सन २०१६ में जो सबसे दिल दहलाने वाली खबर मैंने पढ़ी, वह एक दलित की हत्या के बारे में थी. खबर के शीर्षक “आटा चक्की को ‘अपवित्र’ करने के लिए कथित तौर पर दलित की हत्या” (द हिन्दू, 7 अक्टूबर, २०१६) को पढ़ कर मैं सन्न रह गया। खबर

में कहा गया था, “उत्तराखंड के करडीया गाँव में 35 वर्ष के एक दलित की कथित तौर पर उच्च जाति के एक हिन्दू द्वारा इसलिए हत्या कर दी गयी क्योंकि उसने एक आटा चक्की में प्रवेश कर उसे अपवित्र कर दिया। भेंटा गाँव का सोहन राम, करडीया में स्थित कुंदन सिंह भंडारी की आटा चक्की में गेंहूँ पिसवाने गया था। वहां स्कूल शिक्षक ललित कर्नाटक ने पहले उसे जातिगत अपशब्द कहे और फिर हंसिये से उसका गला काट दिया। बघेश्वर के पुलिस अधीक्षक सुखबीर सिंह ने ‘द हिन्दू’ को बताया कि सोहन की मौके पर ही मौत हो गयी।”
मुझे इस जघन्य अपराध की याद तब आई जब मैंने अमरीका के कन्कास में फरवरी २०१७ में नस्लवादी एडम प्युरिनटन द्वारा श्रीनिवास कुचिभोतला के हत्या की खबर सुनी। आंबेडकर के “एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट” शीर्षक भाषण, जिसे वह पढ़ नहीं सके थे, का बारहवां खंड इस प्रश्न पर समाप्त होता है: “क्या हिन्दुओं ने अपनी जाति के हित में देश के साथ द्रोह नहीं किया है?” जातिगत अपवित्रता के नाम पर उस वर्ष एक व्यक्ति के हत्या कर दी गयी, जब हम अपनी आज़ादी की ७०वीं वर्षगांठ मना रहे थे! आप इसे जाति के नाम पर देशद्रोह नहीं तो और क्या कहेगें? जब तक हम अपने ही लोगों पर जातिगत अत्याचार बंद नहीं कर देते, तब तक हम यह दावा नहीं कर सकते कि हम एक स्वतंत्र देश हैं और ना ही हम राष्ट्रवाद और देशभक्ति के गीत गा सकते हैं। इस नृशंस हत्या का सबसे भयावह पक्ष यह है कि हत्यारा एक स्कूल शिक्षक था। क्या इस तरह के लोग शिक्षक होने लायक हैं? जब तक सरकार इस तरह के लोगों को शिक्षक नियुक्त करती रहेगी और जब तक इस तरह के शिक्षक विद्यार्थियों को पढ़ाते रहेंगे , तब तक क्या हम जाति की उन्मूलन की बात सोच भी सकते हैं?
अमरीका में कुचिभोतला जैसी नस्लीय हत्याएं, उस देश के जन्म के समय से ही होती रहीं हैं। सन २०११ के जून में, श्वेत किशोरों के एक समूह ने एक अधेड़ अफ़्रीकी-अमरीकी के पहले बर्बर पिटाई की और फिर उसे एक पिकअप से कुचल कर मार डाला।
जहाँ तक जातिगत और नस्लीय अत्याचारों का सवाल है, भारत और अमरीका में कोई फर्क नहीं है। हेरिएट बीचर स्टोव का गुलाम प्रथा-विरोधी उपन्यास “अंकल टॉमस केबिन” सन १८५२ में प्रकाशित हुआ था। उपन्यास से एक उद्धरण इस प्रकार है: “मैं घोड़ागाड़ी में पत्थर लाद रहा था। मेरा छोटा मालिक वहीं खड़ा था और घोड़े के नज़दीक इतने जोर-जोर से चाबुक फटकार रहा था कि घोड़ा डर रहा था। मैंने जितनी विनम्रता से हो सकता था, उससे कहा कि वह ऐसा करना बंद कर दे। उसने चाबुक फटकारना जारी रखा। मैंने फिर उससे विनती की। इस पर वह पलटा और उसने मुझ पर चाबुक से वार करने शुरू कर दिए। मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। इस पर वह जोर से चिल्लाया, मुझे एक लात मारी और दौड़ कर अपने पिता के पास चला गया। उसने अपने पिता से कहा कि मैं उससे लड़ रहा हूँ। वो आगबबूला हो गए और उन्होंने कहा कि अब वो मुझे बताएगें कि मालिक कौन है। उन्होंने मुझे एक पेड़ से बाँध दिया और पेड़ की एक डाली तोड़ कर, मेरे छोटे मालिक के हाथों में देकर उससे कहा कि वह मुझे तब तक मारे जब तक कि वो थक न जाये। और उसने ऐसा ही किया।“
