“अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद” (एबीवीपी) आरएसएस (संघ) की एक शाखा है। संघ की यह विद्यार्थी शाखा विश्वविद्यालयों के चुनावों में भाग लेकर अपने चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा विश्वविद्यालय प्रशासन पर अपना दबाव बनाती है। भाजपा के भावी नेता इस विद्यार्थी परिषद से निकलते हैं। संघ की यह छात्र शाखा विद्यार्थी और विश्वविद्यालयों में संघ की विचाराधारा को प्रचारित-प्रसारित करती है। मुख्यत: बहुजन समाज के विद्यार्थी इनके एजेंडे पर होते हैं। ये बहुजन छात्रों पर सीधे तौर पर संघ की विचारधारा नहीं थोपते, बल्कि शुरूआती दौर में बहुजन विद्यार्थियों की समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित कर, उन्हें “अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद” का सदस्य बनाते हैं। जिस वर्ग या जातीय समूह से विद्यार्थी आते हैं, उस वर्ग या जाति विशेष की समस्याओं को लेकर, संघ और परिषद के काम करने के तरीके से अवगत कराया जाता है। मुख्यत: हिंदू-मुस्लिम भेद पर प्रकाश डालकर मुसलमान देश के लिए कितने खतरनाक हैं, इसका सिद्धांत समझाया जाता है।

एलायन्स फॉर सोशल जस्टिस ने हैदराबाद केंद्रीय विश्विद्यालय में छात्र-संघ का चुनाव जीता। इस एलायन्स में आदिवासी, दलित-बहुजन, मुस्लिम संगठनों के साथ वामपंथी संगठन भी शामिल थे
आजकल विश्वविद्यालयों में “अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद” अधिक आक्रामक हुई दिखाई दे रही है, इसका मुख्य कारण है, भाजपा का सत्ता में आना और संघ की ताकत का बढ़ना। अब वे संघ के विचार विद्यार्थियों पर थोपना चाहते हैं और देशप्रेम का चोला पहनकर, दूसरे संगठन के विद्यार्थियों को देशद्रोही कहने लगे हैं। विश्वविद्यालयों के परिसर संघर्ष के केन्द्र बन गए हैं। विश्वविद्यालयों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, वामपंथी विद्यार्थी संगठन एवं फुले-आंबेडकरवादी विद्यार्थियों के बीच में संघर्ष अब आम बात हो गई है। अन्य विद्यार्थी संगठनों के सेमिनारों में अगर संघ/हिन्दुत्ववाद विचारधारा विरोधी वक्ता बुलाया जाता है, तब एबीवीपी के विद्यार्थी हंगामा खड़ा कर सेमिनार न होने देने की बात करते हैं। आजकल पुलिस इतनी सस्ती हो गई है कि वे एबीवीपी के बुलावे पर तत्काल हाजिर हो जाती है।
हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला और उसके साथियों पर की गई कार्रवाई एबीवीपी और केन्द्रीय मंत्रियों द्वारा दिए गए दबावों का नतीजा था और रोहित वेमुला की गई संस्थागत हत्या उसका एक परिणाम था। इस संस्थागत हत्या के विरोध में पूरे देश में विरोध प्रगट किया गया, लेकिन किसी भी दोषी को सजा नहीं दी गई। बल्कि उलटे रोहित वेमुला की जाति को ही बदल दिया गया, ताकि दोषियों पर अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारक कानून के अंतर्गत कार्रवाई न हो। राजसत्ता का दुरुपयोग कैसे किया जा सकता है? इसका भाजपा ने देशवासियों को एक नया फार्मूला दिया है।
दूसरे एक प्रसंग में जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी के छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार, उमर खालिद अनिर्बान भट्टाचार्य पर देशद्रोह का आरोप लगाकर जेल में डाल दिया गया। देश के तथाकथित मीडिया
ऐंकरो ने जजों की भूमिका निभाकर इन लोगों को जेल में डालने की सलाह दी। जी न्यूज, टाइम्स नाउ और इंडिया टीवी की रिपोर्टों के आधार पर पुलिस ने उनपर देशद्रोह का केस लगाकर, उन्हें जेल में डाल दिया। देश के कुछ वकीलों ने भी उनके साथ दुर्व्यवहार किया। आजकल संघ और भाजपा के कार्यकर्ता अनेक रूपों में दिखाई दे रहे हैं। कभी वे वकीलों के रूपों में, कभी जजों के रूपों में, कभी टीवी एंकरों, समाचार पत्र के संपादक और बड़े-बड़े प्रशासनिक अधिकारियों में रूप में संघ और भाजपा के कार्यकर्ता दिखाई दे रहे हैं। इस पूरी स्थिति को जनपक्षधर लोग देश के लिए खतरा मानते हैं और इसे आगामी गृहयुद्ध का संकेत बता रहे हैं।

जेाएनयूु के छात्र-संघ के चुनावों में बिरसा-आंबेडकर-फुले स्टुडेंट एसोसिएशन के वोट शेयर में काफी वृद्धि हुई
रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या हो, या कन्हैया कुमार और उसके साथियों पर देशद्रोह का आरोप हो, देश के विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी, यह तमाशा देख रहे थे। उन्हें बस एक मौके की तलाश थी। वह विश्वविद्यालयों के चुनाव के नामपर मिल गई। इसके पहले देश कई विश्वविद्यालयों में एबीवीपी का छात्र-सघों पर कब्जा था। लेकिन अभी हुए छात्र चुनावों में संघ और भाजपा की शाखा, एबीवीपी कों छात्रों ने धुल चटा दिया। दिल्ली विश्वविद्याल, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्याल, पंजाब विश्वविद्याल, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, इत्यादि विश्वविद्यालयों में छात्रों ने एबीवीपी को करारी हार चखाई है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में एबीवीपी का सालों से कब्जा रहा है। लेकिन वहां हाल के चुनावों में एबीवीपी, आईसा और एनएसयूआई के बीच में संघर्ष देखने को मिला। जहां एनएसयूआई (कांग्रेस) को अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद पर जीत मिली। वहीं जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी) पर वामपंथी छात्र संगठनों ने कब्ज़ा कर लिया। एबीवीपी का कागज़ कोरा ही रह गया। जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय और हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में एबीवीपी, एनएसयूआई और वामपंथी छात्रों की पकड़ मजबूत रही है। लेकिन अब एक चौथी ताकत ने विश्वविद्यालयों में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई है। बिरसा-फुले-आंबेडकरवादी छात्र संगठन यह एक चौथी ताकत है। जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी में बाप्सा (बिरसा–आंबेडकर-फुले एसोसिएशन) के छात्रों ने छात्र-राजनीति को एक नया आयाम दे दिया। बाप्सा का वोट शेयर काफी बढ़ गया है। जेएनयू में बाप्सा का उदय एक शुभ संकेत है। विश्वविद्यालयों के परिसरों में, छात्रों ने एबीवीपी की राजनीति और विद्वेषी ब्रांड के खिलाफ मतदान किया।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के चुनाव में समाजवादी छात्र-सभा विजयी हुई
17 जनवरी, 2016 को रोहित वेमुला की विश्वविद्यालय परिसर में संस्थागत हत्या के बाद हैदराबाद केंद्रीय यूनिवर्सिटी के छात्र चुनावों में एबीवीपी के विरोध में एलायन्स फॉर सोशल जस्टिस (एएसजे) द्वारा चुनाव लड़े गए। जहा ‘स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई), आंबेडकर छात्र-संघ (एएसए), दलित छात्र- संघ (डीएसयू), आदिवासी छात्र-मंच (टीएसएफ), मुस्लिम छात्र फ्रंट (एमएसएफ) और तेलंगाना विद्याधर वेदिक (टीवीवी) छात्रसंघ शामिल थे। इस छात्र चुनाव में एबीवीपी का एक भी छात्र प्रतिनिधि के तौर पर चुनकर नहीं आया। हैदराबाद विश्वविद्यालय में फ़ासिस्ट तत्वों के खिलाफ की लडाई थी, जहां जीत हासिल हुई। उत्तरप्रदेश के विश्वविद्यालयों में समाजवादी पार्टी के छात्र संगठन ने योगी आदित्यनाथ का राज रहते, एबीवीपी (भाजपा) को हरा दिया।
विविध विश्वविद्यालयों में एबीवीपी की हार और प्रगतिशील तत्वों की जीत, छात्रों की राजनीति तथा सामाजिक सोच में आई परिपक्वता का परिचय देती है। विश्वविद्यालयों के यह चुनाव परिणाम सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की आर्थिक, धार्मिक तथा समाजिक नीतियां और ऊंची जाति के मूल्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले समसामयिक हिन्दू भारत के विचार के खिलाफ बढ़ती राजनीतिक भावना को दर्शाते हैं। भाजपा और आरएसएस के भगवे के खिलाफ सभी संभव रंग (लाल, हरे और नीले रंग) संयुक्त रूप से केंद्र में सत्ताधारी पार्टी को एक सीधे चुनौती दे रहे हैं। लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष आदर्शों पर जोर देने के लिए विचारधारा में एकजुटता जरुरी है। यदि विश्वविद्यालयोंके परिसर की छात्र राजनीति एक राष्ट्र के युवाओं और उनके वोटिंग पैटर्न के मूड का संकेत देती है, तो भारत की अगली राजनीति की तलाश फासिस्ट धर्मवाद और आरएसएस के खिलाफ होगी। विश्वविद्यालयों में एबीवीपी की हार से यही संकेत निकलता है।
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What you have recorded is absolutely right and also the emergence of the new association namely BAPSA is importantly noticeable because it has emerged as a counterpart for and an ultimate effect of the Sangh pariwar who ruled this country through various machineries like ABVP and it really has a power to help the universities administrations all over the country to get rid of this kind of anti-social ruling.