पदोन्नति में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण का मामला एक बार फिर बारह साल पीछे चला गया है। तब एम. नागराज मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा था कि वह मात्रात्मक आंकड़े अदालत में पेश करे। जबकि सरकार की दलील थी कि वह इसमें ढील दे। मात्रात्मक आंकड़े जुटाना एक जटिल प्रक्रिया है और इस कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को पदोन्नति में आरक्षण देने में बाधायें आयेंगी। करीब 12 वर्षों के बाद एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने भी यही कहा है कि सरकार मात्रात्मक आंकड़े पेश करे।
पीठ ने सरकार को आंकड़े जुटाने का निर्देश देते हुए कहा है कि वह चाहे तो सामाजिक-आर्थिक जनगणना के आंकड़े पेश करे या फिर वह नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़े दे। यहां तक कि सरकार चाहे तो अपने स्तर से कोई भी सर्वे कराकर आंकड़े पेश करे। जबतक आंकड़े नहीं होंगे, तबतक पदोन्नति में आरक्षण पर विचार करना मुमकिन नहीं है। संविधान पीठ ने कहा है कि सरकारी नौकरियों में एससी/एसटी को आरक्षण देने के लिए सरकार को उनके पिछड़ेपन को साबित ही होगा। हालांकि पीठ ने इस मामले में फैसला सुरक्षित रखा है।

संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने सुनवाई के दौरान कहा कि हमारी राय में मात्रात्मक आंकड़ा ही इसका आधार है और यह आवश्यक है। पीठ में न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ, आर.एफ. नरीमन, एस.के. कौल और इंदु मल्होत्रा शामिल हैं।
बताते चलें कि एम. नागराज बनाम भारत संघ मामले (2006) में कहा गया था कि राज्य एससी/एसटी को सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। परंतु अगर राज्य ऐसा करना चाहता है तो वह कर सकता है पर इसके लिए उसे उस समुदाय या वर्ग के पिछड़ेपन और सरकारी नौकरियों में उसका प्रतिनिधित्व नहीं होने के बारे में मात्रात्मक आंकड़े जुटाने होंगे। फिर राज्य को यह भी ध्यान रखना है कि आरक्षण 50 प्रतिशत की सीमा को पार नहीं करे और इससे प्रशासनिक सक्षमता पर कोई असर न पड़े।
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मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि पदोन्नति में आरक्षण देने को लेकर कई राज्यों ने पहल किया है लेकिन किसी भी राज्य ने किसी समूह के बारे में जिसे वह आरक्षण देना चाहता है, नागराज मामले के फैसले के अनुरूप अभी तक इस तरह का आंकड़ा नहीं जुटाया है।

दूसरी ओर इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार, क्रीमी लेयर के बारे में मुख्य न्यायाधीश ने कहा, “जब संविधान प्रतिनिधित्व की पर्याप्तता का प्रयोग करता है, तो इसका अर्थ ही होता है कि इसको संपूर्ण रूप में नहीं लिया जाए।” उन्होंने कहा कि इसका मतलब यह है कि ऐसा कुछ किया जाए ताकि लाभ जरूरतमंदों को सुनिश्चित किया जा सके। पर प्रश्न है कि इसे कैसे किया जाए।
वहीं सुनवाई के दौरान आरक्षण विरोधी खेमे के वकील राकेश द्विवेदी ने कहा कि संविधान बनने के बाद से अब तक समय काफी बदल गया है और जाति भेद से जुड़े सामाजिक कलंक काफी हद तक समाप्त हो चुके हैं। अब दलित राष्ट्रपति हो रहे हैं, मुख्य न्यायाधीश बन रहे हैं। लेकिन सरकार का पक्ष रख रहे अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने उनके तर्क को काटते हुए कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्य अभी भी बहुत पिछड़े हैं। उनके खिलाफ सामाजिक भेदभाव और उनका उत्पीड़न जारी है। इसी आधार पर उन्होंने नागराज मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार का आग्रह किया। जबकि द्विवेदी ने उनकी इस बात का यह कहते हुए प्रतिवाद किया कि इसका प्रोन्नति में आरक्षण से कोई लेना देना नहीं है और किसी के साथ कोई ज्यादती होती है तो इस आधार पर कोई व्यक्ति अपने लिए पदोन्नति में आरक्षण की मांग नहीं कर सकता।
वहीं न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ ने यह जानना चाहा कि किसी समुदाय में अगर एक व्यक्ति सशक्त हो जाता है तो क्या वह सभी को पिछड़ेपन से दूर कर सकता है।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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