आजादी के आंदोलन के दौरान ‘भारत का विचार’ को लेकर कई तरह के विविध और प्रतिस्पर्धी नज़रिये उभरे थे। कांग्रेस का जोर उदार लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद पर था तो वामपंथियों ने श्रमजीवियों के कल्याण और उनके हितों के पोषण के लिए धर्मनिरपेक्षता को अपनाने पर बल दिया। हिंदू राष्ट्रवादी सिद्धांतकारों और हिंदू महासभा के सदस्यों ने ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद का पक्ष लिया था। दूसरी तरफ दलित बहुजन विचारक उन सिद्धांतों को आगे बढ़ाने के लिए आगे आए जो समतावादी समाज बनाने में मददगार हो सकते थे ताकि उत्पीड़ित समूहों और समाज के सबसे हाशिए पर रहने वाले वर्गों का कल्याण हो सके।

इस पृष्ठभूमि और आने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र उत्तर प्रदेश में उपचुनावों से पहले बने दलित-बहुजन गठबंधन का महत्व बढ़ गया है। समाजवादी पार्टी (एसपी) और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे पर आधारित सामाजिक न्याय के विचार को लेकर चलने वाला गठबंधन है जो ‘हिंदुत्व के रथ’ को रोकने का ‘राजनीतिक उपकरण’ बन सकता है।
मार्च 2018 के उप-चुनाव से पहले बने एसपी-बीएसपी गठबंधन ने फूलपुर और गोरखपुर लोकसभा सीटों पर भारतीय जनता पार्टी-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (बीजेपी-आरएसएस) के गठजोड़ को शिकस्त दी। राष्ट्रीय स्तर पर मौजूदा राजनीतिक हालात को देखते हुए बीएसपी और एसपी का नेतृत्व अगर सचमुच फुले, पेरियार और आंबेडकर जैसे दलित-बहुजन विचारकों की क्रांतिकारी विरासत को गंभीरता से ले तो उसे बीजेपी-आरएसएस गठबंधन को चुनौती देने की ताकत हासिल हो सकती है।
अनुभव बताता है कि उत्तर भारत में ‘मंडल राजनीति’ और ‘मंदिर राजनीति’ (कमंडल राजनीति) साथ-साथ चलती आयी है। जानकारों का भी मानना है कि जब कभी बहुजनों का दावा पुख्ता हुआ, तथाकथित बड़ी पहचान वाली “हिंदू एकता” की हिंदुत्व राजनीति भी उभरी। आरएसएस और वीएचपी (विश्व हिंदू परिषद) द्वारा 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के समय यही हुआ।
सामाजिक न्याय की बहस
राजनीतिक विज्ञानी गोपाल गुरु का कहना है कि भारतीय संदर्भ में सामाजिक न्याय को लेकर दो अलग-अलग चलन रहे हैं। पहला, रूढ़िवादी परंपरा के रूप में जाना जाता है, जो समाज को सक्षम बनाने के बजाए, ज्यादा शासन और अनुशासन पर जोर देता है। दूसरा, रूढ़ी-विरोधी है जो जाति व्यवस्था और प्रचलित सामाजिक वर्गीकरण पर क्रांतिकारी सवालों के ज़रिये परिभाषित करता है। (सोशल जस्टिस में गोपाल गुरु, संपादन- नीरजा गोपाल जयाल, प्रताप भानु, द ऑक्सफोर्ड कम्पेनियन टू पॉलिटिक्स इन इंडिया, नई दिल्ली, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2013)।

जानेमाने समाज विज्ञानी हरीश एस. वानखेड़े ने सही कहा है कि आंबेडकर के बाद सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों ने आंबेडकर के सामाजिक न्याय के विचार को नहीं अपनाया। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश का हवाला देते हुए, वानखेडे ने अपने लेख में बताया है कि महाराष्ट्र में दलित समूह बौद्ध धर्म में धर्मांतरण के बाद निम्नवर्गीय लोगों के लिए बड़ी हद तक लोकतांत्रिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जगह बनाने में कामयाब रहे लेकिन राजनीतिक तौर पर वे ताकतवर नहीं बन सके। (“द सोशल एंड द पॉलिटिकल इन दलित मूवमेंट टुडे,” इकोनामिक एंड पॉलिटिकल वीकली, फरवरी 9-15, 2008)।
