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बहुजन के मुक्ति आंदोलन से जुड़े सरोकार

‘चिंतन के जनसरोकार’ में प्रेमकुमार मणि के विचारोत्तेजक लेखों का संग्रह है। यह न सिर्फ दलित-पिछडों की मौजूदा राजनीति की पृष्ठभूमि को समझने के लिए आवश्यक पुस्तक है बल्कि बहुजन संस्कृति व साहित्य की भी पडताल करती है। वीणा भाटिया की समीक्षा :

‘चिंतन के जनसरोकार’ प्रसिद्ध लेखक, विचारक और संस्कृतिकर्मी प्रेमकुमार मणि के लेखों, साक्षात्कारों और संस्मरणों का संग्रह है। लेख विविध विषयों पर हैं। उनका दायरा राजनीति, समाज, साहित्य और संस्कृति तक फैला है। प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि कथाकार हैं। उनके कई कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा उनके लेखों के भी तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उन्हें श्रीकांत वर्मा पुरस्कार भी मिल चुका है। प्रेमकुमार मणि बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रह चुके हैं। इनकी पहचान प्रमुख सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता और विचारक के रूप में है। समाज के हाशिए पर रहने वाले दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों का जीवन इनके चिंतन के केंद्र में रहा है।

मूल्य : 150  (पेपर बैक), 300 रूपए हार्डबाऊंड, ऑडर करें – 91 7827427311

प्रमुख आलोचक और विद्वान प्रोफेसर वीरभारत तलवार ने इनके एक लेख ‘किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन?’ के बारे में लिखा है, “प्रेमकुमार मणि के इस लेख को मैं हिन्दी के बौद्धिक इतिहास में एक उपलब्धि समझता हूं। इस लेख के बाद से इस तरह की परंपरागत और स्थापित सांस्कृतिक-पौराणिक मान्यताओं पर प्रश्नचिह्न लगाना आसान हो गया और सचमुच इसका एक आंदोलन जैसा चल पड़ा। वास्तव में इस लेख ने उन्नीसवीं सदी में महात्मा ज्योतिबा फुले द्वारा हिंदू कथाओं के पुनर्पाठ की परंपरा को फिर से जीवित कर दिया।” यह लेख इस किताब के सबसे आखिर में छपा है और यह गौर करने वाली बात है कि उनके सबसे चर्चित लेखों में शामिल है। इस लेख में उन्होंने जो सवाल उठाए हैं, वे इस देश में बहुजन संस्कृति की अवधारणा को नये सिरे से रेखांकित करने वाले और बहुजन के संघर्षों को नये ऐतिहासिक संदर्भ प्रदान करने वाले हैं। साथ ही, यह बहुजन के नये महिषासुर संबंधी सांस्कृतिक आंदोलन का बीज लेख बन चुका है। दरअसल, बहुजन की अवधारणा बहुत ही व्यापक है, जो विविध विषयों पर लिखे गए इन लेखों से सामने आती है। यह अवधारणा सदियों से शोषण के दुरूह चक्र में फंसे व्यापक जनता की मुक्ति की अवधारणा है, जो तमाम संघर्षों के बावजूद आज तक फलीभूत नहीं हो सकी। ऐसा क्यों हुआ, बहुजन हमेशा क्यों छला जाता रहा, इसे समझना हो तो इस किताब को पढ़ना जरूरी है।

