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उत्तर भारत की महिलाओं के नजरिए से पेरियार का महत्व

ई.वी. रामासामी के विचारों ने जिस गतिशील आंदोलन को जन्म दिया उसके उद्देश्य के मूल मे था – हिंदू सामाजिक व्यवस्था को जाति, धर्म और ईश्वर की आस्था के बिना एक नए समाज में परिवर्तित करना। उत्तर भारत के राज्य उनके विचारों के प्रभाव से कम प्रभावित रहे हैं। बता रही हैं डॉ. संयुक्ता भारती

भारतीय समाज में महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति से सभी परिचित हैं। घर से लेकर बाहर तक उनके साथ जिस तरह का व्यवहार किया जाता है, उसके प्रमाण तो भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट दे देती है। 

यह रिपोर्ट वर्ष 2021 का है जब देश में कोरोना महामारी का आतंक था। तालाबंदी के कारण लोग ‘वर्क फ्रॉम होम’ के आधार पर काम कर रहे थे। ऐसी परिस्थिति में महिलाओं के उपर हुए अत्याचार 15.8 प्रतिशत वृद्धि दर्ज किये जाने बात इस रिपोर्ट में है। इसमें सबसे अधिक मामले उत्तर भारत के राज्यों में दर्ज हुए हैं, जहां स्त्रियों के प्रति समानता के विचार का प्रसार कम हुआ है। ऐसे में हमें पेरियार को और उनके विचारों को समझने की आवश्यकता है।

ई.वी. रामासामी के विचारों ने जिस गतिशील आंदोलन को जन्म दिया उसके उद्देश्य के मूल मे था – हिंदू सामाजिक व्यवस्था को जाति, धर्म और ईश्वर की आस्था के बिना एक नए समाज में परिवर्तित करना। उत्तर भारत के राज्य उनके विचारों के प्रभाव से कम प्रभावित रहे हैं। 

पेरियार का जन्म 17 सितंबर, 1879 को तमिलनाडु के इरोड में एक सम्पन्न, परम्परावादी हिंदू परिवार में हुआ। असल में पेरियार शब्द एक उपाधि है, जिसका अर्थ तमिल भाषा में महान या सम्मानित व्यक्ति होता है।  

पेरियार बीसवीं सदी के तमिलनाडु के एक ऐसे क्रांतिकारी राजनेता के रूप में उभरे जिन्होंने हिन्दू धर्म की रूढ़िवादी विचारों को दृढ़तापूर्वक नकार दिया। पेरियार के नाम से विख्यात ई. वी. रामास्वामी का तमिलनाडु के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्यों पर आज भी इतना गहरा असर है कि कम्युनिस्ट से लेकर दलित आंदोलन विचारधारा, तमिल राष्ट्रभक्त से तर्कवादियों और नारीवाद की ओर झुकाव वाले सभी उनका सम्मान करते हैं, वे उनके विचारों का हवाला देते हैं और उन्हें मार्गदर्शक के रूप में देखते हैं। 

पेरियार ने अपनी पूरी चेतना शक्ति से हिंदू धर्म और ब्राह्मणवाद का जमकर विरोध किया। उन्होंने तर्कवाद, आत्मसम्मान और महिला अधिकार जैसे मुद्दों पर जोर दिया। जाति प्रथा का घोर विरोध किया। इन कारणों से ही यूनेस्को ने उन्हें दक्षिण पूर्व एशिया का सुकरात कहा। 

आइए, उनके कुछ विचारों को जानें, जिनकी प्रासंगिकता उत्तर भारत के राज्यों में और खासकर महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण हैं। उनके विचारों में अहम था कि “हम सभी मानव एक हैं, हमें भेदभाव रहित समाज चाहिए। हम किसी को प्रचलित सामाजिक भेदभाव के कारण अलग नहीं कर सकते।”

पेरियार (17 सितंबर, 1879 – 24 दिसंबर, 1973)

 वे मानते थे कि धर्म पूरी तरह विश्वास पर आधारित है। एक ऐसा विश्वास, जो मनुष्य की नैसर्गिक चेतना को खारिज करता है या झुठलाता है। इसी आधार पर वे कहते हैं कि “आप धार्मिक व्यक्ति से किसी भी तर्कसंगत विचार की उम्मीद नहीं कर सकते। वह पानी में लंबे समय से पत्थर मार रहा है।”

इसका विस्तार करते हुए वह कहते थे कि “हमारा देश तभी आजाद समझा जाएगा, जब ग्रामीण लोग देवी-देवता, धर्म-अधर्म, जाति और अंधविश्वास से छुटकारा पा जाएंगे।” वे मानते हैं कि स्वतंत्रता और भेदमूलक संस्कृति एक दूसरे की विरोधी हैं। उनका यह विचार इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में आज भी डायन कुप्रथा कायम है। 

पेरियार यह समझते थे और इस कारण वे कर्मकांडों पर प्रहार करते हैं और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को सामने रख कर अवैज्ञानिक और अतार्किक कृतियों को हास्यास्पद बताते हुए कहते हैं कि “विदेशी लोग दूसरे ग्रहों पर अंतरिक्ष यान भेज रहे हैं, जबकि हम श्राद्ध कर परलोक में बसे अपने पूर्वजों को चावल और खीर भेज रहे हैं। क्या यह बुद्धिमानी है?”

उन्होंने आत्मसम्मान आंदोलन शुरू किया था, जिसका लक्ष्य सभी वंचितों और शोषितों में आत्मसम्मान पैदा करना था। उनके इस आंदोलन में महिलाएं भी समान रूप से शामिल थीं। पेरियार महिलाओं को लेकर समानता का भाव समाज में स्थापित करना चाहते थे। स्त्रियों के लिए बनाई गई तयशुदा धारणाओं को खारिज करते थे। वे मानते थे कि स्त्री-पुरुष के बीच समान दर्जे का संबंध ही वास्तविक सभ्य जीवन का आधार है।

उन्होंने बाल विवाह के उन्मूलन, विधवा महिलाओं की दोबारा शादी के अधिकार, पार्टनर चुनने या छोड़ने, शादी को इसमें निहित पवित्रता की जगह पार्टनरशिप के रूप में लेने, इत्यादि के लिए अभियान चलाया था।

उन्होंने महिलाओं से केवल बच्चा पैदा करने के लिए शादी की जगह शिक्षा को अपनाने को कहा। वे कहते थे यदि महिलाओं को जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता नहीं, उन्हें संपत्ति में अधिकार नहीं तो उनकी स्थिति रबड़ की पुतली से अधिक नहीं हैं? 

वे चाहते थे महिलाएं साहसी बनें और अपने आपको गहनों से लदी-सजी-सीमित ना रखें। जब वे ऐसा कहते तो उनका आशय यही होता था कि महिलाओं की मानवीय गरिमा स्थापित हो। 

ये वही सारे सवाल हैं, जिनसे आज उत्तर भारत की महिलाएं अधिक जूझ रही हैं और इस लिहाज से यह कहना आवश्यक है कि उत्तर भारत की महिलाओं के लिए पेरियार के विचार न केवल अनमोल हैं, बल्कि अनुकरणयी भी हैं। 

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

संयुक्ता भारती

तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, बिहार से पीएचडी डॉ. संयुक्ता भारती इतिहास की अध्येता रही हैं। इनकी कविताएं व सम-सामयिक आलेख अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।

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