भारत में जाति के नाम पर अत्याचार भी कुछ इसी तरह के हैं। यद्यपि “नीची जातियों” पर अत्याचार की हर घटना को देशद्रोह कहा जा सकता है परन्तु हमारे देश में हाशिये पर पड़े समुदायों के विरुद्ध अत्याचार निर्बाध रूप से जारी हैं और इन्हें करने वालों को राष्ट्रवादी और देशभक्त बताया जाता है।
आंबेडकर पर कब्ज़ा करने की होड़
हाशियाग्रस्त समुदायों के समक्ष उपस्थित गंभीर समस्याओं को नज़रंदाज़ करते हुए, हमारे देश के वाम और दक्षिणपंथी दोनों आंबेडकर पर किसी भी तरह कब्ज़ा ज़माने की मुहिम में जुटे हुए हैं। उन्हें यह समझ आ गया है कि दलितों में बढ़ती राजनैतिक जागरूकता के चलते लोगों पर उनकी पकड़ और सत्ता पर उनका एकाधिकार खतरे में हैं। वे आंबेडकर की शान में कसीदे इसलिए नहीं काढ रहे हैं क्योंकि उन्हें आंबेडकर से प्रेम है, वरन वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें उनके पैरों तले की ज़मीन खिसकती नज़र आ रही है। उन्हें आंबेडकर के मुक्त भारत के स्वप्न से कोई लेनादेना नहीं है। परन्तु जब तक जाति का उन्मूलन दक्षिणपंथियों की प्राथमिकता नहीं बन जाता और जब तक वामपंथी ‘असली आंबेडकर’ को नहीं समझ लेते, तब तक आंबेडकर केवल वोटों के लिये चारा बने रहेंगे।

वामपंथी आंबेडकर को “सच्चा” वामपंथी बताते नहीं थकते। परन्तु आंबेडकर की उनकी विचारों की आलोचना का उनके पास कोई जवाब नहीं है। “एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट” में आंबेडकर लिखते हैं, “अब मैं समाजवादियों की ओर आता हूँ. क्या समाजवादी लोग, सामाजिक व्यवस्था से उत्पन्न समस्याओं की उपेक्षा कर सकते हैं? भारत के समाजवादी लोग, यूरोप में अपने साथियों का अनुसरण करते हुए इतिहास की आर्थिक व्याख्या को भारत के तथ्यों पर लागू करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है। उसके क्रियाकलाप और आकांक्षाएं, आर्थिक तथ्यों से परिबद्ध हैं और संपत्ति, सत्ता का एकमत्र स्त्रोत है। इसलिए वे इस बात का प्रचार करते हैं कि राजनीतिक और सामाजिक सुधार केवल एक भारी भ्रम हैं और संपत्ति के समानीकरण द्वारा आर्थिक सुधारों को अन्य हर प्रकार के सुधारों पर वरीयता दी जानी चाहिए….किसी की भी यह धारणा को सकती है कि आर्थिक प्रेरणा ही मात्र ऐसी प्रेरणा नहीं है, जिससे व्यक्ति प्रेरित होता है। मानव समाज का कोई भी विद्यार्थी इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता कि आर्थिक शक्ति ही एकमात्र शक्ति है….मैं समाजवादियों से पूछना चाहता हूँ कि क्या आप पहले सामाजिक व्यवस्था में सुधार लाये बिना, आर्थिक सुधार कर सकते हैं?…क्या यह कहा जा सकता है कि भारत का सर्वहारा वर्ग, गरीब होते हुए भी, गरीब और अमीर के अंतर के अलावा कोई और अंतर नहीं मानता? यदि सच्चाई यह है कि वे ऐसा मानते हैं, तो इस प्रकार के सर्वहारा से अमीरों के विरुद्ध कार्यवाही करने में किस एकता की अपेक्षा की जा सकती है?”
