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लेखकों व सामाजिक कार्यकर्ताओं की पुलिस-प्रताड़ना पर देश भर में तीखी प्रतिक्रिया

नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी को लेकर देशभर से  प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। इन प्रतिक्रियाओं से यह मालूम चलता है कि ये लोग दलित, आदिवासी और वंचित समुदायों के लिए अपने संघर्ष और जुझारूपन के कारण  कितने लोकप्रिय हैं। फारवर्ड प्रेस की रिपोर्ट :

आरोप झूठे, दलित-अधिकार कार्यकर्ताओं को निशाना बनाना बंद करो- जलेस

पहली जनवरी को हुई भीमा-कोरेगांव की भयावह दलित-विरोधी हिंसा के बाद से पुणे पुलिस असली गुनहगारों को पकड़ने के बजाये लगातार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को निशाना बना रही है। 6 जून को उसने छह मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और संस्कृतिकर्मियों को टॉप अर्बन माओइस्ट ऑपरेटिव्सबताकर गिरफ़्तार किया और यह दावा किया कि भीमा-कोरेगांव की हिंसा के पीछे उनकी भूमिका थी। इसी कड़ी में देश के अलग-अलग भागों में सात महत्वपूर्ण बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के घरों पर छपे मारे गएदिल्ली में गौतम नवलखा, हैदराबाद में वरवर राव, फ़रीदाबाद में सुधा भारद्वाज, मुंबई में वर्नन गोंसाल्विस और अरुण फ़रेरा, रांची में स्टेन स्वामी और गोवा में आनंद तेलतुम्बड़े के घर पर छापा मारकर पुलिस ने उनके अनेक कागज़ात, दस्तावेज़, लैपटॉप आदि जब्त किये। सुधा भारद्वाज, वरवर राव, गौतम नवलखा, वर्नन गोंसाल्विस और अरुण फ़रेरा को यूएपीए के तहत गिरफ़्तार भी किया जा चुका है। गौर करने की बात है कि ये सभी लोग पत्र-पत्रिकाओं से लेकर सरकारी महकमों और अदालतों तक दलित हक़ों की लड़ाई लड़ते रहे हैं।

यह विरोध और आलोचना की हर आवाज़ को खामोश कर देने की एक शर्मनाक कोशिश है। भीमा-कोरेगांव में दलितों पर जानलेवा हमले करनेवाले और उस हमले की योजना बनानेवाले बेख़ौफ़ घूम रहे हैं। उन्हें राज्य और केंद्र की हिन्दुत्ववादी सरकारों का वरदहस्त मिला हुआ है। दूसरी तरफ़, उन लोगों को जेल की सलाखों के पीछे धकेला जा रहा है जिन्होंने दलित अधिकारों के लिए हमेशा आवाज़ बुलंद की है। भीमा-कोरेगांव की घटना और उसके बाद का सिलसिला यह बताता है कि हिन्दुत्ववादी शक्तियां एक तीर से दो शिकार करने में लगी हैं। पहले उन्होंने भीमा-कोरेगांव में हुए ऐतिहासिक संग्राम की दो सौवीं जयन्ती के मौक़े पर दलितों को अपना शिकार बनाया और उसके बाद उसी हिंसा के आरोप में उन बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को अपना शिकार बनाना शुरू किया जिनकी आवाज़ उनके लिए हमेशा से असुविधाजनक रही है। यह लोकतंत्र पर खुला हमला है। हम इसकी भर्त्सना करते हैं और इन सजग नागरिकों पर लगाए गए झूठे आरोपों को वापस लेने तथा इन्हें अविलम्ब रिहा करने की मांग करते हैं। (जनवादी लेखक संघ, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह- महासचिव, राजेश जोशी, संयुक्त महासचिव, संजीव कुमार, संयुक्त महासचिव)

भीमा कोरेगांव का ऐतिहासिक स्तूप

यह असली राजकीय दमन है : छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन

सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा की गिरफ्तारी हमारे समाज के लिए गहरे दुख की बात है। यह राजकीय दमन का सबसे बड़ा प्रतीक है। स्टेन स्वामी के घरों पर भी छापे मारे गए हैं। हम मानते हैं कि मानव अधिकारवादी लेखकों और वकीलों को पुलिस ने जिस तरह से गिरफ्तार किया वह राजकीय दमन का नया तरीका है। सुधा भारद्वाज छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद से जुड़े मामलों की पैरवी करती आई हैं। हम उनके कार्यकर्ता हैं। पिछले 30 साल से मजदूरों, आदिवासियों और दलितों के हक की वह लड़ाई लड़ रही हैं। गिरफ्तार कार्यकर्ताओं को फर्जी मामले में फंसाया जा रहा है। झूठे आरोपों के आधार पर गैर जमानती धाराएं लगाई गई हैं।

