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जाति कौन तोड़ेगा?

जाति प्रथा को हाल में चुनौती मिली है आधुनिकता की शक्तियों से। लेकिन अभी तक भारत में ये शक्तियाँ जाति प्रथा को कमजोर करने में कोई खास सफल नहीं हुई हैं। बता रहे हैं राजकिशोर :

लेख श्रृंखला : जाति का दंश और मुक्ति की परियोजना

एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में भारत में जाति सिर्फ अपना रूप बदल रही है। निर्जात (बिना जाति का) होने की कोई प्रकिया कहीं से चलती नहीं दिखती। आप किसी के बारे में कह सकते हैं कि वह आधुनिक है, उत्तर आधुनिक है- लेकिन यह नहीं कह सकते कि उसकी कोई जाति नहीं है! यह एक भयावह त्रासदी है। क्या हो जाति से मुक्ति की परियोजना? एक लेखक, एक समाजकर्मी कैसे करे जाति से संघर्ष? इन्हीं सवालों पर केन्द्रित हैं फॉरवर्ड प्रेस की लेख श्रृंखला “जाति का दंश और मुक्ति की परियोजना”। इसमें आज पढें राजकिशोर को – संपादक

जाति समाज के लिए एक विभीषिका है। इस विभीषिका को कम करने के लिए तरह-तरह के कानून बनाये गये हैं। दलितों और शूद्रों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी है। लेकिन हम पाते हैं कि स्वतंत्र भारत में जाति की समस्या दिन-प्रतिदिन गंभीर होती गयी है। बीमारी यहाँ तक आ पहुँची है कि राष्ट्रपति चुनाव में अपने-अपने उम्मीदवारों के बारे में बाद में बताया जाता है, उसकी जाति पहले बतायी जाती है। अभी तक दलित वर्ग से दो राष्ट्रपति हो चुके हैं, लेकिन मूलतः और अंततः यह प्रतीकों की राजनीति है। दलितों की वास्तविक स्थिति को देख कर सवर्ण हिंदुओं को जो ग्लानि होती है, हो सकता है, यह उसकी भी एक प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हो। लेकिन प्रतीकों की राजनीति ने दलित समस्या को और गाढ़ा तथा जटिल ही किया है।

जाति का विनाश थीम पर आधारित एक पेंटिंग (चित्रकार – डॉ. लाल रत्नाकर)

फिर भी, यह कहना पड़ेगा कि आज का भारत डॉ. आंबेडकर का भारत नहीं है। दलितों में शिक्षा का प्रसार हुआ है, अपनी स्थिति के प्रति उनका आक्रोश बढ़ा है और दलितों पर अत्याचार की किसी भी घटना से देश भर में सिहरन होने लगती है। डॉ. आंबेडकर के जीवन में दलितों की एक ही पत्रिका निकलती थी –  मूक भारत, जिसका संपादन और प्रकाशन डॉक्टर साहब खुद किया करते थे, आज अनेक पत्रिकाएँ और वेबसाइट तथा ब्लॉग हैं। डॉ. आंबेडकर की कृतियों का भारत की प्रायः सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और उनके साथ-साथ दलित साहित्य भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। पिछड़ा उभार और मंडल आरक्षण के कारण पिछड़ी जातियों में अभूतपूर्व सक्रियता दिखाई देती है। डॉ. आंबेडकर ने कई बार कहा है कि यदि अस्पृश्य यानी दलित और शूद्र यानी पिछड़ी जातियाँ एक-दूसरे से हाथ मिला कर चलें, तो भारतीय राजनीति में बहुत गहरा परिवर्तन आ सकता है। दुर्भाग्य से देश के किसी भी राज्य में, केंद्र की तो बात ही अलग है, यह गठबंधन नहीं हो पाया है। बल्कि जहाँ-जहाँ पिछड़ा उभार में तुर्शी है, वहां-वहां दलितों की स्थिति बदतर हुई है। स्पष्ट है कि पिछड़ी जाति का होने से ही कोई प्रगतिशील नहीं हो जाता। इसी तरह, दलित राजनीति भी अनिवार्य रूप से प्रगतिशील हो, यह भी स्पष्ट है। महाराष्ट्र में दलित राजनीति का बिखराव और उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की दुर्दशा इसके दो स्पष्ट नमूने हैं। कुछ जगहों पर आंबेडकरवादी और मार्क्सवादी मिल कर राजनीति कर रहे हैं, पर यह गठबंधन कुछ अप्राकृतिक है – विचारों का समन्वयन नहीं, बल्कि अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से नजदीक आने की इच्छा, शायद इसीलिए इस रणनीति का विस्तार नहीं हो पा रहा है। अवसरवाद, किसी भी अन्य राजनीति की तरह, दलित राजनीति को भी पथभ्रष्ट करता है। इससे बेहतर है कि साझा उद्देश्य तय किये जायें और उन्हें प्राप्त करने के लिए संयुक्त मोर्चा की राजनीति अपनायी जाये।  

