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आंबेडकर के नवयान के ज्ञानमीमांसीय आधार

आंबेडकर को एहसास था कि अगर बौद्ध धर्म पंडितों और बौद्धिजीवियों का संस्थानिक या भय पैदा करने वाली व्यवस्था बन गई तो भारत के अछूतों को कभी शामिल नहीं कर पाएगा। इसलिए नवयान की बुनियाद रखी। बता रही हैं सदाफ रूखसार युसूफ

अपनी मृत्यु से तकरीबन दो माह पहले, 6 अक्टूबर 1956 को, नागपुर के एक होटल में डॉ. भीम राव आंबेडकर ने घोषणा की, “मैं बौद्ध के सिद्धांतों को मानता हूं और उसका पालन करूंगा। मैं अपने लोगों (महार) को दोनों धार्मिक पंथ- हीनयान और महायान के विचारों से दूर रखूँगा। हमारा बौद्ध धर्म एक नया बौद्ध धम्म है- नवयान।” नवयान या ‘नया तरीका’ आधुनिक भारतीय बौद्ध धर्म का एक संप्रदाय है जिसे बीसवीं शताब्दी के समुदायों के लिए उपयुक्त बताया गया। अछूतों की स्वतंत्रता के उद्देश्य से आंबेडकर ने नवयान की स्थापना की थी। ऐनी एम. ब्लैकबर्न के अनुसार आंबेडकर बौद्ध धर्म, धर्म, समानता और राष्ट्रवाद को एक दूसरे से संबंधित शब्दावली समझते थे जिसके सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ होते हैं। आंबेडकर बौद्ध धर्म को एक आदर्श समुदाय के रूप में स्थापित करना चाहते थे जो विचारधाराओं के स्तर पर समावेशी लेकिन ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म और भारतीय राष्ट्रवाद के मातहत ना हो।

14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में बौद्ध धर्म की दीक्षा लेते आंबेडकर

सी.ए. बेली के अनुसार, आंबेडकर के हिन्दू धर्म त्यागने के फैसले से काफी पहले ही वे संविधानवाद के विचार से प्रेरित थे। आंबेडकर का मानना था कि वह एक ऐसे समाज में संघर्ष कर रहे थे जहाँ प्रभावशाली जातियां अछूतों और अन्य पिछड़ी जातियों के साथ न्यूनतम मानवता का भी व्यवहार नहीं करती हैं। यही वजह थी कि आंबेडकर ने ‘सामाजिक मान्यता’ के ऊपर ‘वैधानिक मान्यता’ को तरजीह दी। आंबेडकर के राष्ट्र की संकल्पना साझा यादें, अस्तित्व की मिथ्यायें और इतिहास के साझा पहचान की तरफ इशारा करती हैं जो कि अछूतों में समानता का बोध पैदा कर सके। अनन्या वाजपेयी की मान्यता है कि अछूत प्रथा की समस्या से निपटने में कानून, विधि निर्माण और राजनीति की विफलता के चलते, वे (आंबेडकर) अछूतों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित करने की ओर प्रवृत्त हुए। बौद्ध धर्म ने अछूतों को धार्मिक पहचान और आत्म सम्मान सुनिश्चित किया। राज्य की केन्द्रीयता पर आंबेडकर की मान्यताओं और दर्शन इसमें ही निहित है। 1951 तक, जब नेहरु ने हिन्दू कोड बिल से समर्थन वापस ले लिया था (जिसे बाद में 1955 में पारित किया गया), आंबेडकर का निष्कर्ष था कि बहुसंख्यक आबादी को सुधार की कोई उम्मीद नहीं थी। आंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल के मुद्दे पर इस्तीफ़ा दे दिया था।

आंबेडकर को पूर्ण विश्वास था कि दलितों को मुक्ति हिन्दू धर्म के बाहर ही मिलेगी। यहां राज्य की भूमिका अहम हो जाती है। इसपर आंबेडकर द्वारा किया गया व्याख्यात्मक आलोचना महत्वपूर्ण है। अपनी पुस्तक ‘जाति का विनाश’ में उन्होंने ना सिर्फ संस्कृत में लिखे हिन्दू कानून, वेद और शास्त्रों की अनर्थकता और असमानता को रेखांकित किया बल्कि इन्हें जीवन दर्शन और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अयोग्य भी बताया। आंबेडकर के शब्दों में, “हिन्दुओं को विचार करना चाहिए कि उन्हें सामाजिक परंपराओं को संरक्षित करना है या सिर्फ़ कुछ जरूरी परंपराओं को चयनित कर विरासत के तौर पर आने वाली पीढ़ियों के लिए आगे बढ़ाना है।”

अफगानिस्तान में खुदाई के दौरान मिली बुद्ध की इस प्रतिमा को पटना संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है

आंबेडकर ने हमेशा ही वेदों की आलोचना की है। उन्होंने आर्यनों की उत्पत्ति पर भी सवाल उठाए। साथ ही अछूतों के दमन और उनके लिए इस्तेमाल किए गए दास जैसे शब्दों की भी आलोचना की। आंबेडकर ने अपने शिक्षक जॉन डेवी को याद करते हुए लिखा- “समाज तुच्छ और विकृत परंपराओं से भारग्रस्त हो जाता है। जैसे ही समाज प्रबुद्ध होता है उसे एहसास होता है मौजूदा सभी उपलब्धियों को संरक्षित और प्रेषित करना जिम्मेदारी नहीं बल्कि समाज का भविष्य बेहतर करना जरुरी है।”

ये शब्द इशारा करते हैं कि जॉन डेवी का आंबेडकर पर किस कदर प्रभाव था। आंबेडकर ने भी जॉन डेवी के एनडोमोसिस की अवधारणा का प्रयोग किया। आंबेडकर जो कि जॉन डेवी का अनुसरण करते थे उनका मानना था कि ‘सामाजिक अन्तराभिसरण’ ‘विशेषाधिकार’ प्राप्त वर्ग और ‘वर्ग’ के बीच के विभाजन के कारण रुका हुआ है। जहां एक समूह की अपनी इच्छाएं होती हैं जिससे यह समूह दूसरे समूहों से बिल्कुल कट जाता है। अतः वह पुनर्गठन और व्यापक संबंधों से प्रगति के बजाय खुद के हितों को बचाना चाहता है। यह भारतीय उच्च जातियों के उत्कृष्टता और हितों की वजह से ‘सामाजिक अन्तराभिसरण’ की असफलता की ओर संकेत करता है।

एक आदर्श समाज की व्याख्या करते हुए आंबेडकर बताते हैं कि, एक आदर्श समाज में बहुत सारे अधिकारों/ रुचियों के बारे में संप्रेषण होना चाहिए। अलग-अलग बिंदु और एक दूसरे से जुड़ने के माध्यम होने चाहिए। दूसरे शब्दों में एक आदर्श समाज में सामाजिक अन्तराभिसरण होना चाहिए। जॉन डेवी के विचार और प्रणाली को आंबेडकर के शुरुआती जाति के वर्गीकरण के विश्लेषण में और इससे बचने के उपायों में देखा जा सकता है। आंबेडकर ने जॉन डेवी के आजादी, समानता और भाईचारे के विचार को भी अपनाया। सी।ए बेली ने कहा कि आंबेडकर एक संवैधानिक उदारवादी विचारक होने के कारण पारंपरिक उदारवाद से अलग थे। अधिकारों के सार्वभौमिक विचार ने उत्पीड़ित वर्ग के लिए सकारात्मक भेदभाव का मार्ग खोल दिया।

आंबेडकर के लिए समानता उत्पीड़ित वर्गो के साथ समान रूप से व्यवहार और उनके लिए समान अवसर लाती है, ऊंची जातियों से मुक्त करती है। वहीं भाईचारा का मतलब आंबेडकर के लिए सिर्फ लोकतंत्र नहीं था, अपने आस-पास के लोगों के लिए सम्मान के भाव के साथ मिल कर रहना और आपस में संवाद रखना भी था। आंबेडकर के भाईचारे का विचार उनके समानता के बोध/ विचारों में भी नजर आता है।

