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सामाजिक यथार्थ से जुदा हैं बॉलीवुड फिल्में

दक्षिण भारतीय फिल्में मनोरंजन करती हैं। साथ ही, वे स्थानीय और सामाजिक मुद्दों को भी उठाती हैं। लेकिन बॉलीवुड फिल्में एक निश्चित फार्मूले पर आधारित पुराने ढर्रे पर ही चल रही हैं। पा रंजीत / मारी सेल्वराज की 'पारिएरूम पेरूमाल' और करण जौहर / पुनीत मल्होत्रा की 'स्टूडेंट ऑफ़ द इयर' इस अंतर को रेखांकित करती हैं, बता रहे हैं नीरज बुनकर

पिछले कुछ समय से बॉलीवुड फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कोई ख़ास कमाल नहीं दिखा पा रहीं हैं। यह इन दिनों बुद्धिजीवियों और फिल्म समीक्षकों में चर्चा का विषय है। सामान्य लोग, जो फिल्मों के बारे में बहुत नहीं जानते, भी सोशल मीडिया पर इस विषय पर टिप्पणियां कर रहे हैं। मसलन, क्या बॉलीवुड फिल्में इतिहास के अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रहीं हैं? आखिर उनका कोई भी फार्मूला दर्शकों को आकर्षित करने में सफल क्यों नहीं हो पा रहा है?

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लेखक के बारे में

नीरज बुनकर

लेखक नाटिंघम ट्रेंट यूनिवर्सिटी, नॉटिंघम, यूनाईटेड किंगडम के अंग्रेजी, भाषा और दर्शनशास्त्र विभाग के डॉक्टोरल शोधार्थी हैं। इनकी पसंदीदा विषयों में औपनिवेशिक दौर के बाद के साहित्य, दलित साहित्य, जाति उन्मूलन, मौखिक इतिहास व सिनेमा आदि शामिल हैं

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