ी ने ले ली। वह इस बात का समर्थन करते हैं कि तथ्यों के पुष्टिकरण के लिए नए सिद्धांतों को विकसित किया जाए और फिर उन सिद्धांतों को यह जानने के लिए भी इस्तेमाल किया जाए कि क्या प्राकृतिक और सामाजिक व्यवस्था के बारे में पारंपरिक तथ्य वांछित हैं या नहीं। उन्होंने धम्म में यही किया जब उन्होंने पारंपरिक हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान पर सवाल उठाया जो कर्म — अर्थात् अच्छे और बुरे कामों का ऐसा कुल जोड़ जो अमर आत्मा का अलग-अलग जन्मों में मार्गदर्शन करता है — को सृष्टि का नियम मानता है।
दरअसल, कुछ पारंपरिक बौद्ध अंबेडकरवादी बौद्ध धर्म को ईशनिंदा मानते हैं क्योंकि वह कर्म और पुनर्जन्म के विचारों को खारिज करता है, जिन्हें मुख्यधारा के बौद्ध स्वीकार करते हैं। लेकिन यह तर्क दिया जा सकता है कि अंबेडकर ने बुद्ध के आदेश — किसी भी बात को अचूक और शाश्वत न मानो — को बुद्ध ही की बातों पर लागू किया है और समकालीन विश्व के लिए उनकी पुनव्र्याख्या की है। लेकिन ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म के खिलाफ बुद्ध के ऐतिहासिक विद्रोह को समसामयिक बनाते हुए अंबेडकर मूल ग्रंथों के शब्दों और भावों के प्रति विश्वासयोग्य बने रहे।
आइए अब बुद्ध की शिक्षाओं के सबसे केंद्रीय विचार अर्थात् प्रजा (बुद्धि, समझ) पर गौर करें। अंबेडकर के अनुसार बुद्ध ने साधारण स्त्री-पुरुषों को, चाहे वे किसी भी अवस्था में हों, अनुमति दी कि उन्हें वेदों और उपनिषदों में लिखित विद्वान ब्राह्मणों के अधिकार के बजाय खुद अपने अनुभव पर भरोसा करना चाहिए। लेकिन साथ ही बुद्ध ने उन्हें इस बात के प्रति भी उत्साहित किया कि उन्हें कभी अपने खुद के अनुभव को भी अचूक नहीं समझना चाहिए कि उसकी समीक्षा करने की आवश्यकता नहीं। वेदों और उपनिषदों के अपरिवर्तनीय ब्रह्मांडीय अनुक्रम के विपरीत बुद्ध ने सिखाया की हर चीज हर समय बदल रही है और कोई ऐसा निरंतर तथा अखंड स्व नहीं है जो किसी अपरिवर्तनीय वास्तविकता का अनुभव कर रहा है। स्थाईत्व के विचार से चिपटे रहना ही दु:ख का कारण है, जबकि निरंतर बदलती वास्तविकता पर ‘सचेत मनन’ करना दु:ख को वश में करने और उससे स्वतंत्र होने का रास्ता है। अंबेडकर के लिए सचेत होने का अर्थ है कि ”जब भी पुनर्जांच और पुनर्समीक्षा के हालात बनें तो हर बात पुनर्जांच और पुनर्समीक्षा के लिए खुली हो’’ पुनर्जांच जिसमें तर्क और प्रमाण शामिल हों और जो विचारों की स्वतंत्रता के भाव के साथ की जाए अपने आप ऐसा बदलाव लाएगी जिसे जाँचकत्र्ता मूल्यवान पाएगा : परम वास्तविकता का निर्विवाद ज्ञान नहीं बल्कि यहाँ और अब का भरोसे लायक ज्ञान। ज्ञानोदय के लिए, बुद्ध (ड्यूई के समान) एक पद्धति प्रदान करते हैं कोई सिद्धांत नहीं।
जैसा कि ड्यूई की पुस्तक ‘अ कॉमन फेथ’ मे देखने को मिलता है, अंबेडकर धार्मिक भाव (सिंद्धातों का धर्म) को उसके संस्थागत बंधनों (नियमों का धर्म) से अलग करने की कोशिश कर रहे थे। प्रज्ञा के द्वारा वे कह सकते हैं कि मन का साफ करना ही धर्म का सार है। सच्चा धार्मिक भाव केवल यही है कि सचेत रूप से कार्य किया जाए, जागरूक होकर तथा जिम्मेवारी से और पहले से ही दे दिए गए नियमों का पालन करते हुए नहीं। ऐसा लगता है कि वह यह मानते हैं, शायद बहुत आशावादी रीति से, कि एक बार तर्क नई नैतिकता का आधार बन जाएगा तो समता और करुणा अपने आप आ जाएँगी। उनके सामने बुद्ध का उदाहरण था। ब्राह्मणवादी संस्कृति जोकि कुछ चुनिंदा लोगों को ही उपनिषदों के ज्ञान की अनुमति देती थी, उससे क्रांतिकारी रूप से अलग, बुद्ध ने जाति, वर्ग और लिंग का कोई भेदभाव नहीं किया। हर किसी को संघ में सम्मिलित होने के लिए स्वागत था — और हर कोई आया।
