डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह एक ऐसे शख्स हैं, जिन्होंने हिन्दी भाषा और साहित्य को अब तक देखने-परखने और मूल्यांकन करने की जो पद्धति और प्रक्रिया थी, उसे बिलकुल ही उलट-पुलट दिया। उन्होंने साहित्य को देखने-समझने के सामंती प्रतिमानों को तोड़-फोड़कर बिलकुल नवीन, जनतांत्रिक, पारदर्शी व सृजनात्मक प्रतिमान तैयार किए हैं; जहां से साहित्य को आसानी से आमजन की नजर से देखा व समझा जा सकता है। उनका लेखन पूरी तरह से आमजन के लिए समर्पित और उसके पक्ष में खड़ा है। राजेन्द्र यादव के बाद हिन्दी आलोचना को उन्हाेंने शोषितों की नजर से देखने की न सिर्फ वकालत की, बल्कि ऐसा करके दिखाया भी। उनकी इसी खूबी ने उनको जहां जनप्रिय बनाया, तो दूसरी ओर अपनी इसी खूबी के चलते, वे बहुत हद तक सामंती सोच व घरानों से ताल्लुक रखने वाले लेखकों की नजर में हमेशा गढ़ते रहे, दिल को कांटों की तरह चुभते रहे।
डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने हिन्दी के कई गुमनाम लेखकों को मुख्यधारा से जोड़ने का काम किया, उनकी रचनाओं से दुनिया को अवगत कराने का काम किया, जिनको आगे लाने से तथाकथित सभ्य जन कतराते रहे। ऐसे लेखकों में ‘व्यंग्य बोध के विराट कवि कुंजन’, ‘जनता की याददाश्त में जीवित कवि परगन राम’, वयस्क शृंगार के अकुंठ कवि जगरदेव’, ‘सामंतों की तनी तोपों के बीच मुसहर कवि बिहारी राम’, ‘भोजपुरी के तथाकथित नक्सली कवि नारायण महतो’ और ‘विंध्याचल घाटी के घुमंतू जनकवि बावला’ मुख्य हैं। जिनके बारे में सविस्तार जानकारी उन्होंने ‘आधुनिक भोजपुरी के दलित कवि और काव्य’ (2010) पुस्तक में दी है। उन्होंने इन कवियों के वैशिष्ट्य व प्रासंगिकता के कारणों को रेखांकित किया है। हिन्दी में ऐसे लेखक बहुत कम मिलेंगे, जो ईमानदारी से हाशिये के उन रचनाकारों की पैरवी करने के लिए सदैव तत्पर, बेचैन और विह्वल रहे हैं; जो वाकई योग्य व दृष्टि संपन्न रचनाकार होने के बावजूद भी उपेक्षित रहे। उनमें से हिन्दी के यशस्वी रचनाकार कुशवाहाकान्त भी शामिल हैं, जिनकी घोर उपेक्षा हुई थी।
कुशवाहाकान्त, के बारे में इन्होंने ‘हिन्दी का अस्मितामूलक साहित्य और अस्मिताकार (2016) में लिखा कि– ‘‘देश के यशस्वी उपन्यासकार कुशवाहाकान्त के उपन्यासों ने हिन्दी कथा-साहित्य में लोकप्रियता का अभूतपूर्व मानदंड स्थापित किया है। उनके उपन्यास आज भी मील के पत्थर बने हुए हैं। एक समय में उनके उपन्यासों की लाखों प्रतियां बिकती थीं। उनके उपन्यास ‘परदेशी’ को फिल्माया भी जा चुका है। यह हिन्दी के आलोचकों का दायित्व है कि उनके उपन्यासों को सही ढंग से मूल्यांकित करके हिन्दी साहित्य के इतिहास में जगह दें।’’ -(पृ.-90) कुशवाहाकान्त के बारे में डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद की यह पैरवी निराधार नहीं है। जिन लोगों ने बांग्ला-साहित्य में शरतचंद्र को विशेष रूप से पढ़ा हो; उन्हें निश्चित ही कुशवाहाकान्त को भी एक बार पढ़कर देखना चाहिए। उन्हें निश्चित तौर पर लगेगा कि कुशवाहाकान्त भी शरतचंद्र की तरह ‘नारी मन की कोमल भावनाओं, व्यथा, विरह वेदना और त्याग’ के लेखक हैं। कुशवाहाकान्त का ‘लाल रेखा’ शरतचंद्र के ‘देवदास’ जैसा ही बेजोड़, अद्धितीय, अनूठा व स्त्री मन को चित्रित करने वाला तथा उनके त्याग को रेखंकित करने वाला बड़ा उपन्यास है। बड़ा उपन्यास सिर्फ पृष्ठों की संख्या की अधिकता से नहीं बनता, बल्कि अपनी संरचना-शक्ति व मानव-मन की गहराइयों की पड़ताल से बनता है। लेकिन, हिन्दी साहित्य का