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पिछड़ी जातियों के सन्दर्भ में अध्यात्म, ईश्वर और धर्म

हिन्दू धर्म के भीतर पिछड़ी जातियाँ सम्मान-अपमान के बीचोंबीच खड़ी रही हैं। उनकी स्थिति को दलित जातियों से भिन्न समझने पर ही इस गुत्थी को सुलझाया जा सकता है कि हिन्दू धर्म को छोड़ने की बजाए उसमें अपनी दावेदारी कायम करने की कोशिश ओबीसी जातियों ने क्यों की। विश्लेषण कर रहे हैं कमलेश वर्मा :

लेख श्रृंखला : जाति का दंश और मुक्ति की परियोजना

एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में भारत में जाति सिर्फ अपना रूप बदल रही है। निर्जात (बिना जाति का) होने की कोई प्रकिया कहीं से चलती नहीं दिखती। आप किसी के बारे में कह सकते हैं कि वह आधुनिक है, उत्तर आधुनिक है- लेकिन यह नहीं कह सकते कि उसकी कोई जाति नहीं है! यह एक भयावह त्रासदी है। क्या हो जाति से मुक्ति की परियोजना? एक लेखक, एक समाजकर्मी कैसे करे जाति से संघर्ष? इन्हीं सवालों पर केन्द्रित हैं फॉरवर्ड प्रेस की लेख श्रृंखला “जाति का दंश और मुक्ति की परियोजना”। इस श्रृंखला के तहत आज हम बहस के लिये कमलेश वर्मा का यह लेख प्रकाशित कर रहे हैं । – संपादक

आजकल पिछड़ी जातियों के पक्ष में लिखने ,सोचने और बोलनेवालों से उनका धर्म पूछा जा रहा है। यह सवाल प्राय: अतिवादी दलित समूहों की ओर उठाया जाता है। लेकिन वे यह ध्यान नहीं देते कि अगर अनुसूचित जा‍ति के लोगों ने धर्मपरिवर्तन किया है तो अन्य  पिछडा वर्ग के लेागों ने भी किया है। अभी हाल में हरियाणा के भगाना के चर्चित कांड के बाद धर्म परिवर्तन कर इस्लाम स्वीकार करने  वाले लोगों में दलित और पिछडे दोनों थे। ऐसे और भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। सिर्फ इस्लाम ही नहीं, अन्य  पिछडा वर्ग के लोगों ने बडी संख्या में ईसाई और बौद्ध धर्म भी स्वीकार किया है। लेकिन उनका आशय ‘धर्मांतरण’या हिंदू धर्म के ब्राह्म्णवाद की आलोचना से नहीं होता है। उनका(अतिवादी दलितों) आशय सिर्फ  यह होता है कि पिछडी जतियां उस अनुपात में बौद्ध क्यों नहीं बनीं, जिस अनुपात में अनुसूचित जनजा‍ति के लोग बने। लेकिन यह आशय प्रकट करते हुए भी वे यह वास्तंविकता नहीं देख पाते कि अनुसूचित जाति के कितने प्रतिशत बौद्ध बने हैं? 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जाति की आबादी 16.6 प्रतिशत है, जबकि बौद्धों की आबादी 0.8 प्रतिशत है। अगर यह भी मान लिया जाए कि इसमें अधिकांश आबादी अनुसूचित जाति से धर्मांतरित लोगों की है, तब  इन परिस्थितियों में जरूरी हो गया है कि पिछड़ी जातियों की तरफ से चिंतन करनेवाले हम जैसे लोग धर्म, ईश्वर और अध्यात्म पर अपना नजरिया साफ करें।

चित्रकार नीतू विश्वकर्मा, सतना, मध्यप्रदेश

पिछड़ी जातियों में मुसलमान भी शामिल हैं। भारत की मुस्लिम आबादी का लगभग 90 % पिछड़ी जातियों से बना है। सिक्ख और ईसाई धर्मावलम्बियों में भी ओबीसी हैं। ओबीसी होने में धर्म बाधक नहीं है, जबकि दलित होने से इस्लाम रोकता है। आंबेडकर के लेखन में मुस्लिम राजनीति से पर्याप्त टकराव दिखाई देते हैं। कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि दलितों के लिए अलग व्यवस्था या आरक्षण की परिकल्पना का आधार वे मुस्लिम राजनीति से ही प्राप्त करते हैं। आंबेडकर की बहसों में मुस्लिम समाज को अलग से कुछ दिये जाने पर सुषुप्त आपत्ति को महसूस किया जा सकता है।