आंबेडकर ने अछूतों द्वारा बौद्ध धर्म आत्मसात करने को सामाजिक रणनीति के तौर पर समर्थन किया था। लेकिन बेली बताते है चुंकि बौद्ध धर्म सामाजिक समरसता और भक्ति के बजाय सम्मान पर आधारित था इसलिए आंबेडकर इसकी तरफ आकर्षित थे। आंबेडकर के बौद्ध धर्म चुनने के पीछे अनन्या वाजपेयी कुछ तर्क देती हैं- भारत के इतिहास में पहली किसी धार्मिक मान्यता ने जाति व्यवस्था को चुनौती दी थी, समावेशी प्रकृति, वैश्विक चरित्र और विभिन्न देशों में बौद्ध धर्म का पुनर्जागरण। अपने धर्मांतरण के अवसर पर आंबेडकर ने बौद्ध धर्म के वृहद रूप के कारण इसे देश के लिए कम हानिकारक बताया। आंबेडकर हिन्दू भारत में अछूतों के लिए समावेशन और समानता चाहते थे यही कारण था कि इस्लाम या ईसाई धर्म में धर्मांतरण से बचते रहे। संभवतः आंबेडकर के बौद्ध धर्म अपनाने के पीछे एकमात्र राष्ट्रवादी पक्ष इस तर्क को माना जा सकता है।

आंबेडकर का मानना था कि जाति व्यवस्था में अछूत पहले से ही बौद्ध धर्म से ताल्लुक रखते थे। बाद में हिन्दुओं ने इन्हें नौकर और दास बनाकर अपनी सामाजिक व्यवस्था में शामिल कर लिया। यही कारण है कि अछूतों का बौद्ध धर्म में वापस लौटना अपने आधिकारिक घर पर दावा पेश करने जैसा है। आंबेडकर का बौद्ध धर्म, बौद्ध धर्म की प्राचीन सम्प्रदायों से काफी अलग था। इसका जिक्र आंबेडकर के घोषणा में भी है। आंबेडकर को परिव्रज की पारंपरिक अवधारणा को लेकर कोई संशय नहीं था। बौद्ध मोक्ष दाता के बजाय मार्ग दाता था। परिवार सदस्यों की जानकारी में उन्होंने ज्ञान प्राप्ति के लिए घर का त्याग किया और बाद में उनके परिवार सदस्य  ही बौद्ध धर्म में परिवर्तित होने वाले पहले धर्मान्तरित बने। आंबेडकर के लिए बौद्ध एक नश्वर था। उनके लिए बौद्ध मानवीय परिस्थियों से बढ़कर नहीं थे। बौद्ध के दर्शन में- तार्किकता, मानवतावाद, स्पष्टता और वैज्ञानिक प्रकृति आंबेडकर को आकर्षित किया करती। अनन्या वाजपेयी के अनुसार आंबेडकर को बौद्ध धर्म में बौद्धिक तत्परता, नैतिक संशय और व्यापक जीवन अनुभव जैसे जरुरी तत्व दिखा करते। मानवीय संवेदनाओं और नैतिक अस्तित्व की व्यापकता पर गंभीर सवाल साथ ही हिन्दू मान्यताओं में अछूतों की अपमानजनक भूमिका से बौद्ध धर्म का अलगाव आंबेडकर के लिए बौद्ध धर्म की ठोस छवि पेश करते। इसलिए अनन्या वाजपेयी के  निष्कर्ष के मुताबिक आंबेडकर के बौद्ध धर्म का चयन सकारात्मक (बौद्ध धर्म की ओर आकर्षण) और नकारात्मक (दूसरे धर्मों को ख़ारिज करना खासकर हिन्दू धर्म को) नहीं था।

महात्मा बुद्ध की एक आधुनिक पेंटिंग

वास्तविक बौद्ध धर्म ने ‘निस्वार्थता’ का सिद्धांत दिया। इसने एकल, स्थिर और पहचान जैसी अवधारणाओं को ख़ारिज किया जिसके एवज में सामूहिकता के तर्क दिए जा सकते थे। इनसब छवियों ने आंबेडकर का ध्यान आकर्षित किया। इसी सामूहिकता को प्रशस्त करने के लिए आंबेडकर के नवयान द्वारा बौद्ध धर्म के सिद्धांतो में सुधार और बदलाव किये गए।

