राष्ट्रपति चुनाव के लिए दो सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनो ने ही दलित उम्मीदवार की दुन्दुभी बजाई है। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन ने जहां कोरी जाति से आने वाले बिहार के पूर्व राज्यपाल रामनाथ कोविंद को अपना उम्मीदवार बनाया तो
कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन ने संख्या और सत्ता में भागीदारी के लिहाज से दलितों में सबसे बड़ी और प्रभावी जाति से आने वाली पूर्व उपप्रधानमंत्री बाबू जगजीवनराम की बेटी और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया। यानी यह लड़ाई अंततः दलित बनाम-दलित की हो गई। दोनो प्रभावशाली राजनीतिक गठबन्धनों ने, जिनसे वर्तमान राजनीति का पक्ष-विपक्ष बनता है अचानक से दलित-बिसात की राजनीति शुरू नहीं की है। एक ओर रोहित वेमुला की सांस्थानिक ह्त्या, ऊना-सहारनपुर जैसी घटनाएं हैं, दलितों का प्रतिरोध है, सत्ता की चालबाजियां हैं, वहीं राजनीतिक ताकतें राष्ट्रपति चुनाव का शतरंज दलित बिसात पर खेल रही हैं।
तुष्टिकरण की ऐतिहासिकता
दलित प्रतिनिधित्व के प्रतीक का एक निहितार्थ है कि दलित एक वोट बैंक के रूप में,राजनीति में प्रभाव के रूप में एक बड़ी ताकत हैं, जिन्हें संतुष्ट करने की कोशिश सत्ता कर रही है। लेकिन इसका दूसरा निहितार्थ भी है और यहीं से दलित राजनीति को सावधान और सचेत हो जाना चाहिए। याद करिये राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एजेंडे में दलित मुद्दे कब से आने शुरू हुए। तबसे जब डा. बाबा साहेब अम्बेडकर की स्पष्ट धमक भारतीय राजनीति में सुनाई पड़ने लगी। मुद्दों को कांग्रेस के दायरे में घेर लाने में दक्ष महात्मा गांधी ने डा. अम्बेडकर के मनुस्मृति दहन, पृथक निर्वाचन क्षेत्र के आंदोलनों और मांगों के बाद दलित मुद्दों को अपने समाज सुधार आंदोलन का हिस्सा बना लिया। अपने द्वारा संपादित अखबार का नाम भी ‘हरिजन’ कर लिया। एक ओर डा. अम्बेडकर की वर्णाश्रम और जाति उन्मूलन की राजनीति थी तो दूसरी और महात्मा गांधी जी वर्णाश्रम समर्थक लेकिन घोषित रूप से जाति विरोधी सामाजिक आंदोलन था। यह डा. अम्बेडकर के प्रत्युत्तर में शुरू की गई पहली तुष्टिकरण की राजनीति थी। हितों के अंतर 1932 में गांधी जी के जिद्दी अनशन और पूना पैक्ट में देखे जा सकते हैं। डा. अम्बेडकर को पृथक निर्वाचन की अपनी मांग छोडनी पडी और आरक्षण फ़ॉर्मूले पर समझौता हुआ। इसके बाद से तुष्टिकरण के प्रयास में और तेजी आई। बाबू जगजीवन राम डा. अम्बेडकर की राजनीति के बरक्स कांग्रेस की तुष्टिकरण नीति के पहले हथियार बने, जिन्होंने भारतीय राजनीति में लम्बी पारी भी खेली। 1936 में एक दलित -आबादी वाले गाँव के बगल में महात्मा गांधी द्वारा बनाया गया सेवाग्राम आश्रम ‘हरिजनोद्धार’ के प्रयोगों का केंद्र भी बना ।
डा. अम्बेडकर सत्ता और समाज में दलितों की स्पष्ट और हस्तक्षेपकारी भागीदारी के पक्ष में थे, न कि प्रतीक के तौर पर। धीरे-धीरे डा. अम्बेडकर की राह सपष्ट रूप से अलग हो गई, परिणति बौद्ध धर्म के रूप में धर्म परिवर्तन के रूप में हुई, यहाँ दलित खुद को धर्म-संस्कृति के स्तर पर खुदमुख्तार महसूस करने लगे, किसी के वरदहस्त से मुक्त। डा. अम्बेडकर की इस राह को राजनीतिक रूप से अनूदित करने का काम कांशीराम जी ने किया। देश के सबसे बड़े और राजनीतिक रूप से अति महत्वपूर्ण राज्य उत्तरप्रदेश में अपने बल पर दलित-राजनीति को उन्होंने खडा किया, वहाँ सच्चे अर्थों में दलित-सत्ता कायम हुई। परिणाम तुष्टिकरण की नीति बदल गई थी।
क्या हम तुष्टिकरण के दौर में वापस हो रहे हैं?