अभिव्यक्ति की रक्षा करे सरकार : एमनेस्टी

गिरफ्तारियों की ये घटना विचलित करने वाली है और यह मानव अधिकारों के बुनियादी मूल्यों के लिए ख़तरा है। ये गिरफ़्तारियां राज्य की आलोचना करने वाले कार्यकर्ताओं, वकीलों और पत्रकारों पर बड़ी आघात भी हैं। इन सभी (जो गिरफ्तार किए गए) लोगों का इतिहास भारत के सबसे ग़रीब और हाशिये पर खड़े लोगों के अधिकारों की रक्षा का रहा है। उनकी गिरफ्तारियों से गंभीर सवाल खड़े हुए कि क्या उन्हें उनके एक्टिविज़्म की वजह से निशाना बनाया जा रहा है? सरकार को डर का वातावरण बनाने के बजाय लोगों के अभिव्यक्ति के अधिकार और शांतिपूर्ण जुटान के विचार की रक्षा करना चाहिए। सरकार को चाहिए  वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करे।

खतरनाक संकेत,  इमरजेंसी लाने की तैयारी : अरुंधति रॉय

सरकार ने एक ही साथ राज्यव्यापी गिरफ्तारियां एक ऐसी सरकार के खतरनाक संकेत हैं, जिसे अपना जनादेश गंवाने और घबराहट में अपने गिरने का डर है। वकीलों, कवियों, लेखकों, दलित अधिकार कार्यकर्ताओं एवं बुद्धिजीवियों को ऊटपटांग आरोपों में गिरफ्तार किया जा रहा है जबकि भीड़ की शक्ल लेकर हत्या करने वाले, दिनदहाड़े लोगों को धमकाने और उनकी हत्या करने वाले लोग खुला घूम रहे हैं। यह साफ बताता है कि भारत किधर जा रहा है। हत्यारों को सम्मानित और संरक्षित किया जा रहा है जबकि न्याय के लिए बोलने वालों या हिंदू बहुसंख्यकवाद के खिलाफ बोलने वालों को अपराधी बनाया जा रहा है। जो कुछ हो रहा है वह निश्चित तौर पर खतरनाक है।

मीडिया में एक तबका ऐसा भी है जो सिर्फ पुलिस लाइन पर चल रहा है। भीमा कोरेगांव पर जिस कथित पत्र का जिक्र है और जिसे आधार बनाया जा रहा है वो सिर्फ मीडिया में चल रहा है

बौद्धिकों का मुंह बंद करने की साजिश : सीआरपीपी

महाराष्ट्र मे सनातन संगठन के हिंदू आतंकवादियों की करतूतों को सरकार ने अपने गले का हार बना दिया है लेकिन दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की आवाज़ उठाने वालों का सरकार ने मुंह बंद करने के लिए खतरनाक आपराधिक धाराएं लगाई हैं ताकि कोई भी एक साल से पहले जेल से बाहर ना आए। यहां तक कि भीमा कोरेगांव में दलित कार्यकर्ता और नेता भी बाहर ना आ सके जिनकी हिरासत की अवधि अब खत्म होने को थी।

महाराष्ट्र पुलिस ने देश और राज्य में लोगों में फैले अंसतोष को रोकने के लिए यह एक और बेशर्म कार्रवाई को अंजाम दिया है। आनंद तेलतुंबडे, स्टेन स्वामी, अनाला, कुमांत, प्रोफेसर सत्यनारायण और कई अन्य लोगों के घरों में गोवा, झारखंड, दिल्ली और तेलंगाना में भी छापे (इसलिए और) ऐसे समय में मारे जा रहे हैं कि जब कि दक्षिणपंथी सनातन संस्थान उभार पर है और उसकी करतूत एक के बाद लोगों के सामने आ चुकी है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि भीमा कोरेगांव को लेकर 90 दिन की अवधि में जबकि जून 2018 में गिरफ्तार पांच कार्यकर्ताओं की न्यायिक हिरासत खत्म होने वाली है, यह कार्रवाई  की गई है। किसी के भी खिलाफ चार्जशीट तक दायर नहीं हुई है। जाहिर है, ऐसे समय में यह कार्रवाई महाराष्ट्र पुलिस की हताशा है। सरकार सक्रिय कार्यकर्ताओं की ओर से हो रही आलोचनाओं को देखते हुए उनका मुंह बंद करना चाहती है।

