सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को 1 जनवरी 2016 से कई चरणों में लागू किया गया है। इसकी शुरुआत 30 लाख केंद्रीय कर्मियों को (जो सीधे विभिन्न मंत्रालयों के अंतर्गत काम करते हैं) वेतन और पेंशन लाभ से हुई है। केंद्र सरकार के इन कर्मियों के भत्ते 1 जुलाई 2017 से बढ़ाए गए हैं। हालांकि बढ़े हुए वेतन व बकाये(वह भी अधूरा) का भुगतान बहुत बाद में हुआ। स्वायत्तता प्राप्त संस्थाओं और शिक्षण संस्थानों के कर्मियों को बढ़े हुए वेतन तो हाल में मिलने शुरू हुए हैं। राज्य सरकारों द्वारा सिफारिशों की स्वीकृति की प्रक्रिया चल ही रही है। इस वर्ष अप्रैल में सिफारिशों को स्वीकृत करने वाला जम्मू और कश्मीर पहला राज्य बना। इस प्रकार, जल्द ही बहुसंख्य भारतीयों पर– जिनके पास न तो सरकारी नौकरी है और न ही अच्छे वेतन वाली कारपोरेट नौकरियां– इन वेतन बढ़ोत्तरियों का भरपूर प्रभाव दिखना शुरू हो जाएगा।

यह स्पष्ट है कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने से केंद्र सरकार कीवित्तीय स्थिति तनावपूर्ण हो गई है, राजकोषीय मजबूती के लक्ष्य को 2018-19 से 2020-21 खिसकाने को मजबूर होना पड़ा। दूसरी ओर, विमुद्रीकरण व जल्दीबाजी में लागू वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के कारण अपेक्षित लाभ पूरी तरह नहीं दिख रहे।
14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार राज्यों से प्राप्त केंद्रीय करों के वितरण में राज्यों की हिस्सेदारी 32 से 42 प्रतिशत करने के बाद मोदी सरकार में राजकोष बेहद सिकुड़ गया है। इस बीच, डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा ईरान के साथ परमाणु वार्ता से अलग होकर उसपर पुनः प्रतिबंध लगाने के बाद, आपूर्ति की मुश्किलों के कारण अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत फिर से उछाल पर है। ट्रम्प ने तेल के एक और बड़े निर्यातक वेनेजुएला पर भी प्रतिबंधों की धमकी दी है। तेल के बाजार के चढ़ने का रुख यदि ऐसे ही जारी रहा तो केंद्र की वित्तीय मजबूती की योजना भी बेपटरी हो सकती है।

केंद्र के राजस्व खर्चों में वेतन, भत्ते और पेंशन (पीएपी) के खर्चों की हिस्सेदारी 8.43 प्रतिशत से 9.18 प्रतिशत पर पहुंच गई है (सारणी 1 देखें)। राजस्व प्राप्तियों में यह 10.45 प्रतिशत से 10.88 प्रतिशत हो गया है। स्थापना खर्चे और ब्याज का भुगतान दोनों मिलाकर 2018-19 के केंद्रीय बजट में 44.4 प्रतिशत हो गया है (सारणी 2 देखें)। केंद्र के स्थापना खर्चों में वेतन महत्वपूर्ण घटक है।
सारणी 1: वेतन, भत्ता और पेंशन (पीएपी) वृद्धि का रुख
वित्तीय वर्ष | पीएपी (राजस्व प्राप्ति का %) | पीएपी (राजस्व खर्चों का %) |
---|---|---|
2012-13 | 10.23 | 7.6 |
2013-14 | 10.43 | 8.07 |
2014-15 | 10.53 | 8.26 |
2015-16 | 10.45 | 8.43 |
2016-17 | 10.88 | 9.18 |
(स्रोत : पे रिसर्च यूनिट)
सारणी 2: केंद्रीय खर्चों में स्थापना खर्चे व ब्याज का भुगतान (करोड़ रुपये में)
मद | 2016-17 | 2017-18 | 2018-19 (BE) |
---|---|---|---|
अनुमानित स्थापना खर्चे | 423851 | 468914 | 508400 |
ब्याज भुगतान | 480714 | 530843 | 575975 |
केंद्र के कुल खर्चे | 1975194 | 2217750 | 2442213 |
(स्रोत : केंद्रीय बजट)
2017-18 के संशोधित अनुमान में, बढ़े हुए वेतन खर्चों को पूरा करने के लिए केंद्र ने अपने पूंजीगत खर्च में से 36,356 करोड़ रुपये की कटौती करके, 2.73 लाख करोड़ रुपये कर दिया। शिक्षा क्षेत्र के लिए बजट आवंटन सरकार के कुल खर्चों का 2016-17 में 3.4 प्रतिशत से बढ़कर 2018-19 में 3.6 प्रतिशत हो गया। इसी प्रकार, स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए आवंटन 2016-17 में 1.9 प्रतिशत से बढ़कर 2018-19 में 2.2 प्रतिशत हो गया।

