उत्तराखंड राज्य को बने 18 साल हो गए हैं और इस लगभग पूरे दौर में राजनीतिक तौर पर राजपूत सत्ता पर काबिज हैं। राज्य में दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियों पर दमनकारी घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। राजपूत अपने कथित शौर्य का सरकार के साथ साझे मंच से भौंडा प्रदर्शन भी कर रहे हैं। दलित, जनजाति और आदिवासी क्षेत्र जौनसार बावर में भारी जद्दोजहद के बाद साढ़े तीन सौ मंदिरों में सिर्फ एक में ही दलित परिवारों को जाने की इजाज़त मिली है। यह मंदिर परशुराम का है। यहां पूजा पाठ के संचालन से लेकर मंदिर की प्रबंध कमेटी तक का सारा काम जवाहर सिंह देखते हैं। वह ठाकुर जाति से हैं जिनको स्थानीय बोलचाल में खस्या कहा जाता है। वह कहते हैं कि जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार हो रहा है, चीज़ें बदल रही हैं। लेकिन वह यह कहने में कोई संकोच नहीं करते कि जब से दलितों का प्रवेश हुआ है तब से बामण और खस्यों ने यहां आना छोड़ दिया। उधर, देहरादून में प्रतिबंधित किए गए शिलगुर मंदिर में बड़े फसाद के बाद दलितों को प्रवेश नहीं मिल रहा है। बताते चलें कि स्थानीय समुदाय को पार्टी में जोड़ने की कोशिश में बीजेपी के राज्यसभा सांसद तरुण विजय ने दलितों को मंदिर में घुसाने की कोशिश की थी लेकिन वह वहां से ठाकुरों के हाथों बेइज्जत हुए, उनको पत्थर मारकर लहुलुहान हालत में वहां से भगा दिया गया।

असल में उत्तराखंड में खस्यों (खस, खसिया, ठाकुर, राजपूत भी प्रचलित) में जाति के जहरीले उफान और वर्चस्व ने लोगों के बीच वैमनस्य की नई खाई पैदा कर दी। इसका दंश इस कदर फैल चुका है कि वह न सिर्फ सियासत को घुन की तरह ख़त्म करने पर आमादा है बल्कि पहाड़ी गांवों में बहुत कम संख्या में रह रही आबादी के समूहों में भी उसने दूरियां पैदा कर दी हैं। दबे कुचले ‘डोमों’, ‘औजियों’, ‘लोहारों’ जैसी जातियों समेत जनजाति व आदिवासी समाज के लिए देहरादून से लेकर संपूर्ण “देवभूमि” में विकास के रास्ते बंद हो चुके हैं। नौबत यहां तक आ चुकी है पिछले दो साल से कई उपजातियां एससी-एसटी में शामिल करने के मुद्दे से लेकर मंदिरों में प्रवेश के मामले में आरपार की लड़ाई लड़ने के मूड में आ गए हैं।
जौनसार बावर में जनजाति और आदिवासियों के अलावा दलितों की अच्छी खासी तादाद है। रुड़की और हरिद्वार जैसे मैदानी इलाकों के अलावा, कलसी, टिहरी, उत्तरकाशी में पुरोला और मोरी जैसे क्षेत्रों में दलितों, हरिजनों की भारी तादाद है। कुमाऊं के ऊधमसिंहनगर, अल्मोड़ा और बागेश्वर में भी दलितों की लड़ाई अब नए मुकाम पर है।

