सितंबर के तीसरे सप्ताह में फेसबुक में गुजराती में एक जुमला चला ‘विकास गांडो थयी गयो छे’ यानी विकास पगला गया है। शायद ऐसा जुमला गुजरात में ही गढ़ा जा सकता था। यह वह राज्य है जो पिछले तीन दशकों से ‘विकास’ की मार झेल रहा है। यह पूछने का अर्थ नहीं है कि ‘वाइब्रेंट गुजरात’ से किसका भला हुआ। संयोग देखिए एक लाख करोड़ की बुलेट ट्रेन, जिसका अधिकांश भाग गुजरात में ही दौडऩेवाला है, के लिए भूमि पूजन प्रधानमंत्री ने उसी दौरान किया जब यह जुमला अपने चरम पर था। यानी प्रौद्योगिकी जापान की और पूंजी हमारी जोरों पर थी। वैसे भी किसी से छिपा नहीं है कि फिलहाल भारतीय रेलें अपने कर्मचारियों की दक्षता या राजनीतिक नेतृत्व के कारण नहीं बल्कि ‘राम भरोसे‘ चल रही हैं। अकेले वर्ष 2016-2017 में ही 66 दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें 193 लोग मारे गए। जबकि जापान की बुलेट ट्रेन, भूमि पूजन न करने के बावजूद, पिछले 53 साल में एक बार भी दुर्घटना की शिकार नहीं हुई। आगे बढऩे से पहले यह याद कर लेना जरूरी है कि नरेंद्र मोदी ने चुनाव के नजदीक पहुंचे गुजरात के लोगों को यह भी बतलाया कि जापान से 88 हजार करोड़ का जो ऋण मिल रहा है वह सिर्फ 0.01 प्रतिशत की दर पर है।
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मोदी ने उसका भाष्य करते हुए हाथ नचा–नचा कर समझाया कि यह दर लगभग मुफ्त के बराबर है। पर उन्होंने यह नहीं बतलाया कि व्याज का हिसाब कभी भी इतना सीधा नहीं होता। तथ्य यह है कि जापान एक विकसित देश है जहां मुद्रा स्फिति है ही नहीं या लगभग नहीं के बराबर है। दूसरी ओर भारत विकासशील है और यहां मुद्रास्फीती कि दर तीन प्रतिशत वार्षिक है। नतीजा यह है कि अगले दो दशकों में रुपए की कीमत 60 प्रतिशत घटेगी और 88 हजार करोड़ का यह ऋण दो दशक में ही 0.01 प्रतिशत की दर पर ही 1,50,000 करोड़ रुपए हो जाएगा। कल्पना कीजिए अगले तीन दशक बाद यह कहां पहुंचेगा। सच यह भी है कि अपवादों को छोड़ कर दुनिया में कहीं भी ये तीव्रगति रेलें फायदे में नहीं हैं। इसका कारण इनकी लागत है। अहमदाबाद मुंबई के बीच चलने वाली इस गाड़ी को फायदेमंद बनाने के लिए प्रति दिन एक लाख मुसाफिरों की जरूरत होगी पर अनुमान है यह संख्या अपने मंहगे टिकटों के कारण18 हजार से ज्यादा नहीं होने वाली है। आखिरी बात इस बुलेट ट्रेन के बारे में यह है कि अगर जापान को मदद ही करनी थी तो उसने इस तरह का ऋण हमारी वर्तमान रेल व्यवस्था को सुधारने के लिए क्यों नहीं दिया। कारण साफ है, उसकी तीव्रगति रेल की प्रौद्योगिकी को लेने वाला कोई नहीं है।
राजनीति सट्टा नहीं है, यह कहने वाला वर्तमान भारतीय परिदृश्य में मजाक का कारण बन सकता है। पर अगर लोकतंत्र में चुनावी प्रक्रिया के कारण ऐसा नजर आता भी हो कि किस के हाथ कब बटेर लग जाए तो भी इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि राजतंत्र किसी भी हालत में सट्टा नहीं है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्ववाली एनडीए की तीन साल की ‘उपलब्धियां‘, जिस तरह से उनकी सरकार के लिए सरदर्द बनकर सामने आ रही हैं, जानकारों के लिए वह कोई बहुत आश्चर्यजनक नहीं है। लोकसभा के बाद देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश को जीतने के लिए मोदी ने गत वर्ष नवंबर में विमुद्रीकरण का दाव खेला था। आसार बता रहे हैं कि वह आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों के उस हथियार बूमरेंग–सा साबित हो रहा है जो लौटकर आता है और अनाड़ी चलाने वाले पर ही मार करता है।