हालांकि शिक्षा के लिए बजट आवंटन 2017-18 के संशोधित अनुमान के मुकाबले 2018-19 में 3.8 प्रतिशत ही बढ़ा है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एचआरडी) के लिए बजटीय आवंटन पिछले साल की तुलना में 0.23 प्रतिशत गिर गया। इसी प्रकार, स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए बजटीय आवंटन में 2017-18 के वास्तविक खर्चों के मुकाबले महज 2.7 प्रतिशत ही वृद्धि दिखी। सच्चाई है कि प्राथमिक स्वास्थ्य अधिसंरचना का भारत का सबसे बड़ा कार्यक्रम राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना के लिए आवंटन 2.1 प्रतिशत कम हो गया है।
कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग द्वारा एक संसदीय समिति को दिए गए एक नोट के अनुसार, भारत, सरकारी कर्मियों के कुल मेहनताने पर केंद्र और राज्यों को मिलाकर 10.18 लाख करोड़ रुपये का भारी खर्चा करता है। यह चौंकाने वाला है। देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 8.15 प्रतिशत। इसके सामने शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज कल्याण पर होने वाले खर्चे ऊंट के मुंह में जीरा के समान लगते हैं। आकलन समिति ने पाया है कि वेतन और अधिकारियों के लिए कार्यालय व आवास जैसी भवन संरचना आदि पर होने वाला खर्च अधिक है जबकि उसकी उत्पादकता उसके अनुपात में बहुत ही कम है।
श्रेणी–ए के अधिकारियों के वेतन, भत्तों पर होने वाला खर्च
वास्तव में सातवें वेतन आयोग ने सरकार से केंद्र व राज्यों में पदस्थापित भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस), भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) व भारतीय वन सेवा (आईएफएस) अधिकारियों पर होने वाले कुल खर्चों और जीडीपी में उसके हिस्से का ब्यौरा उपलब्ध कराने को कहा था। लेकिन सरकार ने इस मांग को टाल दिया और इसके बजाय बिना विभिन्न सेवाओं के उल्लेख के सभी सरकारी कर्मियों के कुल मिलाकर आंकड़े गिना दिए। अपने जवाब में सरकार ने कहा कि इन उच्च सेवाओं के अधिकारियों के वेतन और सुविधाओं पर होने वाले खर्चों का अभी ऐसा कोई अध्ययन उपलब्ध नहीं है। केंद्र सरकार के कुल खर्चों का 12.6 प्रतिशत लगभग एक करोड़ कर्मियों पर खर्च होता है।
सरकार ने न्यूनतम शुरुआती वेतन को 7000 रुपये प्रति माह से दोगुना से भी ज्यादा 18000 रुपये प्रति माह करके सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू किया। परिणामस्वरूप आयोग की सिफारिशों से जीडीपी पर 0.7 प्रतिशत और राजकोष पर वार्षिक 1.02 लाख करोड़ रुपये का बोझ बढ़ा।
मुद्रास्फीति का दबाव
आरबीआई के मौद्रिक नीति विभाग के एक शोध पत्र के अनुसार, सातवें वेतन आयोग (सीपीसी) की सिफारिशों के आलोक में केंद्र सरकार के कर्मियों के मकान किराया भत्ता (एचआरए) में वृद्धि से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) पर मुद्रास्फीति के 35 आधार अंकों का सर्वाधिक असर हुआ है। संशोधित एचआरए संरचना जुलाई 2017 में लागू हुई। “सीपीआई मुद्रास्फीति पर मकान किराया भत्ता में वृद्धि का प्रभाव” शीर्षक यह शोध पत्र कहता है, “थोक मूल्य सूचकांक का पूर्व विश्लेषण दिखलाता है कि सातवें वेतन आयोग द्वारा एचआरए में वृद्धि ने, जुलाई 2017 से ही, 35 आधार अंकों के सर्वाधिक असर के साथ, मुद्रास्फीति के शीर्ष ग्राफ को और ऊपर उठा दिया।“

शोध पत्र कहता है कि जब कुछ राज्यों ने अपने कर्मियों के वेतन और भत्तों में यही संशोधन लागू किया तो वास्तविक वितरण और आंशिक वितरण में प्रशासनिक देरी के कारण आंकड़ों पर कोई असर नहीं दिखा। यह कहता है, “यदि वितरण कर भी दिया गया होता तो आवासीय नमूनों में राज्य सरकार के आवासों का प्रतिनिधित्व का असर पकड़ में आने के लायक पर्याप्त नहीं होता।“
सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार सरकारी कर्मियों के मूल वेतन 2.57 गुणा बढ़ गए और इसी अनुरूप एचआरए में 105.6 प्रतिशत तक की वृद्धि हो गयी। बताते चलें कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 10.07 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ आवास एक महत्वपूर्ण घटक है। इस मामले में मकान किराया का महत्व 9.51 प्रतिशत और विविध आवासीय सेवाओं का महत्व 0.56 प्रतिशत है।
निचले तबके के कर्मियों से ठगी
सातवें वेतन आयोग के पैनल ने वरिष्ठ प्रशासनिक श्रेणी और ऊपर के स्तर पर ऊंचे सूचकांक से युक्तिकरण किया जबकि नीचे वालों को निराश छोड़ दिया। वेतन पैनल ने निचले स्तर पर इस आधार पर काम किया कि सरकारी नौकरियों में निजी क्षेत्र के मुकाबले ज्यादा वेतन है।
जाहिर है कि सहायक की भूमिका निर्वहन करने वाले ग्रुप सी कर्मी, जो कुल कर्मियों का 88.7 प्रतिशत हैं, उनमें ग्रुप ए और बी की तुलना में अपेक्षाकृत बड़ा दलित बहुजन (अजा, जजा, ओबीसी) प्रतिनिधित्व है। उदाहरण के लिए, सरकार में सबसे निचली श्रेणी का कर्मी एक सामान्य हेल्पर प्रति माह 22,579 रुपये कमाता है। वह यदि निजी क्षेत्र में कार्यरत हो तो लगभग 9,000 रुपये ही पाएगा।
पैनल का तर्क है कि सरकार में शीर्ष पदों पर आसीन अधिकारियों के मुआवजे (वेतन, भत्ते) की निजी क्षेत्र में उनके समान पदासीन लोगों से कोई तुलना ही नहीं बैठती। ये ग्रुप ए कर्मी हैं जो कुल कर्मियों का 2.8% हैं।
कर्मियों के मूल वेतन निर्धारण के लिए 18 वेतनमान हैं। सबसे कम वेतन (स्तर 1) 18,000 रुपये है और कैबिनेट सचिव (स्तर 18) के लिए सबसे बड़ा 2,50,000 रुपये है।
वित्त मंत्री ने किया वेतन पैनल की सिफारिशों का बचाव
राज्यसभा में एक सवाल के लिखित उत्तर में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि अपनी सिफारिशों से पहले सातवें वेतन आयोग ने विधिवत रूप से, व्यय अनुपात, वेतन–भत्ता–पेंशन (पीएपी), सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और राजकोषीय घाटे के लक्ष्य पर अपनी सिफारिशों के वित्तीय प्रभाव को ध्यान में रखा था।
आयोग ने अपनी सिफारिशें लागू होने के परिणामस्वरूप 2016-17 में जीडीपी में पीएपी के अनुपात में 0.65 प्रतिशत वृद्धि का आकलन किया था। जेटली ने कहा कि इन सिफारिशों का कुल प्रभाव छठे वेतन आयोग की तुलना में कम रहा।
जेटली ने कहा, “इसीलिए आयोग ने विचार व्यक्त किया कि सिफारिशों के आरंभिक वर्ष में पीएपी–जीडीपी अनुपात में वृद्धि अत्यंत उचित है और यह महसूस किया कि इसकी सिफारिशों का व्यापक आर्थिक प्रभाव राजकोषीय बुद्धिमानी और व्यापक आर्थिक स्थिरता की जरूरत के अनुरूप है।”
लेकिन वास्तविक जीवन के आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं। सरकार के पूंजीगत व्यय बजट में राजस्व का एक बड़ा हिस्सा वेतन, पेंशन और ब्याज के भुगतान में जाकर सरकारी दावों की धज्जियां उड़ाते हैं। 2016-17 से 2018-19 तक, इस तथ्य के बावजूद कि इस दौरान पेट्रोलियम उत्पाद शुल्क व सीमा शुल्क से 5 लाख करोड़ रुपए अतिरिक्त राजस्व उगाही की गई, केंद्र के पूंजीगत व्यय बजट में 7 प्रतिशत की मामूली वार्षिक वृद्धि देखी गई।
इसका मतलब है कि सरकार चलाने में ही करदाताओं के धन का उपयोग बढ़ता जा रहा है; सड़क, हाइवे, पुल, बन्दरगाह, हवाई अड्डा व रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण में नहीं। यह रुख अर्थव्यवस्था की उत्पादकता का नुकसान करेगी और रोजगार सृजन और भी मुश्किल हो जाएगा।
(अनुवाद : अनिल, काॅपी एडिटर : नवल)
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