बल्कि दलित, आदिवासियों में ही नहीं, पूरी सामाजिक बसावट में जातिवाद के जहर भरे प्याले को नए पेंदे में सजाकर रख दिया गया है। बताते चलें कि इसकी असली शुरुआत तब हुई थी जब उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री बनाए गए थे और इसके समानांतर केंद्र की सरकार ने कई खस्यों को देश के अहम पदों पर आसीन करके उपकृत किया। यूपी में मुख्यमंत्री की गद्दी अजय सिंह बिष्ट (खस्या जाति) को सौंपते ही, बिष्ट, रावत और कई खस्यों के तैनाती के साथ ही उत्तरांखड की पत्रिकाओँ से लेकर सोशल साइटों में ‘राजपूताना शौर्य की महान’ का गुणगान शुरू हो गया। ध्यान रहे बीते, यानी 17वें राज्य स्थापना दिवस के कार्यक्रम में त्रिवेंद्र सिंह रावत, सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत, डीजी कोस्टगार्ड राजेंद्र सिंह समेत कई स्थानीय नामी ‘खस्या’ अपनी जाति के सर्वाधिक लोगों के बीच ध्वज लहराते-से एक ही मंच से जोरदार शक्ति प्रदर्शन कर चुके हैं। हरिद्वार के धर्म कर्म के कामो में त्रिवेंद्र सिंह रावत और योगी आदित्यनाथ नियमित तौर पर शिरकत करते ही हैं।
खस्यों के बड़े तबके के साथ उसके ‘स्वाभाविक संगी साथियों’ में शुमार किए जाने वाले वैश्य समाज के मिलने से उसकी ताकत और बढ़ जाती है और यहीं से उसकी धौंस पट्टी का सिलसिला शुरू हो जाता है। ऊधमसिंहनगर में रुद्रपुर के बीजेपी विधायक को यहां के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत और बीजेपी लगातार बचाने का काम कर रहे हैं। नैनीताल के रामनगर के पास स्थित गर्जिया मंदिर के पास 22 मई को एक सिख सब-इन्स्पेक्टर गगनदीप सिंह ने बहादुरी और सूझबूझ दिखाते हुए चरमपंथी हिंदू संगठनों की भीड़ से एक मुसलमान की जान बचाई। मामले में कूदे बीजेपी विधायक राजकुमार ने घटनास्थल पर पार्टी का ‘राष्ट्रीय’ राग अलापते दिखे। जैसे उन्होंने कहा कि ‘कुछ बाहरी लोग यहां आकर हिंदुओं के पूजास्थल अपवित्र करते हैं। जब हम लोग मस्जिद नहीं जाते हैं तो फिर क्यों वे लोग मंदिरों में आते हैं? आखिर उनका ऐसा करने का मकसद क्या है?’

यह वही विधायक हैं जो इसी साल 9 मार्च को झगड़ा निपटाने के नाम पर की गई कथित पंचायत में दो दलित महिलाओँ के गाल में थप्पड़ मारकर गाली गलौज कर चुके हैं। पुलिस ने कार्रवाई के नाम पर संगीन धाराओँ में केस दर्ज होने के बाद भी कुछ नहीं किया। कागजों में मामला “आपसी समझौता” दिखाकर बंद कर दिया गया।
कुमाऊं के सामाजिक कार्यकर्ता उमेश काला का कहना है, “इसकी शुरुआत असल में तब ही हो गई थी जब मोदी सरकार ने अजीत डोभाल को देश का राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) बनाया। आप जानते ही हैं कि उत्तराखंड में किसी भी चुनाव में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण नहीं होता सिर्फ “ख” “ब” (खस्या-बामण) में लोगों को बांट दिया जाता है। हम लोगों का मानना है कि सत्ताधारी दल ने शीर्ष पद पर ब्राह्मण (अजीत डोभाल) को बिठाया तो उसके बाद बीजेपी ने वोटों के संतुलन के लिए राजनीतिक फलक से लेकर देश के सुरक्षा और अन्य महकमों से जुड़े पदों पर खस्यों को लाना पड़ा।”

