उन्नीसवीं सदी के महान व्यक्तित्वों में महात्मा जोती राव फुले का महत्वपूर्ण स्थान है। वे एक दूरदर्शी सामाजिक चिंतक एवं क्रांतिकारी समाज सुधारक थे। उनके समकालीन कई समाज सुधारक थे; पर वे समाज में कुछ सुधार चाहते थे। किन्तु महात्मा फुले समाज में आमूल-चूल परिवर्तन चाहते थे। वे महात्मा बुद्ध के समान धर्म प्रवर्तक नहीं थे। किन्तु उनका मानना था कि समाज में धर्म पर अत्याधिक निर्भरता के कारण किसी प्रकार का सुधार तब तक संभव नहीं है, जब तक धर्म में सुधार न हो तथा धार्मिक विचार उन्नत तथा बौद्धिकता पर आधारित न हों। इसी कारण उन्होंने ईश्वर, धर्म, सत्य, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक आदि सभी पर अपने विचार प्रकट किए तथा उसमें व्याप्त अंध विश्वास, कट्टरता आदि की आलोचना की।

भारतीय समाज में व्याप्त धार्मिक आस्थाओं, मान्यताओं, विश्वासों, कर्मकाण्डों का आधार ईश्वर को ही माना जाता है। इस प्रकार भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक, नैतिक आदि सभी प्रकार का शोषण ईश्वर पर ही आधारित था। महात्मा फुले का मानना था कि जब तक ईश्वर से संबंधित स्वार्थियों एवं पाखण्डियों की कल्पनाओं, अंधविश्वासों, कुप्रथाओं को दूर नहीं किया जाता, तब तक समाज में सुधार असंभव है। इसी कारण फुले ने ईश्वरवाद, देववाद, अवतारवाद, भाग्यवाद, पुर्नजन्मवाद, मूर्ति-पूजा आदि की आलोचना की तथा उसके लिए धर्म के ठेकेदार पुरोहितों को जिम्मेदार ठहराया। उनके अनुसार स्वार्थी ब्राह्मण पंडितों ने आमलोगों, शूद्रों एवं महाशूद्रों को सदा के लिए गुलाम बनाए रखने एवं अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिए यह सब ईजाद किया तथा इसके समर्थन में अनेक झूठे ग्रंथों की रचना की, जिसमें केवल पाखण्ड और काल्पनिक कहानियां भरी पड़ी हैं; जिनके जाल में अनपढ़, अशिक्षित जनता को फंसाकर वे अपना उल्लू सीधा करना चाहते थे तथा प्राचीन काल से कर रहे थे।
महात्मा फुले ने मूर्ति पूजा की कटु आलोचना की। उनका मानना था कि मंदिरों में स्थित देवगण ब्राह्मण पुरोहितों का ढकोसला है। उन्होंने मूर्ति-पूजा पर प्रश्न उठाते हुए पुछा कि इस संसार का निर्माणकर्ता एक पत्थर विशेष या स्थान विशेष तक ही सीमित कैसे हो सकता है? जिस पत्थर से सड़क, मकान आदि बनाया जाता है, उसमें देवता कैसे हो सकते हैं? यदि पत्थर में मंत्रों द्वारा देवता आ सकते हैं, तब तो मंत्रों द्वारा मूर्दों को जिलाया जा सकता है।[1]

महात्मा फुले ने वर्ण आधारित जाति व्यवस्था को धर्म मानने की आलोचना की। उन्होंने कहा कि जाति प्रथा धर्म नहीं है, बल्कि यह ब्राह्मणों का अन्य लोगों को नीच मानने की प्रवृति है।[2] उन्होंने पेशा को धर्म मानने की भी कड़ी आलोचना की। उन्होंने इसकी मान्यता पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि किसी व्यक्ति द्वारा जीविकोपार्जन के लिए किया गया कर्म उसका एक पेशा है, धंधा है, न कि धर्म। उन्होंने पूछा कि मजदूरी के लिए हम सभी के कपड़े धोकर यदि धोबी अपना निर्वाह करता है, तो हमलोग भी अपने कपड़े धोते हैं या नहीं? इस तरह मजदूरी लेकर दूसरों के कपड़े धोना, यह एक तरह से धंधा हो गया। इसको किसी का क्यों धर्म कहना चाहिए? धनगरों द्वारा भेड़ें पालकर उनको चराना – यह उसका धर्म नहीं है; बल्कि यह उसका धंधा है। खेती का काम करना कुनबी का धर्म नहीं है; बल्कि यह उसका धंधा है। बाग का काम करना माली का धर्म नहीं है; बल्कि यह उसका धंधा है। मेहनताना लेकर लोगों की सेवा करना नौकर का धर्म नहीं है; बल्कि यह उसका एक धंधा है।[3] फुले ने पुछा कि यदि सभी का निर्माता एक है, उसने सभी चीजों को सबके लिए बनाया है, तो फिर धर्म अनेक कैसे हो सकते हैं?[4]
