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महिषासुर अब एक कल्पना नहीं, वास्तविकता है। मेरे इस वक्तव्य का आधार यशस्वी लेखक और पत्रकार प्रमोद रंजन द्वारा संपादित ताजातरीन किताब ‘महिषासुर : मिथक और परंपराएँ’ है। इस किताब में सत्ताईस लेखकों की रचनाएँ शामिल है, जिन्हें पाँच खंडों में बाँटा गया है। सभी लेखों में महत्वपूर्ण जानकारी है या कहिए कुछ निश्चित जानकारी तक पहुँचने की ईमानदार कोशिश है। सभी लेखक उस संभावित संस्कृति की खोज में हैं जिसका संघर्ष आर्य या ब्राह्मण संस्कृति से हुआ था और जिसमें पराजित हो कर वह नष्ट हो गयी थी। लेकिन कोई भी इतिहास पूरी तरह से जाता नहीं है। घटनाएँ भुला दी जाती हैं, पर उनके नायक-नायिकाएँ मिथक के रूप में जन-स्मृति में बने रहते हैं। महिषासुर या भैंसासुर ऐसा ही एक मिथक है, जिसके पीछे भयावह वास्तविकताएँ छुपी हुई नजर आती हैं। – राजकिशोर, दैनिक जागरण के 24 दिसंबर के राष्ट्रीय संस्करण में ‘महिषासुर का सांस्कृतिक भविष्य’ शीर्षक से प्रकाशित
हिंदूवादी संगठन महिषासुर आंदोलन से बहुत विचलित हैं। लेकिन यह देखना अधिक त्रासद है कि मार्क्सवादी पार्टियों से जुड़े बुद्धिजीवी भी उनके सुर में सुर मिलाने लगते हैं। पिछले वर्षों में महिषासुर आंदोलन जब आगे बढ़ा तो इन दोनों ने इस पर कई आरोप लगाए। पहला आरोप था कि महिषासुर का दलित-आदिवासी परंपरा से कोई लेना-देना नहीं है। जब उनकी यह बात मिथ्या साबित हुई तो, उन्होंने अपनी व्याख्या को दुर्गासप्तशती तक सीमित करना शुरु किया कि ‘इसमें तो वह राक्षस के रूप में में वर्णित हैं’। लेकिन जब तथ्यों के आलोक में यह बात सामने आने लगी कि महिषासुर का जन्म उस पौराणिक गाथा से नहीं हुआ है, तो उन्होंने कहना शुरु किया है कि महिष की कथा उठाने से स्त्री-शक्ति के रूप में देवी दुर्गा का अपमान होता है। इस प्रकार के आरोपों का उत्तर ‘महिषासुर : एक जननायक’ शीर्षक से छपी पिछली किताब में दिया गया था। उनके स्त्री-शक्ति वाले तर्क पर सिर्फ इतना कहना है कि शक्ति तो वह श्रेयस्कर है, जो करूणा की वाहक हो। हिंसा की संस्कृति की वाहक शक्ति त्याज्य है और देवी दुर्गा तो स्त्री-शक्ति का प्रतीक कतई नहीं हैं। (प्रमोद रंजन, इसी पुस्तक में)
पिछले कुछ वर्षों में महिषासुर और उससे जुड़े मिथकों को लेकर विश्वविद्यालयों के प्रांगण से संसद तक गहमागहमी रही है। ऐसे में इस पुस्तक का प्रकाशन महिषासुर मिथक भेदन के साथ उसकी ऐतिहासिकता को तलाशने का जरूरी उपक्रम है। इसमें शामिल लेख महज अवधारणाओं और जनश्रुतियों का ही भाष्य नहीं करते बल्कि पुरातात्विक साक्ष्य, ऐतिहासिक संदर्भ, भौगोलिक भिन्नता और पौराणिक संदर्भों से गुजरते हुए महिषासुर के मिथक की तलाश करते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत जैसे बहुलवादी विशालकाय समाज में सांस्कृतिक बहुलता के घटाटोप में प्रायः अभिजन मुहावरे में ही सांस्कृतिक भिन्नता की चर्चा होती रही है। श्रमशील बहुजन समाज की संस्कृति और परंपरा को प्रायः असभ्य, सुरुचिविहीन और गैर-सांस्कृतिक करार देकर हाशिए पर ढकेलने की दुरभिसंधि होती रही है। महिषासुर-मिथक व परंपराएं इसके विरुद्ध बौद्धिक हस्तक्षेप सरीखा है। – वीरेंद्र यादव, 20 मई 2018, आउटलुक
हम महिषासुर के प्रसंग में विजित और विजेता के अलग-अलग दृष्टिकोणों का द्वैत देखते हैं, जिसमें अनेक कारणों से विजित पक्ष की बात अनसुनी अथवा कम सुनी रह गई। लेकिन बदले वक्त में आदिवासी, पिछड़ा और दलित समुदाय महिषासुर के संदर्भ से अपनी सांस्कृतिक परंपरा को बिल्कुल अपने नजरिये से देखने-दिखाने की कोशिश कर रहा है। इनका आग्रह है कि महिषासुर के मिथक के पुरातात्त्विक आधार हैं और अनेक स्थानों पर उनकी पूजा की जाती है। – धर्मेंद्र सुशांत, 24 जून 2018, दैनिक हिन्दुस्तान
यह बात कई लोगों को थोड़ी अजीब लग सकती है पर पिछले साल छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में दुर्गापूजा मना रहे आयोजकों के खिलाफ एफआइआर दर्ज की गई कि उन्होंने आदिवासी समुदाय का ‘अपमान’ किया है। दरअसल कुछ आदिवासी संगठनों ने महिषासुर के वध के चित्रण को उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला बताया। यह वंचित समुदायों में बीते कुछ वर्षों में उभरे नए अस्मिताबोध को दर्शाता है। – सरोज कुमार, इंडिया टुडे, 24 जनवरी 2018
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मिथक-परंपराओं की पुनर्व्याख्या से इतिहास की खोज – ईश मिश्रा, 28 सितंबर 2018, फारवर्ड प्रेस
महिषासुर मिथक व परंपराएं : बहुजन समाज की नजर से इतिहास का एक नया पाठ, गायत्री आर्य, समसामयिक वेब पोर्टल सत्याग्रह