उत्तर प्रदेश में कांशीराम और मायावती की दलित राजनीति ने बीएसपी को चार बार सत्ता दी, लेकिन हाशिए पर मौजूद लोगों में वह दलित-बहुजन चेतना की संस्कृति को मजबूत नहीं कर पाई। वानखेडे लिखते हैं कि आंबेडकर ने इन चुनौतियों का सामना करने के लिए दो प्रभावी रणनीतियों का खाका पेश किया था : समाज के अभिजात वर्ग के दबदबे और चुनौती को खत्म करने के लिए धर्मनिरपेक्ष बंधुत्व कायम करके धर्मांतरण आंदोलन, और दूसरा, समाज के हाशिए पर उपेक्षित पड़े वर्ग के साथ दलितों का गंठबंधन। वानखेडे कहते हैं कि सामाजिक न्याय को हासिल करने के लिए सिर्फ भाईचारे वाली समाज व्यवस्था सबसे कारगर है।
इसी तरह, आलोचनात्मक सिद्धांतवादी और नारीवादी विद्वान नैन्सी फ्रेज़र कहती हैं कि पहचान की राजनीति के इस युग में सामाजिक न्याय के बड़े एजेंडे को हासिल करने के लिए “मान्यता की राजनीति” और “पुनर्वितरण की राजनीति” दोनों का एक साथ होना बेहद जरूरी हो गया है। (एन. फ्रेज़र “फ्राम रिडिस्ट्रिब्यूशन टू रिकग्निशन : डिलेमा ऑफ़ सोशल जस्टिस इन द पोस्ट सोशलिस्ट एज” इन सिंथिया विलेट, थियोराइजिंगरिंग मल्टीकल्चरिज्म : ए गाइड टू द करंट डिबेट, ब्लैकवेल, यूके, 1991)।
दूसरे शब्दों में कहें तो एसपी-बीएसपी गठबंधन को राज्य सत्ता हासिल करने के लिए भौतिक और प्रतीकात्मक, दोनों रूपों में सिर्फ सोशल इंजीनियरिंग और चुनावी रणनीति को नहीं, बल्कि “आपसी सामाजिक न्याय” के सिद्धांत को अपनाना होगा।
एसपी-बीएसपी गठबंधन और सामाजिक न्याय
दलित-बहुजन के राजनीतिक विमर्श के उभार ने देश में एक नई “राजनीतिक संस्कृति” को जन्म दिया है। यही कारण है कि समाज विज्ञानी और अब पूर्णकालिक राजनीतिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव उत्तर भारत में “निचली जाति” की राजनीति को “दूसरे लोकतांत्रिक उभार” के रूप में देखते हैं। जाने-माने फ्रांसीसी सामाज वैज्ञानिक, क्रिस्टोफ़ जैफरलॉ ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट के 1992 में कार्यान्वयन के बाद बहुजन के संघर्ष को उत्तर भारत में “मौन क्रांति” कहा था।

प्रोफेसर रजनी कोठारी ने कहा है कि भारतीय राजनीति में मंडल-उत्तरार्ध के दलित-बहुजन गठबंधन ने धर्मनिरपेक्षता की प्रक्रिया को मजबूत किया है। सबसे प्रमुख बात यह है कि निचली जातियों के “राजनीतिकरण” की प्रक्रिया ने “लोकतंत्र की संस्कृति” को बढ़ाया है (रजनी कोठारी, “राइज ऑफ द दलित एंड द रिन्यूड डिबेट“, इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 25 जून, 1994)।
बहुजन नेता कांशीराम अक्सर कहते थे कि हिंदुत्व की राजनीति को बदलने के लिए बहुजन जनता (एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक) को एकजुट करना ज़रूरी है। इसके लिए उन्होंने पहली बार बीएएमसीईएफ (अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ-1978), फिर दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4, 1981) की स्थापना की और आखिरकार राष्ट्रीय स्तर पर ‘सांस्कृतिक क्रांति’ के लिए बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी, 1984) बनाई।
आंबेडकर की तरह कांशीराम भी इस बात पर जोर देते थे कि बहुजन जनता की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति में तब तक सुधार नहीं किया जा सकता जब तक कि वे “राजनीतिक समुदाय” के रूप में सत्ता पर कब्जा नहीं कर लेते।