महात्मा फुले का मानना था कि किसी भी व्यक्ति को सामाजिक समानता, राजनीतिक भागीदारी, धार्मिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता तथा शिक्षा प्राप्ति के अधिकार से वंचित करना तथा उनका शारीरिक एवं मानसिक रूप से धर्म के आधार पर शोषण करना या शोषण को धर्म मानना क्रूरता तथा निर्दयता है। उनके विचार में धर्म आत्मशुद्धि है, सदाचरण है, जिसके द्वारा मनुष्य शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक विकास को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। उन्होंने कहा कि धर्म मानव मात्र की सेवा है। यह स्वतंत्रता समानता तथा बंधुता की भावना है।[5] विमलकीर्ति के अनुसार फुले की दृष्टि में धर्म वह है जो धर्म समाज के हित में, समाज के कल्याण के लिए है। जो धर्म समाज के हित में नहीं है, वह धर्म सत्य नहीं है।

महात्मा फुले ने मानवों में किसी भी प्रकार के जाति भेद को पूर्णतः असत्य, मूर्खतापूर्ण और मानवता के विरूद्ध बताया है। उन्होंने कहा कि हमारे निर्माता ने सभी मानवों को समान बनाया है। इसलिए उनमें किसी प्रकार का जाति भेद नहीं है। उन्होंने कहा है-
मातंग आर्यों में जांचते ही खून एक, एक ही आत्मा जान। दोनों में।
दोनों समान सब खाते-पीते, इच्छा भी भोगते। एक समान।
मातंग आर्य दोनों शोभा मानव की। दोनों का आचरण एक जैसा।
पूछता हूं सब हुए कैसे नीच। आर्य क्यों ऊंच।[6]
महात्मा फुले के पूर्व महात्मा बुद्ध, कबीर एवं नानक ने भी इसी प्रकार की आलोचना की है।
महात्मा फुले ने कर्ममूलक एवं गुणमूलक जातीय मान्यता का भी खण्डन किया है। उनके अनुसार कर्मों या गुणों के आधार पर मनुष्यों की जातियां निर्धारित करना अनुचित है। उनके विचार में किसी वांशिक समूह को मूलतः ही ऊंच या नीच निर्धारित करके वर्चस्व स्थापित करने का अधिकार सूचित करनेवाला या वांशिक भिन्नता के आधार पर मूल्य निर्धारित करनेवाला कोई भी सिद्धांत वैज्ञानिक दृष्टि से आधारहीन है और वह मानवता, सदाचार और नैतिक तत्वों से विसंगत है।[7]
उनके विचार में सभी व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो या पुरूष जन्म से समान होते हैं। इसलिए उनके साथ किसी प्रकार का भेद-भाव का व्यवहार मानवता एवं नैतिकता के खिलाफ है तथा वह ईश्वर के साथ अपराध है।
उनका मानना था कि समाज के विकास के लिए यह आवश्यक है कि समाज का संगठन ऐसा हो कि उसके सभी सदस्यों को स्वतंत्रता एवं समानता के अधिकार बिना किसी भेद-भाव के प्राप्त हो तथा उनके बीच बंधुता और भाईचारा हो। उनके अनुसार विश्व एक परिवार है। संस्कृतियां भिन्न हो सकती हैं। समाज व्यवस्था भिन्न-भिन्न हो सकती हैं। किन्तु उनके मूल चिंतन में मानव एक है। सबका ईश्वर एक है। वह जाति-पाति नहीं मानता है। मनुष्यता सर्वश्रेष्ठ है। जात-पात, वर्ण-भेद और ऊंच-नीच की दीवारें सब ब्राह्मणों की देन है, जो उन्होंने अपने लाभ के लिए खड़ी की है।[8]
समाज में ब्राह्मण पुरोहितों ने पारिवारिक उत्सव, व्रत, जन्म, मुंडन, विवाह जैसे अनेक प्रकार के कर्मकाण्डों के माध्यम से अपनी श्रेष्ठता स्थापित कर रखी थी। फुले का मानना था कि सभी समारोहों से ब्राह्मण पुरोहितों का जब तक पूर्ण बहिष्कार नहीं किया जाता, तब तक समाज से ऊंच-नीच का भेदभाव खत्म नहीं होगा। बहुजन तबके के लोग नीच ही समझे जाएंगे तथा उनकी आनेवाली संतानें भी छुआछूत और सदियों की गरीबी और उत्पीड़न से छुटकारा नहीं पा सकतीं।[9]