वामपंथियों ने तो रोहित वेमुला पर भी कब्ज़ा ज़माने की कोशिश की। रोहित ने अपने अंतिम पत्र में लिखा, “मुझे लग रहा है कि मेरी आत्मा और मेरे शरीर के बीच की खाई बढ़ती जा रही है और मैं दैत्य बनता जा रहा हूँ”। किसी व्यक्ति के लिए इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है वह ऐसे सामाजिक-राजनीतिक वातावरण में रहने को मजबूर हो, जिसमें उसे लगने लगे कि उसकी आत्मा और शरीर के बीच की खाई बढ़ती जा रही है और वह स्वयं को दैत्य समझने लगे। यह केवल भारत में हो सकता है और इसका कारण है जीवन को नकार करने वाले जाति व्यवस्था-रूपी दानव का समाज पर कड़ा शिकंजा। भारत के वामपंथी, जिनकी वैचारिक हठधर्मिता और स्टालिनवादी अधिनायाकता के प्रति प्रेम के चलते उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है, अब दलितों के सहारे जिंदा रहना चाहते हैं। भारतीय दक्षिणपंथी दलितों का साथ केवल इसलिए चाहते हैं ताकि उनकी सत्ता कायम रह सके. दलितों में इन दोनों की रूचि बस इतनी ही है।
भावुकता के लिए कोई जगह नहीं
आंबेडकर के जाति के दानव से संघर्ष का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष था उनका पूर्णतः निष्पक्ष दृष्टिकोण, जिसका आज के कट्टरवादी आंबेडकरवादियों में घोर अभाव है। “कास्ट्स इन इंडिया: देयर मैकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट” शीर्षक शोधप्रबंध में, जिसे आंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयार्क में 9 मई, १९१६ को प्रस्तुत किया था, वे लिखते हैं, “हमें यह सतर्कता बरतनी होगी कि हम इस मुद्दे पर बिना किसी पूर्वाग्रह के विचार करें। हमें भावनाओं को दूर रखना होगा और चीज़ों को वस्तुनिष्ठ तरीके से समझना और देखना होगा”।

आंबेडकरवादियों सहित सभी राजनैतिक दलों को जातिगत दमन और विशेषाधिकारों के विरुद्ध लड़ाई में व्यक्तिगत शत्रुता और कटुता से दूर रहना होगा। विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के प्रति मन में कोई दुराग्रह रखे बगैर, इस दानव से कैसे लड़ा जा सकता है, आंबेडकर स्वयं इसके उदाहरण थे। उपर्वर्णित शोधप्रबंध में वे लिखते हैं: “जाति, मनु के भी पहले से अस्तित्व में थी। वे उसके समर्थक थे इसलिए उन्होंने उस पर दार्शनिक नज़रिए से विचार किया परन्तु वे निश्चित तौर पर हिन्दू समाज की वर्तमान व्यवस्था के निर्माता नहीं थे। उन्होंने केवल जाति सम्बन्धी तत्कालीन नियमों को संहिताबद्ध किया और जाति-धर्म की शिक्षा दी। जाति प्रथा की व्यापकता और उसकी मजबूती को देखते हुए यह स्पष्ट है कि उसके पीछे किसी एक व्यक्ति या वर्ग की ताकत या कुटिलता नहीं हो सकती। यही तर्क इस सिद्धांत पर भी लागू होता है कि जाति व्यवस्था का निर्माण ब्राह्मणों ने किया। मनु के बारे में मैंने जो कुछ कहा है, उसके बाद इस बारे में और कुछ कहने की ज़रुरत नहीं है, सिवा इसके कि ब्राह्मणों के जाति व्यवस्था के निर्माता होने का सिद्धांत गलत और दुर्भावनापूर्ण है। ब्राह्मण कई चीज़ों के दोषी हो सकते हैं और मैं कह सकता हूँ कि वे थे, परन्तु जाति व्यवस्था को सभी गैर-ब्राह्मणों पर थोपना उनके वश की बात नहीं थी”।