उत्तरप्रदेश में सामाजिक समीकरण के नाम पर सत्ता के शीर्ष पर बैठी दलित बेटी ने ब्राहमणों को प्रतीक तौर पर तुष्ट करने की कोशिश शुरू की थी। ब्राह्मण चेहरे ढूंढें गये। राजनीति पर पकड़ का ही आत्मविश्वास है कि महाराष्ट्र के कद्दावर दलित नेता और सामाजिक न्याय मंत्रालय में राज्यमंत्री रामदास अठावले ब्राहमणों के लिए तीन प्रतिशत आरक्षण देने का फ़ॉर्मूला देते हुए नजर आते रहे हैं। तुष्टिकरण उनका किया जाता है, जिनका लोकतंत्र में वोट का महत्व तो है लेकिन सत्ता में वे निर्णायक नहीं हैं या नहीं रह गये हैं। तो क्या दलित-तुष्टिकरण के दौर की फिर से शुरुआत हो गई है, क्या फिर से दलित वोट बैंक भर बनाये जा रहे हैं और चातुर्वर्ण तथा वर्णाश्रम में यकीन करने वाली ताकतें सता को अपने कब्जे में ले चुकी है। उत्तर हाँ है, और ऐसा होता है तो ये वर्चस्वशाली जमातें आमूल-चूल परिवर्तन को रोकने के लिए अपने-अपने चेहरे आगे लेकर आती हैं। यदि दलितों का दमन हो रहा है, सामाजिक- सांस्कृतिक शैक्षणिक संस्थानों से परिवर्तनकामी दलित बेदखल किये जाने लगे हैं तो वैसे चेहरे सत्ता की वकालत करने सामने लाये जाते हैं, जिन्हें एक सामाजिक वर्ग के रूप में तो चिह्नित किया जा सके लेकिन उनकी भूमिका वर्चस्वशाली सत्ता के पक्ष में ही हो। डा। बाबा साहेब अम्बेडकर को हराने वाले कांग्रेसी उम्मीदवार भी दलित ही थे और बिहार में उनपर पत्थरवाजी करवाने वाले लोगों का नेतृत्व भी दलित था। आज जब अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़े है तो अपने पक्षकार के रूप में सत्ता अप्ल्संख्यक चेहरों को सामने बढाती है- शाहनवाज हुसैन और मुख्तार अब्बास नकवी जैसे चेहरे।
भाजपाई तुष्टिकरण अधिक प्रतिगामी है

वर्ष 1972 में चेन्नई में के करुणानिधि के दूसरे बेटे एम के अलाग्री की शादी के मौके पर मिलते पेरियार और जगजीवन राम
ऐतिहासिक रूप से तुष्टिकरण का श्रेय कांग्रेस को जाता है, महात्मा गांधी को जाता जरूर है लेकिन आज दलित-तुष्टिकरण की जो राजनीति भाजपा कर रही है , उसकी तासीर दलित राजनीति के लिए ज्यादा खतरनाक है। भाजपा न सिर्फ सैद्धांतिक रूप से जाति-पोषक हिंदुत्व की राजनीतिक प्रतिनिधि है, बल्कि यह उन जमातों की राजनीतिक उत्तराधिकारी है, जो डा. अम्बेडकर के राजनीतिक लक्ष्यों के स्वभावतः विरोधी रहे। ये वो लोग हैं जो संविधान की जरूरत के बरक्स मनुस्मृति की पैरवी कर रहे थे। ये वे लोग हैं जो समाज में समता की जगह समरसता के प्रति सक्रिय हैं यानी ऐसी स्थिति के प्रति जिसमें लोग अपनी नियत स्थिति और हैसियत में संतुष्ट रहते हुए भाग्य, भगवान और सत्ता के प्रति समर्पित रहें- एक अनुकूलित समाज व्यवस्था की पैरोकार जमातों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व भाजपा की सच्चाई है। यही कारण