कुछ गुणवत्ताविहीन पत्रिकाओं की आड लेकर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग(यूजीसी) ने पिछले दिनों ऐसी पत्रिकाओं को भी अपनी मान्यता सूची से बाहर कर दिया है, जिनकी शोध और मौलिक विचारों के प्रकाशन के क्षेत्र में गहरी साख रही है। इनमें प्रगतिशील व जातिवाद विरोधी पत्रिकाएं यथा फारवर्ड प्रेस और इकोनॉमिक व पॉलिटकल वीकली (ईपीडब्ल्यू का ऑनलाइन संस्करण) तो हैं ही हंस और वागर्थ जैसी साहित्यिक-वैचारिक पत्रिकाएं भी शामिल हैं।

यूजीसी के फैसले का विरोध करते हंस के संपादक संजय सहाय ने कहा है कि “वर्तमान केंद्र सरकार देश में अभिव्यक्ति के सारे विकल्पों को बंद कर देना चाहती है। यह पूर्व में देश में थोपे गये आपातकाल से भी अधिक खतरनाक है। पहले जब आपातकाल थोपा गया था तो वह एक घोषित आपातकाल था। लेकिन वर्तमान सरकार अघोषित रूप से ही ऐसा माहौल बना देने का प्रयास कर रही है कि कोई भी विरोध में सिर न उठा सके। यह विचारों के कत्ल की तैयारी है। इसका विरोध किया जाना चाहिए। इसके लिए सभी लघु पत्र-पत्रिकाओं को एकजुट होना पड़ेगा।”

वहीं ईपीडब्ल्यू के प्रबंधक गौरंग प्रधान ने कहा कि “अब यह कहने की जरूरत नहीं रह गयी है कि देश में किस तरह का माहौल बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि यूजीसी का व्यवहार उसके फैसले को कटघरे में खड़े करता है। एक तरफ यूजीसी ने ईपीडब्ल्यू के प्रिंट संस्करण को अपनी सूची में शामिल रखा है, वहीं उसने ऑनलाइन संस्करण जो कि प्रिंट संस्करण का ही डिजिटल स्वरूप है, को अमान्य कर दिया है। प्रधान ने कहा कि यूजीसी के इस फैसले को लेकर पत्र-व्यवहार किया जा रहा है।”
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यूजीसी की सूची में अखरा पत्रिका भी शामिल है जिसका प्रकाशन रांची से किया जाता है। यह पत्रिका झारखंड आदिवासी भाषाओं में आलेख प्रकाशित करती है। अखरा की संपादक वंदना टेटे इसे कारपोरेट मीडिया को बढ़ावा देने वाला कदम बताती हैं। उन्होंने कहा कि “वह मीडिया जो किसी तरह कम्यूनिटी सपोर्ट के कारण किसी तरह से चल रहा है, सरकार उन्हें बंद कर देना चाहती है। हमारी पत्रिका में आदिवासी भाषाओं में आलेख प्रकाशित होते हैं। यूजीसी को बताना चाहिए कि वे कौन सी पत्रिकाएं हैं जो इन भाषाओं में आलेख प्रकाशित करेंगी? अखरा जैसी पत्रिका को अमान्य करार देने का मतलब है कि यूजीसी आदिवासी भाषाओं में हो रहे शोध और विरोधी- विचारों को सीमित करना चाहती है। साथ ही वह आदिवासियों की भाषाओं को जड़ से खत्म कर देना चाहती है।”

फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन ने कहा कि “हम गुणवत्तापूर्ण शोध के लिए किए जाने वाले प्रयासों का समर्थन करते हैं, लेकिन यूजीसी को समझना चाहिए कि उसके द्वारा बनाए गए मानक न ही उचित हैं, न ही अंतिम। फारवर्ड प्रेस दलित, अन्य पिछडा वर्ग और आदिवासियों से संबंधित ऐसे मुद्दों पर अालेख प्रकाशित करता रहा है, जो अन्यत्र प्रकाशित नहीं होते। इन तबकों से आने वाले लेखकों की संख्या बहुत कम रही है। यही कारण है कि समाज-विज्ञान के क्षेत्र में इन तबकों के दृष्टिकोण से नगण्य काम हुआ है। लेकिन आज इन तबकों से जो लोग उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आए हैं, उनमें से प्रतिभाशाली लेखकों और शोधार्थियों की खेप भी पैदा हो रही है। हम पिछले कई वर्षों से अकादमिक क्षेत्र में दस्तक दे रहे इस नए तबके का मंच हैं। हम देश वंचित तबकों की विशेष जरूरतों और विशिष्ट परिस्थितियों के मद्देनजर अनेक प्रकार के लेख लेखकों से आग्रह कर लिखवाते हैं। यूजीसी के इस फैसले से न सिर्फ हमारे इन प्रयासों को चोट पहुंचेगी बल्कि ज्ञान के क्षेत्र का विस्तार भी बाधित होगा।”
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in
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दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार