वर्ष 2016 में झारखंड सरकार ने बहुत जोर-शोर के साथ गोड्डा जिले में एक पाॅवर प्लांट स्थापित करने के लिए अडाणी समूह के साथ समझौता किया था। इसके लिए 10 गांवों की 1364 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा जा रहा है। यह स्थिति तब है, जबकि राज्य सरकार ने ही 2013 में यह कानून बनाया है कि आदिवासियों की जमीन का फैसला ग्राम-सभाएं करेंगी।
झारखंड सरकार के इस रवैये पर विरोध के स्वर तेज होने लगे हैं। हाल ही में झारखंड जनाधिकार महासभा ने इस परियोजना की जांच की। जांच में यह बात सामने आई कि सरकार जमीन अधिग्रहण करने के लिए अपने ही सभी नियमों व व्यवस्थाओं को तोड़ रही है। साथ ही विरोध करने वालों पर झूठे मुकदमे लादकर खामोश करने का प्रयास कर रही है।

अडाणी की कंपनी का आदिवासी कर रहे विरोध
झारखंड जनाधिकार महासभा द्वारा जारी विज्ञप्ति के अनुसार, कंपनी की सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्ट कहती है कि थर्मल पाॅवर प्लांट के लिए गोड्डा जिले के दो प्रखंडाें के 10 गांवों में फैली हुई 1364 एकड़ भूमि को अधिग्रहित किया जाना है। इस प्लांट से 1600 मेगावॉट बिजली का उत्पादन हाेगा। झारखंड सरकार और कंपनी का दावा है कि यह एक लोक परियोजना है, इससे रोजगार का सृजन और आर्थिक विकास होगा तथा इस परियोजना में विस्थापन की संख्या ‘शून्य’ है। कुल उत्पादन में से 25 प्रतिशत बिजली झारखंड को दी जाएगी।
जबकि जमीनी हकीकत इन दावों के विपरीत है। भूमि अधिग्रहण कानून-2013 के अनुसार, निजी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण करने के लिए कम-से-कम 80 प्रतिशत प्रभावित परिवारों की सहमति एवं ग्रामसभा की अनुमति की आवश्यकता है। लेकिन क्षेत्र के अधिकांश आदिवासी और कई गैर-आदिवासी परिवार शुरुआत से ही इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं। 2016 और 2017 में सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन और पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन के लिए जन-सुनवाई आयोजित की गई थी। कई जमीन मालिक, जो इस परियोजना के विरोध में थे, उन्हें अडाणी के अधिकारियों और स्थानीय प्रशासन ने जन-सुनवाई में भाग लेने नहीं दिया।
प्रभावित ग्रामीण दावा करते हैं कि गैर-प्रभावित क्षेत्रों के लोगों को सुनवाई में बैठाया गया था। ऐसी ही एक बैठक के बाद, जिसमें प्रभावित परिवारों को अपनी बात रखने का मौका नहीं दिया गया था; ग्रामीणों और पुलिस के बीच झड़प हुई थी और पुलिस ने महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करने के साथ उन पर लाठी चार्ज भी किया था।
कंपनी की रिपोर्ट में कई खामियां
कंपनी की सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्ट में कई तथ्यात्मक व वैधानिक खामियां हैं। जैसे- प्रभावित गांवों में कोई तकनीकी रूप में कुशल और शिक्षित व्यक्ति न होना। शून्य विस्थापन और प्रभावित गांवों के सभी ग्रामीणों का धर्म हिंदू बताना आदि। बटाईदार खेतिहर पर होने वाले प्रभाव का कोई जिक्र नहीं है। न ही इसमें वैकल्पिक जमीन की बात की गई है। परियोजना से सृजित होने वाली नौकरियों की संख्या रिपोर्ट में स्पष्ट नहीं है। साथ ही भूमि अधिग्रहण के लिए सहमति का वीडियो और जमीन मालिकों द्वारा हस्ताक्षरित सहमति-पत्र उपलब्ध नहीं है।
जमीन नहीं दी, तो जमीन में गाड़ देंगे