फुले का मानना था कि विभिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड, धार्मिक अनुष्ठान सीधे-सादे जनता को लूटने के लिए बनाये गये हैं। उनके अनुसार यह एक पुश्तैनी धार्मिक लूट है।[10] उनके विचार में जाति और धर्म का भ्रमजाल अन्याय और शोषण की प्रक्रिया को बनाये रखने के लिए फैलाया गया है।[11] महात्मा फुले ने लोगों को पुरोहितों के भ्रम जाल से दूर रखने के लिए सीधे-सादे मंगल विधियों की रचना की। उन्होंने उन विधियों के द्वारा अपने ही लोगों के माध्यम से सभी समारोहों को पूरा करने का आह्वान किया।

महात्मा फुले निम्न वर्ग के व्यक्तियों की दयनीय हालत के लिए ब्राह्मणों के निजी स्वार्थ को जिम्मेदार मानते थे। उनके अनुसार ब्राह्मणों ने अपने झूठ-मूठ के काल्पनिक ग्रंथों की सहायता से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की तथा यहां के मूल निवासियों अर्थात् शूद्र तथा अतिशूद्रों को सभी अधिकारों से वंचित कर स्वयं सभी अधिकारों को रख लिया। उनकी शिक्षा प्राप्ति के अधिकार पर भी कठोर पाबंदी लगा दी।[12]
महात्मा फुले का मानना था कि स्वतंत्रता और अवसर की समानता हर मनुष्य की बुनियादी आवश्यकता है। स्वतंत्रता के अभाव में किसी भी मनुष्य के व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास नहीं हो सकता।[13]
वे समाज में व्याप्त छुआछूत को सबसे बड़ा अपराध मानते थे। उन्होंने उसकी आलोचना करते हुए कहा कि कट्टरपंथी ब्राह्मणों ने ईश्वर तथ मानवता के साथ छल किया है। जो लोग सभ्यता की दौड़ में पिछड़ गए उनके साथ पशुओं से भी बदतर सलूक किया गया। अपनी घृणित सोच के कारण वे मैला खानेवाली गाय का पेशाब पीकर पवित्र होते हैं; किन्तु एक शूद्र के हाथ का साफ-सूथरा पानी नहीं पीते।[14]
महात्मा फुले के विचार में समाज में व्याप्त धार्मिक कट्टरता और अंधविश्वास सामाजिक एकता और बंधुता में सबसे बड़ा रूकावट है। उनका मानना था कि जब तक समाज में प्रचलित वर्ण-धर्म और जातिप्रथा का उन्मूलन नहीं किया जाता तथा समाज का संगठन समानता के आधार पर नहीं किया जाता, तब तक सामाजिक एकता नहीं हो सकती तथा एकता के अभाव में समाज तथा देश का संपूर्ण विकास नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि यदि ब्राह्मण विद्वानों को वास्तव में सभी लोगों में एकता स्थापित करने तथा देश का उत्थान करने की चिंता है, तो सर्वप्रथम उन्हें वर्ण-धर्म को जल समाधि दे देनी चाहिए तथा सभी के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए, तभी समाज में वास्तविक एकता स्थापित किया जा सकता है तथा देश का उत्थान हो सकता है।[15]
उन्होंने वर्ण-जाति व्यवस्था के द्वारा समाज में फैलाए गए सभी प्रकार के शोषणों की आलोचना की तथा समाज को एक नये ढंग से संगठित करने की कोशिश की; जिसका आधार स्वतंत्रता और समानता हो। उन्होंने भारतीय समाज से वर्ण-जाति व्यवस्था के संपूर्ण उन्मूलन का आह्वान किया तथा अपने संगठन ‘सत्य शोधक समाज’ के माध्यम से इसके लिए आजीवन प्रयत्नशील रहे। स्वतंत्रता प्राप्ति के सात दशक बीतने के बाद भी उनके द्वारा उठाए गए मुद्दे और समस्याएं आज भी विद्यमान हैं। ऐसे में उनके विचारों का महत्व और भी बढ़ गया है।
[1] चन्दापुरी, आर.एल., भारत में ब्राह्मणवाद और पिछड़ा वर्ग आंदोलन, पृष्ठ सं. 93
[2] Keer, Dhananjay, Mahatma Phuley p. 254
[3] फुले रचनावली, भाग 2, सं. विमलकीर्ति एम., पृष्ठ सं. 125.26
[4] वही, पृष्ठ सं. 214.18
[5] वही, पृष्ठ सं. 202.3
[6] फुले रचनावली, भाग 1, सं. विमलकीर्ति एम., पृष्ठ सं. 217
[7] हंस, अगस्त 2004
[8] चंचरीक, कन्हैयालाल, महात्मा फुले, पृष्ठ सं. 50
[9] वही
[10] वही, पृष्ठ सं. 62
[11] वही, पृष्ठ सं. 64
[12] फुले रचनावली, भाग 1, सं. विमलकीर्ति एम., पृष्ठ सं. 136
[13] वही पृष्ठ सं. 138
[14] चंचरीक, कन्हैयालाल, महात्मा फुले, पृष्ठ सं. 190
[15] फुले रचनावली, भाग 1, सं. विमलकीर्ति एम., पृष्ठ सं. 368
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