पुस्तक में दो खण्ड हैं। पहले खण्ड में समाज और राजनीति विषयक 17 लेख हैं। दूसरे खण्ड में साहित्य व संस्कृति से जुड़े लेख, संस्मरण और साक्षात्कार हैं। ये लेख, साक्षात्कार और संस्मरण पहले फारवर्ड प्रेस में प्रकाशित हो चुके हैं और इन पर काफी विमर्श भी हुआ है। पर यहां एक साथ संकलित किए जाने से निस्संदेह इनका महत्व बढ़ गया है कि अब पाठकों को इन्हें पढ़ने के लिए इधर-उधर भटकने की जरूरत नहीं है। सारे लेख ज्वलंत विषयों पर हैं। कुछ लेखों के शीर्षक से ही उनके महत्व और प्रासंगिकता को समझा जा सकता है। प्रथम खण्ड में जो लेख प्रकाशित हैं, उनमें से कुछ के शीर्षक हैं – ‘गांधी से ज्यादा आंबेडकर का भारत’, ‘आर्थिक उदारीकरण और दलित’, ‘उदार भारत में दलित’, ‘भ्रष्टाचार की जड़ें हमारी संस्कृति में’, ‘बिहार में हिंदुत्व की अंगड़ाई’, ‘सवर्ण आयोग पर सवाल’, ‘बिहार में मंडल की जीत’, ‘भारत को समझो मोदी जी’ आदि। इनके अलावा जो लेख हैं, उनमें भी दलितों के आंदोलन की समस्या और चुनौतियों को समझने में मदद मिलती है। किताब की संक्षिप्त भूमिका में प्रेमकुमार मणि ने जो लिखा है, उससे इन लेखों की तासीर को समझा जा सकता है। वे लिखते हैं, हम तो समानता, बंधुता और स्वतंत्रता के मूल्यों की हिफाजत करना और विस्तार देना चाहते हैं। आप वर्चस्व, ताकत और अंतत: तानाशाही की बात करते हैं। हमारे संवाद के हर आग्रह को आपने विवाद माना है। आपने जनतंत्र का खिलवाड़ बना कर रख दिया है। आपका धर्म ढकोसले का पर्याय रह गया है। आपकी राजनीति राजकीय हिंसा पर टिकी है और आपका साहित्य, वह भी इन सबसे अलग कहां है! क्या आपको नहीं लगता वह तेजी से चुटकुलेबाजी की ओर सरक रहा है और उसने अपनी गरिमा खो दी है। हम जब जनसरोकारों की बात करते हैं, तब आपकी भृकुटियाँ तनने लगती हैं। हम कोई गुनाह नहीं कर रहे हैं। हम एक व्यापक मानवीयता की स्थापना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि आप हमारे कंधे से उतरें, सामने रखी कुर्सियों पर इत्मीनान से बैठें और कुछ नहीं तो चाय पर चर्चा करें कि गुलामगिरी पर टिकी महाजनी सभ्यता कैसे मिटेगी, कब मिटेगी। लेकिन आप हैं कि हमारे कंधों को ही अपना आसन मान लिया है। हम तो आपको मानवीय बनाना चाहते हैं। आप हमें मनुष्य के रूप में जैसे ही रेखांकित करेंगे, स्वयं भी मनुष्य बन जाएंगे। हमारी मुक्ति दरअसल आपकी भी मुक्ति होगी। आपको अपनी पशुता पर कोई शर्म न हो, हमें इसकी बहुत चिंता है। लेकिन हम तो प्रार्थना ही कर सकते हैं। बदलने का प्रयास तो आपको स्वयं करना होगा।

पुस्तक में शामिल लेखों के विषय विविधतापूर्ण है, पर मूल चिंता समाज में ऐसे बदलाव की है जो समतामूलक और न्यायपूर्ण हो। यह शोषण के विविध रूपों को खत्म करने पर ही संभव हो सकता है और इसके लिए व्यापक बहुजन को क्या करना होगा, यह चुनौती सामने रखी गई है। यहां अलग-अलग लेखों पर विचार कर पाना संभव नहीं हो सकेगा, लेकिन कुछ मूल मुद्दों को सामने रखना जरूरी है जो इस किताब में शामिल लेखों से उभर कर सामने आए हैं। लेखक का मानना है कि अब संघर्ष के पुराने तौर-तरीकों से काम नहीं चलने वाला हैइसके पीछे जो मूल कारण रहा, वह है नेतृत्व का। अभिजन और उच्च वर्ण का नेतृत्व मेहनतकश के संघर्षों को उसके अंजाम तक पहुंचा पाने में असफल हुआ है। विचारधारा के नाम पर मार्क्सवाद की बात करने वाला यह नेतृत्व अपने संस्कारों में उच्च वर्गीय ही बना रहा और जाति संबंधी श्रेष्ठता की ग्रंथि भी इसमें रही। इसने बहुजन यानी निम्न जातियों से आने वाले मेहनतकशों का इस्तेमाल महज वोट बैंक के रूप में किया है और बहुजन सिर्फ छला गया है, इस बात को समझना बहुत ही जरूरी है। जिस दलित आंदोलन और बहुजनवाद की बात प्रेमकुमार मणि इस किताब में करते हैं, वह परंपरागत दलित आंदोलन से गुणात्मक रूप में भिन्न है, न कि उसकी एक अगली कड़ी है। यह एक नए और संपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की प्रस्तावना है जो वास्तव में आर्थिक शोषण के मकड़जाल से दलितों को मुक्त कर सकती है और उन्हें राजनीतिक शक्ति भी प्रदान कर सकती है। जाहिर है, इस आंदोलन का नेतृत्व भी वंचित जातियों यानी बहुजन से ही निकलेगा, न कि सवर्ण नेतृत्व जो महज विचारधारा की जुगाली करता है, उन पर थोपा जाएगा।