यह गौर करने की बात है कि अधिनियम के अनुसार प्रभावित परिवारों का हिस्सा जमीन मालिक, मजदूर व बटाईदार खेतिहर होते हैं। सरकार ने चार गांवों में लगभग 500 एकड़ भूमि अधिग्रहित की है। इसमें से कम-से-कम 100 एकड़ जमीन का अधिग्रहण संबंधित 40 प्रभावित परिवारों की सहमति के बिना जबरन किया गया है। कंपनी ने स्थानीय पुलिस के सहयोग से माली गांव के मैनेजर हेमब्रम सहित अन्य पांच आदिवासी परिवारों की 15 एकड़ जमीन में लगी फसलों, कई पेड़-पौधों, श्मशान घाटों और तालाब को बर्बाद कर दिया। मोतिया गांव के रामजीवन पासवान की भूमि को जबरन अधिग्रहित करने के दौरान, अडाणी कंपनी के अधिकारियों ने उन्हें धमकी दी कि “जमीन नहीं दी, तो जमीन में गाड़ देंगे”। पुलिस ने अडाणी के अधिकारियों के खिलाफ पीड़िताें की शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया।

जब माली गांव के लोगों ने उनकी सहमति के बिना जबरदस्ती भूमि अधिग्रहण के खिलाफ गोड्डा के उपायुक्त से शिकायत की, तो उन्होंने कार्रवाई करने से इनकार कर दिया और कहा कि उनकी भूमि अधिगृहित कर ली गई है, इसलिए उन्हें मुआवजा ले लेना चाहिए। प्रभावित गांवों के लोग दावा करते हैं कि अगर सभी 10 गांवों में जमीन अधिग्रहित की जाती है, तो 1000 से अधिक परिवाराें काे विस्थापित होना पड़ेगा। इससे उनकी आजीविका और रोजगार पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। साथ ही आदिवासी परिवारों के लिए जमीन उनकी संस्कृति, परंपरा और अस्तित्व से जुड़ी राेटी-राेजगार का जरिया है, जिसे वे गंवाना नहीं चाहते हैं। यह गौर करने की बात है कि संथाल परगना टेनेंसी अधिनियम की धारा-20 के अनुसार, ‘किसी भी सरकारी या निजी परियोजना (कुछ विशेष परियोजनाओं के अलावा) के लिए कृषि भूमि हस्तांतरित या अधिगृहित नहीं की जा सकती है।’
पर्यावरण के साथ राजस्व का भी नुकसान
पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्ट के अनुसार, इस प्लांट में हर वर्ष 14-18 मिलियन टन कोयले का उपयोग किया जाएगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह आस-पास के वातावरण को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा। प्लांट में प्रति वर्ष 36 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी की आवश्यकता होगी, जिसे स्थानीय चिर नदी से लिया जाएगा। यह वर्षा आधारित नदी इस जल-अभाव क्षेत्र के लिए जीवन-रेखा के समान है।
प्लांट से उत्पादित बिजली की बांग्लादेश में आपूर्ति की जाएगी। हालांकि, अडाणी कंपनी को कुल उत्पादन की कम-से-कम 25 प्रतिशत बिजली झारखंड को उपलब्ध करानी है; लेकिन इसकी सामाजिक प्रभाव मुल्यांकन रिपोर्ट में इस 25 प्रतिशत के स्रोत का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं है। हाल की एक न्यूज रिपोर्ट ने यह खुलासा किया है कि झारखंड सरकार ने अडाणी कंपनी से उच्च दर पर बिजली खरीदने के लिए 2016 में अपनी ऊर्जा नीति में बदलाव किया था। इस बदलाव के कारण सरकार से अडाणी समूह को अगले 25 वर्षों में सामान्य भुगतान के अलावा 7000 हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त भुगतान भी मिल सकता है।
बहरहाल, झारखंड जनाधिकार महासभा ने मांग की है कि अवैध तरीके से लगाई जा रही परियोजना को तुरंत रोका जाए। प्लांट के लिए भूमि अधिग्रहण को तुरंत बंद किया जाए और अवैध तरीके से अधिग्रहित की जा रही जमीन किसानाें काे वापस की जाए। साथ ही महासभा ने कहा है कि चूंकि इस परियोजना में कानून का पूरी तरह उल्लंघन हुआ है, इसलिए इस परियोजना की न्यायिक जांच करवाई जाए तथा लोगों के शोषण के लिए अडाणी कंपनी और जिम्मेदार पदाधिकारियों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जाए। इसके अलावा सभी प्रभावित परिवारों को अभी तक हुए फसलों और आजीविका के अन्य संसाधनाें के नुकसान के एवज में समुचित मुआवजा दिया जाए।
(कॉपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)
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