जाति उन्मूलन के व्यावहारिक तरीकों पर विचार करते समय हमें हमारे समाज की सामूहिक सोच पर जाति की मजबूत जकड़ पर गहराई से मंथन करना होगा और इस जकड़ को कमज़ोर करने की राह खोजनी होगी। हमें यह पता लगाना होगा कि किस प्रकार जाति को हम लोगों के अवचेतन से भी मिटा सकते हैं। एक दिन, मेरे एक दलित मित्र ने मुझे एक घटना सुनायी जिससे यह पता चलता है कि जातिगत पदक्रम का हमारी मानसिकता पर कितना खौफनाक प्रभाव है। ऊंची जाति की एक महिला ने एक दलित से प्रेमविवाह किया था और अब वे किशोर वय की दो बेटियों की माँ हैं। इन महिला ने हाल में मेरे मित्र को फ़ोन कर उनसे सहायता मांगी। वे चाहती थीं कि उनकी लड़कियों के स्कूल प्रमाणपत्रों में जाति के कॉलम में उनके पति की जगह उनकी जाति दर्ज करवा दी जाये। उनका कहना था कि अगर उनकी लड़कियों पर दलित होने का ठप्पा लग गया तो उन्हें विवाह के अच्छे प्रस्ताव नहीं मिलेंगे! अपने दलित पति के साथ बीस साल बिताने के बाद भी यह महिला अपने जातिगत श्रेष्ठताभाव को त्याग नहीं सकीं थीं। क्या कारण है कि अंतरजातीय विवाह भी जाति के दानव को पराजित नहीं कर पाते?
इसका कारण समझने के लिए हमें “विचारात्मक परिवर्तन” को समझना होगा। “एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट” के बीसवें खंड में आंबेडकर लिखते हैं: “आपका यह कहना सही है कि जाति व्यवस्था उसी स्थिति में समाप्त होगी जब रोटी-बेटी का सम्बन्ध सामान्य व्यवहार में आ जाये। आपने बीमारी की जड़ का पता लगा लिया है। लेकिन क्या बीमारी के लिए आपका नुस्खा ठीक है? इस प्रश्न को अपने-आप से पूछिए. अधिसंख्य हिन्दू रोटी-बेटी का सम्बन्ध क्यों नहीं करते? आपका उद्देश्य लोकप्रिय क्यों नहीं है? इसका केवल एक ही उत्तर है और वह यह कि रोटी-बेटी का सम्बन्ध उन आस्थाओं और धर्म-सिद्धांतों के प्रतिकूल है, जिसे हिन्दू पवित्र मानते हैं। जाति, ईटों की दीवार या कांटेदार तारों की लाइन जैसे कोई भौतिक वस्तु नहीं है, जो हिन्दुओं को मेल-मिलाप से रोकती हो और जिसे तोड़ना आवश्यक हो। जाति तो एक धारणा है, वह तो एक मानसिक स्थिति है। अतः जाति व्यवस्था को नष्ट करने का अर्थ भौतिक रुकावटों को दूर करना नहीं है। इसका अर्थ विचारात्मक परिवर्तन से है। जाति व्यवस्था बुरी हो सकती है। जाति के आधार पर ऐसा घटिया आचरण किया जा सकता है, जिसे मानव के प्रति अमानुषिकता कहा का सकता है। फिर भी, यह स्वीकार करना होगा कि हिन्दू समुदाय द्वारा जातिप्रथा मानने का कारण यह नहीं है कि उनका व्यवहार अमानुषिक और अन्यायपूर्ण है। वह जातपांत को इसलिए मानते हैं क्योंकि वे अत्यंत धार्मिक होते हैं। अतः जातपांत मानने में लोग दोषी नहीं हैं। मेरी राय में उनका धर्म दोषी है, जिसके कारण जाति व्यवस्था की धारणा का जन्म हुआ है। यदि यह बात सही है तो यह स्पष्ट है कि वह शत्रु जिसके साथ आपको संघर्ष करना है, वे लोग नहीं है जो जातपांत को मानते हैं, बल्कि वे शास्त्र हैं जिन्होंने जाति-धर्म की शिक्षा दी है”।
