(भारतीय इतिहास, विशेषकर प्राचीन इतिहास को लिखने के लिए भारत सरकार ने एक 12 सदस्यीय कमेटी बनाई है। प्राचीन भारत का इतिहास नए सिरे से लिखवाने के पीछे मंशा क्या है। इस विषय पर हम पहले दो लेख प्रकाशित कर चुके हैं। पहला लेख सुभाषचंद्र कुशवाहा का ‘बहुजनों को केंद्र में रख ही लिखा जा सकता है, भारत का सच्चा इतिहास’ दूसरा लेख ओमप्रकाश कश्यप का ‘इतिहास में घालमेल के पीछे संघ की मंशा क्या है’?
इस कड़ी में हम दिल्ली विश्विद्यालय में प्राध्यापक ईश मिश्र का लेख प्रकाशित कर रहे हैं। वह इस लेख की अगली कड़ी के रूप में रामायण, महाभारत और अन्य पौराणिक ग्रंथों की सच्चाई पर लिखेंगे।)
ब्राह्मणवादी इतिहासबोध कालक्रम आधारित तथ्यात्मक की बजाय मिथकीय है, जिसकी युगचेतना अग्रगामी की बजाय अधोगामी है। यह, शीर्ष, सतयुग से शुरू होकर रसातल, कलियुग तक अधोगामी यात्रा करता है। पूर्ण वर्णाश्रम व्यवस्था आधारित सतयुग की कल्पना इसी इतिहासबोध पर आधारित है। यह इतिहासबोध हर उस युग को अधोगति का युग या कलयुग ठहराता है, जिसमें वर्णाश्रम व्यवस्था और ब्राह्मणवाद को चुनौती दी गई हो। अपनी इसी सोच के आधार पर सरकार ने इतिहास पुनर्लेखन की एक कमेटी बनाई है जिसका काम भारत के प्राचीन गौरव की खोज करना है। संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने बयान दिया है कि यदि कुरान तथा बाइबिल ऐतिहासिक हो सकते हैं तो हिंदू ग्रंथ क्यों नहीं? इनका सांस्कृतिक अज्ञान समझा जा सकता है, लेकिन कमेटी के सदस्य तो इतिहास में कम-से-कम मास्टर डिग्री वाले होंगे ही, उन्हें तो ज्ञात होना चाहिए कि जिन अनाम ग्रंथों की बात मंत्री महोदय कर रहे हैं उनके लिखे जाने के समय हिंदू शब्द का अस्तित्व ही नहीं था। हिंदू शब्द दसवीं शताब्दी के आस-पास, अरबों ने सिंधु के इर्द-गर्द की जगहों के वाशिंदों की भौगोलिक पहचान के लिए ईजाद किया, जो कालांतर में ऐतिहासिक कारणों से धार्मिक पहचान बन गयी। इतिहास के पुनर्लेखन के नाम पर इसके पुनर्मिथकीकरण के “राष्ट्रवादी” मंसूबों की भनक तभी मिल गई था जब मौजूदा सरकार द्वारा नियुक्त भारतीय ऐतिहासिक शोध परिषद (आईसीयचआर)के अध्यक्ष, ने पद संभालते ही, इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत पर जोर देते हुए कहा था, “रामायण और महाभारत को सिर्फ इसलिए नहीं अनैतिहासिक कहा जा सकता कि उसके ठोस पुरातात्विक साक्ष्य नहीं हैं”। इस काम को अंजाम देने के लिए सरकार ने गुपचुप एक कमेटी बना डाली, जिसका रॉयटर्स ने खुलासा किया। समिति के अध्यक्ष के.एन दीक्षित ने रायटर्स को बताया, “मुझे एक रिपोर्ट पेश करने को कहा गया है जो सरकार को प्राचीन इतिहास के कुछ पहलुओं को फिर से लिखने में मदद करे।”यानि इतिहास लिखना अब इतिहासकारों का नहीं, सरकार का काम है। संस्कृति मंत्री ने कहा “मैं रामायण की पूजा करता हूं और मुझे लगता है कि यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। जो लोग सोचते हैं कि यह कल्पना है, वे लोग बिल्कुल गलत हैं।” चलिए मंत्री जी तो मेडिकल के विद्यार्थी रहे हैं उनके भक्तिभाव आधारित इतिहासबोध की दरिद्रता समझ आती है, लेकिन 12 सदस्यीय समिति के एक सदस्य, जेएनयू के प्रोफेसर संतोष कुमार शुक्ला ने रायटर्स को बताया कि “भारत की हिंदू संस्कृति लाखों साल पुरानी है”, यानि पाषाणयुग कालीन।
