आज प्रशिक्षण लेकर बड़ी संख्या में पत्रकार मीडिया बाजार में उतर रहे हैं। यह ट्रेंड काफी तेजी से बदला है। पिछले लगभग डेढ दशक में बिना डिग्री वालों के लिए पत्रकारिता का रास्ता बंद सा हो गया है। अखबारों में ब्लॉक स्तर पर बिना डिग्री के पत्रकार जरूर मिल जाएंगे या रखे जा रहे हैं, लेकिन मुख्यालयों में कोई भी पत्रकार बिना डिग्री के नहीं मिलेगा। डिग्री की गुणवत्ता या संस्था की विश्वसनीयता पर आप सवाल उठा सकते हैं, लेकिन इसके बिना नौकरी मिलना संभव नहीं है।
अभी हाल ही मैंने अपने साथियों के साथ बिहार में कार्यरत मीडिया संस्थानों की जातीय बनावट को लेकर काम करना शुरू किया। मेरा यह काम अभी काफी प्रारंभिक अवस्था में है। लेकिन इसके जो संकेत मिल रहे हैं, उसके अनुसार मीडिया में अन्य पिछडा वर्ग की नयी पौध बहुत तेजी से आगे आ रही है।
बिहार में इस प्रकार के दो सर्वेक्षण अब तक हो चुके हैं। पहला सर्वेक्षण 2009 में फारवर्ड प्रेस के मौजूदा संपादक प्रमोद रंजन किया था, जबकि दूसरा सर्वेक्षण 2016 में पटना की सबाल्टर्न नाम की संस्था ने किया था। दोनों ही सर्वेक्षणों से यह तथ्य सामने आया था कि पटना में कार्यरत पत्रकारों में पिछडों और दलितों की संख्या काफी कम है। लेकिन ध्यान देने योग्य यह बात है कि ये दोनों ही सर्वेक्षण सिर्फ राजधानी पटना में कार्यरत पत्रकारों तक सीमित थे, जबकि मैँने अपने सर्वेक्षण में राजधानी के अतिरक्त जिला, प्रखंड व अनुमंडल मुख्यालयों में कार्यरत पत्रकारों को भी शामिल किया है। पटना को केंद्र में रख कर किये गये उपरोक्त दोनों सर्वेक्षणों के अतिरिक्त योगेंद्र यादव, अनिल चमडिया व जितेंद्र कुमार ने वर्ष 2006 में दिल्ली में कार्यरत पत्रकारों का सर्वेक्षण किया था। (देखें तालिका – 2)
अब तक हुए इन तीनों सर्वेक्षणों के आंकडे अपनी जगह सही हैं। जो शहर सत्ता के बडे केंद्र हैं, वहां के मीडिया संस्थानों में दलित-पिछडों-आदिवासियों की संख्या प्रायः नगण्य है। लेकिन मैं बिहार के मीडिया संस्थानों का सर्वेक्षण करते हुए महसूस कर रहा हूं कि प्रखंड, अनुमंडल मुख्यालयों में विभिन्न मीडिया संस्थानों के लिए काम कर रहे पत्रकारों में पिछडों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। यहां तक कि राजधानी पटना में भी पिछडे वर्ग के पत्रकारों संख्या में प्रमोद रंजन द्वारा 2009 में किए गए सर्वेक्षण के बाद से उल्लेखनीय इजाफा हुआ है। हां, यह सही है कि “फैसला लेने वालों पदों” पर इनकी संख्या अभी भी नगण्य ही है।
बिहार में पिछले कुछ सालों में अखबार और चैनलों के विस्तार ने रोजगार के अवसर बढ़ाए हैं। अखबारों के अनुमंडलीय संस्करण में प्रखंड स्तरीय रिपोर्टरों की जरूरत बढ़ी है। यही कारण है कि नये जातीय समूहों से रिपोर्टर भी आ रहे हैं। उनमें भी सत्ता की महत्वाकांक्षा है। वे तेजी से आगे बढ़ रहे हैं और मौके की चुनौती को स्वीकार कर रहे हैं। प्रखंड मुख्यालयों में आधिपत्य का सामाजिक ढांचा भी बदला है। आरक्षण ने परंपरागत ढांचे को ध्वस्त कर नया ढांचा खड़ा किया है।