जाति की पवित्रता की धारणा
हम अक्सर यह तर्क सुनते हैं कि कट्टरवादियों या आतंकवादियों द्वारा जाति व्यवस्था या बहु-पत्नि प्रथा या मुंहजबानी तलाक को जायज़ ठहराने के लिए धार्मिक ग्रंथों की गलत व्याख्या की जाती है। परन्तु समस्या व्याख्या में नहीं बल्कि धर्मग्रंथों में है क्योंकि धर्मग्रंथों की जैसी चाहे व्याख्या की जा सकती है। इसलिए आंबेडकर बिना किसी लाग-लपेट के कहते हैं, “वाद विवाद में फंसने से कोई लाभ नहीं है। लोगों से यह कहने में कोई लाभ नहीं है कि शस्त्रों में वैसा नहीं कहा गया है, जैसा कि वे विश्वास करते हैं, व्याकरण की दृष्टि से पढ़ते हैं या तार्किक ढंग से उनकी व्याख्या करते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि लोग शस्त्रों को कैसा समझते हैं। आपको वही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जो बुद्ध ने अपनाया था। आपको वही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जो गुरु नानक ने अपनाया था। आपको न केवल शस्त्रों को त्यागना चाहिए बल्कि उनकी सत्ता को अस्वीकार करना चाहिए, जैसा कि बुद्ध और नानक ने किया था। आपको हिन्दुओं से यह कहने का साहस रखना चाहिए कि दोष उनके धर्म का है – वह धर्म जिसने उनमें यह धारणा पैदा की है कि जाति व्यवस्था पवित्र है। क्या आप ऐसा साहस दिखायेगें?”
यह प्रश्न हमसे पूछा जा रहा है, जो आज भी अपने धर्मों में विश्वास करते हैं, फिर चाहे हम दक्षिणपंथी हों, वामपंथी हों, या दलित संगठनों के। हम वह साहस नहीं दिखा रहे हैं, जिसकी चर्चा आंबेडकर ने की है और यही कारण है कि जाति का दानव आज भी इस देश में लोगों को निगल रहा है। यही कारण है कि रोहित वेमूला को लगा कि उनका जन्म एक घातक दुर्घटना थी और उन्होंने लिखा, “मैंने लोगों से प्यार किया और ये नहीं जान पाया कि वो कब के प्रकृति को तलाक़ दे चुके हैं…यह बेहद कठिन हो गया है कि हम प्रेम करें और दुखी न हों… कभी भी एक आदमी को उसके दिमाग़ से नहीं आंका गया। एक ऐसी चीज़ जो स्टारडस्ट से बनी थी”।
हमारे देश में सचमुच “बिना दुखी हुए प्रेम करना बेहद कठिन हो गया है”। अगर हमें बिना दुखी हुए प्रेम करना है तो हमें जाति और धर्म (धर्मों) को नष्ट करने का साहस दिखाना होगा। जाति और धर्म के विरुद्ध भारत के महानतम योद्धा आंबेडकर हमसे पूछ रहे हैं: “क्या आप ऐसा साहस दिखाएंगें?” अपनी विघटनकारी आचरण से हमारे राजनैतिक दल और अपनी क्षुद्र मानसिकता से हम सब उनसे कह रहे हैं, “नहीं”।
जातिवादी कम्युनिस्ट
