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सवर्ण आरक्षण : इन सवालों पर भी विचार हो

हम तुलसीदासों के लिए रोजगार सुनिश्चित करना चाहते हैं, भीख नहीं। यह इसलिए कि वह कबीर और रैदास के अमरदेस और बेगमपुरा के नागरिक बन सकें। वह स्त्री-शूद्र विरोधी रामराज से मुक्त हो सकें

सामान्य वर्ग, जिन्हें सवर्ण या ऊँची जातियां कहने का प्रचलन अधिक है, के गरीबों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में दस फीसदी आरक्षण सुनिश्चित करने के फैसले और तत्संबंधित संवैधानिक सुधारों के वास्ते लाये गए सरकारी बिल को संसद के दोनों सदनों ने पारित कर दिया है। हालांकि इसे कार्यान्वित होने में समय लगेगा। इस बीच इसकी आंच पर लोकसभा के चुनाव हो जायेंगे। भाजपा का अभीष्ट भी बस यही है कि इसकी आंच अथवा ताप पर चुनावी रोटी सेंक लेनी है। पिछले महीने पांच प्रांतीय विधान सभाओं के चुनाव नतीजे आये और उनमें तीन, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ – जो भाजपा के किले थे, में उनकी जमी-जमायी सरकारें चली गयीं। सूचनाओं के अनुसार ऊँची जातियों का समर्थन खोना भी इसका एक बड़ा कारण रहा।

भाजपा का वह मूल आधार रहा है। पिछले दशकों में अपने राजनैतिक संघर्ष में उसने कांग्रेस पार्टी से इसे छीना था। इस तबके से सबसे अधिक मुखर राजनैतिक कार्यकर्ता उस पार्टी में हैं। इसलिए परेशानी थी कि किसी तरह इस आधार को बचाया जाए। इसी कोशिश में यह कदम उठाया गया प्रतीत होता है। इसके राजनैतिक नफा-नुकसान का निर्णय तो आने वाले चुनाव में होगा, लेकिन इसे लेकर बुद्धिजीवियों की जमात में जो चर्चा हैं, उस पर कुछ विचार लाज़िमी है।

दुखद स्थिति है कि बड़े परिप्रेक्ष्य में कोई विचार नहीं हो रहा है। लोकतंत्र क्या है, भारतीय संविधान क्या है, जाति और रोजगार के प्रश्न और उनके उत्तर क्या है, जैसे मुद्दों पर हमने समग्रता से विचार नहीं करना चाहा। आज से अट्ठाइस साल पूर्व 1990 में जब वी.पी. सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया था,तब भी इन सवालों की ऐसी ही अनदेखी की गयी थी। विगत दिनों संसद के दोनों सदनों में जिस स्तर की बहस हुई उसे मैं निराशाजनक ही कहना चाहूंगा। बिल रखने वाले नेता स्वयं इस गुत्थी को समझ नहीं सके हैं। अंग्रेजी लिख-पढ़-बोल लेने से कोई विद्वान नहीं हो जाता। इसका आभास बार-बार हो रहा था। मोटे तौर पर संविधान की मूल आत्मा की बखिया उधेड़ दी गयी, उसका सत्यानाश हो गया और पूरी संसद ताली पीटकर इसका अनुमोदन करती रही।

भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह

हम आरंभिक सवाल से अपनी बात शुरू करते हैं। 26 नवंबर 1949 को संविधान आत्मसात किया गया था और इसे 26 जनवरी 1950 से लागू किया गया। जो प्रीएम्ब्ल या प्रस्तावना है, उसमें कहा गया है कि हम भारत के लोगों के लिए ‘ न्याय -सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक। आज़ादी – विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की और समानता इज़्ज़त और अवसर की, सुनिश्चित करने और उनमें व्यक्ति की गरिमा और भाईचारा विकसित करने के लिए मजबूत इरादों के साथ इसे अंगीकृत, अधियनिमित और आत्मार्पित कर रहे हैं। ‘

इसके एक दिन पूर्व 25 नवंबर 1949 को इसके तृतीय वाचन पर बोलते हुए भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि आज़ादी एक त्रयी में होती है समानता, भाईचारा और आज़ादी एक दूसरे से जुड़े होते हैं। हमने समानता और भाईचारा के बिना पर राजनैतिक आज़ादी की घोषणा कर दी है। उन्होंने चेतावनी दी थी कि हम एक अंतर्विरोधी स्थितियों की ओर बढ़ रहे हैं। देश में राजनैतिक आज़ादी यानि एक व्यक्ति एक वोट की हैसियत तो सबको मिल गयी है, लेकिन सामाजिक और आर्थिक आज़ादी नहीं है। इसे हमने शीघ्र प्राप्त नहीं किया तो विषमता के शिकार लोग इस आज़ादी को विनष्ट कर देंगे।