प्रेमकुमार मणि

अपने लेखों में प्रेमकुमार मणि बहुजन संस्कृति और साहित्य की भी बात करते हैं, जिसे समझना बहुत ही जरूरी है। वे आरक्षण, भाषाई राजनीति, सांप्रदायिकता, चुनाव, सवर्णवाद आदि कई प्रश्नों पर विचार करते हैं। इन्हें समझे बिना दलितों की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती और न ही उसका कोई सार्थक परिणाम सामने आ सकता है। इस किताब में सबसे महत्वपूर्ण और आज सबसे प्रासंगिक लेख है – भारत को समझो मोदी जी। इस लेख के माध्यम से प्रेमकुमार मणि ने जेएनयू और वहां हुए आंदोलन के सवालों को उठाया है और देश की समन्वित संस्कृति की परंपरा को रेखांकित किया है, साथ ही शंबूक, महिषासुर और एकलव्य की भी बात की है, जो प्रतिरोध की संस्कृति के प्रतीक रहे हैं। अब मोदी जी उन बातों को समझें या नहीं समझें, पर पाठक अवश्य समझ सकेंगे कि सामाजिक मुक्ति और स्वतंत्रता के सवाल कैसे हैं और उन्हें कैसे हासिल किया जा सकता है। दूसरा सबसे महत्वपूर्ण लेख है ‘हिंदू हिटलर का अवसान।’ यह शिवसेना के अध्यक्ष बाला साहेब ठाकरे के निधन पर लिखा गया था। यह लेख बार-बार पढ़ने योग्य है। इससे हमें उग्र हिंदू सांप्रदायिकता को समझने की अंतर्दृष्टि मिलती है।

किताब के दूसरे खण्ड ‘साहित्य व संस्कृति’ में जाहिर है इनसे ही संबंधित लेख, संस्मरण और  साक्षात्कार हैं। इसमें बहुजन साहित्य पर चर्चा काफी जानकारी बढ़ाने वाली है। प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के दौरान इस पर चर्चा नहीं हुई। जैसे समाज और राजनीति में बहुजन उपेक्षित रहा, उसी प्रकार साहित्य में भी उसकी उपेक्षा हुई। दरअसल, बहुजन साहित्य की अवधारणा एक विशिष्ट अवधारणा है और वह पहले के दलित साहित्य की अवधारणा से जुड़ी होने के बावजूद गुणात्मक रूप में उससे भिन्न है। इस विषय पर लेखक से प्रेमा नेगी ने बातचीत की है, जिसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। दूसरा लेख है ‘साहित्य में जाति विमर्श’ जिसमें दलित विमर्श के साथ उसकी अगली कड़ी के रूप में बहुजन साहित्य की अवधारणा प्रस्तुत की गई है। यह लेख ऐतिहासिक संदर्भों में पढ़ा जाना चाहिए। यह कई रूढ़ियों को तोड़ने वाला लेख है। इस खण्ड में समकालीन आलोचना, साहित्य की दार्शनिक पृष्ठभूमि के अलावा साहित्य जगत की कुछ चर्चित शख्सियतों पर भी संस्मराणात्मक लेख हैं। इनमें राजेन्द्र यादव का नाम सबसे पहले है। कुछ लेखकों और उनकी किताबों पर भी प्रेमकुमार मणि ने लिखा है, पर बहुत ही संक्षेप में। खासकर बाल्ज़ाक पर। हिंदी में बाल्ज़ाक पर कम ही लिखा गया है। हम उम्मीद कर सकते हैं कि वे विस्तार से भी लिखेंगे। हिंदी में प्राय:  अपरिचित शमोएल अहमद के उपन्यास ‘महामारी’ पर भी उन्होंने लिखा है। इसके अलावा, रवींद्रनाथ ठाकुर और रेणु का पुण्य स्मरण कर लेखक ने परंपरा को समकालीनता से जोड़ने की कोशिश की है। कुल मिला कर, यह कहा जा सकता है कि छोटे-से कलेवर की किताब में जितना कुछ प्रेमकुमार मणि ने संजोया है, वह वैचारिक-सांस्कृतिक नवोन्मेष की दृष्टि प्रदान करने वाला है। पुस्तक के संबंध में एक महत्वपूर्ण जानकारी यह भी है कि हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी ‘द कामन मैन स्पीक्स आउट’ शीर्षक से प्रकाशित हुई है।


पुस्तक : चिंतन के जनसरोकार

लेखक:  प्रेमकुमार मणि
पृष्ठ संख्या : 128
संस्करण : प्रथम संस्करण, जून, 2016 (पुनर्मुद्रित : जून, 2017)

प्रकाशक : द मार्जिनालाइज्ड प्रकाशन दिल्ली

मूल्य : 150  (पेपर बैक), 300 रूपए हार्डबाऊंड

यह किताब फारवर्ड प्रेस बुक्स श्रंखला के तहत प्रकाशित की गई है। हमारी किताबों के संबंध में विस्तृत जानकारी यहां देखें :  https://www.forwardpress.in/2017/03/forward-press-books/

किताबें घर बैठे मंगवाने के लिए निम्नांकित नंबरों पर संपर्क कर सकते हैं :  

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+91 9968527911, द मार्जिनलाइज़्ड प्रकाशन, दिल्ली

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लेखक के बारे में

वीणा भाटिया

वीणा भाटिया स्‍वतंत्र पत्रकार हैं

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