बदलाव की यह धमक प्रखंड से लेकर राजधानी पटना स्थित मीडिया मुख्यालयों में भी देखी जा रही है। 45-50 वर्ष से अधिक उम्र वाले पत्रकारों का जातीय विश्लेषण करने से स्पष्ट होता है कि इस आयु वर्ग में 90 फीसदी से ज्यादा पत्रकार सवर्ण जातियों के हैं। जबकि 25 से 45 आयु वर्ग में सवर्णों की संख्या में घटती जा रही है और पिछड़ी जाति के पत्रकारों की संख्या में इजाफा हो रहा है। इसकी गति कम या ज्यादा हो सकती है, लेकिन ओवरऑल ट्रेंड यही है।
तालिका – 1
बिहार की आबादी (उच्च जाति हिंदू व पिछड़ों की आबादी 1931 की जनगणना के आधार पर अनुमानित) | |
---|---|
उच्च जाति हिंदू | 13% |
ब्राह्मण | 4.7% |
भूमिहार | 2.9% |
राजपूत | 4.2 |
कायस्थ | 1.2% |
पिछड़ी-अतिपिछड़ी जाति (पिछड़ा – 19.5%, अतिपिछड़ा – 32%) | 51.5% |
यादव | 11% |
कुशवाहा | 4.1% |
कुरमी | 3.6% |
अन्य जातियां | - |
दलित | 14.1% |
आदिवासी | 1% |
अशराफ मुसलमान (मुसलमानों की कुल आबादी में अशराफ तबके का हिस्सा 25% है) | 3.37% |
पसमांदा मुसलमान (मुसलमानों की कुल आबादी में पसमांदा तबका 75 फीसदी है। पसमांदा तबके में ओबीसी 70 फीसदी हैं जबकि दलित मुसलमान 5% फीसदी) | 10.13% |
(इस आंकड़े में वे जातियां शामिल नहीं हैं, जिसकी आबादी 1 फीसदी से कम है) |
बिहार की बात करूं तो पिछड़ी जाति के युवा मीडिया में इसलिए आकर्षित हो रहे हैं कि उन्हें मुखिया, प्रमुख, सीओ, बीडीओ से अपनी बात कहने का मौका मिलता है। सवर्ण युवाओं में अब इसकी भूख नहीं रही है। इसलिए वह इससे ऊपर की बात सोचने लगा है। वह खबरनवीसी के आर्थिक पक्ष को देखने लगा है, जो अभी भी काफी दुर्बल है। इस कारण मीडिया से उसका मोहभंग हो रहा है। वह खबर और धंधे को जोड़कर देख रहा है। प्रखंड स्तर पर खबर और धंधे का घालमेल की संभावना कम है, इसलिए वह नया रास्ता चुन रहा है।
अब तक जो आंकड़े उपलब्ध हुए हैं, उनमें पिछड़ों में यादव पत्रकारों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इसके बाद कुशवाहा और कुर्मी की संख्या में इजाफा हो रहा है। इसे त्रिवेणी संघ के साथ जोड़कर भी देखा जा सकता है। यादवों की राजनीतिक भागीदारी बढ़ने के साथ मीडिया में हिस्सेदारी बढ़ रही है तो इसकी स्पष्ट वजह है आबादी का अधिक होना और मीडिया की आंतरिक चुनौतियों को झेलने में राजनीतिक और सामाजिक रूप से अन्य पिछडी जातियों की तुलना में अधिक सक्षम होना। कुर्मी जाति के पास संसाधन रहा है, लेकिन सूबे में उनकी जनसंख्या बहुत कम है। अर्जक संघ के कारण कुशवाहा जाति में सामाजिक चेतना आयी। कुशवाहा जाति में लिखने की प्रवृत्ति भी काफी रही है। इसका लाभ भी उसे मिला और मीडिया मोर्चे पर अपनी पकड़ बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
अन्य पिछड़ी जातियों में मीडिया में बनिया की संख्या में भी इजाफा हो रहा है। यह भी स्पष्ट कर दें कि बनिया कोई जाति नहीं है, बल्कि जातियों का सामूहिक नाम है। इसमें कई जातियां शामिल हैं और इन जातियों का पेशा भी अलग-अलग है। इनमें कुछ जातियों आर्थिक रूप से और संसाधनों के रूप से काफी सक्षम हैं, जबकि कुछ काफी कमजोर भी हैं। बनियों में सम्पन्न जाति यथा सूडी, तेली, कलवार जैसी जातियों की हिस्सेदारी अन्य समक्ष जातियों से ज्यादा है।