दिक्कत नरेंद्र मोदी के साथ यह है कि उनकी टोली ऐसी विकट ‘प्रतिभाओं‘ से भरी है जो महज बातें बनाने के माहिर हैं (नए नवरत्नों में एलफांस कन्ननाथन और सत्यपाल सिंह उसके उदाहरण हैं)। वे वेद–पुराणों से हवाई जहाज चलाते हैं, विभिन्न ग्रहों की यात्रा करते हैं, इनवर्टो फर्टिलिटि की प्रक्रिया चुटकियों में हाजिर कर देते हैं, अजर–अमर करने वाली दवाएं हिमालय और गौमूत्र में ढूंढते हैंऔर ऐसे अस्त्र चलाते हैं जो परमाणु हथियारों से भी घातक हैं। साफ बात यह है कि ये अपनी प्रतिभाहीनता और अज्ञान को पुराणपंथ और धार्मिक दिखावे से ढकते रहे हैं।
अगर मोदी के सर्जिकल ऑपरेशन से पहले की गई, गणेश जी की सर्जरी (प्लास्टिक) प्रसंग को कुछ देर को भूल भी जाएं तो, अपने ज्ञान और शिक्षा की सीमा को उन्होंने जिस तरह के ‘हार्ड वर्क बनाम हॉरवर्ड‘ जैसे छिछले जुमले से छिपाया, वह उनकी बौद्धिक लंपटता का उदाहरण मात्र है। पर तब चुनाव का मौसम था और लफ्फाजी भारतीय चुनावों का विशेष गुण है। (21वीं सदी का सबसे बड़ा जुमला ‘हर एक के खाते में 16 लाख‘ याद कीजिए!) आशा करनी चाहिए कि अब तक उनकी समझ में आने लगा होगा कि मनमोहन सिंह का मखौल उड़ा कर उन्होंने कितना बड़ा गड्डा खोदा है।
कोपर्निकस को जला देने और गैलीलियो को डरा देने से सत्य नहीं बदला। चर्च को चार सौ साल बाद अपनी गलती माननी पड़ी। अपने आप में यह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि अधपढ़े और अनपढ़ लोग धर्म की आड़ में ज्ञान को नकारने की हर चंद कोशिश करते हैं। यह मानव इतिहास का एक बड़ा सत्य है, पर जिससे विकासशील देश 19वीं सदी तक मुक्त हो चुके थे, हम पर उसका बोझ आज उल्टा बढ़ाया जा रहा है। निजी स्तर पर यह हीनता का मनोविज्ञान है। संयोग देखिए मोदी की स्नातकीय डिग्री के बारे में आज भी शंका है। स्नातकोत्तर की बात ही छोडि़ए।
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बात करिए ‘हार्ड वर्क‘ की। दस महीने बाद आज भारतीय अर्थव्यवस्था कहां है? मनमोहन सिंह ने क्या कहा था? यही न कि विमुद्रीकरण से अर्थव्यवस्था में ”दो प्रतिशत की गिरावट आएगी। यह अनुमान दबाकर है न कि बढ़ा कर।” उन्होंने विमुद्रीकरण को ”नियोजित लूट और कानूनी डकैती” करार दिया था। देखिए उनकी भविष्यवाणी किस हद तक सही साबित हुई है। गत वर्ष की पहली तिमाही में जहां सकल घरेलू उत्पाद 7.9 प्रतिशत था 2017-18 की पहली तिमाही में वह घटकर 5.7 प्रतिशत पर पहुंच गया था। अगर 99 प्रतिशत पैसा बैंकों में आ गया है, जैसा कि रिजर्व बैंक का कहना है, तो फिर काले धन का क्या हुआ? क्या यह माना जाए कि उल्टा सारा काला धन सफेद हो गया है या करवा दिया गया है, जैसा कि कांग्रेस का आरोप है।
