सामान्य तौर पर उत्तर भारत के लोगों के मन में दक्षिण भारत में बनने वाली फिल्मों के बारे में धारणा यह होती है कि दक्षिण भारत की फ़िल्में मार-धाड़ और एक्शन से भरपूर होती हैं। इस मार-धाड़ और चकाचौंध के बीच दक्षिण भारत में ज्वलंत सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर बनने वाली कई फिल्में धूमिल रह जाती हैं। बीते सितम्बर, 2018 के आखिरी सप्ताहांत में सिनेमाघरों में पहुंची मरी सेल्वाराज द्वारा निर्देशित तमिल फिल्म परियेरुम पेरूमल के साथ भी यही हुआ। यह कहानी है एक काले कुत्ते करुप्पी और एक दलित नवयुवक, परियेरुम पेरूमल (कथीर), की जो कानून का विद्यार्थी है।
पेरूमल वकील बनना चाहता है ताकि अपने समाज को पुलिस और प्रशासन के अत्याचार से बचा सके। वह यह मानता है कि अमूमन न्यायिक प्रक्रिया इतनी महँगी है कि दलितों को न्याय मिलना असंभव हो जाता है। पेरूमल को अंग्रेजी नहीं आती है जिससे लॉ कॉलेज में उसे शर्मिंदगी उठानी पड़ती है। शिक्षा में अंग्रेजी भाषा के बढ़ते महत्व पर सवाल उठाते हुए यह फिल्म आगे बढ़ती है और जातिगत भेदभाव को बखूबी चित्रित करती है।

पेरूमल को उसकी सहपाठी जोती महालक्ष्मी अंग्रेजी समझने में मदद करती है और उसी दौरान दोनों के बीच प्रेम हो जाता है। महालक्ष्मी थेवर नामक उच्च जाति से सम्बन्ध रखती है और उसका परिवार और समाज उसके एक दलित लडके से सम्बन्ध को बर्दाश्त नहीं करता है। फिल्म जाति व्यवस्था पर प्रहार करते हुए आगे बढती है।
परियेरुम पेरूमल, परायर नमक दलित जाति से है और उसके पिता नाच हैं जो औरतों के कपडे पहनकर नाचते हैं। अमूमन दक्षिण भारत में कुछ दलित परिवार अपने बेटे को बचपन में ही मंदिर को दान कर देते हैं जो मंदिरों में नर्तकी की भूमिका पूरी जिंदगी निभाता है। फिल्म नाच के साथ-साथ उभरी कला और कलाकारों की समाज द्वारा अवहेलना को भी मजबूती से प्रस्तुत करता है। इसी नाच पे फिल्माया गया गीत ‘एन्गुम पुगाज्ह’ को काफी सराहा जा रहा है।

हालांकि फिल्म का सर्वाधिक मजबूत पक्ष है स्थानीय राजपाडयम प्रजाति के काले कुत्ते के साथ जाति के प्रश्न का अंतर्संवाद। करुप्पी (कुत्ते का नाम) पर फिल्माया गया ‘करुप्पी ये करुप्पी’ गीत फिल्म में बार-बार इस्तेमाल किया गया है और काफी सराहा जा रहा है। पेरूमल के कुत्ते करुप्पी को उच्च जाति के लोग रेलवे ट्रैक से बांधकर मार देते हैं। वे ऐसा सिर्फ इसलिए करते हैं ताकि पेरूमल और उसके दोस्त जाति के दंश को महसूस कर सकें।
फिल्म में जिस तरह से दलित समाज के प्रतीक काले और नीले रंग के संगम और उसके पीछे की राजनीति को मजबूती से उभारा गया है वह सराहनीय है। फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष है जोती महालक्ष्मी की भूमिका। ऐसा महसूस होता है जैसे कि महालक्ष्मी का किरदार जातिगत भेदभाव से पूरी तरह अनभिज्ञ है और अनभिज्ञ ही रहना चाहती है। जबकि उनका किरदार एक अहम् प्रोटेग्निस्ट यानी लीड कैरेक्टर हो सकता था।
काला, कबाली और परियेरुम पेरूमल जैसी फिल्मों का बनना महत्वपूर्ण सिर्फ इसलिए नहीं है क्योंकि ये फिल्में जातिगत भेदभाव को उजागर करती हैं बल्कि इसलिए अधिक महत्वपूर्ण हैं कि ये दलित समाज से सम्बन्ध रखने वाले निर्देशकों द्वारा बनाई जा रही है। दलित समाज से सम्बन्ध रखने वाले कलाकारों का इन फिल्मों में महत्वपूर्ण और सक्रिय भागीदारी इन फिल्मों को अधिक सजग और सहज बनाती है। वैसे भी इन फिल्मों में दलित समाज से जुड़े कार्यों को कला के रूप में प्रस्तुत किया जाना अपने आप में महत्वपूर्ण है।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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