चाहे हम मानें या न मानें, लेकिन यह तथ्य है कि बहुजन साहित्य की जो अवधारणा आज सामने आई है, उसके मूल में दलित साहित्य है।दलित साहित्य ने जिस मजबूती से साहित्य जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है उससे अन्य दमित वर्गों को भी अपनी पीड़ा को व्यक्तकरने की संभावना दिख रही है। वे भी परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से इस साहित्यिक मुहिम का हिस्सा बनना चाहते हैं। वे दलित साहित्य में दर्ज पीड़ा और विद्रोह को अपना समझते हैं लेकिन इसका हिस्सा नहीं बन सकते।
मैं समझता हूं कि बहुजन साहित्य की उत्पत्ति के दो मुख्य कारण हैं। पहला, ओबीसी को दलित साहित्य में स्थान न मिल पाना और दूसरा, सवर्ण (द्विज) साहित्य में ओबीसी साहित्य की अभिव्यक्ति की संभावना शून्य होना। मैं ओबीसी साहित्य की उपस्थिति का समर्थक हूं लेकिन ये साहित्य दलित साहित्य से किस प्रकार होगा, इस पर गंभीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है।
बहुजन साहित्य का इतिहास
कुछ लोग बहुजन साहित्य का प्रारंभ 600 ईपू. से मानते हैं। वे तंतुवाय परिवार से संबंधित कौत्स को वह व्यक्ति मानते हैं जिन्होंने भौतिक बुद्धिवाद से मिलता-जुलता दर्शन प्रारंभ किया। यह बात अपनी जगह ठीक है। लेकिन वास्तव में बहुजन विचारधारा की शुरुआत बुद्ध से हुई क्योंकि बुद्ध ने ही सर्वप्रथम ‘बहुजन’ शब्द का प्रयोग किया था। इसलिए बुद्ध के सिद्धांत, बहुजन साहित्य के मूलभूत सिद्धांतों में शामिल होने चाहिए। जैसे, वेदों को बकवास मानना, ब्राम्हणी कर्मकांड, यज्ञ आदि में आस्था ना रखना, अनीश्वरवादी होना और जातिप्रथा का विरोध करना। बुद्ध के मानवतावादी सिद्धांतों की एक फेहरिस्त है, जिसे बहुजन साहित्य को आत्मसात करना होगा।जुलाहा जाति में जन्मे कबीर भी दलित साहित्य के प्रवर्तक माने जाते हैं यद्यपि वे ओबीसी वर्ग से ताल्लुक रखते थे। मेरे मत में बहुजन साहित्य के असली निर्माता महात्मा फुले थे जिन्होंने बुद्ध- कबीर की परंपरा को पुनर्जीवित किया। गौरतलब है कि बुद्ध, कबीर और फुले-जो सभी ओबीसी पृष्ठभूमि के थे-दलित साहित्य के मजबूत आधारस्तम्भ है।
वास्तविक ओबीसी कौन हैं?
यह देखकर बहुत दुख होता है कि दलित साहित्य से बहुजन साहित्य के अलग अस्तित्व के पैरोकार कुछ साहित्यकार यह भी नहीं जानते कि ओबीसी कौन हैं। राजेन्द्र प्रसाद सिंह, फारवर्ड प्रेस, मार्च 2012 के अपने लेख में ओबीसी विमर्श (बहुजन साहित्य) पर चर्चा के दौरान भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त तथा महात्मा गांधी को ओबीसी बताकर फूले नहीं समाते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त आदि ने द्विज साहित्य को पुष्ट किया है तथा यह तथ्य भी सर्वविदित है कि महात्मा गांधी ने दलितों के अधिकार के विरुद्ध अनशन किया था और उसी से दलितों की हार के रूप में पूना पैक्ट का जन्म हुआ।
गांधी वास्तव में द्विज समर्थक थे। इसके बावजूद राजेन्द्र प्रसाद सिंह लिखते हैं- शारीरिक श्रम की श्रेष्ठता आजीविकों ने स्वीकारी थी। बुद्ध भी शारीरिक श्रम के पक्ष में थे। कबीर और गांधी भी शारीरिक श्रम की श्रेष्ठता को स्वीकारते हैं। कहने का मतलब यह है कि ओबीसी का कोई भी दार्शनिक, विचारक अथवा चिंतक ऐसा नही है, जिसने श्रम के महत्व को नकारा हो। यहां पर वे गांधी को ओबीसी का दार्शनिक बताते हैं। बहुजन को इस प्रकार गुमराह होने से बचना जरूरी है क्योंकि दलित-बहुजन के दार्शनिक वही होसकते हैं जो मन, वचन और कर्म से दलित बहुजन के हितैषी हों, भले ही वे दलित समुदाय के हों या नहों।