मुस्लिम ओबीसी की तरफ से धर्म के अस्वीकार का स्वर आज तक सुनाई नहीं दिया है। इस्लाम की आलोचना करनेवाला कोई आन्दोलन भी मुस्लिम समाज की तरफ से नहीं हुआ है। भक्तिकाल के कबीर के अलावा किसी कवि ने इस्लाम को अस्वीकारने और उसकी आलोचना करनेवाली कविता नहीं लिखी। हिन्दू समाज में अपने  धर्म की आलोचना के अनेक रूप लम्बे समय से मौजूद रहे हैं। जाति-प्रथा के वैषम्य को सैद्धांतिक आधार प्रदान करनेवाले हिन्दू धर्म की आलोचना स्वयं हिन्दुओं ने की। इस आलोचना से जुड़े पुरोधाओं की सूची जाँची जाए तो उसमें सर्वाधिक संख्या ओबीसी की मिलेगी। यहाँ आलोचना का मुख्य विषय जाति आधारित ऊँच-नीच है। ब्राहमण की श्रेष्ठता को चुनौती देते ये तर्क अंततः मनुष्य की समानता के पक्षधर हैं। धार्मिक व्यवस्था के भीतर सबको समान अवसर न मिल पाना ही हिन्दू धर्म की आलोचना का आधार बना। धार्मिक सुधार के जो प्रयास नवजागरण काल या उसके बाद हुए उनमें जातिवादी वैषम्य को दूर करने की आधी-अधूरी कोशिश भी की गयी।  

मुंबई में सड़कों पर की गयी वाल पेंटिंग

हिन्दू धर्म के भीतर पिछड़ी जातियाँ सम्मान-अपमान के बीचोंबीच खड़ी रही हैं। उनकी स्थिति को दलित जातियों से भिन्न समझने पर ही इस गुत्थी को सुलझाया जा सकता है कि हिन्दू धर्म को छोड़ने की बजाए उसमें  अपनी दावेदारी कायम करने की कोशिश ओबीसी जातियों ने क्यों की। कहने की जरूरत नहीं कि कृषि संस्कृतिवाली भारतीय संस्कृति के निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका किसानों की रही और असली किसान केवल पिछड़ी जातियाँ रहीं। ब्राह्मण के बिना भी किसान अपने पर्व-त्यौहार मनाता रहा है ,पूजा-पाठ  करता रहा है। वह अपने कृषि-कार्य में भी पूजा-पद्धति का पालन करता रहा है ,जहाँ पुजारी की कोई जरूरत नहीं रही है। इसके साथ-साथ वह ब्राह्मणवाद के प्रति वशीकरण भी महसूस करता रहा है। हिन्दू धर्म के विकास में पिछड़ी जातियों की भूमिका पर भी विचार करना चाहिए। धर्म एक प्रत्यय ही सही , मगर यह है विराट और इसकी व्यापक पकड़ को महज षड्यंत्र नहीं माना जा सकता है। सभ्यता के विकास में धर्म की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। हिन्दू धर्म को केवल ब्राह्मणों ने बनाया है – इस परिकल्पना या स्थापना पर पुनर्विचार करना चाहिए। बहुसंख्यक पिछड़ी जातियों ने इस धर्म को बखूबी अपनाया और पुरोहित-कर्म भी किया। इसके अनेक पक्ष कृषि से जुड़े हैं ,जो किसानों की सांस्कृतिक स्वीकृति के बिना संभव नहीं हो सकते थे। ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ बात कहने की कोशिश जरूर करनी चाहिए, मगर ‘सोशली करेक्ट’ बातों से मुँह फेरकर नहीं।  हिन्दू धर्म के प्रति पिछड़ी जातियों का अनुभव, दलित जातियों से भिन्न रहा है ; इसलिए समान प्रतिक्रिया की उम्मीद करना उचित नहीं है। ‘ब्राह्मणवाद का विरोध’ दलितों-पिछड़ों का एक ‘कॉमन प्लेटफॉर्म’ बना, मगर अनेक पक्ष भिन्न रहे ,जैसे ‘अस्पृश्यता’। धार्मिक-सामाजिक अस्पृश्यता केवल दलितों की समस्या रही। इस्लाम में यह समस्या इसी रूप में नहीं रही।

