पिछले दिनों केंद्र सरकार ने एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2018 पारित किया, ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया, सर्वोच्च न्यायालय में प्रोन्नति के पक्ष में पैरवी की, विश्वविद्यालयों एवं अन्य शिक्षा संस्थानों में विभागों के आधार पर नियुक्ति पर रोक लगाई और संसद में घोषणा की कि केंद्र सरकार एससी, एसटी और ओबीसी समुदाय के हितों पर कोई चोट नहीं आने देगी।
सरकार द्वारा उपरोक्त कदमों के साथ ही यह देखने में आ रहा है कि सवर्ण-मानसिकता के लोगों का एक हिस्सा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति नफरत और घृणा प्रकट कर रहा है। इस मानसिकता की मुखर अभिव्यक्ति सोशल मीडिया में भी दिखाई दी। इसके अलावा जिन लोगों ने गत 9 अगस्त, 2018 को नई दिल्ली के संसद मार्ग पर संविधान जलाया वे लोग बहुत सारे अन्य नारों के साथ नरेंद्र मोदी मुर्दाबाद का नारा भी लगा रहे थे।
ये सारी घटनाएं कबीर की उलटबांसियों की तरह लगती हैं। आखिर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कट्टर समर्थक, ये मनुवादी लोग अपने ही पितृ संगठन की राजनीतिक कठपुतली के खिलाफ कैसे हो सकते हैं? आइए, पहले हम देखें कि सवर्णों में मोदी के खिलाफ कैसा रोष फैला है। बानगी के तौर पर हम यहां कुछ फेसबुक पोस्टों पर नजर डालेंगे।
फेसबुक पर सवर्ण और मोदी
पेशे से शिक्षक अखिलेश द्विवेदी ने 12 अगस्त, 2018 को अपने फेसबुक वॉल पर नरेंद्र मोदी की तुलना रॉलेट से और एससी/एसटी कानून की तुलना रॉलेट एक्ट से की है। इतना ही नहीं वे रॉलेट की तस्वीर और मोदी की तस्वीर अगल-बगल लगाकर कहते हैं कि मोदी ने भी एससी/ एसटी कानून बनाकर उसी तरह की तानाशाही सवर्णों के साथ की है, जैसी तानाशाही ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि रॉलेट ने रॉलेट एक्ट बनाकर की थी।

अखिलेश द्विवेदी बिंदुवार एससी/एसटी एक्ट और रौलेट एक्ट की तुलना इस प्रकार करते हैं-
- दोनों भारतीयों को बिना अपराध के गिरफ्तार करने का कानून बनाते हैं।
- दोनों बिना अरेस्ट वारंट के भारतीयों को गिरफ्तार करना चाहते हैं।
- दोनों अनिश्चितकाल तक बिना किसी अपराध के भारतीयों को जेल में रखने वाला कानून बनाते हैं।
- दोनों क्रिमिनल केस बनाकर युवाओं का करियर बर्बाद करते हैं।
- दोनों कानून की आड़ में भारतीयों पर तानाशाही थोपते हैं।
अंत में इन दोनों की तुलना करने के बाद अखिलेश द्विवेदी आह्वान करते हैं कि जैसे भारतीयों ने रौलेट एक्ट के खिलाफ अंग्रेजों का बहिष्कार कर दिया था, अब समय की मांग है मोदी और उनके चंगुल में जकडी भाजपा का बहिष्कार किया जाए।
अखिलेश द्विवेदी की शब्दावली से यह बात स्पष्ट तौर पर उभर कर सामने आती है कि वे भारतीय और सवर्ण को एक दूसरे का पर्याय मानते हैं और कम से कम एससी/एसटी को भारतीय नहीं ही मानते।
