जैसा कि हम जानते हैं कि पौराणिक साहित्य में असुरों को खलनायकों की भांति दिखाया गया है, लेकिन अन्य साहित्यिक, ऐतिहासिक स्रोत पुराणों के इस दावे के खिलाफ खडे हैं। दरअसल, हिंदू धर्म ग्रंथ सभी ब्राह्मणेत्तर संस्कृतियों के खिलाफ मुहिम के रूप में लिखे गए हैं। मसलन, हम देखते हैं कि बिहार के इतिहासकार डा. कौलेश्वर राय बक्सर की ताड़कासुर को यक्षिणी के रूप में मान्यता देते हैं और यक्ष-यक्षिणियाँ बौद्ध धम्म से गहरे रूप में जुड़ी हुई हैं। प्राचीन मंदिरों की दीवारों पर वे आज भी शोभा बढ़ा रही हैं।

महाराष्ट्र में शिर्डी के नजदीक वैजापुर में म्हसोबा का मंदिर। इस मंदिर के पुजारी तेली जाति के हैं। संयोग से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जाति भी यही है। (फोटो : एफपी ऑन द रोड)
दूसरी ओर हम राम के हाथों ताड़कासुर के वध की घटना को ‘रामचरित मानस’ में तुलसीदास के शब्दों में देखें :
‘‘चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई।।
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।
सुनि मारीच निसाचर क्रोधी। लै सहाय धावा मुनि द्रोही।।
बिनुफर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा।।
पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु संघारा।।
मारि असुर द्विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनी झारी।।’’[i]

वैजापुर में म्हसोबा चौक : तेली व अन्य पिछड़ी जातियों के लोग म्हसोबा को अपने गाँव के रक्षक के रूप में मानते हैं। (फोटो : एफपी ऑन द रोड)
सवाल यह उठता है कि आखिर द्विजों को ताड़का, मारीच और सुबाहु जैसे असुरों से इतना भय क्यों था, जिसका जिक्र तुलसीदास ने अपनी उपरोक्त काव्य पंक्तियों में किया है? और असुर इनके शत्रु कैसे हो गये? मार्क्सवादी दृष्टिकोण से देखें तो इसका जरूर आर्थिक संबंध रहा होगा। असुरों की सत्ता एवं संपत्ति दोनों हड़पी जा चुकी थी, इनके द्वारा और वे असुर समय-समय पर अपनी शक्तियां बटोरकर अपनी मान-सम्मान की वापसी के लिए, अपने विकास के लिए इनपर हमला करते होंगे। देवों और असुरों के बीच हजारों वर्षों से लड़ी जाने वाली लड़ाईयां दो भिन्न संस्कृतियों, परंपराओं, मान्यताओं की लड़ाई थी, जिसमें असुरों को भारी आर्थिक क्षति सहनी पड़ी।
असुर भूमि उडीसा
उड़ीसा को असुरों की भूमि तो कहीं अनार्यो की भूमि के रूप में चित्रित किया गया है। डॅा. पूर्णिमा केडिया ‘ओड़िया साहित्य का इतिहास’ में लिखती हैं- ‘‘सातवीं-आठवीं शताब्दी तक उड़ीसा में भौमों के शासन काल में बौद्ध कला और कविता का प्रसार होता रहा है। उसके बाद सोमा वंश के ययाति-केसरी ने वैदिक धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए कान्यकुन्ज (कन्नौज) से हजार ब्राहम्णों को बुलाकर उड़ीसा में बसाया, ऐसा प्रसिद्ध है।’’