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यह तो स्थिति है,  असल सवाल यह है कि जाति कैसे टूटेगी? जाति कौन तोड़ेगा? आधुनिकता के प्रचार-प्रसार से जाति धीरे-धीरे कमजोर होती जायेगी और एक दिन ऐसा आयेगा जब भारत का समाज अपने आप जाति-मुक्त हो जायेगा या इसके लिए कुछ विशेष प्रयत्न करना होगा? डॉ. आंबेडकर ने जाति को नष्ट या कमजोर करने के लिए दो प्रक्रियाओं पर विचार किया है अंतरजातीय भोजन और अंतरजातीय विवाह। जाति तोड़ने की दृष्टि से अंतरजातीय भोजन की उपयोगिता के वे बहुत कायल नहीं थे और उनकी यह धारणा हमारे समय के अनुभवों की रोशनी में सच भी साबित हुई है। आज जीवन के बहुत-से क्षेत्रों में अंतरजातीय भोजन सामान्य घटना हो चुकी है, यद्यपि सुदूर गाँवों और कस्बों में अभी भी कुछ होटलों में दलितों के लिए चाय के गिलास अलग रखे जाते हैं। डॉ. आंबेडकर को अंतरजातीय विवाह से ज्यादा उम्मीद थी, क्योंकि यह दो भिन्न जातियों के परिवारों के बीच एक घनिष्ठ रिश्ता कायम करता है – मांस से मांस और खून से खून मिलता है। निश्चय ही स्वतंत्र भारत में अंतरजातीय विवाह बढ़े हैं, पर इसकी गति इतनी धीमी है कि इससे जाति की संस्था को कोई गंभीर आघात मिलता दिखाई नहीं देता। और,  इसका ठोस कारण है। लोग जाति तोड़ने के लिए अंतरजातीय विवाह नहीं करते, बल्कि प्रेम विवाह करते हैं, तो इससे कई बार जाति के बंधन को तोड़ दिया जाता है। अर्थात इन अंतरजातीय विवाहों में मूल चीज विवाह है, अंतरजातीयता तो अप्रत्यक्ष रूप से आ घुसी है। इसलिए ऐसा नहीं लगता कि अंतरजातीय विवाहों से जाति को तोड़ा जा सकता है। यह जरूर है कि देश भर में ऐसी स्थितियाँ बनें जिनमें दलित और गैर-दलित के रहन-सहन के स्तर में उल्लेखनीय फर्क न रह जाये, तब बड़े पैमाने पर अंतरजातीय विवाह होंगे और जाति का मलला धीरे-धीरे निष्प्राण होता जायेगा। इसी अर्थ में डॉ. आंबेडकर की स्थापना बहुत ही गंभीर और सार्थक है।   

सड़क किनारे सोती बहुजन नायकों के कैलेंडर बेचने वाली एक वृद्धा

जाति प्रथा को अतीत में कम से कम दो बार गंभीर धक्का लग चुका है। पहला दौर था जैन और बौद्ध धर्मों के फैलने का। लेकिन जैन धर्म एक खास जाति तक सीमित हो कर रह गया और बौद्ध धर्म भारत में टिक ही न सका। जाति प्रथा को दूसरा आघात देने की कोशिश की भक्ति आंदोलन ने। लेकिन यह मुख्यत: उन जातियों का आंदोलन था, जिन्हें समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। जाति की उनकी आलोचना वस्तुत: उनकी निजी और सामाजिक पीड़ा का ही चीत्कार थी। इस चीत्कार को सवर्ण चित्त ने उत्सुकता से सुना, लेकिन इससे व्यवस्था के ढाँचे में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। जाति सिर पर चढ़ कर बोलती रही। इस आंदोलन से निकले हुए संत बाद में स्वयं भिन्न-भिन्न जातियों की संपत्ति हो गए और उनके प्रगतिशील संदेश को क्रमश: भुला दिया गया। कबीर और रैदास अपनी सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना में एक थे, पर उनके शिष्यों के बीच तरह-तरह की दूरियाँ बनी रहीं। जाति प्रथा को हाल में चुनौती मिली है आधुनिकता की शक्तियों से। लेकिन अभी तक भारत में ये शक्तियाँ जाति प्रथा को कमजोर करने में कोई खास सफल नहीं हुई हैं। यह देख कर लगता है कि जाति प्रथा ने स्थायीत्व का अमृत पिया हुआ है।

ध्यान देने की बात है कि अभी तक जाति प्रथा को जो चुनौती मिलती रही थी, उसके पीछे भारतीय समाज की आर्थिक गत्यात्मकता बहुत कम थी। यह सच है कि ईसा पूर्व पाँचवीं और छठी शताब्दी का भारत,  जब जैन और बौद्ध धर्मों का प्रभाव तेजी से फैला और पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी का भारत, जब भक्ति आंदोलन की धाराएँ काफी तेज थीं, एक नहीं थे। उनके बीच कम से कम दो हजार वर्षों का आर्थिक-सामाजिक परिवर्तन था। लेकिन यह परिवर्तन बहुत ही मंद गति से हुआ था। मंद गति से होने वाले परिवर्तनों के प्रभाव नाटकीय ढंग से सामने नहीं आते। साथ ही, ये परिवर्तन जिस सभ्यता में हुए, वह मूलत: ग्राम-केंद्रित और कृषि-आधारित सभ्यता थी। जैन और बौद्ध धर्मों ने ज्यादातर वैश्यों के जीवन को प्रभावित किया और भक्ति आंदोलन के अधिकतर संत विभिन्न शहराती पेशों से आये थे। नगरों में और व्यवसायी वर्ग में नये विचार तेजी से पैदा होते हैं, क्योंकि इनकी सामाजिक और सांस्कृतिक अंत:क्रिया विस्तृत होती है और सांस्कृतिक बंधन कमजोर होते हैं। लेकिन ये विचार किसी समाज को बदलने में सफल तभी होते हैं, जब गाँवों में फैल सकें। यह नहीं हो सका। भक्त संतों की वाणी ने खासकर नीची मानी जानेवाली जातियों में व्यापक रूप से प्रवेश किया, किंतु मुख्यत: एक नयी धार्मिक प्रणाली के प्रतीक के रूप में। इनके संदेश की सामाजिक प्रगतिशीलता पर व्यापक अमल तभी हो पाता, जब पूरे समाज का कोई नया और स्वतंत्र आर्थिक आधार विकसित हो पाता। एक लगभग ठहरी हुई कृषि व्यवस्था में इसके लिए कोई गुंजाइश नहीं थी। अत: कहा जा सकता है कि जाति प्रथा को अब तक जो चुनौतियाँ मिली थीं, उनका वैचारिक और भावनात्मक आधार ही ज्यादा प्रबल था, जबकि ब्राह्मणवाद सिर्फ़ एक विचार नही था। वह एक मजबूत आर्थिक व्यवस्था पर टिका हुआ था।