है कि दलितों के भीतर सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक रूप से बदलाव की क्षमता रखने वाली जातियों के राजनीतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक नेतृत्व को यह हतोत्साहित करने में लगी है और कम प्रभाव वाली दलित जातियों के नेतृत्व को अवसर मुहैय्या कराने का छद्म रच रही है। ऐसा भाजपा-संघ ने न सिर्फ दलित जातियों के मामले में किया है, बल्कि मंडल के बरक्स उग्र हिंदुत्व को नेतृत्व देने वाले चेहरे भी इसने समय-समय पर ओबीसी जातियों के बीच से खड़े किये हैं। इस राजनीति को सर्वसमावेशी की जगह सर्वग्रासी कहा जा सकता है। दलित प्रतिनिधित्व का प्रतीक खडा होते देख यह जश्न मनाने से ज्यादा चौकन्ने होने का समय है। यह ज्यादा जटिल समय है दलित-राजनीति के विरुद्ध।
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जरूर पढ़ें!!
जब पाकिस्तान बना तो लाखो हिन्दू पाकिस्तान चले गये इनमे से अधिकतर हमारे दलित भाईओं के परिवार थे जिन्हें विश्वास था मुसलमान उनका साथ देंगे, उन्हें अपनाएंगे | लेकिन उनके साथ क्या हुआ, इसे जानना जरूरी है |
दिल दहला देने वाली इस सच्चाई को वहां के कानून मंत्री ने ही लिखा था |
दलित मुस्लिम भाईचारे के पैरोकार मंडल को मुसलमानो ने दिया था धोखा ।
जोगेंद्र नाथ मंडल का जन्म बंगाल के बरीसल जिले के मइसकड़ी में हुआ था | वो एक पिछड़ी जाति से आते थे | इनकी माता का नाम संध्या और पिताजी का नाम रामदयाल मंडल था | जोगेन्द्रनाथ मंडल 6 भाई-बहन थे जिनमे ये सबसे छोटे थे | जोगेंद्र ने सन 1924 में इंटर और सन 1929 में बी. ए. पास कर पोस्ट-ग्रेजुएशन की पढ़ाई पहले ढाका और बाद में कलकत्ता विश्व-विद्यालय से पूरी की थी | सन 1937 में उन्हें जिला काउन्सिल के लिए मनोनीत किया गया | इसी वर्ष उन्हें बंगाल लेजिस्लेटिव काउन्सिल का सदस्य चुना गया | सन 1939-40 तक वे कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के करीब आये मगर, जल्दी ही उन्हें एहसास हो गया कि कांग्रेस के एजेंडे में उसके अपने समाज के लिए ज्यादा कुछ करने की इच्छा नहीं है | इसके बाद वो मुस्लिम लीग से जुड़ गये | जोगेंद्र नाथ मंडल मुस्लिम लीग के खास सदस्यों में से एक थे |
1946 में चुनाव के ब्रिटिशराज में अंतिम सरकार बनी तो कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने अपने प्रतिनिधियों को चुना जो कि मंत्री के तौर पर सरकार में काम करेंगे | मुस्लिम लीग ने जोगेंद्र नाथ मंडल का नाम भेजा | पाकिस्तान निर्माण के बाद मंडल को कानून और श्रम मंत्री बनाया गया | जिन्ना को जोगेंद्र नाथ मंडल पर भरोसा था | वो मुहम्मद अली जिन्ना के काफी करीबी थे | दरअसल जोगेंद्र ने ही अपनी ताकत से असम के सयलहेट को पाकिस्तान में मिला दिया था | 3 जून 1947 की घोषणा के बाद असम के सयलहेट को जनमत संग्रह से यह तय करना था कि वो पाकिस्तान का हिस्सा बनेगा या भारत का | उस इलाकें में हिंदू-मुस्लिम की संख्या बराबर थी | जिन्ना ने इलाके में मंडल को भेजा, मंडल ने वहां दलितों का मत पाकिस्तान के पक्ष में झुका दिया जिसके बाद सयलहेट पाकिस्तान का हिस्सा बना | आज वो बांग्लादेश में हैं |