[ii] और आठवीं शताब्दी में शंकराचार्य ने दक्षिण से आकर पूरी को चारों धर्मो में से एक धाम बनाया। ओड़िया भाषा के प्रथम उपन्यासकार फकीर मोहन सेनापति ने ‘छमाण आठगुंड’ में असुरों द्वारा तालाब खोदने की बात की है। असुर वहां के दिग्घी तालाब को रात को कुदाल लेकर खोदते हैं : ‘‘खोदते-खोदते रात बीत गयी थी। दक्खिन वाले कोने में बारह-चौदह हाथ चौड़ा मुहाना-सा एक रही गया, उस पर मिट्टी नहीं डाली जा सकी। गांव में लोगों की हलचल फिर शुरू हो गयी थी, असुर अब जाएँ तो कहां जाएँ? पोखरे के अंदर से ही बिल खोदकर उसी रास्ते गंगा-किनारे पहुंच गये और गंगा-स्नान करने के बाद वहां से भाग गये।’’[iii]

कर्नाटक-महाराष्ट्र की सीमा पर हिटनी नामक जगह पर म्हसोबा का मंदिर. यहाँ से हर वर्ष एक विशाल यात्रा निकाली जाती है जिसे म्हसोबा यात्रा कहा जाता है. (फोटो : एफपी ऑन द रोड)
हिन्दी जनमानस जिस तरह देवता-गण शब्द का इस्तेमाल संयुक्त रूप से होते आया है, ठीक उसी तरह भारतीय इतिहास में नागवंशियों की एक शाखा विशेष के लिए असुर-गण शब्द का इस्तेमाल भी होता है। महाभारत में घटोत्कच की राक्षस (असुर) माँ नागवंशी थी। इससे मालूम होता है कि असुर एक जाति थी। उनका संबंध भी सुरों के साथ हुआ। [iv]
बिहार में गयासुर और दैत्यरा
बिहार के गया जिला गयासुर नाम के असुर पर ही बना, पौराणिक मान्यता के अनुसार गयासुर को आर्यों के अवतारी देव विष्णु ने शिलपट्ट पर चांप कर मारा। उसे राज्य से बेदखल किया। मतलब सत्ता के लिए खूनी-संघर्ष हुआ था देवों और असुरों के बींच। और द्विज-ब्राहम्ण असुरों को परास्त करने के लिए नए-नए तरीके व तरकीब लड़ाकू आर्यों के कुनबे को बताते थे, क्योंकि वे चालाक थे, सीधे संघर्ष से खुद को बचाते थे।

महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के फुलाम्बरी में म्हसोबा महाराजा संस्थान के द्वारा बनाया गया म्हसोबा स्थान। (फोटो : एफपी ऑन द रोड)
बिहार के कैमूर जिला में कई जगह दैत्यरा (असुर) की मूर्ति की पूजा होती है। किसान वर्गों में यह धारणा है कि दैत्यराज सुदूर खेतों की फसलों की रक्षा करते हैं। इसलिए वे उनकी पूजा करते हैं और काले रंग का धागा भी उनके नाम की कलाइयों पर बांधते हैं। उनका मानना है, दैत्य राज अशुभ से उन्हें बचायेंगे। भारत के विभिन्न हिस्सों में दीपावली के एक दिन पूर्व यम का दिया जलाया जाता है। इसका संबंध भी प्राचीन काल की असुर संस्कृति के अस्तित्व के प्रति स्वीकार-भाव से ही है।
समकालीन साहित्यकार
चर्चित उपन्यासकार राजकुमार राकेश ने महिषासुर और दुर्गा के संबंध में लिखा है कि ‘‘जब दुर्गा पूरे नौ दिन और नौ रातों तक उस महल में मौजूद थी, तो सुरों का टोला उसके गिर्द के जंगलों में भूखा प्यासा छिपा बैठा, दुर्गा के वापस आने का इंतजार कर रहा था। आखिर इतने अर्से से दुर्गा ने छलबल से महिषासुर का कत्ल कर दिया।’’[v] इस लोमहर्षक कत्ल ने सुरों को बु्रटस बना दिया है, जो धोखे से सीजर की हत्या कर मंच पर अवतरित होता है, अपने गिने चुने अपने ही जैसे मित्रों के बीच विजय घोष करता है। इसीलिए महिषासुर कभी बहुजनों के जेहन में विस्मृत नहीं होते बल्कि समय के साथ और दमकते चले जा रहे हैं। लेखक ब्रजनन्दन वर्मा ने अपने आलेख ‘महिष राज से महिषासुर’ में महिषासुर के राज्य के बारे में लिखा है- ‘‘राज्य में शांति समृद्धि दिन दुगना रात चैगुना बढ़ने लगी। धूर्त व्याकुल हुए परस्पर मिलकर विचारने लगे। बैठकर षडयंत्र करने लगे। कोई युक्ति मिले. अन्त में एक धूर्त ने कहा चलकर दुर्गा को प्रसन्न किया जाय। वह हस्त लाघव की कला जानती है। समस्या का समाधान सहज में कर सकती है।’’[vi]