पूरे राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो अब तक गोविंद वल्लभ पंत (मुख्यमंत्री रहे- 26 जनवरी 1950, 27 दिसंबर 1954), हेमवती नंदन बहुगुणा (मुख्यमंत्री रहे नवंबर 1973 से नवंबर 1975), नारायण दत्त तिवारी (मुख्यमंत्री रहे 1976-77, 1984-85, 1988-89 यूपी और फिर उत्तराखंड में 2002 से 2007 उत्तराखंड) से लेकर नित्यानंद स्वामी (2000-01), भुवन चंद्र खंडूड़ी (2007 से 2009), विजय बहुगुणा (2012 से 2014) और एकदम नयों में रमेख पोखरियाल (मुख्यमंत्री रहे 2009-2011) जैसे नेता “ब” धड़े की ऊंची जातियों के झंडावरदार बने थे और राजनीतिक शक्तियां इनके ही इर्दगिर्द रहीं। समुदाय विशेष से जुड़े क्षेत्रों और लोगों का विकास इनके मनमाफिक तरीके से होने लगा। लेकिन इस बामन सत्ता की जगह ठीक उसी तरह आज खस्यों ने ले ली जैसे मंदिरों में पारंपरिक रूप से बामण पुजारियों की जगह कई मंदिरों और दूसरी संस्थाओँ में खस्या ले चुके हैं। भगत सिंह कोश्यारी (मुख्यमंत्री रहे अक्टूबर 2001 से मार्च 2002), हरीश रावत (2014 से 2016, 25 दिन राष्ट्रपति शासन छोड़कर) और अब त्रिवेंद्र सिंह रावत (मार्च 2017 से सीएम हैं) ने इसकी जमीन पुख्ता की। साफ है कि नयी तारीख में उत्तराखंड में खस्यों ने दलितों और निचली जातियों के दमनचक्र के लिए घेरा तैयार कर लिया है।
जानेमाने पत्रकार गोविंद सिंह का मानना है, “उत्तराखंड के खस्या हाल तक पुरोहिती और कर्मकांडों से काफी हद तक बचे हुए थे। लेकिन अब मंदिरों में खस्या पुजारी बढ़ते जा रहे हैं। कई पूजा कर्म निचले वर्ग के लोग भी किया करते थे। छुआछूत जरूर मौजूद था, लेकिन जातियों के आपसी रिश्ते सौहार्दपूर्ण थे। वे एक दूसरे पर निर्भर थे। यानी ब्राह्मणवाद का असर (यहां पढ़ें वर्चस्ववाद) कम था। लेकिन अभी यह असर लगातार बढ़ता जा रहा है। जातिवाद भी बढ़ रहा है।” खस्या बड़ी संख्या में मुख्यधारा पर काबिज हो चुका है लेकिन अपनी अच्छाई छोड़कर मुख्यधारा की बुराइयों को उसने ग्रहण कर लिया है। गोविंद सिंह कहते हैं कि, “राजनीति में खस्यों को उनका जायज हक मिलना अभी बाकी है क्योंकि आज यह उत्तराखंड का सबसे बड़ी आबादी वाला जाति समूह है।” लेकिन इसके उलट, इतिहास कहता कहता है और जैसा राहुल सांकृत्यायन ने एक जगह लिखा है, “खश’, ‘खस’ एवं ‘कश’ जातियां एक आयुधजीवी संघ था जिसका एशिया तथा यूरोप के विभिन्न प्रदेशों पर दीर्घकाल तक आधिपत्य रहा था।”

ले. जनरल सेवानिवृत्त एमसी भंडारी ने कहा, जब तक उत्तराखंड में जातियों का वर्चस्व खत्म नहीं होगा तब तक ईमानदार राजनीतिक विकल्प खड़ा नहीं हो सकता और सामाजिक सौहार्द कायम नहीं हो सकता है। निचले तबकों पर मार की व्यथा उत्तराखंड से जुड़े जाने माने साहित्यकार बटरोही ने कुछ यों समेटी है- बहुसंख्यक हिंदू कभी एक नहीं हो पाते। यही हिन्दू समाज की ताकत भी है जिसके कारण हमारे राष्ट्र और समाज में समरसता बची हुई है। दुर्भाग्य से हमारे देश के दक्षिणपंथी संगठन बार-बार उन्हें ‘हिंदू जाति’ के नाम पर संगठित करना चाहते हैं, मगर ऐसा इसलिए संभव नहीं हो पाता क्योंकि ‘जाति’ के नीचे शोषित ‘वर्ण’ से जुड़े लोग विद्रोह कर उठते हैं और वह ज़हर फैलने नहीं पाता जिसे संप्रदाय और प्रतिक्रियावादी फैलाना चाहते हैं। प्रतिक्रियावादियों की समझ में यह बात नहीं आती। वह वे लोग भारतीय समाज में गहरी गुंथी गंगा-जमुनी संस्कृति को नहीं देख पाते।