केरल में वामपंथियों का व्यापक प्रभाव हैं। वहाँ हमें अनेक किस्से सुनायी पड़ते हैं कि किस प्रकार ऊंची जातियों के कम्युनिस्ट नेता भूमिगत रहने के दौरान दलितों के घरों में रहे। इसका महिमामंडन किया जाता है। यह सुनकर ऐसा लगता है मानों दलितों के घरों में रहकर उन्होंने बहुत महानता दिखाई हो और दलितों पर बहुत बड़ा एहसान किया हो। कई दलितों को भी पुलिस के हाथों घोर प्रताड़ना झेलनी पड़ी और उन्होंने वाम आन्दोलन की खातिर अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। उनमें से कई ने अपनी जान जोखिम में डाल कर अपने नेताओं की रक्षा की। परन्तु उनका महिमामंडन कभी नहीं किया जाता। केरल का एक भी ऊंची जाति का ऐसा कम्युनिस्ट नेता नहीं है जिसने किसी दलित से विवाह किया हो – भले ही वे दलितों के बीच महीनों और सालों रहे हों। इसका अर्थ यह है कि जब वे दलितों के घरों में रह रहे थे या उनकी बीच काम कर रहे थे तब भी दलितों और इन नेताओं दोनों को इस बात का अहसास था कि वे अलग-अलग जातियों के हैं और उन्होंने कभी उस “विचार” को नष्ट करने की कोशिश नहीं की जो मनुष्य को मनुष्य से बांटता है। चाहे स्वाधीनता संग्राम हो या “कम्युनिस्ट” जनजागरण, सब में दलितों की भागीदारी को दरकिनार किया गया और विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के योगदान को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया गया।

ऐसा कहा जाता है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है परन्तु हमारे देश में ऐसा कोई सामाजिक ‘स्पेस’ नहीं है जहाँ लोग धर्मनिरपेक्ष, प्रजातान्त्रिक आबोहवा में अपनी धार्मिक, जातिगत और लैंगिक पहचानों को भुला कर अंतर्व्यव्हार कर सकें। यहाँ तक कि भारत के सबसे ‘प्रगतिशील’ राज्य केरल में भी दलित अपने मोहल्लों में रहते हैं और हर जाति का अपना इलाका है। ऐसा कोई स्थान नहीं है, जो सबका हो। आपको मध्यमवर्गीय या उच्चवर्गीय व पॉश इलाकों में एक भी दलित घर नहीं दिखेगा। इससे यह साफ़ है कि हमारे प्रजातंत्र में भी एक प्रकार की अलिखित और अदृश्य अछूत प्रथा व्याप्त है।
मेरी नौ साल की बच्ची उसी सरकारी उच्च प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती है, जहाँ मैंने अपनी पढ़ाई की थी। एक दिन, जब मैं उसे स्कूल छोड़ने जा रहा था तब उसने मुझसे पूछा, “पिताजी, आप मुझे ऐसे स्कूल में क्यों भेजते हैं जहाँ केवल गरीब और एससी बच्चे पढ़ते हैं?” मैं यह सुनकर स्तंभित रह गया।
मुझे यह जान कर बहुत धक्का लगा कि मेरी बच्ची भी लोगों को उनके आर्थिक दर्जे और जाति के आधार पर बांटती है। जब मैंने उससे कहा कि ऐसा नहीं है कि उसके स्कूल में केवल गरीब बच्चे पढ़ते हैं, तो उसका जवाब था कि, “जिनके पास पैसे नहीं होते वे अपने बच्चों को इस स्कूल में भेजते हैं”। फिर उसने मांग की कि मैं उसे दूसरे स्कूल में डालूँ।
मैंने उसे समझाने की कोशिश की। “बिटिया, इसी स्कूल में मैं भी पढ़ा था। रईसों की जगह गरीब बच्चों के साथ पढ़ना बेहतर है। और लोगों को इस आधार पर अमीर या गरीब मानना गलत है कि उनके पास कितना पैसा है”.