आंबेडकर के नवयान ने चार कुलीन सत्यों को इस तर्ज पर मानने से इंकार किया कि अगर पीड़ा ही सबकुछ है तो कभी भी पीड़ा और दुखों पर केन्द्रित सामाजिक व्यवस्था स्थापित नहीं की जा सकती। आंबेडकर दुःख को सामूहिक सामाजिक पीड़ा के रूप में समझते थे। उनके लिए पीड़ा सामाजिक तौर पर निर्मित और ऐतिहासिक रूप से विशिष्ट थी जिसे सिर्फ एक धर्म ने अपने नैतिक ढ़ांचे के केंद्र में रखकर पार किया है- वो है बौद्ध धर्म। बौद्ध धर्म ही अछूतों को हिन्दुओं के हाथों भेदभाव और मानहानि से बचा सकती थी।

नवयान ने पुर्नजन्म की अवधारणा को ख़ारिज किया। यह व्यक्ति की मुक्ति की ओर केन्द्रित ना होकर सामूहिक मुक्ति पर आधारित थी। इसका मकसद मृत्यु के बाद बेहतर की आस के बजाय इस जीवन को बेहतर बनाना था। नवयान ने निर्वाण की अवधारणा को नया आयाम दिया। यह सार्वभौमिक व्यक्ति की निराकार कल्पनाओं के बजाय भौतिक दुनिया के अनुभवों के आधार पर ज्ञान प्राप्ति नवयान का लक्ष्य था। निर्वाण आत्म अनुभूति पर केन्द्रित ना होकर समान समाज स्थापित करने पर था। सामाजिक स्तर पर ज्ञान और पीड़ा समझने पर जोर था।

आंबेडकर को एहसास था कि अगर बौद्ध धर्म पंडितों और बौद्धिजीवियों का संस्थानिक या भय पैदा करने वाली व्यवस्था बन गई तो भारत के अछूतों को कभी शामिल नहीं कर पाएगा। इसलिए नवयान ने बौद्ध धर्म को विश्वास में लेने के लिए बौद्ध समुदायों को पुनर्गठित किया। भिक्षु और भिक्षुणी उपासकों के समकक्ष हो ऐसी व्यवस्था बनाई गई। बाद में समाज सेवा भिक्षु की छवि से जोड़ दी गई। ऐसा इसलिए भी किया गया कि भिक्षु आत्मज्ञान और आत्म अनुभवों वाला असामाजिक व्यवस्था का हिस्सा ना बनने पाए।

हालांकि ऐनी एम. ब्लैकबर्न का दृष्टिकोण अलग है। उनके अनुसार, आंबेडकर ने एक ऐसे विचार को अभिव्यक्त किया जिसमें एक व्यक्ति की भावनाएं- योग्य और सामाजिक जिम्मेदारी दोनों ही समानता और धार्मिक दंड जैसी ताकतों से पैदा होते हैं और बनाये रखते हैं। इससे सामाजिक असमानता को सुधारा जा सकता है। हालांकि सामान्य रूप से यह शक्ति एकता के बोध से नहीं आती है। आंबेडकर के अनुसार प्राचीन बौद्ध धर्म एक समान सामाजिक सुधार की परंपरा है। बौद्ध धर्म इन मूल्यों की रक्षा करेगा यह आंबेडकर के विचारों की एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। हालांकि, आंबेडकर इन विचारों को राजनीतिक लामबंदी से नहीं जोड़ते हैं। यह उनके राजनीतिक जुड़ाव और राष्ट्रवाद पर विचारों से स्पष्ट है कि बौद्ध व्यक्ति जो धार्मिक समानता के विचारों से ओत-प्रोत है वह साझा नैतिकता के बजाय राज,नीतिक क्षेत्र में सामाजिक असमानता को चुनौती देगा। अत हमारी विवेचना से यह स्पष्ट है कि नवयान का न सिर्फ सामाजिक और नैतिक बल्कि राजनीतिक आधार भी था।  

(अनुवाद : रोहिन कुमार)


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लेखक के बारे में

सदफ रूखसार युसूफ

सदफ रुखसार यूसुफ दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में शोधार्थी हैं। उन्होंने प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय, कोल्कता से बीए और एमए किया है। आधुनिक व मध्यकालीन भारतीय इतिहास के विभिन्न प्रसंग उनकी रूचि का विषय हैं। उन्हें राजनैतिक श्रेष्ठि वर्ग और धर्म के परस्पर रिश्तों और उसके द्वारा धर्म पर कब्ज़ा करने की प्रवृत्ति में विशेष रूचि है। श्रेष्ठि वर्ग द्वारा देशी दवाईयों पर कब्ज़ा उनके वर्तमान शोध का विषय है

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