पाकिस्तान निर्माण के कुछ वक्त बाद गैर मुस्लिमो को निशाना बनाया जाने लगा | हिन्दुओ के साथ लूटमार, बलात्कार की घटनाएँ सामने आने लगी | मंडल ने इस विषय पर सरकार को कई खत लिखे लेकिन सरकार ने उनकी एक न सुनी | जोगेंद्र नाथ मंडल को बाहर करने के लिये उनकी देशभक्ति पर संदेह किया जाने लगा | मंडल को इस बात का एहसास हुआ जिस पाकिस्तान को उन्होंने अपना घर समझा था वो उनके रहने लायक नहीं है | मंडल बहुत आहात हुए, उन्हें विश्वास था पाकिस्तान में दलितों के साथ अन्याय नहीं होगा | करीबन दो सालों में ही दलित-मुस्लिम एकता का मंडल का ख्बाब टूट गया | जिन्ना की मौत के बाद मंडल 8 अक्टूबर, 1950 को लियाकत अलीखां के मंत्री-मंडल से त्याग पत्र देकर भारत आ गये |
जोगेंद्र नाथ मंडल ने अपने खत में मुस्लिम लीग से जुड़ने और अपने इस्तीफे की वजह को स्पष्ट किया, जिसके कुछ अंश यहाँ है | मंडल ने अपने खत में लिखा, ‘बंगाल में मुस्लिम और दलितों की एक जैसी हालात थी | दोनों ही पिछड़े, मछुआरे, अशिक्षित थे | मुझे आश्वस्त किया गया था लीग के साथ मेरे सहयोग से ऐसे कदम उठाये जायेंगे जिससे बंगाल की बड़ी आबादी का भला होगा | हम मिलकर ऐसी आधारशिला रखेंगे जिससे साम्प्रदायिक शांति और सौहादर्य बढ़ेगा | इन्ही कारणों से मैंने मुस्लिम लीग का साथ दिया | 1946 में पाकिस्तान के निर्माण के लिये मुस्लिम लीग ने ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ मनाया | जिसके बाद बंगाल में भीषण दंगे हुए | कलकत्ता के नोआखली नरसंहार में पिछड़ी जाति समेत कई हिन्दुओ की हत्याएं हुई, सैकड़ों ने इस्लाम कबूल लिया | हिंदू महिलाओं का बलात्कार, अपहरण किया गया | इसके बाद मैंने दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा किया | मैने हिन्दुओ के भयानक दुःख देखे जिनसे अभिभूत हूँ लेकिन फिर भी मैंने मुस्लिम लीग के साथ सहयोग की नीति को जारी रखा |
14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान बनने के बाद मुझे मंत्रीमंडल में शामिल किया गया | मैंने ख्वाजा नजीममुद्दीन से बात कर ईस्ट बंगाल की कैबिनेट में दो पिछड़ी जाति के लोगो को शामिल करने का अनुरोध किया | उन्होंने मुझसे ऐसा करने का वादा किया | लेकिन इसे टाल दिया गया जिससे मै बहुत हताश हुआ |
