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सामाजिक न्याय की रणभूमि में अगड़ी जातियों की मजबूत पुनर्वापसी

दलितों व पिछड़ों की राजनीति करने वाले दलों ने इस बार बिहार में सवर्णों को राज्यसभा में भेजने का निर्णय लिया है। यह बिहार में बदलते राजनीतिक समीकरण के संकेत हैं। इसे बिहार की राजनीति में अगड़ी जातियों की मजबूत पुनर्वापसी के रूप में विश्लेषित कर रहे हैं अनिल गुप्ता :

सामाजिक न्याय की राजनैतिक रणभूमि रहे बिहार में आज अगड़ी जातियों को पक्ष में करने की होड़ मची है। राज्य में हो रहे राज्यसभा की छह सीटों के चुनाव में बीजेपी व कांग्रेस ही नहीं, बल्कि जदयू व राजद ने भी केवल अगड़ी जातियों के उम्मीदवार ही उतारे हैं। दो भूमिहार, एक ब्राह्मण, एक राजपूत और एक कायस्थ के साथ बिहार की चारों अगड़ी हिन्दू जातियां आगे बढ़ाई गई हैं तो एकमात्र मुस्लिम प्रत्याशी भी अगड़ी मुस्लिम जाति का है। मजेदार तथ्य यह है कि जिन छह सीटों के लिए चुनाव हो रहे हैं उनपर तीन अगड़ी जातियों और तीन पिछड़ी जातियों के लोग थे। राष्ट्रव्यापी दलित-पिछड़ा आंदोलनों के इस दौर में बिहार में हो रहा यह प्रयोग नए राजनीतिक समीकरण का संकेत है।

बीते सोमवार को राज्यसभा सदस्य के रूप में निर्वाचन हेतु एनडीए की ओर से अपना नामांकन दाखिल करने के बाद विजयी निशान बनाते केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद, वशिष्ठ नारायण सिंह और किंग महेंद्र

राज्यसभा के इस चुनाव में बिहार के सारे सामाजिक समीकरण गड़बड़ा गए हैं। लालू, राबड़ी, तेजस्वी, तेजप्रताप और मीसा भारती वाली यादव बहुल पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने न तो नीतीश कुमार से विद्रोह करने वाले शरद यादव को घास डाली और न ही किसी अन्य यादव को टिकट दिया। इसकी बजाय दिल्ली विवि में अध्यापक और पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉ मनोज झा को टिकट देकर सामाजिक न्याय के लालटेन में बुद्धिजीवी ब्राह्मण की एलईडी लगा ली। बड़ी प्रखरता से मीडिया और देश के समक्ष राजद के एजेंडे को रखने वाले मनोज झा लालू परिवार और पार्टी के साथ हमेशा खड़े रहे हैं। उनकी उम्मीदवारी को वर्षों की सेवा का पुरस्कार भी समझा जा सकता है। राजद के दूसरे उम्मीदवार अशफाक करीम भी मुस्लिम अगड़ी जाति के (शेख) हैं।

अपने दल के उम्मीदवारों डॉ. मनोज झा और अशफाक करीम के साथ पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी

राजद अपने को बिहार में सामाजिक न्याय का सबसे बड़ा पैरोकार बताने वाली पार्टी कहती है। हालांकि उसपर पारिवारिक और यादवों की पार्टी होने के आरोप लगते रहे हैं। माय यानी, मुस्लिम-यादव समीकरण सत्ता की उनकी चाबी रही है। पंद्रह वर्षों के लालू-राबड़ी राज में पूरी पार्टी और परिवार अगड़ी जातियों से कट गए। हालांकि अगड़ी जातियों के शिवानंद तिवारी, रघुवंश प्रसाद सिंह सरीखे कई नाम इससे जुड़े हैं। जदयू के प्रदेश अध्यक्ष और पुनः राज्यसभा जा रहे बशिष्ठ नारायण सिंह भी कभी लालू जी और राजद से जुड़े थे। ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ- इन चारों ऊंची जातियों के लिए शत्रु पार्टी जैसी हैसियत में आ गए राजद के लिए ब्राह्मण और अगड़े मुस्लिम को राज्यसभा भेजने का निर्णय, तेजस्वी यादव के बदले हुए नेतृत्व में पार्टी का चेहरा बदलने की कोशिश भी कहा जा सकता है।