मंडल आयोग के कारण शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़ी जातियों को मिले आरक्षण का बड़ा लाभ इस वर्ग को हुआ है। भारतीय जन संचार संस्थान, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय समेत अन्य विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के कोर्स शुरू होने और उन कोर्सों में पिछड़ों को मिल रहे आरक्षण ने डिग्रीधारी पत्रकारों में पिछड़ों की संख्या बढ़ायी है। इस कारण मीडिया हाउस के मुख्यालयों में भी पिछड़ी जाति के पत्रकार दिख रहे हैं।
बिहार सरकार द्वारा घोषित पत्रकार पेंशन योजना के लिए अब तक आए दावा आवेदन में कुछेक को छोड़कर सभी सवर्ण जाति के पत्रकार हैं। इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं है। क्योंकि 1990 के पूर्व लगभग सभी पत्रकार सवर्ण जाति के ही हुआ करते थे। यही कारण है कि पेंशन लिए आने वाले इन सीनियर पत्रकारों के आवेदनों की पहली खेप में लगभग सभी सवर्ण ही हैं।
मीडिया के सामाजिक स्वरूप में आ रहे बदलाव का असर है कि समाचारों का संदर्भ बदल रहा है। बाजार के दबाव में अखबारों और चैनलों को भी सामाजिक चेहरा बदलने की जरूरत महसूस हो रही है। उन्हें भी यह कहने की जरूरत पड़ रही है कि सामाजिक न्याय के लोग हमारे साथ भी हैं। खबरों में भी जातीय आयोजनों को प्रमुखता मिल रही है। मीडिया के आंतरिक ढांचे में बदलाव की सामाजिक अभिव्यक्ति भी हो रही है। इसमें और तेजी आएगी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।
पूर्व के सर्वेक्षण
राष्ट्रीय मीडिया का सर्वे : 2006
वर्ष 2006 में राष्ट्रीय मीडिया के प्रमुख पदों को लेकर यह सर्वेक्षण वर्ष 2006 में मीडिया स्टडीज ग्रुप (दिल्ली) के अनिल चमडिया, जितेंद्र कुमार व योगेंद्र यादव ने किया था। इसके तहत दिल्ली में कार्यरत मीडिया संस्थानों को लिया गया था। इस सर्वेक्षण का निष्कर्ष है कि राष्ट्रीय मीडिया पर हिंदू उच्च जाति पुरूषों का वर्चस्व है। भारत की कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी 8 प्रतिशत है, लेकिन मीडिया संस्थानों में फैसला लेने वाले पदों का 71 फीसदी उनके हिस्से में आता है। 2006 में किया गया राष्ट्रीय मीडिया यह सर्वेक्षण पहला और अंतिम था। उसके बाद से इस प्रकार का कोई सर्वेक्षण नहीं हुआ है। देखें, इसके आंकडे (देखें – तालिका 2, 3 और 4) :
तालिका – 2
हिंदू | मुसलमान | ईसाई | सिख | |
---|---|---|---|---|
भारत की आबादी में हिस्सेदारी | 81% | 13% | 2% | 2% |
प्रिंट हिंदी | 97% | 2% | 0% | 0% |
प्रिंट अंग्रेजी | 90% | 3% | 4% | 0% |
इलेक्ट्रॉनिक हिंदी | 90% | 6% | 1% | 0% |
इलेक्ट्रॉनिक अंग्रेजी | 85% | 0% | 13% | 2% |
कुल | 90% | 3% | 4% | 1% |
तालिका – 3
ब्राह्मण | कायस्थ | वैश्य/जैन | राजपूत | खत्री | गैर द्विज उच्च जाति | अन्य पिछड़ी जाति | |
---|---|---|---|---|---|---|---|
प्रिंट हिंदी | 59% | 9% | 11% | 8% | 5% | 0% | 8% |
प्रिंट अंग्रेजी | 44% | 18% | 5% | 1% | 17% | 5% | 1% |
इलेक्ट्रानिक हिंदी | 49% | 13% | 8% | 14% | 4% | 0% | 4% |
इलेक्ट्रानिक अंग्रेजी | 52% | 13% | 2% | 4% | 4% | 4% | 4% |
कुल | 49% | 14% | 7% | 7% | 9% | 2% | 4% |
तालिका – 4
पुरूष | महिला | |
---|---|---|
प्रिंट हिंदी | 86% | 14% |
प्रिंट अंग्रेजी | 84% | 16% |
इलेक्ट्रानिक हिंदी | 89% | 11% |
इलेक्ट्रानिक अंग्रेजी | 68% | 32% |
कुल | 83% | 17% |
बिहार के मीडिया का सर्वेक्षण, प्रज्ञा शोध संस्थान, पटना : 2009