ओबीसी की कुछ जातियों को दूसरी जातियों से ज्यादा फायदा पंहुचा और इससे विभिन्न समूहों के बीच असमानता बढ़ती गई। जैसा कि जेफरलॉ कहते हैं, जब लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह क्रमश: बिहार और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो आरक्षण को उन्होंने बहुजन जनता के बीच अंतर-जाति वाले सामाजिक संबंधों को लोकतांत्रिक बनाने के बजाय अपनी जाति और पारिवारिक हितों को बढ़ावा देने के लिए इस्तेमाल किया। (क्रिस्टोफ़ जैफरलॉ, इंडियाज़ साइलेंट रेवोल्यूशन : द राइज़ ऑफ द लोअर कॉस्ट इन नार्थ इंडिया, पर्मनेंट ब्लैक, नई दिल्ली, 2014)।
बहुजन राजनीति यह सुनिश्चित करने में विफल रही कि विभिन्न बहुजन समुदायों से जुड़े प्रतिनिधियों को मंडल आयोग के सुधार के दायरे में लाभ पहुंच सके। यही कारण है कि सांप्रदायिक और सामंती ताकतों को उन जातियों और सामाजिक समूहों का राजनीतिक रूप से शोषण करने का मौका मिला जिन्हें एसपी और बीएसपी शासन काल में फ़ायदा नहीं हुआ था। एसपी-बीएसपी गठबंधन के लिए यह न सिर्फ अनिवार्य हो गया है कि वे महज “कोटा राजनीति” के बारे में बात न करें, बल्कि अपनी लड़ाई को “बिरादराना सामाजिक न्याय” लाने के लिए क्रोनी कैपिटलिज्म यानी साठ-गाँठ के पूंजीवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ भी जरूरी समझकर आगे बढ़ें।
1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय मुलायम सिंह यादव और कांशीराम जैसे बहुजन नेताओं ने दलित-बहुजन की एकता कायम करके और “मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम” का लोकप्रिय नारा देकर हिंदुत्व के रथ को रोक दिया था। इस लोकप्रिय राजनीतिक नारे में हिंदुत्व की प्रभावशाली शक्ति के विरुद्ध ललकार समाहित थी। समय आ गया है कि दलित-ओबीसी की एकजुटता के लिए उस प्रयोग से राजनीतिक सीख ली जाये।
एसपी और बीएसपी ने 20 साल से अधिक समय तक यूपी में शासन किया है, फिर भी जाति और सांप्रदायिक कलह राज्य में ज्यों का त्यों बना हुआ है। ये राजनीतिक पार्टियां जो सामाजिक न्याय के लिए खड़े होने का दावा करती हैं, सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों को न्याय दिलाने के मामले में पूरी तरह विफल रही हैं- ज्यादा पीछे न देखें, हाल ही में मुजफ्फरनगर के दंगे इसकी मिसाल हैं जहां वे सामाजिक न्याय दिलाने में विफल रहे। एसपी ने धर्मनिरपेक्ष राजनीति से हाथ मिलाया, लेकिन हिंदुत्व के विरोध में साफ़ स्टैंड नहीं लिया, इसके विरोध में आगे नहीं आयी। यहां तक कि बीएसपी ने तो 2002 में उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने के लिए बीजेपी से भी हाथ मिलाया था। अतीत में, हिंदुत्व की ताकतों के साथ संबंधों को लेकर ढुलमुल राजनीतिक स्टैंड के कारण एसपी और बीएसपी दोनों जमीनी स्तर पर बहुजन जनता को एकजुट करने में विफल रहे।
महाराष्ट्र के महत्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों के आईने में कोई भी यह बता सकता है कि एसपी-बीएसपी गठबंधन को सांस्कृतिक मोर्चे पर भी अथक कार्य करने की जरूरत है। इससे वह आरएसएस-बीजेपी की संस्कृतिकरण मुहिम (जिसमें तथाकथित तौर पर “निचली जातियों की संस्कृति, रीति-रिवाजों और जीवन शैली को अपनाने की बात कही जाती है) और सामाजिक समरसता (सौहार्द) का मुकाबला कर सकता है। साथ ही इस सबके बल पर गठबंधन बहुजनों के बीच सामाजिक और राजनीतिक एकता लाने की कोशिश करे।
सामाजिक न्याय की हिंदुत्व राजनीति