व्यापार ठप है। निवेश निम्नतम स्तर पर पहुंच गया है। मांग नहीं है तो उत्पादन का घटना लाजमी है। पर देखने की बात यह है कि मोदी के शासन काल में यह 8.6 प्रतिशत से घटकर पिछले वर्ष ही 3.5 प्रतिशत पर पहुंच गया था। नौकरियों की स्थिति संभवत: सबसे खराब है। एक अनुमान के अनुसार गत दिसंबर से अप्रैल तक ही 15 लाख नौकरियां खत्म हो चुकी हैं। रही–सही कसर पूरी कर दी है जीएसटी ने, जिसे देश के विकास की रामबाण औषधि माना जा रहा था। जिस हबड़–धबड़ में इसे लागू किया गया है उसने छोटे व्यापारियों की कमर तोड़ दी है। दूसरा सवाल यह भी है कि यह किसके लिए और किस के दबाव में किया गया है? स्पष्ट तौर पर कॉरपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सुविधा और लाभ के लिए। लगे हाथों यहां यह भी याद करना गलत न होगा कि एनडीए सरकार के वित्तमंत्री ने सिवा खुदरा व्यापार के सारे क्षेत्रों को विदेशी निवेश के लिए खोल दिया है। पर अर्थव्यवस्था है कि वह दो गुनी तेजी से लुड़कती जा रही है। इस ‘हार्ड वर्किंग‘ (सुना जाता है हमारे प्रधानमंत्री 18 घंटे काम करते हैं!) सरकार ने जिस तरह एक जमी–जमाई अर्थव्यवस्था को ठिकाने लगा दिया है वह स्तब्ध करने वाला है। भाजपा नेता और वाजपेयी मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री रहे यशवंत सिन्हा के शब्दों में कहें तो ”…एक के बाद एक अर्थव्यवस्था का क्षेत्र संकट में है, विमुद्रीकरण न थमने वाली आर्थिक आपदा साबित हो रहा है, खराब तरीके से परिकल्पित और लागू किए गए जीएसटी ने व्यापार के साथ तबाही मचा दी है…।” (‘आई नीड टु स्पीक अप नाऊ‘, इंडियन एक्सप्रेस, 27 सितंबर 2017)
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इस पर भाजपा के मंत्री कह रहे हैं कि यह मंदी– जो असल में शाह का जुमला है – टैक्निकल कारणों से है। अब उनसे कोई पूछे टेक्निकल कारण क्या बला है! क्या पूरा आधुनिक अर्थशास्त्र ही टेक्निकल नहीं है! यह अधपढ़ों के लिए नहीं है।
मोदी सरकार की असफलता चौतरफा है। पर उनका जोर यह कहने में रहता है कि हमारे खिलाफ एक भी भ्रष्टाचार का आरोप नहीं है। पर नड्डा जैसे लोग उन्हीं के पाले हुए हैं और संजीव चतुर्वेदी जैसे ईमानदार अधिकारी को इसी शासन में दिल्ली में जगह नहीं मिली। पर असली सवाल जो पूछा जा सकता है वह यह कि इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के एक लेख से अडाणी क्यों डर गया था और किसने पत्रिका के ट्रस्टियों पर संपादक को निकालने का दबाव डलवाया था? पाठकों को बतलाने की जरूरत नहीं है कि वह लेख मोदी–अडाणी के अतिरिक्त संबंधों को उजागर करता है। अगर यह सरकार इतनी ही दूध की धुली है तो फिर मोदी ने इस पर एक निष्पक्ष जांच क्यों नहीं बैठाई? पर जैसा कि सिन्हा ने उपरोक्त लेख में ही लिखा है, ”लोगों के मन में डर बैठाना इस खेल का नया नाम है।” इधर पड़ रहे सीबीआई और आयकर के छापे इसका प्रमाण हैं। और संभवत: जिस तरह से टाइम्स आफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स जैसे अखबार सरकार के इशारों पर अपने समाचारों को ही नहीं बल्कि संपादकों को भी निकाल रहे हैं, वे हरकतें भी इस अंदेशे को पुख्ता करती हैं।
