“हम भीख नहीं मांगेंगे। हम अपनी जमीनें वापस पाने के लिए दावा करेंगे। …सरकार हमारा साथ नहीं दे रही… हमारा आंदोलन जीतेगा और हम अपने अधिकार वापस पायेंगे, मुझे विश्वास है।” यह कहना है सुकालो गोंड का। सुकालो मानती हैं कि जन आंदोलन में जीत की संभावना निहित है। उनके अनुसार, यह बड़ी लड़ाई है और आस खोने से कुछ हासिल नहीं होने वाला।
सुकालो गोंड को जानने से पहले उत्तर प्रदेश के सोनभद्र को जानते हैं। इस जनपद की सत्तर प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है। प्रमुख आदिवासी जातियों में गोंड, खरवार, पन्निका, भुइयां, बैगा, चेरो, घसिया, धरकार और धनुआर हैं। अधिकांश आदिवासी गांवों में रहते हैं और जीवनयापन के लिए जंगलों पर आश्रित हैं। वे तेंदू के पत्ते जमा करते हैं, जिनसे बीड़ी बनायी जाती है। इसके अलावा वे शहद व अन्य औषधीय पौधों को स्थानीय बाजार में बेचते हैं। कुछ आदिवासियों के पास छोटी जोत की जमीन भी है जिसमें वे चावल, गेहूं के अलावा सब्जियां उपजाते हैं।
लेकिन सरकार द्वारा उनसे जंगल और जमीन छीने जा रहे हैं। यह सब वनाधिकार कानून, 1927 के आधार पर किया जा रहा है, जिसे अंग्रेजों ने बनाया था। इस कानून की धारा 4 से लेकर 20 तक में जंगलों पर आदिवासियों के अधिकार को सीमित कर दिया गया है। विरोध करने की जो सजा अंग्रेजों के समय थी वही आज भी है। कुछ मायनों में यह अधिक खतरनाक है। अनेक आदिवासियों को झूठे मुकदमों में फंसाकर जेल भेजा जा चुका है।
सुकालो गोंड का विरोध केवल इसलिए नहीं है कि सोनभद्र के आदिवासियों को उनके जंगल और जमीन से वंचित किया जा रहा है। उनके अनुसार, सोनभद्र के आदिवासी तथाकथित विकास के दुष्परिणाम झेलने को मजबूर हैं। कन्हार बांध परियोजना के कारण हुए नुकसान के बारे में वह बताती हैं कि यह शासकों की कुत्सित मानसिकता का परिचायक है। हमारे हिस्से का पानी भी अब हमारा नहीं रहा।
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बताते चलें कि कन्हार बांध परियोजना का शिलान्यास 1976 में सोनभद्र में किया गया था। तब कहा गया था कि इस परियोजना के कारण उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के किसानों को लाभ तो होगा ही, छत्तीसगढ़ के सरगुजा और झारखंड के गढ़वा आदि जिलों के किसानों के खेतों में भी पटवन हो सकेगा। यह संभावना व्यक्त की गयी थी कि इस परियोजना से करीब 2000 वर्ग किलोमीटर में खेत सिंचित हो सकेंगे।
इस परियोजना के नाम पर एक लाख से अधिक आदिवासियों को उनके पैतृक जमीन से बेदखल कर दिया गया। लाखों की संख्या में पेड़ काटे गये। हजारों घरों को तोड़ दिया गया। तीस से अधिक विद्यालयों की इमारत को नेस्तनाबूद कर दिया गया। इन सबके बावजूद शासकों द्वारा घोषित इस अतिमहत्वाकांक्षी परियोजना पर 1984 में विराम लग गया।
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सरकारों के बीच यह लटका रहा। सुकालो गोंड के अनुसार इसे लेकर राजनीति भी खूब की गयी। उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने 2011 में और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने वर्ष 2012 में अलग-अलग शिलान्यास कर राजनीति की। इसका दुष्परिणाम आदिवासियों को झेलना पड़ा।
सुकालो गोंड ने बताया कि वर्ष 2000 में ही ग्राम स्वराज समिति के तत्वावधान में कन्हार बचाओ आंदोलन शुरू किया गया। इसका मकसद कन्हार बांध परियोजना के कारण विस्थापित हुए आदिवासियों को समुचित मुआवजा व उनके पुनर्वास के लिए सरकार पर दबाव बनाना था। इसमें पीयूसीएल भी साथ थी।
बीते दिनों को याद करते हुए सुकालो गोंड बताती हैं कि प्रारंभ में वनाधिकार को लेकर हम आदिवासियों में कोई जागरूकता नहीं थी। न तो हम अपना अधिकार जानते थे और न ही अपनी जमीन पर दावा करते थे। कोई विरोध भी करता तो पुलिसिया दमन का आलम यह था कि पुलिस सरेआम हमारे घरों में घुस जाती थी और हमें मारती-पीटती तो थी ही, हमें गालियां भी देती थी। इसके अलावा बड़ी संख्या में हमारे घरों को उजाड़ा गया।
सुकालो गोंड बताती हैं कि दिसंबर 2014 में जब कन्हार बांध परियोजना को लेकर दुबारा काम शुरू किया गया तब ग्रामीण आदिवासियों ने इसके विरोध में धरना दिया। वे खुद के विस्थापित किये जाने का विरोध कर रहे थे। वह 14 अप्रैल 2015 का दिन था। पुलिस ने 18 राउंड फायरिंग की। इसमें अकलू चालो नामक व्यक्ति की मौत धरनास्थल पर हो गयी थी। दर्जनों गंभीर रूप से घायल हो गये थे। यह बहुत खौफनाक था। पुलिस सभी को गिरफ्तार कर रही थी।
मेरे पास गिरफ्तारी से बचने का कोई रास्ता नहीं था। फिर किसी तरह 15 दिनों तक छत्तीसगढ़ के रास्ते अकेले बिहार पहुंची और फिर एक महीने तक दिल्ली में रही। फिर जब सोनभद्र वापस पहुंची तब 30 जुलाई 2015 को आंदोलन के समर्थन में सौ दिनों का राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया। इसी क्रम में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मिर्जापुर जेल भेज दिया गया।
जेल के अनुभव को साझा करते हुए सुकालो गोंड बताती हैं कि यह जीवन बदलने वाला अनुभव साबित हुआ। जेल में बहुत सारी आदिवासी महिलायें थीं, जिन्हें झूठे मुकदमों में फंसाया गया था। कइयों के छोटे-छोटे बच्चे थे। जेलकर्मी उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते थे। कोई सुनने वाला नहीं था। न खाने का ठीक, न पानी का इंतजाम। शौचालय की व्यवस्था भी नारकीय थी। इन बदइंतजामियों को लेकर सुकालो गोंड ने जेल में भूख हड़ताल की। इसकी सजा भी उन्हें भुगतनी पड़ी। उन्हें स्पेशल सेल में डाल दिया गया और यातनायें दी गयीं।
वह बताती हैं कि आंदोलन से वह 2006 में जुड़ी थीं। वर्तमान में वह ऑल इन्डिया यूनियन फॉर फॉरेस्ट वर्किंग पीपुल की कोषाध्यक्ष हैं। इसके अलावा वह अपने परिजनों और मवेशियों का भी ध्यान रखती हैं। बहरहाल सुकालो गोंड जमानत पर हैं और आज भी वनाधिकार आंदोलन को लेकर सक्रिय हैं। पूछने पर कहती हैं कि सरकारें यदि दमन करना जानती हैं तो हम भी लड़ना जानते हैं। हम लड़ेंगे और जीतेंगे।
(कॉपी एडिटिंग : अनिल)
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