फिर मैंने उससे पूछा कि वह साफ़-साफ़ बताये कि वह दूसरे स्कूल में पढ़ना क्यों चाहती है। उसका उत्तर मेरे लिए बहुत धक्का पहुँचाने वाला था। उसने कहा, “कल, मेरे अध्यापक ने क्लास में कहा कि जितने बच्चे एससी हैं, वे खड़े हो जाएँ। मेरे सभी दोस्त खड़े हो गयी तो मैं भी खड़ी हो गयी। पर अध्यापक ने मुझसे बैठने के लिए कहा”।
“तो, इसमें क्या है?”, मैंने पूछा।
उसका जवाब गुस्से से भरा था। “मैं ऐसे स्कूल में नहीं पढ़ना चाहती जहाँ केवल एससी बच्चे पढ़ते हैं”।
बांटने वाली शिक्षा
जिस बात पर मुझे सबसे ज्यादा गुस्सा आया वह था अध्यापक की असंवेदनशीलता। आखिर उन्हें कक्षा में इस तरह की बात करने की ज़रुरत ही क्या है। अगर वे एससी विद्यार्थियों को मिलने वाले वजीफे या कुछ और बांटने के लिए उनके नाम या संख्या जानना चाहते थे, तो वे आसानी से स्कूल के रिकॉर्ड से ये जानकारी ले सकते थे। परन्तु वे ऐसे गलत तरीके अपनाते हैं जिससे न केवल वंचित समुदायों बल्कि तथाकथित उच्च जातियों के बच्चों में जातिगत विभेद को बल मिलता है। यह प्रजातंत्र के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। और इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि केरल के अधिकांश सरकारी स्कूलों में, वंचित वर्गों के विद्यार्थियों की बहुसंख्या है। अन्य वर्गों के लोग अपने बच्चों को ऐसे गैर-अनुदान प्राप्त स्कूलों में भेजते हैं, जिनके संचालनकर्ता उनके धर्म या जाति के होते हैं। न तो दक्षिणपंथियों और न वामपंथियों – जो बारी-बारी से इस राज्य पर शासन करते आये हैं- ने शिक्षा के क्षेत्र में इस खतरनाक प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की कोशिश की। जाहिर है कि यह प्रवृत्ति केरल के ‘पुनर्जागरण’ के सिद्धांतों के लिए क्षतिकारक है।
जब मैं बच्चा था तब सभी बच्चे – चाहे वे निम्न वर्ग के हों, मध्यमवर्ग के या उच्च वर्ग के – सरकारी स्कूलों में पढ़ा करते थे। अब सरकारी स्कूलों में ताले डालने की नौबत आ गयी है क्योंकि इस तथाकथित “प्रगतिशील’ राज्य की सरकारों में शिक्षा के उस व्यापारीकरण को रोकने का साहस ही नहीं है जो बच्चों को धर्म और जाति के आधार पर बाँट रही है।
जैसा कि आंबेडकर ने कहा था, “प्रजातंत्र केवल एक शासन व्यवस्था नहीं है। मूलतः वह सहजीवन और संयुक्त अनुभव्नों को साँझा करने का तरीका है। मूलतः वह हमारे बंधुओं के प्रति सम्मान और आदर का भाव रखना है”। भारतीय प्रजातंत्र में अपने आसपास के मनुष्यों के प्रति सम्मान और आदर के भाव का अभाव है। और हमारे स्कूल और हमारे अध्यापक बच्चों में इस भाव को जगाने में पूरी तरह असफल सिद्ध हुए हैं।
एक सच्चा प्रजातंत्र बनने के लिए भारत को एक नए संरचनात्मक ढांचे में ढालना होगा। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक हम भले ही अपने दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र होने का ढोल पीटते रहे परन्तु हम नीची जातियों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के विरुद्ध संरचनात्मक हिंसा करते रहेंगे क्योंकि वह हमारी परंपरा और संस्कृति का हिस्सा है।
“एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट” में आंबेडकर लिखते हैं, “आप जाति व्यवस्था को कैसे समाप्त करेगें, जब लोगों को यह समझाने की स्वतंत्रता नहीं है कि क्या यह नैतिकता के अनुरूप है। जाति व्यवस्था के चारों और बनाई गए दीवार अभेद्य है और जिस सामग्री से उसका निर्माण किया गया है उसमें तर्क और नैतिकता जैसे कोई ज्वलनशील वस्तु नहीं है…इसे समाप्त करने के पहले कई युग समाप्त हो जायेगें। चाहे कार्य करने में समय लगता है, चाहे उसे तुरंत किया जा सकता है, लेकिन आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि आगे आप जाति प्रथा में दरार डालना चाहते हैं तो इसके लिए आपको हर हालत में वेदों और शास्त्रों में डायनामाइट लगाना होगा, क्योंकि इनमें नैतिकता के लिए कोई जगह नहीं है। आपको ‘श्रुति’ और ‘स्मृति’ के धर्म को नष्ट करना ही चाहिए। इसके अलावा कोई चारा नहीं है। यही मेरा सोचा-विचारा हुआ विचार है”।
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