आंबेडकर की बातों पर कम ही ध्यान दिया गया। ज्यादातर लोग उन्हें दलित नेता मानते रहे और दलितों के चालाक-स्वार्थी हिस्से ने भी उन्हें कभी अपने दायरे से बाहर निकलने नहीं दिया। वह अपने समय के सर्वाधिक चेतना-संपन्न राजनेता थे। वह फ़्रांसिसी क्रांति से खासे प्रभावित थे और समानता, भाईचारा और आज़ादी का नारा वहीं से ग्रहण किया था। तब उनकी बातों को समझने वाले कम ही लोग वहां थे। समाजवादियों ने बीच में ही इस सभा से इस्तीफा कर दिया और पुनः चुनकर वे आ नहीं सके, इसलिए संविधान सभा में नेहरू और आंबेडकर ही ऐसे राजनेता रह गए थे जिनकी दृष्टि समग्र थी। नेहरू का सभा पर प्रभाव था, लेकिन आज़ादी किसी क्रन्तिकारी वैचारिक आंदोलन के बूते नहीं, एक राष्ट्रीय आंदोलन के तहत हासिल हुई थी। यह राष्ट्रीय आंदोलन पंचमेल विचारों का जमावड़ा था.,जहां प्रगतिशील और प्रतिगामी वैचारिक शक्तियां एक ही नाव पर सवार थीं। इसी कारण हमारी संविधान सभा ने भूमि और उत्पादन के अन्य आधारों का समाजीकरण नहीं किया। इसके बिना पर आर्थिक समानता मुश्किल थी।

दिल्ली में आरक्षण का विरोध करते सवर्ण (फाइल फोटो)

दूसरी बड़ी समस्या सामाजिक समानता की थी। इसका एक रूप जाति के रूप में दीखता है। चाहे जिन कारणों से भी हो, लेकिन भारत के बड़े हिस्से में शारीरिक कार्य को हीनतर माना जाता है। मानसिक कार्य करनेवाले श्रेष्ठ माने जाते रहे हैं। सामाजिक संरचना में उत्पादन के अधिकतम साधन-स्रोत उन लोगों के पास रहे,जिनने शारीरिक श्रम से परहेज किया। मिहनत करने वाले लोग कमेरे-शूद्र बतलाये गए और बैठ कर यानी बिना शारीरिक मिहनत के खानेवाले लोग द्विज (विशेषाधिकार प्राप्त जन) कहे गए। हमारी सामाजिक सोच का केंद्रीय तत्व रहा कि हमने सब कुछ द्विज दृष्टिकोण से तय किया। अपनी राजनीति,अपना धर्म, अर्थनीति से लेकर अपनी आध्यात्मिकता तक। यही ब्राह्मणवाद है। विवेकानंद और राममनोहर लोहिया जैसे उत्तरभारतीय हिन्दू समाजवादियों ने इन तथ्यों को एक हद तक समझा था। इसी आधार पर विवेकानंद ने कहा था भविष्य का भारत शूद्रों का होगा। लोहिया ने मिहनतक़श-कमेरे तबकों के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत की वकालत की। यही सब आरक्षण का वैचारिक आधार था।

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संवैधानिक व्यवस्था यह थी कि सामाजिक और शैक्षिक स्तर कमजोर लोगों के लिए आयोग बना कर उसकी सिफारिशें प्राप्त की जाएंगी और उसके आधार पर सरकार उस तबके की उन्नति सुनिश्चित करेगी। यह उन्नति दरअसल लोकतान्त्रिक संस्थाओं के मद्देनज़र था। भारतीय लोकतंत्र की इस नयी व्यवस्था में विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका जैसे तीन विभाग थे। किसी होशियारी से न्यायपालिका को तो नहीं लिया गया, लेकिन विधायिका और कार्यपालिका में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए क्रमशः पंद्रह और साढ़े सात प्रतिशत स्थान सुरक्षित किये गए। सामाजिक व्यवस्था में अछूत बतलाये गए लोगों को अनुसूचित जाति और वनवासियों को जनजाति कहा गया था।  लेकिन इनके अलावा भी ऐसे जनसमूह थे, जो अछूत और वनवासी तो नहीं थे, जिनकी स्थिति कमजोर थी। ये मुख्यतः कमेरी जातियां थीं। हालांकि कुछ प्रदेशों में इनमे ब्राह्मण और राजपूत तबके की कुछ जातियां भी शामिल थीं। इन्हे अन्य पिछड़ा वर्ग कहा गया। इनके लिए 1953और 1978 में एक-एक आयोग बना। आखिरी आयोग जिसे मंडल आयोग कहा जाता है की सिफारिशों को 1990 में वी.पी. सिंह सरकार ने लागू किया था।

तभी से बात चल रही थी कि इन वर्गों से अलग लोगों की स्थितियों पर भी विचार होना चाहिए। इससे किसी को एतराज क्यों और कैसे होना चाहिए। लेकिन हमें कुछ मूलभूत बातों का ध्यान करना चाहिए। पहला तो यह कि आरक्षण को रोजगार देने के अवसर के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। और दूसरा कि सामाजिक और आर्थिक समानता विकसित करने के लिए अलग-अलग उपाय हों। फिर एक तीसरी बात यह कि हमें आधुनिक लोकतान्त्रिक समाज की ओर बढ़ना है, इसलिए यथाशीघ्र जाति आधारित समाज विभाजन और सोच को खत्म करने के तरीकों पर भी विचार करना चाहिए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