चित्रकार नीतिन सोनावले, महाराष्ट्र

अध्यात्मिक जिज्ञासा मनुष्य का स्वभाव है। ईश्वर की अवधारणा को नहीं मानने की परंपरा भी रही है जिसके अनुयायी सभी जातियों में कम संख्या में दिखाई पड़ते हैं। मनुष्य की आध्यात्मिक चेतना ने ईश्वर-जैसे प्रत्यय की रचना दुनिया की प्रत्येक सभ्यता में की। थोड़े अंतर के साथ इनमें अनेक समानताएँ मिलती हैं। जन्म, मृत्यु, विवाह, परिवार आदि कुछ अनिवार्य प्रकरणों में हम प्रायः अपने धर्म के अनुसार गतिविधियों को पूरा करते हैं। बीच-बीच में कुछ नए विकल्प अपनाए  जरूर गए, मगर वे टिक नहीं पाए। धार्मिक रीति-रिवाज में इतने विकल्प हैं कि अपनी सुविधा के अनुसार उनमें से कुछ को  छोड़ा या अपनाया जा सकता है। यह कहना उचित है कि इन सबसे मुक्ति का रास्ता है निरीश्वरवाद। ईश्वर को न मानो तो धर्म अपने आप निरर्थक हो जाएगा। निरीश्वरवाद का सबसे बड़ा उदाहरण बौद्ध धर्म है। इस धर्म की वैश्विक स्तर पर क्रांतिकारी भूमिका रही है, मगर धार्मिक समूह या संगठन के तमाम अंतर्विरोधों से इसके अनुयायी भी जूझते रहे हैं। तंत्र या यान के रूप में जो परिणतियाँ हुईं; वे मूल से भिन्न ही नहीं, विरूद्ध भी रहीं।

अध्यात्म,  ईश्वर और धर्म के सामान्य रूप को मनुष्य  के बीच से निकालना संभव नहीं लगता है। शिक्षा,विज्ञान,राजनीति,समाज – सबने जोर लगा कर देख लिया है, मगर ये तीनों समाप्त नहीं हुए। इनकी सत्ता अब पहले जैसी नहीं रही। नाम-रूप बदलकर ये आज भी पहले जैसा ताकतवर होना तो चाहते हैं, किन्तु एक सीमा के बाद इनके प्रभाव को न तो लोकतांत्रिक सत्ता स्वीकार करती है न ही जनता। धार्मिक  पाखंड के खिलाफ हुए चिंतन ने हमें इतना सजग और तार्किक बना दिया है कि इन्हें हम अपने ऊपर सत्ता बन जाने की अनुमति नहीं देते हैं। अध्यात्म, ईश्वर और धर्म पर अनावश्यक प्रहार की प्रवृत्ति से भी बचना चाहिए। इनके बारे में फ़ॉर्मूलाबद्ध टिप्पणी करने का खूब प्रचलन है। भाषा का यह ‘जॉर्गन’ चिंतन को बढ़ाता नहीं है बल्कि समर्थकों को निराश करता है और विरोधियों को निश्चिन्त करता है कि इनके पास कहने को कुछ है ही नहीं।


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लेखक के बारे में

कमलेश वर्मा

राजकीय महिला महाविद्यालय, सेवापुरी, वाराणसी में हिंदी विभाग के अध्यक्ष कमलेश वर्मा अपनी प्रखर आलोचना पद्धति के कारण हाल के वर्षों में चर्चित रहे हैं। 'काव्य भाषा और नागार्जुन की कविता' तथा 'जाति के प्रश्न पर कबीर' उनकी चर्चित पुस्तकें हैं

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