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सवाल है ‘विकास पुरुष‘ क्यों ‘मंदी पुरुष‘ साबित होने लगे हैं? उन्होंने तो गुजरात को चमका दिया था! सच यह है कि गुजरात उत्तर प्रदेश की तुलना में एक तिहाई भी नहीं है। इसलिए वहां जो किया जा सकता है वह भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश में कर पाना आसान नहीं है। सत्य वैसे यह भी है कि मोदी के शासन के दौरान गुजरात में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और हिंसा के अलावा जातीय दमन भी बढ़ा। जहां तक सामाजिक कल्याण का सवाल है तो यह याद कर लेना काफी है कि गुजरात में लड़कियों में सबसे अधिक कुपोषण रहा है। सवाल है अगर राज्य में दुनियाभर की पूंजी का निवेश हुआ है तो भाजपा के सबसे ज्यादा भक्त रहे पाटिदारों को ही क्यों आरक्षण की मांग करनी पड़ रही है! ये वे लोग हैं जिनकी राज्य की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भागीदारी है, फिर चाहे कृषि हो, व्यापार हो या उद्योग। साफ है कि निजी क्षेत्र लोगों को रोजगार मुहैया करवाने में विफल रहा है।
इस संदर्भ में सरदार सरोवर, जिसका कुल श्रेय मोदी लेना चाहते हैं, पर बात होनी चाहिए। मोदी ने अपने जन्मदिन पर कहा कि नर्मदा परियोजना पूरी हो गई है। अगर ऐसा है तो फिर गुजरात सरकार के ही आंकड़ों के हिसाब से सरदार सरोवर के पानी को सौराष्ट्र, उत्तर गुजरात और कच्छ के क्षेत्र में ले जाने के लिए बनाई जाने वाली नहरों में से 30 हजार किमी अभी बननी कैसे बाकी हैं? यह तब है जबकि इस के पूर्व निर्धारित लक्ष्य 48 हजार किमी को घटा दिया गया है। दूसरी बात, क्या यह सच नहीं है कि नर्मदा के पानी का सबसे ज्यादा फायदा दक्षिण गुजरात को मिल रहा है जो पहले से ही पानी के मामले में संपन्न है? इसी से जुड़ा तथ्य यह है कि यह क्षेत्र सबसे ज्यादा संपन्न और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली भी है।
मोदी सरकार की आर्थिक असफलताएं गंभीर हैं, जो उनकी अनुभवहीनता, आर्थिक और राजनयिक नीतियों के मामले में अदूरदृष्टि, अतिआत्मविश्वास और आत्ममुग्धता के अलावा उनके सिहपसालारों की अयोग्यता भी है। ढोकलाम के मामले में जिस तरह से अंतत: भारत सरकार को झुकना पड़ा वह खासा शर्मनाक है। इसी तरह पाकिस्तान से तनाव का मामला है। उसी से जुड़ा कश्मीर का मसला है जहां भाजपा के सरकार में होने के बावजूद शांति नहीं हो पा रही है। विदेशी मामलों को छोड़ भी दें तो भी जैसा कि अनुमान है, आर्थिक मोर्चे पर आम जनता की तकलीफों को बढऩा ही बढऩा है और यह खतरा दुतरफा है।
सितंबर में उनके खिलाफ भाजपा के अंदर से भी आवाजें उठनी शुरू हो गईं। सबसे पहले उमा भारती ने, जिन्हें स्वास्थ्य के बहाने हटाया जाने वाला था, स्पष्ट विद्रोह के संकेत दिए। उन्हें मजबूरी में रखा गया पर मंत्रालय बदल दिया गया। इस बदलाव को उन्होंने बिना असंतोष जताये स्वीकार नहीं किया। इस बार जिस आदमी ने मुंह खोला वह मात्र सांसद है पर उसने स्पष्ट शब्दों में कहा कि नेतृत्व उनकी, यानी सांसदों की बात नहीं सुनता। महीना खत्म होते न होते यशवंत सिन्हा का विस्फोटक लेख सामने है। इस तरह आंतरिक असंतोष की अफवाहें यथार्थ में बदल चुकी हैं।
पर इसका एक और पक्ष भी है, जो ज्यादा गंभीर है। राजनीतिक तौर पर मोदी का कमजोर होने का असली खतरा इन बढ़ती असफलताओं का सामाजिक तनाव यानी (सांप्रदायिकता) में बदल दिए जाने का है, जिसे रोकना बड़ी चुनौती होगा।
(यह लेख समयांतर के अक्टूबर, 2017 अंक के संपादकीय के रूप में प्रकशित हुआ है। लेखक की अनुमति से पुनर्प्रकाशित)
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