दुर्गा-सप्तशती को अंतः साक्ष्य मानने वाले संस्कृत कवि वर्मा ने भी लिखा है कि- ‘‘जिस प्रकार हिरण्यकश्यप, होलिका, बलिराजा, मौर्यवंशीय दश सम्राटों को रावण राक्षस कहा गया है। उसी प्रकार यदुवंश शिरोमणि महिषराज को महिषासुर राक्षस कहकर घृणा द्वेष आदि फैलाया गया। धर्म प्रिय प्रजापालक राजा को राक्षस, असुर, निशाचर आदि कहकर छल कपट से मरवाना ही धूर्तो का कर्म है।’’[vii] वर्मा जी संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। उनका मानना था कि संस्कृत ग्रंथों की टीका जो भी लिखी गई है, उसमें सही अनुवाद की समस्या है। असुरों को जैसा घृणित प्रचारित किया गया है, वह सही जान नहीं पड़ता।
हिंदी साहित्य की अग्रिम पत्रिकाओं में से एक ‘हंस’ में अपूर्वानन्द ने सवाल उठाया है- ‘‘असुरवाहिनी अगर इतनी दुर्दम्य है तो उसके संहार के लिए स्त्री कैसे उपयुक्त हो सकती है? वह अकेले इतने दुर्द्धर्ष असुरों का एक-एक कर नाश कैसे कर पाएगी?’’[viii] सवाल कुछ क्षण के लिए चौंकाने के लिए काफी है; किंतु ‘विषकन्या’ की अवधारणा और पश्चिमी साहित्य में आई कई स्त्री-पात्रों के विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाएगा कि स्त्री-पात्र को हम जितना कमजोर समझते हैं, उतना वह होती नहीं, वरना विश्व-साहित्य में हरमासिस, किल्योपैट्रा की एक फरेबी मुस्कान में धर्मगुरू, देवी-देवता के बरसों की साधना-तपस्या को भूलकर उसके वासना सागर में डुबकियां न लगाता! और न ही ज्ञान से सिंचित होने के बावजूद हरमासिस लाखों लोगों की आशाओं पर पानी फेरता। किंतु, दुर्गा और महिषासुर के कथा-पाठ में एक अलग तरह का तरंग है। जिसमें एक स्त्री को सत्ता हथियाने के लिए मैदान में उतारा जाता है।
लोक-कथा में असुर
मेरी बड़ी दादी बचपन में मुझे एक कथा सुनाती थी; जिसमें एक जंगल में दानवदूत की सुन्दर पुत्री हुआ करती थी। एक दिन उसकी अनुपस्थिति के बीच संध्या समय एक राजकुमार लड़की को मिला। उस असुर-पुत्र की कन्या ने बताया कि उसके पिता दैत्य (असुर) हैं, वे आएंगे तो उसे मार देंगे। इसलिए उसने मिट्टी की कोठिला (मृद्भांड) में उसे छुपा दिया। वह दानवादुत देर संध्या पहर लौटा तो, ‘‘छिः मानुख! छिः मानुख’’ करने लगा। उसे महसूस हो गया कि जरूर यहां कोई हमलोगों से भिन्न ‘मनुष्य’ आया है। बेटी से पूछा किंतु उसकी बेटी ने इस तरह की किसी बात से इन्कार किया। बेटी का कुशल-मंगल लेने के बाद वह चला गया। उसके जाने के उपरान्त असुर पुत्री ने राजकुमार को कोठिले से बाहर निकाला और उसे खाना खिलाया। खाना खिलाते वक्त दोनों के बीच कई संवाद हुए। वे दोनों एक दूसरे को चाहने लगे। राजकुमार ने असुर पुत्री से पूछा ‘‘आपके पिता का प्राण कहां बसता है?’’ इस पर उसने बताया कि उसके पिता का प्राण ताड़ के पेड पर रहने वाले एक सुन्दर पंछी में बसता है। अगले दिन राजकुमार ने ताड़ पर के उस तोते (सुग्गा) का गर्दन ऐंठ दिया। तोते के गर्दन के ऐंठ जाते ही वह असुर दानवादुत भी मर गया। उसके मरने के बाद असुर पुत्री और राजकुमार के बीच शादी हो गई।’’