सवर्ण-मन कुशवाहाकान्त में शरतचंद्रीय गंभीरता की तलाश नहीं कर सकता। तलाश करेंगे तो राजेन्द्र यादव, चौथी राम यादव व राजेन्द्र प्रसाद सिंह जैसे लोग ही। अगर जान-बूझकर उनकी उपेक्षा न की गई होती तो शरतचंद्र के ‘चरित्रहीन’, ‘देवदास’ व ‘परिणिता’ की तरह कुशवाहाकान्त के ‘बसेरा’, ‘लवंग’, ‘लाल रेखा’ जैसे उपन्यास हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा में कब के स्थान पा लेते; जहां ‘स्त्री-मन’ की गहराइयों एवं ‘प्रेम के कुशल चितेरे’ होने की वजह से अन्य ऐसे साहित्यकारों, जैसे- धर्मवीर भारती व अज्ञेय के उपन्यासों ने पा लिए। चाहे वह धर्मवीर भारती का ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ हो या अज्ञेय का ‘नदी का द्वीप’।
डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने इतना ही नहीं किया, उन्होंने हिन्दी साहित्य को मजबूत व व्यापक बनाने वाले उन रचनाकारों से भी अवगत कराया, जिनसे ‘सुसंस्कृत’ लोग आंख चुराते आए थे। चाहे वे भोजपुरी भाषी टेकमन राम, कुंजन कवि, घुमंतू कवि बावला हों या चाहे हिन्दी के महाराज सिंह भारती, राम स्वरूप वर्मा, आर.एल. चंदापुरी, निर्गुण सिंह ‘खाली’ हों। इसके आलावा हिन्दी के दूसरे महत्वपूर्ण उपन्यासकार अनूपलाल मंडल ने इन्हें मुख्य धारा में जोड़ने का काम किया। अनूपलाल मंडल की उपेक्षा कुशवाहाकान्त से कम भयावह नहीं है। चौथीराम यादव ‘भारत में सामाजिक सांस्कृतिक विविधता, अवतारवाद का समाजशास्त्र और लोकधर्म’ में तुलसीदास और सूरदास के बीच के मौलिक अंतर को रेखंकित करते हुए एक बड़ा सत्य लिखते हैं, जिसके सहारे सूर और तुलसी के बीच सूक्ष्म अंतर को बखूबी समझा जा सकता है। डाॅ. यादव लिखते हैं- ‘‘ सूरसागर में कृष्ण के मित्र फूल-मालाओं से अपने लोक-नायक का अभिनंदन कर परस्पर हर्षोल्लास मनाते हैं। देवता फूल बरसाएं या न बरसाएं, इससे सूरदास को कोई फर्क नहीं पड़ता।’’ (पृ0-31) जबकि ‘रामचरित मानस’ में तुलसी के राम द्वारा असुर-वध पर कई जगह देवता-मुनि फूल बरसाते नजर आएंगे। आखिर ऐसा क्यों होता है? और इस तरह दृष्टि में अंतर कहां से आता है? इसे समझने के लिए निश्चित ही डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह की उस खोज की ओर ध्यान जाता है; जहां डाॅ. सिंह यह साफ लिखते हैं कि- ‘‘हिन्दी के महाकवि सूरदास जाति के अहीर थे।’’ (फारवर्ड प्रेस, अप्रैल 2016 पृ.-49) तथा अपने कथ्य को तथ्यपरक बनाने के लिए वे सबूत के तौर पर सूरदास के पिता का नाम ‘रामदास ग्वाल’ बताते हैं। इतना स्पष्ट हिन्दी के बहुत कम लेखक बोलते या लिखते हैं। डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह साहित्य में प्रतिरक्षात्मकता के विरोधी रहे हैं। यह बात उनकी पुस्तकों से भी झलकती है और स्पष्ट होती है- बोली-वाणी से भी और सोशल मीडिया के युग में फेसबुक से भी। उनकी इसी मुखरता व स्पष्टता का प्रमाण है कि उन्होंने हिन्दी साहित्य को ‘ओबीसी साहित्य विमर्श’ (2014) का कांसेप्ट दिया और लिखा कि- ‘‘कई इतिहासकारों ने यह प्रमाणित करने की चेष्टा की है कि प्राचीन भारत में ओबीसी के लोगों में अपनी गिरी हुई दशा से निकलकर उन्नत होने का प्रयास नहीं दिखाई पड़ता है। कुछ ऐसे भी हैं, जो यह मानते हैं कि भारत में ओबीसी नवजागरण नाम की कोई चीज नहीं है। किंतु, ऐसे विद्वानों के मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि भारतीय इतिहास में कई चरणों एवं कई रूपों में ओबीसी नवजागरण उपलब्ध है। कहना न होगा कि छठी शताब्दी ई.पू. में हुए नवीन बौद्धिक आंदोलनों में से प्रायः सभी आंदोलनों का स्वरूप ओबीसी नवजागरण का है।’’ (पृ.-09) और इसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दी के वैसे लेखक- जिनका सामाजिक सरोकार किसान, शिल्पी व कमेरे वर्ग से था -उनकी रचनाओं में समाज का दर्द, पीड़ा, बेचैनी व सौंदर्य खुलकर सामने आए थे; लेकिन फिर भी वे उपेक्षित रहे। ऐसे रचनाकारों के चलते हिन्दी साहित्य पहले से ज्यादा लोकतांत्रिक हुआ।