7 मार्च 2017 को पीटाआई के हवाले से फाइनेंसियल एक्सप्रेस में छपी खबर के अनुसार, नवंबर 2016 में गठित इस कमेटी ने नवंबर 2017 में अपनी रिपोर्ट संस्कृति मंत्री को सौंप दिया। रिपोर्ट में कहा गया है कि इतिहास के इस पुनर्लेखन परियोजना का मकसद “यह प्रमाणित करना है कि आज के हिंदुओं के पूर्वज ही हजारों साल पहले से ही इस भूमि के मूल निवासी हैं और यह कि हिंदू ग्रंथ सच हैं, मिथक नहीं”। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि सरकार धार्मिक पहचान के आधार पर राष्ट्रीय पहचान का निर्माण करना चाहती है जिससे साबित किया जा सके कि “भारत हिंदुओं का तथा हिंदुओं के लिए है”।
आर्यों के मूलनिवासी होने के सिद्धांत के प्रवर्तक हैं, आरएसएस के विचार पुरुष, गुरुजी के नाम से जाने जाने वाले माधवराव सदाशिव गोलवल्कर। बाल गंगाधर तिलक ने वेदों तथा अवेस्ता श्रोतों के गहन शोध के बाद लिखी पुस्तक ‘वेदों में आर्कटिक वतन[1] में साबित किया है कि आर्यों का मूल स्थान उत्तरी ध्रुव के इर्द-गिर्द आर्कटिक क्षेत्र था। लगभग 8000 ईशा पूर्व हिमसैलाब के बाद वे यूरोप और एशिया में नए ठिकानों की तलाश में विभिन्न दिशाओं में निकल पड़े। उनमें से एक शाखा वोल्गा होते हुए सिंधु घाटी पहुंची और ऋग्वेद में वर्णित[2] सप्तसैंधव (सात नदियों – सिंध, पंजाब की पांच नदियां और सरस्वती – की भूमि) में जनों (कबीलों) में बस गई। यह सिद्धांत हिंदुत्व के मूलनिवासी सूत्र को नजरअंदाज कर, वैदिक आर्यों को मुगलों के साथ एक ही पायदान पर खड़ा कर देता है। इतिहास के दिवंगत नायकों को अपना नायक बनाना आरएसएस की पुरानी आदत है। बाल विवाह जैसे प्रतिगामी परंपराओं के समर्थन तथा लोगों की लामबंदी के लिए गणेशोत्सव का उद्घाटन आदि के चलते वह तिलक को हिंदुत्व के नायक के रूप में पेश करती है। इस विरोधाभास के समाधान में, जीवविज्ञान में एमएससी, गोलवल्कर ने 1947 में एक लेख में मौलिक भूगर्भशास्त्रीय सिद्धांत का अन्वेषण कर डाला। “अति प्राचीनकाल में यह (उत्तरी ध्रुव) दुनिया के उस हिस्से में था…..(जिसे) आज बिहार और उड़ीसा कहा जाता है”[3]।आप समझ सकते हैं कि इतिहास के पुनर्लेखन का यह फासीवादी मंसूबा तथ्य-तर्कों को दरकिनार कर, इसी तरह की अनर्गल कल्पनाओं पर आधारित होगी, उसी तरह जैसे ब्राह्मणवाद ने सामाजिक यथार्थ की विसंगतियों पर पर्दा डालने के लिए इतिहास के बजाय पुराण लिखा। इतिहास के पुनर्लेखन की यह कसरत, कुछ और नहीं, इतिहास के पुनर्मिथकीकरण का कुत्सित प्रयास है। लेकिन अब तो शंबूकों ने तीरंदाजी सीख ली है और एकलव्यों ने कलम गह लिया है।
[1] BalGangadharTilak, The Arctic Home in Vedas, Tilak Bros, 1903
[2] राहुल सांकृत्यायन, वोल्गा से गंगा तक, किताब महल, इलाहाबाद,1974
[3] Quoted in Ish Mishra, Women’s Question in Communal Ideologies: A Study into the Ideologies of RSS and Jamat-e-Islami, Centre for Women’s Development Studies, New Delhi, 1987.s
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