लेकिन अब यह आर्थिक व्यवस्था चरमरा रही है। इसका कारण आधुनिक विचार कम,  आधुनिक जीवन पद्धति ज्यादा है। आधुनिक विचार की विफलता का सर्वाधिक रोचक दृश्य 21 सितंबर 1995 को प्रकट हुआ, जब देश के एक बड़े हिस्से में शंकर-सुत गणेश ने टनों दूध पिया। बेशक आधुनिक विचार ने एक वर्ग के जीवन को बदला है, लेकिन यह ज्यादातर निजी जीवन में हुआ है और किसी सामाजिक आंदोलन की शक्ल नहीं ले सका है। इस मामले में तीसरी दुनिया के अनेक देशों की तरह भारत के मध्य वर्ग ने काफी निराश किया है। यूरोप के मध्य वर्ग ने अनेक सामंती मूल्यों से विद्रोह कर प्रगतिशील काम किया था, किंतु भारत के मध्य वर्ग ने अधिकांशत: सामंती मूल्यों को संरक्षण दिया है। यहाँ तक कि इसके कम्युनिस्ट हिस्से ने भी जात-पात के मूल्यों का तिरस्कार करना जरूरी नहीं समझा। जो विचारों से इतने उग्र नहीं थे और फिर भी अपने को उदार तथा प्रगतिशील मानते थे (इनका सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व जवाहरलाल नेहरू करते थे), उनका मानना था कि सामाजिक कुप्रथाओं को दूर करने के लिए किसी विशेष प्रेरणा या अभियान की जरूरत नहीं है। विकास की प्रक्रिया में वे स्वत: नष्ट हो जायेंगी। मानना पड़ेगा कि यह आशावाद भारतीय समाज की अप्रिय सच्चाइयों से मुठभेड़ न कर पाने का आलीशान बहाना था।        

इस बहाने का कपट उजागर हो जाने के बावजूद उससे उपजा आशावाद अब भी जारी है। यहाँ तक कि भारतीय जनता पार्टी भी, जो अपने को बाकी सभी पार्टियों से अलग मानती है, इसी आशावाद का शिकार है। वह पिछड़ों और दलितों को अपनाना चाहती है, लेकिन उन्हें पिछड़ा और दलित बनाये रख कर। हिंदू एकता उसके लिए राजनैतिक मुद्दा है – सामाजिक मुद्दा नहीं। सामाजिक स्तर पर तो जातियों और उपजातियों में विभाजित हिंदू समाज ही उसे स्वीकार्य है। इसके बावजूद आर्थिक व्यवस्था और राजनैतिक तंत्र बदलने से भारतीय समाज में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। इनके कारण जाति का प्रश्न एक नये ढंग से निर्णायक हो उठा है।

सच तो यह है कि इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप जाति प्रथा कुछ और मजबूत ही हुई है, हालाँकि उसका दंश भी कम हुआ है। इसका कुछ श्रेय ब्रिटिश शासकों को है और कुछ बालिग मताधिकार पर आधारित लोकतंत्र को। ब्रिटिश सत्ता ने निःसंदेह दलित जातियों को विशेष रूप से राजनैतिक संरक्षण दिया। लेकिन इसके पीछे उनका मानवतावाद नहीं,  बल्कि भारत में ब्रिटिश सत्ता के सामाजिक आधार की खोज थी। यह दिलचस्प है कि ब्रिटिश सत्ता को भारत में समर्थन देनेवाले वर्गों में एक ओर उच्च वर्णों के लोग थे और दूसरी ओर अत्यंत निम्न वर्ण के लोग। उच्च वर्णों के लिए यह विदेशी सत्ता के साथ सहयोग कर अपनी देशी सत्ता बनाये रखने के पुराने खेल का ही विस्तार था। ध्यान देने की बात है कि 1857 के निर्णायक संघर्ष में मध्यवर्ती जातियों और उनके राजनैतिक-धार्मिक नायकों की विशेष भूमिका थी। इस संघर्ष को कुचलने में उच्च वर्णों के लोगों और सामंतों ने सहयोग ही किया था। यह वर्ग स्वाधीनता संग्राम में तभी बड़े पैमाने पर शामिल हुआ, जब सत्ता का हस्तांतरण लगभग निश्चित हो चुका था। दूसरी ओर,  दलित जातियाँ ब्रिटिश सत्ता से न्याय की आशा करती थीं। ये भारतीय समाज के पराजित लोग थे और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के जारी रहते हुए इनके लिए सम्मानजनक जीवन का कोई आश्वासन नहीं था। यह सच नहीं है कि आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करने वाली ब्रिटिश सत्ता ने ब्राह्मणवाद को कोई चुनौती दी या जाति प्रथा को अमान्य किया। लेकिन इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था, क्योंकि दुनिया भर में पूँजीवाद को सामंतवाद और प्रतिक्रियावाद के साथ समझौता करते ही पाया गया है। फिर भी दलितों के प्रति उन्होंने अपनापन दिखाया, क्योंकि दलित अपने समाज के भीतर कुचला हुआ था और अपनी मुक्ति के लिए वह किसी का भी सहयोग लेने के लिए तैयार था। आजादी के बाद कांग्रेसी सत्ता लंबे समय तक दलितों को अपने साथ रखने में सफल हुई, तो इसी कारण। हाँ,  दलित नेताओं की भूमिका जरूर बदल गयी। पहले डॉ. अंम्बेडकर जैसे नेता पैदा हुए। अब जगजीवन राम जैसे लोगों को महत्व दिया गया। वह संघर्ष का समय था और यह समझौते का। इस विपर्यय का एक और महत्वपूर्ण प्रतीक तमिलनाडु में रामास्वामी नायकर के नेतृत्व में दलितों और पिछड़ी जातियों का आत्म-सम्मान आंदोलन था। नायकर सभी प्रकार के धार्मिक और सामाजिक अन्यायों के खिलाफ आग उगलते थे, लेकिन उनके आंदोलन के बल पर राज्य की सत्ता में आयी द्रविड़वादी पार्टियाँ सभी तरह के प्रतिक्रियावादी मूल्यों को प्रश्रय दे रही हैं।