अनुसूचित जाति, जनजाति एसोसिएशन के उत्तराखंड राज्य के महामंत्री जितेंद्र बुटोइया ने कहा कि प्रदेश में अनुसूचित जाति, जनजाति वर्ग पर अत्याचार बढ़े हैं और उनकी दशा-दिशा में कोई परिवर्तन तो छोड़िए, उनको साथ लगातार दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है। उनकी यह भी शिकायत है कि बुद्धिजीवी वर्ग भी एससी एसटी को समाज की मुख्यधारा में शामिल करना नहीं चाहता है।
कितना बदला इतिहास
बताते चलें कि कोल, कोल्ता या डोम ये द्रविड़ उत्पत्ति के माने जाते हैं। कोल या कोल्ता लोगों का रंग काला होता है, ये पहले गढ़वाल के जंगलों में रहते थे और वहीं शिकार एवं भोजन की तलाश करते थे। वर्तमान में ये जंगलों को छोटे टुकड़ों जमीन समतल करके खेती करने लगे और वहीं बस गए हैं। ये दानव, भूत-पिशाच, नाग और नरसिंह की पूजा करते हैं। पारंपरिक रूप से मोची, बढ़ई, झाड़ू मारने वाले, बुनकर, लोहार आदि का काम करते हैं। लेकिन आंबेडकर के समाज परिवर्तन के दर्शन ने सरकारी सेवा और राजनीति सहित विभिन्न व्यवसायों एवं कार्यों में इनके प्रतिनिधित्व और समाज को खासा अवसर मिला है।
गढ़वाल के राजपूतों को लेकर कहा जाता है कि यह समाज दक्षिण या हिमाचल प्रदेश से सटे भागों से आए, जहां ये लोग कश्मीर के रास्ते हिंदूकुश से आए। गढ़वाल में बसने वाले राजपूत कथित तौर पर मुसलमानों के आक्रमण से बचने के लिए राजस्थान से भागकर भी आए हैं। इन लोगों ने उस समय गढ़वाल में रहने वाले कोल, कोल्ता और डोम से युद्ध कर उन्हें परास्त किया। शुरू में राजपूतों ने नए तकनीक से कृषि की शुरुआत की। बाद में इन लोगों ने अलग पेशा अपनाया। राजपूतों को राजाओं के सेना में भारी संख्या में भर्ती किया जाता था। राजस्थान की अजमेरपट्टी और उदयपुर पट्टी से कई परिवार उत्तराखंड में बसे। तेलंगाना के आधार पर तेलंगी, राजस्थान एवं महाराष्ट्र से रावत जातियां यहां आकर बसी थीं।
जनजातियां पहाड़ों के ऊपरी हिस्सों में रहती हैं। जिनकी उत्पत्ति मंगोलिया से है जो खानाबदोश या अर्द्ध-खानाबदोश की तरह रहते आए। इनमें आधी आबादी अब स्थिरतापूर्ण जीवन जीती है। जौनसार-बावर का जौनसारी, उत्तरकाशी के जाढ़, चमोली के मारचस और वन गुजर भोटिया एक तरह के ही है। भोटिया व्यवसायी हैं और ठेठ पर्वतीय हैं। उत्तराखंड के भोटिया के बारे में कहा जाता है कि उनकी उत्पत्ति राजपूतों से हैं जो कुमाऊं एवं गढवाल से आए और ऊंची घाटियों में बस गए। लेकिन इतिहास का ये अंतर मिट गया और इन ऊंची जातियों ने आर्थिक रूप से पिछड़ों का शोषण करना शुरू कर दिया।
(कॉपी एडिटर – नवल)
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