इतिहास केवल विजेता का होता है। दो संस्कृतियों के द्वंद्व में पराजित संस्कृति को मिटने के लिए बाध्य किया जाता है। विजेता इतिहास की पुस्तकों को इस प्रकार लिखता है जिसमें उसका गुणगान हो, और विजित को अपमानित किया गया हो। जैसा कि नेपोलियन ने एक बार कहा था, ‘इतिहास क्या है, महज एक दंतकथा, जिससे सब सहमत हों — डॉन ब्राउन.
हर नया विजेता सत्तासीन होते ही अपनी कीर्ति-कथा गढ़ने में जुट जाता है। इसके लिए वह बुद्धिजीवियों की मदद लेता है। उसका एकमात्र उद्देश्य होता है, पराजित समुदायों के दिलोदिमाग पर कब्जा कर लेना। इस तरीके से वह पराजित लोगों के इतिहास बोध को दूषित कर देता है। इस संदर्भ में जार्ज आरवेल ने कहा था कि ‘किसी समाज को नष्ट करने का सबसे कारगर तरीका है, उसके इतिहास बोध को दूषित और खारिज कर दिया जाए।’

विजेताओं द्वारा मन-माफिक इतिहास गढ़ने का काम सहस्राब्दियों से होता आया है।आर्य यहां 1500 ईस्वी पूर्व में आए। उस समय सिंधु सभ्यता(3300 ईस्वी पूर्व—1750 ईस्वी पूर्व) पराभव की ओर अग्रसर थी। वे चाहते तो मरणासन्न सभ्यता को सहेजने की कोशिश कर सकते थे। पर इस बारे में उन्होंने सोचा तक नहीं। उल्टे प्राकृतिक आपदा के शिकार दुर्ग और दुर्गवासियों पर आक्रमण कर अपनी वीरता दिखाते रहे। सहेजने से ज्यादा जोर उन्होंने मिटाने पर दिया। विलासी और विध्वंसक प्रवृत्ति के इंद्र को राजा माना। अनार्य जो समृद्ध सभ्यता के उत्तराधिकारी रह चुके थे, उन्हें असुर, असभ्य, क्षुद्र आदि कहकर अपमानित करते रहे। खुद घुमक्कड़ थे। उपलब्धि के नाम पर उनके पास कुछ था नहीं। जिनके पास था, उनका उल्लेख करके अपनी हेटी नहीं करना चाहते थे। झूठे आर्य(श्रेष्ठ)त्व की रक्षा हेतु उन्होंने मिथकों और कपोल-कल्पनाओं से भरे वेद-पुरान रचे। ऐसे ग्रंथ जिनमें सच खोजने चलो तो सबसे शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी भी नाकाम हो जाए। उनका ध्येय था, जैसे भी हो ब्राह्मणवाद का महिमामंडन करना। ब्राह्मण को सबसे ऊपर, अनुपम और परम-प्रज्ञाशील दिखाना।
भारतीय इतिहासकारों को मोटे तौर पर दो वर्गों में बांटा जा सकता है—पहले वर्ग में वे इतिहासकार हैं जिनके लिए भारतीयता का मतलब हिंदू या ‘हिंदुत्व’ है। अतीतमोह उनकी कमजोरी होता है। वे मानते हैं कि साहित्य तथा अन्य कला-माध्यमों की सार्थकता विलुप्त भारतीयता की खोज में है। उनके लिए संस्कृति और इतिहास में अधिक अंतर नहीं होता। दोनों में से चयन करना हो तो वे संस्कृति का पक्ष लेते हैं। इस नासमझी के कारण लाखों सैनिकों की बलि लेने वाला, छल-प्रपंच से भरा महाभारत ‘धर्मयुद्ध’ घोषित कर दिया जाता है। दूसरा वर्ग आधुनिकता समर्थक लेखकों-इतिहासकारों का है।
संघीय विचारधारा के इतिहासविद् अपने लंगड़े इतिहासबोध द्वारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर बीच-बीच में सांप्रदायिक प्रदूषण फैलाने की साजिश रचते आए हैं। कुछ ऐसा ही केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद शुरू हुआ है। 2014 में वह विकास के वायदे के साथ सत्ता में आई थी, मगर आने के साथ ही उसने दिखा दिया था कि उसकी असल मंशा कुछ और ही है। सरकार बनने के साथ ही ज्ञान-विज्ञान की आधुनिक संस्थाएं उसके सीधे निशाने पर आ गईं। कला-संस्कृति के प्रमुख केंद्रों पर संघीय मानसिकता के लोगों को बिठाया जाने लगा। सरकार का सबसे पहला और विवादित कदम ‘भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद’ के अध्यक्ष की नियुक्ति थी. उसके लिए वाई. सुदर्शन राव को चुना गया था। सुदर्शन राव की योग्यता पर प्रख्यात इतिहासविद् रोमिला थापर की टिप्पणी थी—‘इतिहास के क्षेत्र में सुदर्शन राव का, मानक-रहित पत्रिकाओं में हिंदू धर्म के मिथकीय पात्रों पर लेख लिखने से बड़ा और कौन-सा योगदान है.’

सुदर्शन राव रामायण और महाभारत के कथ्यों की ऐतिहासिकता को स्वीकारते हैं। उनकी यह सोच भाजपा के पितृ संगठन ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ से मेल खाती है। आधुनिकता की कसौटी पर जाति प्रथा कलंक साबित हुई है। फिर भी संघ उसे किसी न किसी रूप में सहेजे रखना चाहता है। जाति-प्रथा का महिमामंडन करते हुए अपने आलेख ‘भारतीय जातिप्रथा: एक पुनर्मूल्यांकन’ में सुदर्शन राव लिखते हैं—‘अतीत में जातिप्रथा भली-भांति काम करती आई है। बीते जमाने में उसे लेकर कोई शिकायत प्राप्त नहीं होती। प्रायः उसे गलत ढंग से पेश किया जाता है। आरोप लगाया जाता है कि वह शासक वर्ग के समाजार्थिक स्वार्थों को कायम रखने के लिए गढ़ी गई थी। असल में वह धर्मशास्त्रों द्वारा समर्थित, सभ्यताकरण की अनिवार्यता है।
2007 में ‘कर्मयोग’ शीर्षक से लिखी गई पुस्तक में मोदी जी ने भी मैला उठाने के काम को ‘वाल्मीकियों के लिए आध्यात्मिक अनुभव’ बताया था। वह जाति-व्यवस्था के महिमामंडन जैसा था, जिसका गुणगान संघ और उसके समर्थक करते ही रहते हैं। शब्दों के किंचित हेर-फेर के साथ यही विचार गोवलकर की पुस्तक ‘बंच आफ थाट्स’(भाग-दो, अध्याय दस) में भी देखे जा सकते हैं—‘जातिप्रथा प्राचीनकाल में भी मौजूद थी। यह हमारे राष्ट्रीय जीवन में हजारों वर्षों से निरंतर उपस्थित है….यह लोगों में संगठन तथा बंधुत्व की भावना पैदा करती है।’ भारत को लंबे समय तक गुलाम बनाए रखने में जाति-प्रथा की भूमिका किसी से छिपा नहीं है। मगर गोवलकर के विचार अलग हैं। उनका मानना है कि जाति-प्रथा थी, इसीलिए यह देश विदेशियों का कम गुलाम रहा। वरना दासता और लंबी खिंच सकती थी। गोवलकर संभवतः अकेले विचारक हैं जो 800 वर्षों के दासताकाल को भी कम मानते हैं।
आखिर वे इतिहास में अतिक्रमण करना क्यों चाहते हैं? इतिहास की पुस्तकों में उल्टा-सीधा कुछ भी जोड़ देने से वर्तमान तो बदल नहीं जाएगा? इसके लिए हमें संस्कृति-निर्माण में इतिहास की भूमिका को समझना पड़ेगा। राजनीतिक दासता ज्यादा से ज्यादा कुछ दशक या पचास-सौ वर्षों की हो सकती है। परंतु सांस्कृतिक दासता सैकड़ों, हजारों वर्षों तक खिंचती जाती है। उससे उबरना आसान नहीं होता। जैसे भारत में ब्राह्मणवाद। वे इतिहास पर कब्जा करना चाहते हैं। ताकि संस्कृति को काबू में रख सकें। जार्ज आरवेल के शब्दों में—‘जो इतिहास को नियंत्रण में रखता है, वह भविष्य को नियंत्रण में रखता है. जो वर्तमान को नियंत्रण में रखता है, वही इतिहास को नियंत्रण में रख सकता है.’ आज जो लोग सत्ता मैं हैं, वे इतिहास की उलटगामी को भली-भांति समझते हैं। इसलिए जब वे सत्ता-बाहर हों, तब भी झूठ-पुराण गढ़ते रहते हैं।
स्थितियां एक बार फिर उनके नियंत्रण में है। सांस्कृतिक वर्चस्व के लिए वे इतिहास बदलने पर उतारू हैं। वे हमारे इस भ्रम को बनाए रखना चाहते हैं कि शासक होना उनका जन्मजात गुण है। उन्हें झूठ का पहाड़ खडा करने में महारत हासिल है। मिथकों और गल्प-आख्यानों के माध्यम से वे काल्पनिक इतिहास को सिकंदर के आक्रमण से भी हजारों वर्ष पीछे तक ले जाते हैं। चूंकि उस समय उनकी उपलब्धियां नगण्य थीं, इसलिए हमारे मन-मस्तिष्क पर छाये रहने के लिए पुराणों और महाकाव्यों के माध्यम से पूरा मिथकीय भंडार हमारे आगे परोस देते हैं। फिर पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसे दोहराते चले जाते हैं। उस समय तक जब तक कि उनका गढ़ा गल्पशास्त्र हमें इतिहास जैसा दिखने न लगे।
(ओमप्रकाश कश्यप के विस्तृत आलेख ‘इतिहास में घालमेल के बहाने’ का संपादित अंश)
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