लेकिन दलितों की आबादी कम है। अत: वे राजनीति की धारा को बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं कर सकते। यही कारण है कि स्वातंत्र्योत्तर भारत में भारतीय राजनीति में दलितों की वाणी तब तक स्पष्ट रूप से नहीं सुनी जा सकी, जब तक उनके एक मध्य वर्ग का विकास नहीं हो गया। कांशीराम और मायावती इसी दलित मध्य वर्ग के नेता हैं। इस वर्ग के विकास का श्रेय निःसंदेह कांग्रेस की हरिजन कल्याण नीतियों को ही है। इन नीतियों को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है – (1) आरक्षण, जिसे राष्ट्रीय स्तर पर मान्य कराने का श्रेय डॉ. आंबेडकर को है। 1932 के पूना समझौते के खिलाफ अनाप-शनाप बोलनेवालों की संख्या आज काफी बढ़ गई है, लेकिन यह भूलने की बात नहीं है कि इस समझौते की मार्फत ही भारत के सवर्ण नेतृत्व ने पहली बार दलितों को आरक्षण देने के सिद्धांत को मान्यता दी थी। (2) दलितों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए विशेष कानूनी और प्रशासनिक उपाय। इन दोनों प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप ही दलितों के बीच एक छोटा-सा मध्य वर्ग उभर पाया, जिसका नेतृत्व करते हुए कांशीराम ने परिस्थितियों के चक्र से उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी की सरकार बनाने में सफलता प्राप्त कर ली। लेकिन यह घटना अब पटरी से उतर चुकी है। दलित राजनीति का पूर्ण अभ्युदय अभी बाकी है। लेकिन पिछड़ी जातियों की राजनीति आज अपने उत्कर्ष पर है। उसने देश के लगभग सभी हिस्सों में सत्ता पर काफी कब्जा कर लिया है। यह देश में लोकतांत्रिक राजनीति की ताकतों को बल मिलने से ही हुआ है कि आज कोई भी राजनैतिक दल पिछड़ी जातियों की उपेक्षा नहीं कर सकता। लोकतंत्र में ताकत का फैसला संख्या बल से होता है और भारत में शूद्र ही बहुसंख्यक हैं। अत: उन्हें एक न एक दिन मजबूत हो कर सामने आना ही था।

बुद्ध की एक पेंटिंग

क्या इस सबसे जाति प्रथा कमजोर नहीं हुई है? सच तो यह है कि जाति प्रथा ने एक नयी मजबूती प्राप्त कर ली है। अब ब्राह्मणवाद तथा मनुवाद की निंदा की जाती है, सामाजिक न्याय की बात की जाती है, आरक्षण की बात की जाती है, किंतु जातिविहीन समाज की बात नहीं की जाती। दिलचस्प यह है कि यह बात न तो साम्यवादी करते हैं, जो सिद्धांतत: सभी प्रकार के सामाजिक और आर्थिक वर्गों के विरुद्ध हैं और न भाजपा के नेता, जो हिंदू एकता की कामना करते हैं। यदि जातियाँ जड़ीभूत वर्ग हैं, तो फिर वर्ग संघर्ष का एक रूप जाति व्यवस्था के विरुद्ध निरंतर संघर्ष क्यों नहीं होना चाहिए? निःसंदेह कुछ नक्सलवादी समूहों ने कुछ सर्वहारा जातियों को एक आर्थिक वर्ग के रूप में संगठित करने में सफलता पायी है। किंतु वर्ग संघर्ष के लक्ष्यों और जाति संघर्ष के लक्ष्यों में फर्क  है। वर्ग संघर्ष का लक्ष्य वर्ग शत्रु का सफाया या उससे ज्यादा से ज्यादा रियायतें वसूल करना होता है,  जबकि जातिविहीनता की ओर बढ़ने के लिए संघर्ष के साथ प्रेम और समीपीकरण की भी जरूरत है। जातियों के बीच सिर्फ वर्ग संघर्ष चलाते हुए यह समीपीकरण हासिल नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर भाजपा और संघ के लोग चाहें भी, तो जाति प्रथा के सवाल को छू नहीं सकते, क्योंकि इससे तथाकथित हिंदू एकता सामयिक रूप से खंडित होती है। जाति मिटने से हिंदू समाज वास्तव में मजबूत ही होगा, लेकिन अपनी विचार व्यवस्था फैलाने के आगे समाज की चिंता किसे है? समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसे संगठन जाति व्यवस्था की निंदा तो खूब करते हैं, किन्तु वे वस्तुत: जाति प्रथा का नाश चाहते नहीं, क्योंकि जाति प्रथा नहीं रही, तो पिछड़ी जाति की अलग राजनीति का क्या होगा? इस तरह दिखाई यह पड़ रहा है कि जाति प्रथा में कुछ नये निहित स्वार्थ प्रवेश कर गये हैं। पहले ये निहित स्वार्थ उच्च जातियों के थे, क्योंकि इसके कारण उन्हें मिले हुए विशेषाधिकार साबुत रहते थे। वह सामंतवाद का जमाना था, जिसमें एक शक्तिशाली व्यक्ति या वर्ग का शासन चल सकता था। यह लोकतंत्र का युग है, अत: अब तो बहुसंख्यकों का ही शासन चलेगा और ऊँची जातियाँ बहुत चतुराई से ही अपना वर्चस्व बनाये रख सकती हैं। गैर-सवर्ण समुदाय अब जाति के आधार पर ही विशेषाधिकार की माँग कर सकता है। जाति प्रथा का सर्प पहले अपनी जीभ से काटता था, अब यह अपनी दुम से हमला कर रहा है। अब तो ऐसे दलित विचारक भी सामने आ रहे हैं जिनकी मान्यता है कि जाति रहनी चाहिए, तभी दलितों का विकास हो सकता है।

