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बिरसा मुंडा पर फिल्म बनाएंगे पा. रंजीत, प्रेरणास्रोत बन रहे बहुजन नायक

अामतौर पर पीरियड फिल्में यानी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनाई जाने वाली फिल्मों में बहुजन खलनायक होते हैं। लेकिन, अब एक नए दौर की शुरुआत हो चुकी है। हाल ही में ‘काला’ फिल्म बनाकर बहुजनों के संघर्ष को बड़े पर्दे पर दिखाने वाले पा. रंजीत अब धरती आबा बिरसा मुंडा पर फिल्म बनाएंगे। फारवर्ड प्रेस की खबर :

महाश्वेता देवी का उपन्यास विश्वसनीय स्रोत नहीं : अश्विनी कुमार पंकज

धरती आबा बिरसा मुंडा की जीवनी पर फिल्म के जरिये बॉलीवुड में प्रवेश करेंगे दक्षिण भारत के सुप्रसिद्ध फिल्मकार पा रंजीत। इस आशय की घोषणा उन्होंने बीते 15 नवंबर 2018 को बिरसा मुंडा के 143वीं जयंती के मौके पर की।

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को बिहार (वर्तमान में झारखंड) के खूंटी जिले के उलिहातू गांव में हुआ था। उन्होंने अंग्रेजों, जमींदारों व सूदखोर महाजनों के अत्याचार व शोषण के खिलाफ आदिवासियों के व्यापक संघर्ष नेतृत्व किया था। उन्हें 3 फरवरी 1900 को गिरफ्तार किया गया था। जेल में ही महज 25 वर्ष की उम्र में 9 जून 1900 को उनकी मृत्यु हो गई थी। बताया जाता है कि अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दे दिया था, जिसके कारण उनकी मौत हो गई थी।

महाश्वेता देवी के उपन्यास ने किया प्रेरित

रंजीत ने इस फिल्म के बारे में बताया कि सात साल पहले जब उन्होंने आदिवासी नायक बिरसा मुंडा के बारे में पद्मविभूषण और साहित्य अकादमी अवाॅर्ड से सम्मानित लेखिका महाश्वेता देवी द्वारा लिखित बांग्ला उपन्यास ‘अरेण्येर अधिकार’ (जंगल के दावेदार) से जाना, तभी निर्णय ले लिया था कि एक दिन जरूर इस महानायक पर एक बॉलीवुड फिल्म बनाएंगे। उन्होंने कहा कि इस साल की शुरुआत में इस बाबत जब नम: पिक्चर्स के बैनर तले फिल्म बनाने वाले निर्माता शरीन मंत्री केडिया और किशोर अरोड़ा से चर्चा की, तब वे लोग भी इस फिल्म को लेकर काफी उत्साहित हुए और फिल्म के लिए हामी भर दी।

पा. रंजीत, फिल्म निर्देशक

यह भी पढ़ें : जंगल के दावेदारों के महानायक बिरसा मुंडा

पा रंजीत ने बताया कि आदिवासी जननायक बिरसा मुंडा पर बनने वाली फिल्म पर रिसर्च वर्क तेजी से चल रहा है और अगले साल मई में शुटिंग शुरू हो जाने की उम्मीद है। हालांकि, उन्होंने फिल्म के कास्ट (कलाकारों) के बारे में कुछ भी नहीं बताया। उन्होंने कहा कि फिल्म को जाति, धर्म, संप्रदाय, वर्ग, राज्य आदि में नहीं बांटा जा सकता है। लोग लोकनायकों के बारे में जानना चाहते हैं। चाहे वो किसी जाति, धर्म, संप्रदाय या प्रदेश के ही क्यों न हों। उन्होंने उम्मीद जताई कि यह फिल्म बहुत पसंद की जाएगी।

नीयत अच्छी, पर प्रस्थान बिंदु गलत : अश्विनी कुमार पंकज

धरती आबा बिरसा मुंडा के जीवन पर फिल्म बनाने संबंधी घोषणा के बारे में सांस्कृतिक व सामाजिक कार्यकर्ता सह आदिवासी पत्रिका जोहार सहिया के संपादक अश्विनी कुमार पंकज ने कहा, “पा रंजीत ने कल 15 नवंर को बिरसा मुंडा पर अगली फिल्म बनाने की घोषणा की है। हम इसका स्वागत करते हैं, क्योंकि पा रंजीत बेशक एक सुलझे हुए और बहुत बेहतरीन फिल्मकार हैं। ‘काला’ के कारण वे मेरे पसंदीदा युवा फिल्मकारों में से हैं। ‘काला’ को मैं भारतीय सिने इतिहास में पहली फिल्म मानता हूं, जो भारतीय कला और राजनीति में बहुजन राजनीति को बहुत ही कलात्मक ढंग से पेश करती है। पर इस बात ने मुझे निराश किया कि बिरसा की फिल्म महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ पर आधारित होगी। मेरी अपनी समझ है कि ये एक दिकू नजरिये का उपन्यास है, जो बिरसा मुंडा के उलगुलान और आदिवासियों के संघर्ष को बहुत ही रोमांटिक नजरिये से पेश करता है। इसमें बहुत सारी तथ्यात्मक भूलें हैं और सांस्कृतिक रूप से इस उपन्यास का गठन बहुत ही विकृत है।”

अश्विनी कुमार पंकज, सांस्कृतिक व सामाजिक कार्यकर्ता, झारखंड

कुमार सुरेश सिंह का शोध अधिक विश्वसनीय

अश्चिनी कुमार पंकज ने कहा, “अब तक बिरसा मुंडा पर दो-तीन छोटे बजट की फिल्में और कई डॉक्यूमेंट्री बन चुकी हैं। इन सभी फिल्मों में बिरसा मुंडा का आदिवासी किरदार और समाज-संस्कृति एक सिरे से गायब है। महाश्वेता देवी का उपन्यास भी ऐसा ही है। इसलिए मेरी चिंता है कि कहीं पा रंजीत की फिल्म भी कहीं एक ‘विद्रोह’ की कहानी न बन जाए। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुआ उलगुलान और आदिवासियों की लड़ाई एकरैखिक ‘विद्रोह’ नहीं है। जैसा कि अब तक दिकू (गैर-आदिवासी) इतिहासकार, लेखक और फिल्मकार कहते रहे हैं। बेहतर होता कि वे अपनी फिल्म कुमार सुरेश सिंह के शोध अध्ययन ‘बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन’ पर केंद्रित करते। हालांकि, ऐसा करने का अर्थ होता- एक जबरदस्त सृजनात्मक चुनौती को स्वीकार करना। इसकी तुलना में महाश्वेता के उपन्यास का चयन सुविधाजनक है। परंतु, यह सुविधा विश्वसनीयता का क्षरण करती है। फिर भी हम जैसे लोग पा रंजीत से उम्मीद रखते हैं। उन्हें बधाई देते हुए भी अपनी आशंका जाहिर कर रहे हैं कि वे भारत के 12 करोड़ आदिवासियों की भावनाओं का ख्याल रखेंगे; उनके जीवन और संघर्षों को ‘दिकू’ नजरिये से नहीं पेश करेंगे।”

(काॅपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

कुमार समीर

कुमार समीर वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्होंने राष्ट्रीय सहारा समेत विभिन्न समाचार पत्रों में काम किया है तथा हिंदी दैनिक 'नेशनल दुनिया' के दिल्ली संस्करण के स्थानीय संपादक रहे हैं

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