यह लोक कथा बताती है कि दानव और मानुष के बीच संबंध बनते थे। दानव, मनुष्य से भिन्न नहीं थे। यह उन्हीं की तरह थे। इतना ही नहीं, इस लोक-कथा में इस बात का आना की उस असुर दानव का प्राण ताड़ के उस तोते में बसता था, जो ताड़ के कोटर में रहता था, यह साबित करता है कि असुरों का बहुत गहन का लगाव मनुष्येत्तर प्राणियों से भी था। इतना कि उसकी जान चली जाने पर उसके भी प्राण निकल जाते थे!
आज हम हिंदी कथा-सम्राट प्रेमचंद की कुछ कहानियों में मनुष्यों का मनुष्येत्तर प्राणियों से लगाव के सवाल पर विचार-विमर्श आयोजित करते हैं। महादेवी वर्मा की ‘सोना’, ‘गौरा’, और ‘गिल्लू’ की चर्चा करते हैं, तो लोक-कथाओं में फैले असुरों का मनुष्येत्तर प्राण्यिों से लगाव को हम नजरअंदाज क्यों करते हैं? क्या यह एक विकृत मानसिकता का द्योतक नहीं कि हम सुरों में हर जगह आंख मूंदकर मानवता का दर्शन कर लेते हैं और असुर और दानवों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित हमारा मन उनकी नकारात्मक छवि प्रस्तुत करता है? इस पर भी तो ‘छिः मानुख’ होना चाहिए।
संदर्भ ग्रंथ :
[i] रामचरित मानस-बालकाण्ड, गीता प्रेस, पृष्ट 191-192
[ii] ओड़िया साहित्य का इतिहास- डा. पूर्णिमा केडिया, पृष्ठ-14
[iii] छै बीघा जमीन- फकीर मोहन सेनापति, पृष्ठ-57
[iv] फारवर्ड प्रेस, अक्टूबर 2012, पृष्ठ-12
[v] बयान, फरवरी 2014, पृष्ठ 53
[vi] यादव षक्ति, जनवरी-मार्च 2015, पृष्ठ-25
[vii] उपर्युक्त, पृष्ठ-25
[viii] हंस, दिसम्बर 2015, पृष्ठ-79
महिषासुर से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए ‘महिषासुर: एक जननायक’ शीर्षक किताब देखें। ‘द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन, वर्धा/दिल्ली। मोबाइल : 9968527911ऑनलाइन आर्डर करने के लिए यहाँ जाएँ : महिषासुर : एक जननायकइस किताब का अंग्रेजी संस्करण भी ‘Mahishasur: A people’s Hero’ शीर्षक से उपलब्ध है।
Hello sir me Bihar k Purnea dist ka hu hamare block me ak Narsingh sthan hai jiske bare me ye bataya jata hai ki yahi par Narsingh ka avatar hua tha aur yahi par harinakashpaya ka rajya tha.
Sabse important bat ye hai ki yha par o pillar bhi hai jisse Narsingh Ji avtarit huye the ispar bhi aap log Kuch research kre to kuchh AUR history ka pata chalega.
Mere pas o pillar ka bhi photo hai
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Narsingh sthan
Banmankhi Purnea Bihar
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