यह निहित स्वार्थों के नये परिपाक का ही एक अशुभ नतीजा है कि पिछड़ी जातियों और दलितों में समय-समय पर राजनैतिक एकता तो हो जाती है, किन्तु सामाजिक एकता नहीं हो पाती। इसका कारण यह है कि दोनों ही समूहों के राजनैतिक नेतृत्व के पास कोई प्रगतिशील सामाजिक दर्शन नहीं है। उदाहरण के लिए, दलित नेतृत्व दलितों के बीच मौजूद उनकी आंतरिक जाति प्रथा की दीवारों को तोड़ना नहीं चाहता और अपने समाज के प्रति पिछड़े नेतृत्व का भी यही रुख है। दोनों ही समूहों में यह शिकायत आम है कि कुछ विशेष जातियों ने राजनैतिक सत्ता का सारा लाभ हथिया लिया है। उदाहरण के लिए, मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में और लालू प्रसाद यादव बिहार में यादव वर्चस्व के प्रतीक माने जाते हैं। उन्हें समूचे पिछड़े वर्ग का समान शुभचिंतक नहीं माना जाता। बिहार में एक समय कर्पूरी फार्मूला बना था, जिसके तहत पिछड़ी जातियों को पिछड़ीऔर अति पिछड़ीमें विभाजित किया गया था। इससे आरक्षण का लाभ पिछड़ी जातियों के भीतर भी सामाजिक आवश्यकता के अनुरूप बँट जाता था। किन्तु इससे जाति के आधार पर उप-विभाजन और मजबूत हुए हैं, कमजोर नहीं पड़े हैं। बिहार विधान सभा चुनाव में कुर्मी-यादव संघर्ष की स्मृतियाँ अभी ताजा हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश में जब मायावती की सरकार बनी, तो कुछ विशेष जातियों के प्रतिनिधियों को मंत्री के ज्यादा पद मिले। अन्य जातियों की उपेक्षा हुई। कहा जा सकता है कि आरक्षण के सिद्धांत में ही यह निहित है कि दबे-कुचले समुदायों में भी वहीं वर्ग इसका विशेष लाभ उठा पायेगा जो पिछड़ों में सब से कम पिछड़ा है। निःसंदेह यह एक स्वाभाविक स्थिति है। लेकिन यह प्राकृतिक न्याय है, जिसमें जो जितना मजबूत होता है, वह उतना ही ज्यादा टिकता है। राजनैतिक न्याय कुछ और होना चाहिए था। जो लोग सामाजिक न्याय और सामाजिक समता के आधार पर स्थापित नेतृत्व देने का दावा करते हैं, यदि उनके इरादे क्रांतिकारी और समतावादी हैं, तो उन्हें अपने बीच से उन वर्गों को विशेष रूप से उभरने का मौका देना चाहिए, जिन्हें इतिहास ने कुछ ज्यादा वंचित किया है। यह तभी होगा, तब जाति समाप्ति का दूरगामी लक्ष्य भी नेतृत्व के सामने होगा। अभी तो जाति व्यवस्था से संघर्ष न केवल अधूरा है, बल्कि कुछ हद तक विकृत भी है, जिसके कारण जाति व्यवस्था को कोई सशक्त चुनौती नहीं मिल पाती।

इसका मतलब यह नहीं है कि आरक्षण तथा लोकतांत्रिक राजनीति से जाति व्यवस्था को कुछ भी आघात नहीं पहुँचेगा। जाति व्यवस्था एक हद तक वर्ग व्यवस्था भी है। इन नयी प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप पिछड़ों और दलितों में से एक संपन्न वर्ग का उदय हुआ है और ऊँची जाति के लोग इस वर्ग से सामाजिक और पारिवारिक व्यवहार रखने का निर्णय कर सकते हैं। लेकिन इसमें काफी समय लगेगा। जब तक इस नये वर्ग का उदय बड़े पैमाने पर नहीं होगा, तब तक जाति विलय की घटनाएँ इक्का-दुक्का ही रहेंगी – किसी सामान्य प्रवृत्ति का रूप नहीं ले सकतीं। हमें भूलना नहीं चाहिए कि इतिहास में कई बार ऐसा हो चुका है। कई बार शूद्रों ने अपने राज्य कायम किये हैं या राज सिंहासन तक पहुँचे हैं तथा ऊँची जाति की स्त्रियों के साथ विवाह किया है। ऊँची जातियों में भी अपने विशिष्ट दायरे के भीतर जाति तोड़ने की एक प्रवृत्ति काफी पहले से दिखाई दे रही है। ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों के लड़के-लड़कियों ने अपने बीच अंतरजातीय विवाह की ओर रुझान दिखाया है। लेकिन यह जाति का वास्तविक टूटना नहीं है। यह एक नयी तरह की सामाजिक गतिशीलता है। आधुनिकता के प्रभाव से, मसलन सह-शिक्षा और काम करने की जगहों में स्त्रियों-पुरुषों के नजदीक आने से इस तरह की गतिशीलता बढ़ सकती है। लेकिन इससे किसी धोखे में नहीं पड़ना चाहिए। जाति का टूटना सच्चे अर्थों में तभी माना जायेगा, जब नीची जातियों और ऊँची जातियों के बीच वैवाहिक संबंध बड़े पैमाने पर स्थापित होंगे और समाज का एक बड़ा वर्ग ऐसा बनेगा, जिसकी अपनी कोई जाति नहीं होगी। जिस वर्ण संकरता को भारत में बहुत नीची निगाह से देखा गया है, वही भारत के सुंदर भविष्य का निर्माण कर सकती है। रक्त शुद्धता के सिद्धांत ने दुनिया में जिस देश का सर्वाधिक नुकसान किया है, वह भारत ही है।