अखिलेश द्विवेदी के पोस्ट पर प्रतिक्रिया प्रकट करते हुए विवेक त्रिपाठी लिखते हैं कि “राम मंदिर को छोड़कर ये एसटी-एससी का विकास कर रहे हैं। देश को बांटने वाला काम कर रहे हैं।”
तिवारी राकेश 11 अगस्त को अपने फेसबुक वॉल पर ‘भारतीय विकास मंच आरक्षण विरोधी संगठन’ की पोस्ट शेयर करते हैं जिसमें लिखा है कि “विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद नरेंद्र मोदी दूसरे प्रधानमंत्री होंगे, जो सवर्णों के विरुद्ध साजिश रचने के लिए याद किए जायेंगे।”
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सवर्ण मानते हैं कि वीपी सिंह ने ओबीसी समुदाय को 27 प्रतिशत आरक्षण देकर सवर्णों के हकों पर वज्रपात कर दिया था। नरेंद्र मोदी को भी वे अपना सौ प्रतिशत प्रतिनिधि मानते थे, लेकिन उन्होंने ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर, पदोन्नति में आरक्षण का समर्थन करके, उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों की भर्ती पर रोक लगाकर और एससी/एसटी एक्ट बनाकर वी.पी. सिंह की तरह ही धोखा दिया है।

उमेश मिश्रा 13 अगस्त अपने फेसबुक पोस्ट में एक कदम और आगे बढ़कर शंखनाद करते हैं कि “सिद्धार्थ नगर जिले के सवर्ण नेताओं से अपील है कि एससी, एसटी एक्ट पर चुप्पी तोड़ो और काले कानून को उखाड़ फेंको। जय बजरंगबली।”
12 अगस्त की पोस्ट में विवेक त्रिपाठी मोदी के लिए आम तौर प्रचलित गाली का भी अप्रत्यक्ष तौर इस्तेमाल करते हैं और सवर्णों का आह्वान करते हैं कि वे चुनाव का बहिष्कार करें।
रत्नाकर उपाध्याय सैन्य शासन की पैरवी करते हैं। उमेश मिश्रा की पो्स्ट पर प्रतिक्रिया प्रकट करते हुए दिलीप सिंह लिखते हैं कि “यहां के सवर्ण नेताओं को मोदी जी ने बापू का बंदर बना दिया है, जिनकी आंख, कान और मुख का अपहरण हो गया है। भैया जी जय माता दी।” कोई भी इनकी प्रतिक्रिया से यह समझ सकता है कि वे यह कह रहे हैं कि पिछड़ी जाति का मोदी सवर्ण नेताओं को चला रहा है।
ध्यान रहे कि 9 अगस्त,2018 को संविधान जलाने वाले लोग अन्य नारों के साथ नरेंद्र मोदी मुर्दाबाद और मनुस्मृति जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे। यह भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि वे सिर्फ मोदी मुर्दाबाद के ही नारे लगाए जा रहे थे, भाजपा या संघ के खिलाफ नहीं।
मोदी से क्यों नाराज हैं मनुवादी?
प्रश्न यह है कि इसकी वजह क्या है? क्यों सवर्ण भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जगह मोदी को टारगेट कर रहे हैं? इसका कारण यह है कि वे सोच रहे हैं कि मोदी ओबीसी, दलितों और आदिवासियों के पक्ष में इस कारण कार्य कर रहे हैं,क्योंकि वे स्वयं पिछड़े वर्ग के हैं।
इसका चीजों का विश्लेषण करते हुए इस बात पर विचार करना चाहिए कि सवर्णों को मोदी से क्या-क्या उम्मीदें थी? और ऐसी क्या-क्या चीजें थीं, जिसके बारे में वे सोचते थे कि मोदी यह काम तो नहीं ही करेंगे। उनकी वे कौन सी अपेक्षाएं थीं, जो पूरी नहीं हुईं?