क्रिस्टोफ़ जेफरलॉ के अनुसार, आरएसएस अपने चरित्र में हमेशा ऊपरी जातियों का संगठन रहा है और उसकी हिंदुत्व विचारधारा “समाज के ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण” पर टिकी रहती है। वह सार्वजनिक रूप से ऊंची जातियों का समर्थन करती है। (सी. जेफरलॉ, इंडियाज साइलेंट रेवोल्यूशन : द राइज आफ द लोअर कास्ट इन नार्थ इंडिया, परमानेंट ब्लैक, नई दिल्ली, 2014)।
मसलन 1990 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का एलान किया, आरएसएस ने लपककर इस कदम की मुखालफत शुरू कर दी। यहां तक कि 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में ‘आरक्षण’ शब्द का जिक्र तक नहीं किया था। उसने अपने घोषणापत्र में इसके बजाय सामाजिक समरसता पर खास जोर दिया। कई मौकों पर तो आरएसएस और बीजेपी ने खुलेआम यहां तक कहा कि सरकार को अपनी आरक्षण नीति की समीक्षा करनी चाहिए। इसे सरल भाषा में यूं समझें कि सामाजिक न्याय को लेकर बीजेपी-आरएसएस की पूरी अवधारणा किसी भी तरह के न्याय और समानता के सिद्धांत पर खड़ी ही नहीं है।

यह दलील कोई भी पेश कर सकता है कि सामाजिक न्याय की बीजेपी-आरएसएस की अवधारणा ‘रूढ़िवादी परंपरा’ (जिसकी ज्यादातर ऊंची जातियां और वामन शक्तियां प्रतिनिधित्व करती हैं) की वाहक हैं, बजाय ‘अशास्त्रीय परंपरा’ के जैसे कि फुले, आंबेडकर और पेरियार के लेखन में दिखता है। इसमें कोई अचरज नहीं क्योंकि आरएसएस के ज्यादातर संगठन पदाधिकारी ऊंची जातियों के हैं, खासकर ब्राह्मण जातियों से। जानीमानी इतिहासकार अनन्या वाजपेयी लिखती हैं, “दक्षिणपंथी हिंदू सरकार के शासन में, भारत प्रतिक्रिया और रूढ़िवादिता का एक और चरण देख रहा है जो मध्ययुगीन ब्राह्मणवादी मूल्यों की ओर वापसी कर रही है, वह गिने चुने लोगों के एकाधिकारों की ही हिमायत करती है… “(‘ द रिएक्शनरी प्रजेंट‘, द हिंदू, 6 अक्टूबर 2015)।
मोदी सरकार के पिछले चार साल के कार्यकाल में सत्तारूढ़ दल बीजेपी के सहयोगी संगठन आरएसएस और बजरंग दल के गुंडों की कई तरह की सांप्रदायिक और जातीय घटनाओं को लोगों ने देखा है। घर वापसी (अन्य धर्मों के लोगों को हिंदू धर्म में वापस लाना), लव जिहाद (हिंदू महिलाओं से मुस्लिम पुरुषों की शादी), गोमांस प्रतिबंध, महिलाओं के खिलाफ हिंसा भी किसी से छिपी नहीं है। इसके अलावा जाति अत्याचार, अल्पसंख्यकों पर हमले और बहुजन समाज के प्रतीक पुरुषों की मूर्तियों को तहस नहस करने जैसे कृत्यों को इन संगठनों ने अंजाम दिया।
2017 की वार्षिक रिपोर्ट में नेशनल क्राईम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) ने एससी/एसटी (पीओए) अधिनियम के तहत पंजीकृत मामलों का आंकड़ा दर्ज किया। 2014 में ऐसे मामलों की संख्या 40,401 थी जबकि 2015 में ये मामूली रूप से 4.3 फीसद घटकर 38,670 हो गयी। लेकिन 2016 में यह बढ़कर 5.5 फीसद हो गया और 2016 में कुल 40,801 मामले सामने आए। 2016 में उत्तर प्रदेश में बलात्कार के 4,816 मामले दर्ज हुए जो कि देश में सबसे ज्यादा हैं।
अक्टूबर 2017 में मुहर्रम के दौरान कानपुर में सांप्रदायिक संघर्ष हुए। 2017 में ही अप्रैल में आंबेडकर जयंती पर सहारनपुर में बीजेपी के सांसद राघव लखनपाल ने पुलिस प्रशासन की अनुमति के बगैर जुलूस निकाला जिसमें “यूपी में रहना है तो योगी-योगी कहना है” और “जय श्री राम” के नारे लगाए गए। यह जुलूस ज्यादातर उन इलाकों से होकर गुजरा जहां जाटव और मुस्लिम आबादी रहती है। इस जुलूस के बाद ठाकुर और दलितों के बीच भारी संघर्ष हुआ और दलितों के 60 घर फूंक दिए गए। एक दशक के आकंड़ों पर गौर करें तो 2016 तक दलितों के खिलाफ आठ गुने (746 प्रतिशत) से अधिक की दर से अपराध बढ़े। 2006 में 1,00,000 दलितों पर अपराध की दर 2.4 थी जो 2016 में 20.3 फीसद हो गई (एस. एलिसन और चैतन्य मल्लापुर, फर्स्टपोस्ट, 5 अप्रैल 2018)।