खान-पान और सामाजिक व्यवहार में सहभागिता जाति व्यवस्था के शिथिल होने की निशानी है। अभी हाल तक बहुत-से सवर्ण घरों में मुसलमानों और दलितों के लिए अलग से बरतन रखे जाते थे। अब यह कम होता जा रहा है। लेकिन इसके स्थान पर जो चीज उभर रही है और मजबूत हो रही है, वह है जातियों के आधार पर की जानेवाली राजनीति द्वारा निरंतर फ़ैलाया जा रहा विद्वेष। यह जातियों के सामाजिक के बजाय राजनैतिक इकाई बनने का चिह्न है। चूँकि विद्वेष की इस संस्कृति में सामान्य सामाजिक हितों के बजाय, या उनकी कीमत पर, विशेष जातीय हितों पर जोर दिया जाता है, इसलिए अन्याय और विषमता के विरुद्ध उद्घोष करते हुए भी जाति समूह एक-दूसरे के निकट नहीं आते, बल्कि निरंतर दूर होते जाते हैं। जाति प्रथा ने भारत का जो सब से बड़ा अहित किया है, वह है हिंदू समाज में सामाजिक और सांस्कृतिक संस्कार विकसित न होने देना। हिंदू अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में सोचता है, अपने परिवार के बारे में सोचता है, अपनी जाति की मर्यादाओं का ध्यान रखता है, किंतु वह पूरे समाज के स्तर पर बहुत कम सोचता है। उसके लिए प्राय: उसकी जाति ही उसका समाज रही है और एक जाति को दूसरी जाति की विकृतियों में दखल देने का कोई अधिकार नहीं रहा है। इससे प्रत्येक जाति की अपनी विकृतियाँ बढ़ी हैं और किसी बड़े स्तर पर कोई सामाजिक हस्तक्षेप संभव नहीं हुआ है। पिछले कुछ दशकों से यह सामाजिक हस्तक्षेप ज्यादातर कानून के माध्यम से हुआ है। लेकिन हिंदू ने चूँकि पिछले डेढ़ हजार वर्षों से राज्य निर्माण का स्वप्न खो दिया है और वह एक तरह से राज्यविहीनता के शून्य में तैरता रहा है, इसलिए राज्य और उसकी संस्थाओं की कद्र करना वह अब भी नहीं जानता। वस्तुत: जातियों में बँटा समाज और राज्यविहीन समाज एक ही सिक्के के दो पहलू थे। जब जीवन व्यवहार जाति से ही तय होगा, तब राज्य की जरूरत क्या है? यह भी एक कारण है कि भारतीय राज्य अब भी भारतीय समाज में एक बेगानी-सी चीज है और उसका उपयोग देश निर्माण तथा समाज निर्माण के लिए कम,  अवसरों और सुविधाओं की छीना-झपटी के लिए ज्यादा हुआ है और हो रहा है। जाति के आधार पर चलने वाली मौजूदा राजनीति ने इस बेगानेपन को कुछ नये आयाम दिये हैं। सामाजिक और आर्थिक स्तर पर निकटता तथा राजनैतिक स्तर पर संघर्ष एवं कलह के कारण भारतीय समाज एक नये ढंग से आत्म-विभाजित प्रतीत होता है।

इसे खत्म करने का एक ही तरीका है : जाति व्यवस्था को नष्ट करना तथा भारतवासियों की एक समग्र भारतीय एवं मानवीय पहचान को विकसित करना। लेकिन यह कार्य कितना कठिन है, इसे रेखांकित करते हुए एम एन श्रीनिवास ने 1960 के दशक में लिखा था : जिस मुद्दे पर मैं यहाँ जोर देना चाहता हूँ वह यह है कि जाति को राष्ट्रीय जीवन में एक अभिशाप समझने वालों की संख्या बहुत कम है। मैं यह बखूबी माने लेता हूँ कि दिन-प्रतिदिन यह वर्ग बढ़ रहा है और गाँवों में भी हमें ऐसे उन्नत विचारों के लोग मिलने लगे हैं जो कहते हैं कि मनुष्यों के पारस्परिक संबंधों में जातिवाद विष घोल रहा है। परन्तु यह भी सच है कि अभी एक बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो जाति व्यवस्था में कोई बुराई नहीं देखते। यह तथ्य ध्यान में रखना आवश्यक है कि जब तक जनता यह जान नहीं लेती कि जाति का अर्थ अनिवार्यत: जातिवाद है तथा उससे जो लाभ मिलते हैं,  उनका भारी मूल्य देश को चुकाना पड़ता है तब तक कुछ भी नहीं हो सकता। यह बात जनता तक पहुँचाना किसी भी दशा में सरल काम नहीं है और अभी तक किसी राजनेता या सामाजिक कार्यकर्ता ने व्यक्त नहीं किया है कि ऐसी कोई कठिन समस्या उसके सम्मुख है। यह समझ लेना जरूरी है कि इस मामले में मात्र सदिच्छा ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसके परिणाम तो अभीष्ट से विपरीत भी निकल सकते हैं।