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2014 में भाजपा की विशाल बहुमत से जीत आरएसएस की जीत मानी गई थी। सवर्णों ने यह मान लिया था कि आरएसएस की जीत का अर्थ है कि अब राजनीतिक सत्ता भी पूरी तरह से उनके हाथ में आ गई है। आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सत्ता तो पहले से उनके हाथ थी, ही। उन्होंने सोचा कि भले ही नरेंद्र मोदी अपने को पिछड़े वर्ग का कहते हों, लेकिन आखिर वे हैं, तो संघ के हाथ की कठपुतली ही, जैसे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद।
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राज्यों में भाजपा की जीत के बाद जब राजपूत व ब्राह्मण जाति से आने वाले लोग लोग विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री बने तो सवर्णों ने पक्का ही मान लिया कि अब दलित-पिछड़े उनको कोई चुनौती नहीं दे सकते हैं। अपनी इस सोच के चलते उन्होंने यह भी मान लिया कि देर-सबेर किसी न किसी तरह आरक्षण का भी कमोबेश खात्मा हो जायेगा, नहीं तो इस तरह लागू किया जायेगा कि ओबीसी, दलितों और आदिवासियों को कम से कम स्थान मिले।
पदोन्नति में आरक्षण पर रोक पहले से ही थी, जिसके बारे में वे यह सोच भी नहीं सकते थे कि मोदी के नेतृत्व वाली सरकार पदोन्नति में आरक्षण का समर्थन करेगी और सर्वोच्च न्यायालय में कहेगी कि दलितों-आदिवासियों के साथ हजारों वर्षों से अन्याय हुआ है, उनको पदोन्नति में आरक्षण मिलना चाहिए।
सवर्णों ने यह कल्पना भी नहीं की थी, ओबीसी समुदाय के हितों के रक्षा के लिए बने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को मोदी सरकार आजादी के 70 वर्षों बाद संवैधानिक अधिकार प्रदान करेगी। अंतिम बात यह कि जिस एससी/एसटी एक्ट से सवर्ण सबसे अधिक नफरत करते हैं, जिसे एक तरह सर्वोच्च न्यायालय ने खत्म कर दिया। उस एक्ट को संवैधानिक संशोधन करके न केवल नए सिरे से लागू कर दिया, बल्कि और सख्त बना दिया।
इन सब चीजों से सवर्णों के एक बडे तबके को गहरा धक्का लगा है, जिसकी मुखर अभिव्यक्ति अब वे कर रहे हैं।
सवर्णों को यह समझ में नहीं आ रहा है कि जिस मोदी को हिंदुत्व और उच्च जातियों के हितों की रक्षा के लिए वोट दिया गया था, वह क्यों उनकी आकांक्षाओं और हितों के विपरीत ओबीसी, दलित और आदिवासियों के लिए काम कर रहा है? ये सवर्ण यह तथ्य भी नहीं स्वीकार पा रहे हैं कि मोदी की जीत में ओबीसी समुदाय के वोटों की बड़ी भूमिका रही है, साथ ही देश के पैमाने पर अनुसूचित जातियों के वोट का बड़ा हिस्सा मोदी को ही मिला था। वे यह भी नहीं सोच पा रहे हैं कि इस देश में कोई भी राजनीतिक ताकत 50 प्रतिशत से अधिक ओबीसी समुदाय और 16.6 प्रतिशत दलितों के वोट के बिना सत्ता नहीं प्राप्त कर सकता।
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असल बात यह है कि इन मनुवादी सवर्णों का सारा एजेंड़ा नकारात्मक है, वे चाहते हैं कि उनकी पार्टी या नेता मुसलमानों की तरह ओबीसी, दलितों और आदिवासियों को भी दबा के रखे। यही उम्मीद उन्हें मोदी से भी थी। मुसलमानों के बारे में तो सवर्णों की मंशा काफी हद तक पूरी हुई, लेकिन ओबीसी, दलितों और आदिवासियों के संदर्भ में उनकी मंशा पूरी नहीं हो पाई तब वे तिलमिला गए। उन्होंने इसके लिए संघ और भाजपा को दोषी नहीं पाया, क्योंकि उनके ऊपर उन्हें पूरा विश्वास है। हां मोदी पर ही उनका गुस्सा उतरा, क्योंकि उन्हें लगा कि ओबीसी का होने के चलते मोदी इन वर्गों के लिए काम कर रहा है।
हालांकि इसमें संदेह नहीं कि नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के घराने के एक मामूली चाकर रहे हैं। लेकिन फिलहाल वे जो कुछ कर रहे हैं, वह ब्राह्मणवाद के खिलाफ जा रहा है। आरएसएस का एक हिस्सा उन्हें राजनीतिक सत्ता के लोभ में झेल लेने का पक्षधर है तो दूसरा बड़ा हिस्सा शनै:-शनै: उनकी राजनीतिक कब्र खोदने में जुटा है। अब यह उन पर निर्भर करता है कि वे खुद को इतिहास में किस ओर खड़ा देखना चाहते हैं। वे आरएसएस के हाथों नष्ट होना चाहते हैं या फुले-आंबेडकरवाद की ध्वजा थाम कर मनुवादियों से संघर्ष करना चाहते हैं। भारत जैसे विशाल गणराज्य के प्रधानमंत्री के रूप में उनके पास अकूत ताकत है। उनके पास अपनी नियति चुनने के अवसर अभी भी शेष हैं।
(कॉपी-संपादन : अशोक )
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