सामाजिक स्तर पर पुरोहिती-सामंती सोच और संरचना के जमे रहने के कारण ही पिछड़ेपन के आधार आर्थिक के अलावl एक सामाजिक भी हैं। कमेरी जातियों में सब के सब गरीब नहीं हैं। लेकिन जो संपन्न हैं,वे भी समूहगत आधार पर पद दलित समझे जाते हैं। आंबेडकर और जगजीवन राम जैसी हस्तियों को ऊँचे महत्वपूर्ण पदों पर रहने के बावजूद भी अपमानित होना पड़ता था। यह इसलिए था कि हम अपनी पारम्परिक सोच के कारण व्यक्ति का उसके निजी गुणों के आधार पर नहीं,उसके समूह के गुणों के आधार पर आकलन करते थे। जन्म से जाति तय हो जाती थी। अब स्थितियां बहुत हद तक बदल गयीं हैं। लेकिन बिल्कुल ख़त्म नहीं हुई हैं। हम सामान्य स्थितियों को बहाल करने का भरसक प्रयास करेंगे। हम ऐसे समय का इंतज़ार कर रहे हैं कि आरक्षण की व्यवस्था को पूरी तरह हटा लिया जाय। यही हमारा आदर्श है और होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर कहें, तो एक बीमार आदमी को अस्पताल जरूर ले जाया जाय, लेकिन उसे अस्पताल में ही छोड़ नहीं दिया जाय। लेकिन यहां तो स्वस्थ लोगों को अस्पताल में भर्ती करने की कवायद हो रही है। सवर्णों का आरक्षण यही है।

सवर्णों को बेशक रोजगार चाहिए, लेकिन उन्हें आरक्षण नहीं चाहिए। रोजगार उनमें आधुनिक भाव भरेगा, ख़ास कर उनकी लड़कियों में,लेकिन यह जातिगत आरक्षण उन्हें पुरानी दकियानूसी दुनिया की तरफ ले जायेगा,जहां मांग कर खानेवाले दरिद्र तुलसीदास भी द्विजवादी सामाजिक संरचना की वकालत करते हैं। तुलसीदास के मुकाबले कबीर और रैदास आर्थिक स्तर पर संपन्न थे, क्योंकि उनके चादर और जूते बाजार में बिकते थे और नतीजतन उनके हाथ कमाई के चार पैसे होते होंगे। लेकिन कबीर-रैदास ने समानता और बंधुत्व वाली सामाजिक संरचना का प्रस्ताव किया। हम तुलसीदासों के लिए रोजगार सुनिश्चित करना चाहते हैं, भीख नहीं। यह इसलिए कि वह कबीर और रैदास के अमरदेस और बेगमपुरा के नागरिक बन सकें। वह स्त्री-शूद्र विरोधी रामराज से मुक्त हो सकें।

जातिगत सोच और संरचना पुरोहिती-सामंती सोच है, पुरानी सोच है। नए आधुनिक समाज में इसके लिए स्पेस नहीं होना चाहिए। यह इसलिए भी कि यह व्यक्तिगत से अधिक समूहगत आधार पर पिछड़ेपन का निर्णय करता है और अपने स्वभाव में यह कबायली है। कोशिश तो यह होनी चाहिए कि सभी आरक्षण को व्यक्तिगत पिछड़ापन के आधार पर सुनिश्चित किया जाय। पिछड़ेपन के कुछ पॉइंट निर्धारित हों, इसमें जाति का भी पॉइंट हो। किसी व्यक्ति में पिछड़ेपन के जितने अधिक पॉइंट होंगे, उन्हें आरक्षण के अनुकूल माना जायेगा। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भर्ती के लिए आरम्भ से ही इस विधि का उपयोग किया जाता रहा है। इसे देश भर में लागू किया जा सकता है। इससे चुनाव में आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक सभी आधार आ जायेंगे। जरुरत के अनुसार उसे अधिक वैज्ञानिक बनाया जा सकता है।

वर्तमान केंद्र सरकार ने शेष तबकों के लिए जो आरक्षण का प्रावधान किया है, उसका कोई औचित्य समझ में नहीं आता। सरकार कन्फ्यूज्ड है। वोट के लिए उसे संविधान के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। पंद्रह फीसद के लिए उसने दस फीसद का जो आरक्षण प्रावधान किया है, वह अंतर्विरोधों से परिपूर्ण है। रोजगार के अवसर विकसित करने में विफल सरकार का नौजवानों के प्रति यह भद्दा मज़ाक है। क्या सामान्य तबकों को सरकारी नौकरियों में दस फीसद स्थान नहीं हैं? है। जिन्हें वह अवसर मिला है, वे आर्थिक रूप से कमजोर भी हैं। आनेवाले समय में बेरोजगार नौजवानों को इससे कोई नया रोजगार नहीं मिलने जा रहा। यह कदम जाति व्यवस्था को अधिक मजबूत करेगा और हमारे जातिमुक्त समाज की आकांक्षाओं को कमजोर करेगा।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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