पुणे पुलिस ने 28 अगस्त की कार्रवाई को बहुत चतुराई के साथ अंजाम दिया है ताकि प्रोफेसर शोमा सेन, वकील सुरेंद्र गडलिंग, महेश राउत, सुधीर ढावले, रोना विल्सन की हिरासत को आगे खींचा जा सके। जबकि सच ये है भीमा कोरेगांव में हिंसा के दोषी खुलेआम घूम रहे हैं। सरकार और पुलिस राज्यवार दलित और आदिवासी बौद्धिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने में लगी है। ये गिरफ्तारियां और छापे असंतोष की आवाज को दबाने का भयानक प्रयास हैं। इनके पीछे बौद्धिक समाज को बदनाम करने की नीयत है क्योंकि किसी के खिलाफ कोई सुबूत नहीं हैं। ये सिर्फ राजनीति से प्रेरित हैं। और सबसे भयानक बात तो यह है कि आईपीसी और यूएपीए की वो धाराएं लगाई गई हैं, जो बताती है कि किस तरह से कानून की पूरी शक्ति का इस्तेमाल किया जा सकता है। आईपीसी की धारा 153 ए इनमें है यानी लोगों के विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना, 505- जनता को प्रेरित करने वाले बयान या शरारत, 117 – अपराध को बढावा देना, 120 बी- आपराधिक षड्यंत्र। साथ ही यूएपीए 13 जिसमें गैरकानूनी गतिविधियां, 16- आतंकवादी कृत्यों में शामिल होना, 17- आतंकवादी कृत्यों के लिए धन जुटाना, 18 – षड्यंत्र, 18 बी -आतंकवादी कृत्य के लिए लोगों को भर्ती करना, 20 – आतंकवादी गिरोह या संगठन के सदस्य होना, 38 – आतंकवादी संगठन का सदस्य होना, 39 – आतंकवादी संगठन को समर्थन देना, 40 – आतंकवादी संगठनों के लिए धन जुटाना। हम ध्यान दिलाना चाहते हैं कि सरकार का लक्ष्य क्या है। गिरफ्तारियों से पुलिस का इरादा कितना स्पष्ट है। आज समाज में मानवाधिकार कार्यकर्ता और दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिए सार्वजनिक रूप से काम करने और ऐसी पहचान रखने वाले जो आदिवासियों, अल्पसंख्यक समुदायों, महिलाओं के अधिकारों, श्रमिकों के अधिकारों की अगुवाई करते हैं, उनको ही गिरफ्तार किया गया है। इसके अलावा सत्ता ने उन सबको लक्ष्य बनाया है जो दशकों से आम लोगों की आवाज रहे हैं। (कार्यकारी समिति, कमेटी फॉर रिलीज ऑफ पालिटिकल प्रिजनर्स)

पहले माब लिंचिंग, अब संयम खोया : सहमत

देश के विभिन्न हिस्सों में कई प्रमुख नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं की एक साथ गिरफ्तारी और उनके घरों और साथियों के यहां छापेमारी से हम पूरी तरह से गहरे क्षोभ और चिंता में हैं। गिरफ्तारी के लिए जो कानूनी आधार बनाए गए हैं, उनमें किसी भी प्रकृति सटीक नहीं है। गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत लेखक और कार्यकर्ता बुक किया गए है; कई मामलों में तो यहां तक कि उनके परिवारों भी अनजान हैं कि कैसी गतिविधि में धरपकड़ की गई है। इसके अलावा जो लोग गिरफ्तार किए गए हैं वो सभी वास्तव में समाज के विभिन्न उत्पीड़ित और हाशिए वाले वर्गों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष के सबसे आगे रहे हैं। ये वो लोग हैं जो वंचित लोगों की आवाज उठाने की हिम्मत रखते हैं और नागरिक अधिकारों से छेड़छाड़ की स्थिति में सरकार से टकरा सकते हैं। देश में सत्ता में काबिज बीजेपी सरकार अब तक अल्पसंख्यकों और नाराज बौद्धिकों को लक्षित करने के लिए माब्स लिंचिंग को समर्थन दे रही थी और सरकार के आलोचकों की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी से बच रही थी। ऐसा लगता है कि यह संयम भी सरकार का खत्म हो गया। लोकतंत्र के लिए यह खतरा स्पष्ट और गंभीर है। हम इन गिरफ्तारियों को सीधे सीधे शब्दों में कड़ी भर्त्सना करते हैं। साथ ही मांग करते हैं कि गिरफ्तार किए गए नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं फौरन रिहा किया जाए। (इरफान हबीब, अमीया कुमार बागची प्रभात पटनायक, विवन सुंदरम, मदंगोपाल, राम रहमान, के एम श्रीमाली, अर्चना प्रसाद, प्रवीण झा, इंदिरा अर्जुन देव, रेखा अवस्थी व अन्य)

(कॉपी-संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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