भोजपुरी भाषा भी पंडितों की वजह कभी सिर ऊंचा करके खड़ी नहीं हो पाई। क्योंकि, उसका कोई महत्व समझा ही नहीं गया और न ही उसकी ताकत से जनता को किसी ने रू-ब-रू कराया। हिन्दी की संस्कृत से उत्पत्ति मानने वालों का तो कहना ही नहीं। उनके लिए भोजपुरी ‘गंवारू’ भाषा थी या कहें कि बोली थी। भिखारी ठाकुर कवि न होकर ‘नाई’ व ‘नचनिया’ थे। भोजपुरी का अपना कोई व्याकरण नहीं था और न की कोई भाषा-शास्त्र। ऐसी स्थिति में डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने ‘भोजपुरी के भाषा-शास्त्र’ (2006) तथा ‘भोजपुरी भाषा, व्याकरण आ रचना’ (2011) लिखकर भोजपुरी को कलंक से उबारा। उसे सभ्य समाज में प्रतिष्ठा दिलाई। उसकी ताकत से परिचित करवाया। ‘भोजपुरी निरुक्त के एगो झलक’ में उन्होंने लिखा- ‘‘भोजपुरी के ‘उमी’ शब्द संस्कृत ‘उम्बी’ के प्रतिरूप हवे बाकिर एकरा अर्थ में बदलाव आ गइल बा। संस्कृत में जौ या गेहूं के हरियर बाल ‘उम्बी’ कहाला बाकिर भोजपुरी में एकरा भूंजल रूप में ‘उम्मी’ कहल जाला। वइसहीं ‘होला’ के वैदिक अर्थ अग्नि में भूंजल अन्न होत रहे जवना के आर्य लोग मंत्रपूर्वक आग में भूंज के खाव। भोजपुरी प्रांत के जनता मटर आ चना के छीमियन के पुअरा के आग में भूंज के खाले जवना के ‘होरहा’ कहल जाला। ई ‘होरहा’ शब्द ओही वैदिक ‘होला’ के प्रतिरूप हवे जवना के आर्य लोग आग में पवित्र करके खात रहे।’’ (भोजपुरी के भाषाशास्त्र, पृ.-34)।
इसी तरह डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने हिन्दी समाज को और कई अनोखे कार्यों, खोजों, अवधारणाओं, घटनाओं व स्थितियों से रू-ब-रू करवाया। जिस पर जनता सहजता के साथ यकीन नहीं कर सकती थी; पर किया। उनमें सुल्ताना डाकू की कथा हो या गुंडा धुर का इतिहास या गंगू तेली के साथ भद्दा मजाक या गुरु घंटाल का रहस्य या डाकू शब्द की उत्पत्ति संबंधी राय। इन सब पर अलग तरह से डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने न सिर्फ सेाचा, बल्कि सप्रमाण तथ्यों की पुष्टि करते हुए उसके उचित, सही व तथ्यपरथ इतिहास की खोज की। ‘द्वेष की धूल तले दबे बहुजन नायक’ आलेख खूब चाव से बहुजनों के बीच पढ़ा गया, इसलिए नहीं कि इसमें सुल्ताना डाकू या गुंडा धुर का सिर्फ इतिहास था; बल्कि इसलिए भी कि इस लेखक ने सवर्ण व अंग्रेजी मानसिकता की पोल खोल दी थी। डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने जब ‘हिन्दी साहित्य का सवाल्टर्न इतिहास’ (2009) लिखा; तो हिन्दी जनमानस व साहित्यकों को यह यकीन ही नहीं हुआ कि हिन्दी साहित्य का कोई सबाल्टर्न इतिहास भी हो सकता है। इस पुस्तिका में सहित्यकारों की जाति चोरी का मामला जब उजागर हुआ, तब हिन्दी जाति दांतों तले उंगली दबा ली। अब उनके लिए मछिंदरनाथ न तो भृगुवंशीय ब्राह्मण थे, न शबरपा ‘क्षत्रिय’! शबरपा भील थे; तो मछिंदरनाथ मछवाहे।