स्पष्ट है कि कम से कम राजनीति जाति को नहीं तोड़ सकती। यानी मौजूदा राजनीति। इसका कारण यही है कि मौजूदा राजनीति में समाज को या देश को बनाने का कोई तत्व दिखाई नहीं पड़ता। जब यह तत्व था, तब जाति व्यवस्था को नष्ट करने का आह्वान भी किया जाता था। इस दृष्टि से डॉ. राममनोहर लोहिया की समाजवादी धारा भारतीय राजनीति की एकमात्र ऐसी उल्लेखनीय धारा है, जिसने यथार्थ और आदर्श,  दोनों का सम्मान किया था। डॉ. आंबेडकर की विचारधारा तो जाति व्यवस्था के खिलाफ थी ही। यही कारण है कि जाति का विनाशशीर्षक उनका व्याख्यान भारत में उसी निष्ठा के साथ पढ़ा जाना चाहिए जिस निष्ठा से कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ अतरराष्ट्रीय स्तर पर   पढ़ा जाता रहा है। रामास्वामी पेरियार ने भी जाति के खिलाफ जिहाद छेड़ी थी, किंतु उनका आंदोलन तमिल समाज तक सीमित हो कर रह गया और इस आंदोलन से निकली राजनैतिक धाराओं ने प्राय: उन सभी बुराइयों को अंगीकार कर लिया जिन्हें नायकर ने अपनी कटु आलोचना का विषय बनाया था। गांधी जी अंतिम दिनों में जाति प्रथा के खिलाफ हो गये थे और अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहन देने लगे थे,  लेकिन जाति तोड़ने का कोई स्पष्ट आह्वान उन्होंने कभी नहीं किया। इस मायने में वे आंबेडकर से सैकड़ों किलोमीटर पीछे थे। हालाँकि गांधी जी जब जाति व्यवस्था को मानते थे, तब भी उनकी कल्पना की जाति व्यवस्था एक तरह का सामाजिक श्रम विभाजन ही थी और उसमें ऊँच-नीच के लिए कोई जगह नहीं थी, लेकिन यह एक यूटोपिया ही था, जिसे डॉ. आंबेडकर ने अपने कुशाग्र तर्कों से धराशायी कर दिया है। जब तक जाति व्यवस्था है, तब तक सामाजिक ऊँच-नीच भी बना रहेगा, जो भारतवासियों की प्राकृतिक ऊर्जा के मुक्त संचरण को बाधित करती रहेगा। आज जब साम्यवादी जाति के अस्तित्व को स्वीकार कर रहे हैं और उसके अनुसार अपनी राजनीति को घुमाव भी दे रहे हैं, तब कहा जाता है कि पहली बार प्रगतिशील राजनीति भारत के सामाजिक यथार्थ के प्रति सचेतन हो रही है। लेकिन दुख की बात यह है कि यह सचेतनता सिर्फ चुनावी गणित के स्तर पर है। यदि यह आगे भी जाती,  तो जातिविहीनता की भी कोई नीति बनती। यानी जाति के अस्तित्व की स्वीकृति सिर्फ यथार्थ के स्तर पर हुई हैं,  आदर्श के स्तर पर नहीं। लेकिन आदर्श के स्तर पर क्या कुछ और भी स्वीकृत हुआ दिखता है?  जाति संघर्ष कमजोर है, तो क्या वर्ग संघर्ष भी कमजोर नहीं है? दूसरी ओर आर्थिक विकास और शहरीकरण की प्रक्रिया इतनी धीमी है कि जाति व्यवस्था की जकड़न कम होने का नाम नहीं लेती।

लेकिन सच यह भी है कि जाति को तोड़ने का काम राजनीति ही कर सकती है। यदि राजनीति ने जातिविहीन समाज स्थापित करने का बीड़ा नहीं उठाया, तो यह बीड़ा कोई और उठा नहीं सकता। बेशक वह राजनीति कुछ और प्रकार की होगी। जाति प्रथा दो ही तरह से टूट सकती है – (1) लोगों में यह चेतना फैले कि यह बुरी चीज है, और (2) सभी जातियों का इतना तीव्र आर्थिक विकास हो कि उनके बीच सामाजिक ऊँच-नीच संभव न रह जाये। पहला काम विद्वान और समाज सुधारक कर सकते हैं, लेकिन वे तीव्रतर हो रही आर्थिक विपमताओं को कम नहीं कर सकते और न ही उन करोड़ों लोगों के लिए सम्मानजनक रोजगार की व्यवस्था कर सकते हैं जो आर्थिक अविकास और जाति प्रथा के कारण चरम दैन्य का जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हैं। सिर्फ चेतनागत स्तर पर आंदोलन चलाने से मिली सफलता हमेशा अधूरी होगी, क्योंकि जन्म के आधार पर प्राप्त होने वाले विशेषाधिकारों को छोड़ना आसान नहीं होता। अत: दूसरा काम भी साथ-साथ जरूरी है और यह काम राजनीति का है। आर्थिक गत्यात्मकता ही टिकाऊ सामाजिक गत्यात्मकता पैदा कर सकती है। छिटपुट अंतरजातीय प्रेम विवाहों से जाति प्रथा में छोटी-मोटी दरार पैदा हो सकती है, पर वह टूट नहीं सकती। विवाह का निर्णय एक जटिल निर्णय है। इसके पीछे निजी जीवन की दर्जनों बातें होती हैं। तीव्र प्रेम के कारण जाति का अतिक्रमण संभव है, किंतु यह उम्मीद करना नादानी है कि करोड़ों युवक-युवतियाँ सिर्फ जाति तोड़ने के लिए अंतरजातीय विवाह करेंगे। लेकिन जब देश का तीव्र आर्थिक विकास होगा, सभी समुदायों के लोगों को आगे बढ़ने के अवसर मिलेंगे,  ऊँच-नीच की स्थितियाँ कम होंगी, तब ऐसा वातावरण बन सकता है, जिसमें विभिन्न जातियों के युवक-युवतियों को एक-दूसरे से वैवाहिक संबंध बनाने की स्वाभाविक इच्छा हो। जाति व्यवस्था तभी टूटेगी। विषमता ने जाति प्रथा को जन्म दिया है और जाति प्रथा ने विषमता को मजबूत किया है। अतः दोनों की काट एक ही है – समता। डॉ. आंबेडकर ने अपने संपूर्ण लेखन में इस पर सब से ज्यादा जोर दिया है।