अंबेडकर के बुद्ध का महत्त्व
जैसा कि अंबेडकर ने गौर किया, ”अगर भारत का इतिहास बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के घातक संघर्ष के सिवा कुछ नहीं’’ तो सभ्य समाज में ब्राह्मणवाद हावी रहा है, मौजूदा दौर तक। अंबेडकर का बौद्ध धर्म कि ओर मुडऩा इस असंतुलन को सुधारने कि दिशा में एक साहसी कदम था। नया बौद्ध धर्म लेकिन केवल नव-बौद्धों के लिए ही नहीं है। इसका असली महत्त्व इस बात में है कि यह बाकी के भारतीय समाज के सांस्कृतिक सहज ज्ञान को चुनौती देता है। अपने नायक जॉन ड्यूई तथा यूरोपियाई ज्ञानोदय के दार्शनिकों की तरह अंबेडकर की कोशिश थी कि विज्ञान प्रासंगिक बनाया जाए, न केवल टेक्नॉलोजी की दृष्टि से, न ही केवल प्रकृति के बारे मे नए तथ्यों के भंडार के रूप में बल्कि सारे भारतीय समाज के सोचने के ढंग में एक बदलाव लाने की दृष्टि से। वह चाहते थे कि सही और गलत, स्वभाविक और गैर-स्वभाविक, ब्रह्मांड में मनुष्य के स्थान आदि के प्रश्नों के जो उत्तर हम सचेतन या अवचेतन रूप से बिना सोचे स्वीकार कर लेते है उनका पुनर्निर्माण किया जाए। अंबेडकर के नव-बौद्ध धर्म में भारतीय धर्मसुधार और ज्ञानोदय दोनों के बीज निहित थे।
… भारतीय शोधकर्ताओं ने … अंबेडकर द्वारा मौलिक अमेरिकी प्यूरिटन जॉन ड्यूई और मौलिक एशियाई दार्शनिक बुद्ध के सहज संयोजन को पूरी तरह से नजरअंदाज किया है। अंबेडकर के ड्यूईवादी बुद्ध उन मानवीय आकाँक्षाओं की सर्वव्यापकता की गूँजती हुई पुष्टि है जो प्रकृति के सच्चे ज्ञान को मनुष्य की संपन्नता के लिए इस्तेमाल करना चाहती हैं। बुद्ध का जीवन और शिक्षा इस बात की जीती-जागती मिसाल है कि भारत में हमेशा से वर्चस्ववादी परंपराओं के प्रति संशयवादी और आलोचनात्मक तर्कशीलता का एक बचा हुआ भंडार रहा है। और बुद्ध तथा ड्यूई का संयोजन इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि पूर्वाधुनिक संस्कृतियों की संशयवादी परंपराएँ आधुनिक ”पश्चिमी विज्ञान’’ के लक्ष्यों और पद्धतियों से पूरी तरह सुसंगत हैं।
जैसे कि आधुनिक विज्ञान और बुद्ध की शिक्षाओं की उनके सीवनरहित बुनावट से साफ है, अंबेडकर को प्राचीन भारतीय परंपराओं और लोकाचार के प्रकृति तथा तार्किकता को स्वीकार करने वाले पहलुओं के बीच कुछ असंगत नहीं लगा। उनकी दृष्टि में आधुनिक विज्ञान भारत की गैर-पुरोहिती, मेहनतकश जातियों की भुला दी गई भौतिकतावादी और व्यवहारिकतावादी परंपराओं का परिष्कृत एवं विकसित रूप है। उनके ड्यूईवादी बुद्ध मानवीय तर्क और उसके अभी भी अधूरे संभाव्य की एकता के एक प्रतीक थे।
(यह अंश लेखक और प्रकाशक की अनुमति से उनकी पुस्तक ब्रेकिंग द स्पेल ऑफ धर्मा: अ केस फॉर इंडियन एनलाइटनमेंट, द्वितीय संस्करण (थ्री ऐसेज क्लेक्टिव, 2007), पृ. 31-82, में शामिल निबंध ”अ ब्रोकन पीपल डिफेंड साइंस: ड्यूई मीट्स बुद्धा ऑफ इंडियाज दलित्स’’ में से लिए गए हैं।)
(फारवर्ड प्रेस के दिसम्बर, 2010 अंक में प्रकाशित)
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