ठीक इसी तरह डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने जब ओबीसी की अवधारणा पेश की, तो हिन्दी पट्टी में बहुत शोर-शराबा हुआ। नामवर सिंह का कहना था कि साहित्य में आरक्षण ठीक नहीं। वहीं, राजेन्द्र यादव और संजीव जैसे ओबीसी के सहित्यकार भी इस अवधारणा से सहमत नहीं थे। उनकी नजर में ओबीसी के साहित्य जैसी कोई चीज नहीं थी और न ही उसका कोई सौंदर्य-शास्त्र है। लेकिन, धीरे-धीरे लोग मान गए कि ओबीसी साहित्य जैसी कोई चीज भी है और उसका सौंदर्य-शास्त्र भी। डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने एक-एक कर तथ्यों की पड़ताल शुरू की और ओबीसी साहित्य के दर्शन व सौंदर्य से हिन्दी जनमानस को परिचित कराया। छठी ई.पू. से लेकर अब तक ओबीसी की एक सशक्त परंपरा रही है। इस तथ्य से उन्होंने अवगत कराया, तब जाकर लोगों ने ओबीसी साहित्य की अवधारणा को स्वीकार किया। हिन्दी साहित्य में उसे मान्यता मिली और यही भारत के सबसे बड़े वर्ग समूह का प्रतिनिधित्व करने वाला साहित्य बन गया। इससे द्विज साहित्य को समझने-बूझने में जहां सहूलियतें हुईं, वहीं सामंती चरित्र का ताना-बाना स्पष्ट हुआ। जो वर्ग अब तक साहित्य से जुदा थे, वे इससे जुड़े।
डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने जहां भाषा और साहित्य में अपने तर्क, संवेदना व विचार का लोहा मनवाया; वहीं वे दर्शन और इतिहास में भी उपेक्षित, दबा दी गई अन्य जरूरी चीजों को भी सामने लाए। डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह से पूर्व लोग यहीं मानते थे कि दुनिया में कोई बुद्ध हुए, तो वे सिर्फ शाक्यमुनि गौतम बुद्ध ही थे। इसके आलावा कोई और बुद्ध नहीं थे। किंतु ‘खोए हुए बुद्ध की खोज’ जैसे उनके फेसबुक आंदोलन ने यह बात भी साबित करके रख दी कि भारत में एक नहीं अनेक बुद्ध थे। भारत में हड़प्पा की जो संस्कृति थी; वह भी बुद्ध की संस्कृति थी और भारत विश्वगुरु बना, तो वह बुद्ध-दर्शन के बदौलत ही बना।
डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने बिहार और उत्तर-प्रदेश के कई इलाकों में जाकर नई ऐतिहासिक खोजों की तरफ इतिहासकारों, पुरातत्त्वविदों को ध्यान आकर्षित कराया। साथ ही उन्होंने यह बताने की कोशिश भी की कि कई ऐसे रहस्य अभी शेष हैं, जिनसे पर्दा उठने के पश्चात अब तक इतिहास के बारे में जो अवधारणाएं बनाई गई हैं या निर्मित की गई हैं; सब झूठी लगने लगेंगी। जब पहली दफा संस्कृत भाषा को डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने कृत्रिम भाषा के रूप में चिह्नित किया था, तो दुनिया को यह पागलपन लगा था और यह भी पागलपन लगा था कि संस्कृत से पुरानी भाषा पाली है। लेकिन तथ्यों, तर्कों के आगे संवेदना व आस्था भला कब तक टिके रहेंगे। कुछ ऐसा ही संस्कृत भाषा के साथ हुआ। संस्कृत अब सभी भाषाओं की जननी न ही रह गई और न ही सबसे उन्नत व प्राचीन। इस आग से अगर हिन्दी पट्टी का कोई साहित्यकार खेल सकता था, तो उनका नाम सिर्फ डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ही है। जैसे कभी राजेन्द्र यादव ने हनुमान को भारत का पहला आतंकी कहने की जुर्रत दिखाई थी; ठीक उसी तरह डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने ‘नेशनल दस्तक’ पर संस्कृत को पाली के बाद की भाषा व कृत्रिम भाषा घोषित कर पूरे हिंदुस्तान को सकते में डाल दिया। इससे आरएसएस वाले व भारत में ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के सपने देखने वाले काफी क्षुब्ध हुए। अंदर ही अंदर कुनमुनाए भी। पर, डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह के आगे उनकी एक न चली।
(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/प्रेम बरेलवी)
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