समाज के हर तबके के विकास के लक्ष्य के लिए दिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नारे, “सबका साथ सबका विकास” का लक्ष्य पाने में केंद्र और राज्यों में बीजेपी सरकारें साफ तौर पर नाकाम रही हैं। अत्याचार रोकथाम अधिनियम, 1989 के आईने में उनकी सरकार ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ कोई मजबूत राजनीतिक स्टैंड नहीं लिया। रोहित बेमुला की खुदकुशी, ऊना में दलित उत्पीड़न, सहारनपुर हिंसा, भीम आर्मी नेता चंद्रशेखर की गिरफ्तारी, महाराष्ट्र में भीम कोरेगांव की हिंसा- इन घटनाओँ की लंबी कड़ी है जिसके बाद यह जरूरी हो जाता है कि इस अधिनियम को पहले से कहीं अधिक कठोड़ करने की जरूरत है।
आगे की राह
बीजेपी-आरएसएस का सामाजिक समरसता एजेंडा दरअसल उस समय ही खोखला साबित हो गया था जब मई 2014 में उसने सत्ता की बागडोर संभाली थी। सातवें दशक के दलित पैंथर आंदोलन की तरह आंबेडकर की राजनीति आज “पहचान की राजनीति” के दायरे से आगे बढ़ गई है। अब उसने अपनी राजनीति में भूमि अधिकार, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को शामिल कर लिया है। मौजूदा दौर इस लिहाज से सबसे माकूल है जब एसपी और बीएसपी आंबेडकर की अंतरदृष्टि का गहराई में जाकर अनुसरण करें और पिछले चार साल की हिंदुत्व राजनीति के खिलाफ बहुजन विरोध से सबक लें।
एसपी-बीएसपी गठबंधन की अहमियत तब और भी बढ़ जाती है जब कांग्रेस और वाम दलों जैसी राष्ट्रीय पार्टियों का ग्राफ लगातार गिर रहा है और वे बीजेपी को चुनावों में चुनौती देने में विफल हैं। हाल के यूपी उपचुनावों की सफलता को देखते हुए गठबंधन की राष्ट्रीय स्तर पर इसीलिए पुख्ता दावेदारी बनी है। और ऐसा इसलिए भी कि गठबंधन दलित-ओबीसी के प्रतीक पुरुषों के स्थापित किए गए सामाजिक न्याय के एजेंडे का वाहक है।
गठबंधन की राजनीति के लिए (एसपी-बीएसपी को) अपनी पहचान से जुड़े मुद्दों से भी परे जाना होगा जिसमें भूमि अधिकार, शिक्षा और स्वास्थ्य, महिलाओं के अधिकार, किसान-मजदूरों, अल्पसंख्यक अधिकारों और निजीकरण जैसे बड़े मसले को शामिल करना होगा।
आंबेडकर का सामाजिक न्याय का नजरिया व्यापक और सुविचारित था जिसमें ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोनों पर ही गहन चिंतन मिलता है। कांशीराम ने दलित और पिछड़े वर्गों के लिए भू-स्वामित्व की हिमायत की थी। बहुजन जनता को राजनीतिक तौर पर सजग करने के लिए 1990 के दशक में बीएसपी ने “जो ज़मीन सरकारी है, वो ज़मीन हमारी है” का जोरदार और चर्चित नारा दिया था।
बहुजन नेताओं का लंबे समय से ये मानना रहा है कि भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा विरोधाभास मनुवाद (ब्राह्मणवाद) और मानववाद (मानवतावाद) है। आंबेडकर की अवधारणा रही है कि आपसी भाईचारे वाला सामाजिक न्याय ब्राह्मणों के सामाजिक व्यवस्था के अंदर मौजूद विधि-विधान के खिलाफ मोर्चाबंदी करके ही हासिल किया जा सकता है। दो राय नहीं कि ये सब संभव है यदि एसपी, बीएसपी और अन्य समान विचारधारा वाली ताकतें अपने अपने संकीर्ण दायरे से बाहर आते हैं।
(अंग्रेजी से अनुवाद : कमल चंद्रवंशी)
(कॉपी एडिटर : अशोक झा)
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