मंडल ने अपने खत में पाकिस्तान में दलितों पर हुए अत्याचार की कई घटनाओं जिक्र किया उन्होंने लिखा, ‘गोपालगंज के पास दीघरकुल (Digharkul ) में मुस्लिम की झूटी शिकायत पर स्थानीय नमोशूद्राय लोगो के साथ क्रूर अत्याचार किया गया | पुलिस के साथ मिलकर मुसलमानों ने मिलकर नमोशूद्राय समाज के लोगो को पीटा, घरों में छापे मारे | एक गर्भवती महिला की इतनी बेरहमी से पिटाई की गयी कि उसका मौके पर ही गर्भपात हो गया | निर्दोष हिन्दुओ विशेष रूप से पिछड़े समुदाय के लोगो पर सेना और पुलिस ने भी हिंसा को बढ़ावा दिया | सयलहेट जिले के हबीबगढ़ में निर्दोष पुरुषो और महिलाओं को पीटा गया | सेना ने न केबल लोगो को पीटा बल्कि हिंदू पुरुषो को उनकी महिलाओं सैन्य शिविरों में भेजने के मजबूर किया ताकि वो सेना की कामुक इच्छाओं को पूरा कर सके | मैं इस मामले को आपके संज्ञान में लाया था, मुझे इस मामले में रिपोर्ट के लिये आश्वस्त किया गया लेकिन रिपोर्ट नहीं आई |
खुलना (Khulna) जिले कलशैरा (Kalshira) में सशस्त्र पुलिस, सेना और स्थानीय लोगो ने निर्दयता से पुरे गाँव पर हमला किया | कई महिलाओं का पुलिस, सेना और स्थानीय लोगो द्वारा बलात्कार किया गया | मैने 28 फरवरी 1950 को कलशैरा और आसपास के गांवों का दौरा किया | जब मैं कलशैरा में आया तो देखा यहाँ जगह उजाड़ और खंडहर में बदल गयी | यहाँ करीबन 350 घरों को ध्वस्त कर दिया गया | मैंने तथ्यों के साथ आपको सूचना दी |
ढाका में नौ दिनों के प्रवास के दौरान में दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा किया | ढाका-नारायणगंज और ढाका-चंटगाँव के बीच ट्रेनों और पटरियों पर निर्दोष हिन्दुओ की हत्याओं ने मुझे गहरा झटका दिया | मैंने ईस्ट बंगाल के मुख्यमंत्री से मुलाकर कर दंगा प्रसार को रोकने के लिये जरूरी कदमों को उठाने का आग्रह किया | 20 फरवरी 1950 को मैं बरिसाल (Barisal) पहुंचा | यहाँ की घटनाओं के बारे में जानकार में चकित था | यहाँ बड़ी संख्या में हिन्दुओ को जला दिया गया | उनकी बड़ी संख्या को खत्म कर दिया गया | मैंने जिले में लगभग सभी दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा किया | मधापाशा (Madhabpasha) में जमींदार के घर में 200 लोगो की मौत हुई और 40 घायल थे | एक जगह है मुलादी (Muladi ), प्रत्यक्षदर्शी ने यहाँ भयानक नरक देखा | यहाँ 300 लोगो का कत्लेआम हुआ | वहां गाँव में शवो के कंकाल भी देखे | नदी किनारे गिद्द और कुत्ते लाशो को खा रहे थे | यहाँ सभी पुरुषो की हत्याओं के बाद लड़कियों को आपस में बाँट लिया गया | राजापुर में 60 लोग मारे गये | बाबूगंज (Babuganj) में हिन्दुओ की सभी दुकानों को लूट आग लगा दी गयी | ईस्ट बंगाल के दंगे में अनुमान के मुताबिक 10000 लोगो की हत्याएं हुई | अपने आसपास महिलाओं और बच्चो को विलाप करते हुए मेरा दिल पिघल गया | मैंने अपने आप से पूछा, ‘क्या मै इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान आया था |”