इसके लिए स्पष्ट है कि एक ऐसी प्रबल राजनैतिक धारा की जरूरत है, जो देश और समाज का पुनर्निर्माण करने के लिए कृतसंकल्प हो। इसके अभाव में भी जाति व्यवस्था को विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया में कुछ आघात मिलता रहेगा, लेकिन उसका कोई बड़ा या टिकाऊ सामाजिक परिणाम नहीं निकलेगा। प्रभावशाली परिवर्तन के लिए व्यापक और गहराई तक जाने वाले राजनैतिक नेतृत्व की जरूरत है, जो राष्ट्रीय स्तर पर समता और संपन्नता की अर्थव्यवस्था का निर्माण कर सके। यह नेतृत्व कौन मुहैया करेगा?  यह कहना उचित नहीं है कि सवर्ण लोग यह काम नहीं कर सकते। निःसंदेह उनकी बौद्धिक क्षमताएँ, एक वर्ग के रूप में, ज्यादा विकसित हैं। लेकिन उनकी आँखों पर निजी स्वार्थ की जाली पड़ी हुई है। यह जाली विषमता का कारण मिलने वाले नाजायज फायदों की है। रेल के डिब्बों की की तरह, तरह-तरह की विषमताएँ पैदा करने में उन्हें स्वाभाविक रूप से आनंद मिलता है। इसलिए एक समूह के स्तर पर उनसे कोई बड़ी उम्मीद नहीं की जा सकती। हाँ,  उनके बीच से कुछ देशकामी लोग जरूर उभर सकते हैं। क्रांतिकारी संघर्ष में ऐसे लोगों का अधिकतम सहयोग लेना चाहिए। लेकिन एक वर्ग के रूप में तो यह जिम्मेदारी शूद्र और दलित जातियों की ही है। क्रांति की सब से ज्यादा जरूरत इन्हीं वर्गों को है। समग्र राष्ट्रीय विकास से सब से ज्यादा लाभ भी इन्हें ही हासिल होगा। स्त्री मुक्ति के दरवाजे इसी से खुलेंगे। समाजवादी रास्ते को विकृत और अवरुद्ध कर सवर्ण समाज ने मुक्त प्रतिद्वंद्विता पर आधारित बाजार-केंद्रित आर्थिक नीति में अपने भविष्य का इंतजाम कर लिया है। इससे पिछड़ी और दलित जातियों की आर्थिक तथा सामाजिक मुक्ति का प्रश्न और पेचीदा हो गया है। अत: उनके बीच से ही ऐसे तेजस्वी नेतृत्व का विकास ज्यादा स्वाभाविक,  और अपेक्षित, है, जो पूरे भारतीय समाज में समता और संपन्नता का दर्शन फैला सके। जाति प्रथा को वही तोड़ेगा, जो देश की प्रगति के रास्ते में मौजूद दूसरे अवरोधों को भी तोड़ेगा। यह नहीं हो सकता कि सिर्फ जाति टूटे और अन्य बंधन यथावत बरकरार रहें या और मजबूत होते जायें। मार्क्स ने कहा था कि क्रांति के द्वारा सर्वहारा वर्ग खुद को भी मुक्त करेगा और अपने शोषक बुर्जुवा वर्ग का। भारत की विशिष्ट स्थिति में यही भूमिका दलितों और शूद्रों की है : वे जाति के बंधन से खुद भी मुक्त होंगे और सवर्ण जातियों को भी मुक्त करायेंगे।

यह नहीं हो सकता कि जाति प्रथा हमेशा बनी रहेगी। इस व्यवस्था के पीछे न कोई तर्क है और न ही इससे कोई लाभ। हाँ, इससे होनेवाले नुकसान बिलकुल साफ हैं। अत: इसका जाना तो निश्चित है। इतिहास यह बताता है कि कौन-कौन-सी चीजें नहीं टिक सकतीं। लेकिन वह यह नहीं बताता कि किस बुराई का अंत कब होगा। इसका निर्णय तो हम ही करेंगे। हम, जो इतिहास के नियंता हैं।


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लेखक के बारे में

राजकिशोर

राजकिशोर (2 जनवरी 1947-4 जून 2018), कोलकाता (पश्चिम बंगाल)। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक। ‘पत्रकारिता के परिप्रेक्ष्य’, ‘धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति’, ‘एक अहिंदू का घोषणापत्र’, ‘जाति कौन तोड़ेगा’, और ‘स्त्री-पुरुष : कुछ पुनर्विचार’, अादि उनकी महत्वपूर्ण वैचारिक रचनाएं हैं। इनके द्वारा संपादित 'आज के प्रश्न' पुस्तक श्रृंखला, ‘समकालीन पत्रकारिता : मूल्यांकन और मुद्दे’ आदि किताबें अत्यन्त चर्चित रही हैं। साहित्यिक कृतियों में ‘तुम्हारा सुख’, ‘सुनंदा की डायरी’ जैसे उपन्यास, और ‘अंधेरे में हंसी’ और ‘राजा का बाजा’ व्यंग्य रचनाएं हैं

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