बहुजन अवधारणा का नायक
बहुजन साहित्य आज अपनी शैशव अवस्था में है लेकिन इसके नायक को लेकर आज भी संशय है। जिस प्रकार दलित साहित्य के नायक डॉ. आंबेडकर हैं, उसी प्रकार का एक नायक बहुजन साहित्य को भी चाहिए। पौराणिक चरित्रों को नायक के रूप में स्थापित करने की कोशिश भी हो रही है जैसे बलीराजा, महिषासुर, रावण आदि। फारवर्ड प्रेस के संपादक आयवन कोस्का एक साक्षात्कार के दौरान यह स्वीकार करते हैं कि पौराणिक नायकों को बहुजन ‘नायक’ के रूप में प्रतिस्थापित करना आत्मघाती सिद्ध होगा। अलबत्ता, लोगों का ध्यान आकर्षित करने तथा धार्मिक विरोध दर्ज करने के लिए यह अच्छी रणनीति है। पौराणिक नायकों को महत्व देने का मतलब यह है कि वेद-पुराणों को जाने-अनजाने महत्वपूर्ण बना देना। जब आप इन्हें महत्व देते हैं तो इस वैदिक जाल से निकलने का प्रश्न ही नहीं उठता। इतिहास गवाह है कि लालबेगी (सफाई कामगार) जाति ने 1920 के आस-पास वाल्मीकि को अपना गुरु बना लिया। आज वे अपने आपको चाहकर भी ब्राह्मणवाद की गिरफ़्त से आजाद नहीं कर पा रहे हैं। इसी काल में डोमार, हेला एवं मखियार दलित जातियों ने सुदर्शन को अपना नायक बनाया और उनका भी यही हश्र हुआ। बहुजन साहित्य को इन पौराणिक नायकों की कतई जरूरत नहीं क्योंकि बुद्ध से लेकर कबीर, फुले, चंदापुरी, ललई सिंह, कर्पूरी ठाकुर, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, पेरियार समेत कई दार्शनिक नायक हैं, जिनमें से बहुजन अपना नायक चुन सकते हैं। महात्मा जोतिबा फुले को बहुजन साहित्य के एक बहुत बडे हिस्से में नायक के रूप मे स्वीकृति मिल चुकी है। बहुजन साहित्य की अवधारणा के नामकरण को लेकर भी चर्चा चल रही है। एक ऐसे नाम की आवश्यकता है जिसमें दलित साहित्य, ओबीसी साहित्य, आदिवासी एवं स्त्री साहित्य समाहि हो सकें। स्पष्ट है कि बहुजन का सीधा अर्थ है बहुसंख्यक आबादी। आम भारतीय बहुजन साहित्य को राजनीतिक पार्टी ‘बहुजन समाज पार्टी’ से जोडकर देखता है इसलिए ऐसे साहित्यिक शब्दावली पर विचार किया जाना चाहिए जो सभी साहित्यिक वर्गों को एक में समाहित कर सके। जैसे दलित-बहुजन साहित्य, आंबेडकरवादी साहित्य, फुलेवादी साहित्य आदि। मुझे ‘दलित-बहुजन साहित्शब्दावली इस अवधारणा के लिए उपयुक्त प्रतीत होती है।
(फारवर्ड प्रेस, बहुजन साहित्य वार्षिक, मई, 2014 अंक में प्रकाशित)
Sanjeev ji, what the issue you are raising? OBC or Dalit literture. what’s the difference between the Dalit or OBC? Have you seen any difference? I think the agony of is the same of both of the categories. Today’s OBC is the SHUDRA OF THE PAST. So don’t try to make more division on the name of the obc or bc or most backward castes or dalits. If the intellectual like you don’t know what the underprivileged classes priorities should be at the present time then what we expect from the uneducated class of these sections.