वर्ष 2009 में प्रमोद रंजन ने बिहार के हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू मीडिया 47 संस्थानों की सामाजिक पृष्ठभूमि का व्यापक सर्वेक्षण किया था। लेकिन उन्होंने भी सिर्फ पटना में कार्यरत पत्रकारों को लिया था। उनके इस सर्वेक्षण का निष्कर्ष है कि बिहार में फैसला लेने वाले पदों पर कोई भी दलित, ओबीसी, आदिवासी, पसमांदा अथवा स्त्री नहीं है। इन सभी पदों पर हिंदू उच्च जाति के पुरूष तैनात हैं। उन्होंने “फैसला लेने वाले पदों” के अतिरिक्त अन्य पदों का भी सर्वेक्षण किया था। इन कनिष्ठ पदों पर हिंदू पिछडी व अति पिछडी जाति के पत्रकार 10 प्रतिशत, दलित एक प्रतिशत तथा पसमांदा मुसलमान चार प्रतिशत थे। इन पदों में से 73 प्रतिशत पर उच्च जाति के हिंदू पुरूष काबिज थे। देखें, इस सर्वेक्षण के आंकडे (देखें – तालिक 5):
तालिका – 5
बिहारी मीडिया हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू प्रिंट व इलैक्ट्रानिक का समेकित (फैसला लेने वालों के अतिरिक्त सामान्य पदों पर) आंकड़ा | |
---|---|
1. उच्च जाति हिंदू | 73% |
(क) ब्राह्मण | 30% |
(ख) भूमिहार | 10% |
(ग) राजपूत | 17% |
(घ) कायस्थ | 16% |
2. पिछड़ी व अति पिछड़ी जाति | 10% |
3. दलित | 1% |
4. अशराफ मुसलमान | 12% |
(क) सैयद | 8% |
(ख) शेख | 2% |
(ग) पठान | 1% |
(घ) मल्लिक | 1% |
5. पसमांदा मुसलमान | 4% |
कुल | 100% |
महिलाएं (उपरोक्त समाजिक समूहों में शामिल) | 4% |
(क) उच्च जाति हिंदू | 3% |
(ख) पिछड़ा | 1% |
(ग) दलित | 0% |
(घ) मुसलमान (अशराफ/पसमांदा) | 0% |
सबाल्टर्न पत्रिका द्वारा बिहार के मीडिया का सर्वेक्षण, 2016
पटना से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका “सबाल्टर्न” के अरूण आनंद और संतोष यादव ने वर्ष 2006 में एक बार फिर से बिहार के मीडिया की जाति की जांच की। इस सर्वेक्षण में उन्होंने 7 हिंदी अखबारों के पटना संस्करण में काम करने वाले सभी पत्रकारों को लिया। उनका निष्कर्ष है कि “बिहार में पटना के 7 हिंदी अखबारों में काम करने वाले तकरीबन 297 पत्रकारों में 237 सवर्ण जाति समूह के हैं, 41 पिछड़ी जाति के, 7 अति पिछड़ी जाति के और 1 पत्रकार दलित जाति के हैं। बिहार के इन हिंदी अखबारों में सवर्ण जाति समूह 80 प्रतिशत हैं; पिछड़ा 13 प्रतिशत, अति पिछड़ा 3 प्रतिशत और अज्ञात 4 प्रतिशत हैं। मीडिया में सर्वाधिक संख्या ब्राह्मण पत्रकारों की है। कुल 297 पत्रकारों में अकेले ब्राह्मणों की संख्या 105 है (35 फीसदी)। इसमें कायस्थ, राजपूत और भूमिहार जाति के पत्रकारों की संख्या जोड़ दी जाए तो सब मिलाकर यह 80 प्रतिशत हो जाता है। देखें आंकडे (देखें – तालिका 6):
तालिका – 6
जाति | संख्या | प्रतिशत |
---|---|---|
1.सवर्ण | 237 | 80 |
अ) ब्राह्मण | 105 | 35 |
ब) भूमिहार | 32 | 11 |
स) राजपूत | 46 | 16 |
द) कायस्थ | 45 | 15 |
ई) अन्य सवर्ण (मुस्लिम, जैन आदि) | 09 | 03 |
2. पिछड़ी जाति | 41 | 13 |
3. अति पिछड़ी जाति | 07 | 03 |
4. अनुसूचित जाति | 01 | 00 |
5. अनुसूचित जनजाति | 00 | 00 |
6. अन्य | 00 | 00 |
7. अज्ञात | 11 | 04 |
कुल (1 से 7 तक) | 297 | 100 |
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