मंडल ने अपने खत में आगे लिखा, ‘ईस्ट बंगाल में आज क्या हालात हैं? विभाजन के बाद 5 लाख हिन्दुओ ने देश छोड़ दिया है | मुसलमानों द्वारा हिंदू वकीलों, हिंदू डॉक्टरों, हिंदू व्यापारियों, हिंदू दुकानदारों के बहिष्कार के बाद उन्हें आजीविका के लिये पलायन करने के लिये मजबूर होना पड़ा | मुझे मुसलमानों द्वारा पिछड़ी जाति की लडकियों के साथ बलात्कार की जानकारी मिली है | हिन्दुओ द्वारा बेचे गये सामान की मुसलमान खरीददार पूरी कीमत नहीं दे रहे हैं | तथ्य की बात यह है पाकिस्तान में न कोई न्याय है, न कानून का राज इसीलिए हिंदू चिंतित हैं |
पूर्वी पाकिस्तान के अलावा पश्चिमी पाकिस्तान में भी ऐसे ही हालात हैं | विभाजन के बाद पश्चिमी पंजाब में 1 लाख पिछड़ी जाति के लोग थे उनमे से बड़ी संख्या को बलपूर्वक इस्लाम में परिवर्तित किया गया है | मुझे एक लिस्ट मिली है जिसमे 363 मंदिरों और गुरूद्वारे मुस्लिमों के कब्जे में हैं | इनमे से कुछ को मोची की दुकान, कसाईखाना और होटलों में तब्दील कर दिया है | मुझे जानकारी मिली है सिंध में रहने वाली पिछड़ी जाति की बड़ी संख्या को जबरन मुसलमान बनाया गया है | इन सबका कारण एक है | हिंदू धर्म को मानने के अलावा इनकी कोई गलती नहीं है |
जोगेंद्र नाथ मंडल ने अंत में लिखा, ‘पाकिस्तान की पूर्ण तस्वीर तथा उस निर्दयी एवं कठोर अन्याय को एक तरफ रखते हुए, मेरा अपना तजुर्बा भी कुछ कम दुखदायी, पीड़ादायक नहीं है | आपने अपने प्रधानमंत्री और संसदीय पार्टी के पद का उपयोग करते हुए मुझसे एक वक्तव्य जारी करवाया था, जो मैंने 8 सितम्बर को दिया था | आप जानतें हैं मेरी ऐसी मंशा नहीं थी कि मै ऐसे असत्य और असत्य से भी बुरे अर्धसत्य भरा वक्तव्य जारी करूं | जब तक मै मंत्री के रूप में आपके साथ और आपके नेतृत्व में काम कर रहा था मेरे लिये आपके आग्रह को ठुकरा देना मुमकिन नहीं था पर अब मै इससे ज्यादा झूठे दिखाबे तथा असत्य के बोझ को अपनी अंतरात्मा पर नहीं लाद सकता | मै यह निश्चय किया कि मै आपके मंत्री के तौर पर अपना इस्तीफे का प्रस्ताव आपको दूँ, जो कि मै आपके हाथों में थमा रहा हूँ | मुझे उम्मीद है आप बिना किसी देरी के इसे स्वीकार करेंगे | आप बेशक इस्लामिक स्टेट के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए इस पद को किसी को देने के लिये स्वतंत्र हैं |’
पाकिस्तान में मंत्रिमंडल से इस्तीफे के बाद जोगेंद्र नाथ मंडल भारत आ गये | कुछ वर्ष गुमनामी की जिन्दगी जीने के बाद 5 अक्टूबर, 1968 को पश्चिम बंगाल में उन्होंने अंतिम सांस ली |
यह पत्र पढ़ने पर भी दलित भाई मीम-भीम भाई-भाई कर रहे हैं ,कर लो ,
कुछ सालों बाद जब गनती लायक भी नहीं रहोगे ,
तब मोदी को याद करके रोना ,
कोई आसुं पोछने नहीं आऐगा,