इसी प्रकार, तेजस्वी के बड़े भाई और अपने अज़ब-गज़ब बोलों के लिए मशहूर तेजप्रताप यादव के एक हालिया बयान पर भी नज़र डालनी चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था- “अयोध्या में राम मंदिर बीजेपी-आरएसएस नहीं, हम बनाएंगे… जिस दिन मंदिर बन गया, उसका मुद्दा ही खत्म हो जाएगा और बीजेपी-आरएसएस भी खत्म हो जाएंगे।” तेजप्रताप के इस बयान को महज बड़बोले नेता का बिना सोचे-समझे दिया गया बयान भर नहीं समझना चाहिए, बल्कि बदलते समय के साथ राजद के बदलते तौर-तरीकों के तौर पर भी देखा जाना चाहिए।

एनडीए के उम्मीदवारों के साथ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व अन्य

अब जरा एक नज़र ‘न्याय के साथ विकास’ करने वाले नीतीश कुमार के जदयू पर। दो अगड़े (बशिष्ठ नारायण सिंह व किंग महेंद्र) और दो पिछड़ों (अनिल सहनी व अली अनवर) की खाली हुई सीटों के बदले बहुमत की दो सीटों पर दोनों अगड़ों को नीतीश की पार्टी ने रिपीट कर दिया है। नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जदयू ने एक तरफ महादलित, अति पिछड़ा और न्याय के साथ विकास जैसे फार्मूलों पर काम करते हुए हमेशा खुद को सामाजिक न्याय और आरक्षण का पैरोकार बताया है; तो दूसरी तरफ हर दौर में उनकी पार्टी और सरकार में नीतीश की जाति कुर्मी के साथ अगड़ी जातियों के लोगों का भी बोलबाला भी रहा है। इसे लोग अगड़ा-पिछड़ा बैलेंसिंग के तौर पर भी देखते रहे हैं। इसलिए राज्यसभा की चार से केवल दो सीटों की गुंजाइश पर सिमट गए जदयू ने किसी पिछड़े की बजाय किंग महेंद्र और बशिष्ठ नारायण सिंह पर ही भरोसा जताया है।

दल का नामउम्मीदवारजाति
भाजपारविशंकर प्रसादकायस्थ
जदयूवशिष्ठ नारायण सिंहराजपूत
जदयूकिंग महेंद्रभूमिहार
कांग्रेसअखिलेश प्रसाद सिंहभूमिहार
राजदडॉ. मनोज झाब्राह्म्ण
राजदअशफाक करीम अशराफ मुसलमान

 भूमिहार का चुनाव करना बेहतर समझा है। अशोक चौधरी और कोकब कादरी को प्रदेश संगठन की जिम्मेदारी देने वाली पार्टी में कुछ समय से अगड़ी जातियों की उपेक्षा का शोर होने लगा था। इसलिए प्रदेश अध्यक्ष के मजबूत दावेदार अखिलेश प्रसाद सिंह का चयन किसी के लिए आश्चर्य का विषय नहीं है। यह बिहार कांग्रेस की वर्षों पुरानी परंपरा के अनुरूप भी है। मगर कुछ सालों में बिहार की राजनीति में दलित-पिछड़ा नेतृत्व जरूरत की तरह उभरने और महागठबंधन का हिस्सा होने के कारण कांग्रेस से भी कुछ वैसी ही उम्मीद की गई थी। बीजीपी ने अपनी गुंजाइश वाली एकमात्र सीट पर केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद को रिपीट किया है जो अगड़े समूह की कायस्थ जाति के हैं।

राज्यसभा भेजे जाने के लिए सभी पार्टियों द्वारा केवल अगड़ी जातियों के उम्मीदवारों के चयन पर इन दिनों सोशल मीडिया पर भी बवाल मचा हुआ है। कोई इसके लिए “दलित-पिछड़ों को मिला बाबाजी का ठुल्लू”

कहकर गुस्सा उतार रहा या मजाक उड़ा रहा है, तो कोई बिहार की राजनीति में अगड़ों की मजबूत पुनर्वापसी बता रहा है। यह जो भी हो, मगर बिहार की राजनीति बदल रही है। यह ऐसा भी हो सकता है कि जनता से चुने जाने के लिए बहुसंख्यक लोगों के प्रतिनिधि उतारे जाएंगे, राज्यसभा और विधान परिषद जैसी पतली गली के रास्तों से अगड़ी जातियों के पारंपरिक सामन्तों को सत्ता का भागीदार बनाकर बैलेंस किया जाता रहेगा।


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लेखक के बारे में

अनिल गुप्त

वरिष्ठ पत्रकार अनिल गुप्ता दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण और राजस्थान पत्रिका के विभिन्न संस्करणों में महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। वे इन दिनों बिहार की राजधानी पटना में रहकर स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं

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