बीते 22 जनवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने भले ही केंद्र सरकार की याचिका को खारिज करते हुए विश्वविद्यालयों में विभागवार आरक्षण को हरी झंडी दे दी, परंतु इस मामले की सुनवाई के दौरान सरकार ने भी यह कबूल किया कि विभागवार आरक्षण से नुकसान ही नुकसान है। दरअसल सरकार की ओर से जो दलीलें सुप्रीम कोर्ट में रखी गईं, उसके मुताबिक यदि विभागवार आरक्षण हुआ तो एक तरफ उच्च शिक्षा में सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी में 25 से 40 फीसदी की वृद्धि हो जाएगी। वहीं दूसरी ओर आरक्षित वर्गों की हिस्सेदारी में 25 से 100 फीसदी तक की कमी आएगी।
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के इस दलील के बावजूद याचिका को खारिज कर दिया। 2017 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायादेश कि विश्वविद्यालयों में आरक्षण का आधार विभाग हो न कि विश्वविद्यालय को इकाई माना जाय, के खिलाफ केंद्र सरकार ने पुनर्विचार याचिका दाखिल किया था।
सर्वोच्च अदालत में केंद्र सरकार ने विस्तार से पक्ष रखा। इसके लिए उसने 40 में से 20 केंद्रीय विश्वविद्यालयों का आंकड़े से अदालत को अवगत कराया। इसके मुताबिक कहा गया कि कई विभागों में यह संभावना है कि आरक्षित वर्ग के लिए जगह ही न बचे।

सरकार ने बिंदूवार जानकारी देते हुए कोर्ट को बताया कि अनुसूचित जनजाति को सबसे अधिक नुकसान होगा यदि विश्वविद्यालय के बजाय विभागवार आरक्षण का प्रावधान किया गया। सरकार के मुताबिक आने वाले समय में विश्वविद्यालयों में होने वाली नियुक्तियों में अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व में 78 से 100 फीसदी की कमी हो जाएगी। जबकि अनुसूचित जाति के प्रतिनिधित्व में 58 से 97 फीसदी कमी होगी।
सरकार ने इस बात पर भी चिंता व्यक्त की कि विभागवार आरक्षण लागू हुआ तो इसका खामियाजा ओबीसी को भी भुगतना पड़ेगा। सरकार ने कोर्ट को बताया कि ओबीसी के प्रतिनिधित्व में भी 25 से 100 फीसदी की कमी होगी।
पद – प्रोफेसर
वर्ग यदि विश्वविद्यालय को इकाई माना गया यदि विभागवार आरक्षण लागू हुआ बदलाव
ओबीसी 134 4 -97
एससी 59 0 -100
एसटी 11 0 -100
सामान्य 732 932 +27
(साभार : इकोनॉमिक टाइम्स)
इस प्रकार सरकार की तरफ से कोर्ट को यह बताया गया कि विभागवार आरक्षण लागू होने से आरक्षित वर्गों का प्रतिनिधित्व पूरी तरह खत्म होने का खतरा है जबकि सामान्य वर्ग के प्रतिनिधित्व में 25 से लेकर 40 फीसदी तक की वृद्धि है। यह आंकड़ा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सरकार यह स्वीकार करती है कि आरक्षण का प्रावधान होने के बावजूद आरक्षित वर्गों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है।
पद – असिस्टेंट प्रोफेसर
वर्ग | यदि विश्वविद्यालय को इकाई माना गया | यदि विभागवार आरक्षण लागू हुआ | बदलाव |
---|---|---|---|
ओबीसी | 1167 | 876 | -25 |
एससी | 650 | 275 | -58 |
एसटी | 323 | 72 | -78 |
सामान्य | 732 | 932 | +27 |
(साभार : इकोनॉमिक टाइम्स)
अभी हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस द्वारा प्रकाशित खबर के मुताबिक देश के 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एससी वर्ग के प्रोफेसर की संख्या महज 39 (3.47 प्रतिशत), एसटी वर्ग के प्रोफेसर की संख्या महज 8 (0.7 प्रतिशत) और ओबीसी प्रोफेसर की संख्या शून्य है। जबकि सामान्य वर्ग के प्रोफेसर की संख्या 1125 में से 1071 (95.2 प्रतिशत) है। इसी तरह इन विश्वविद्यालयों में एससी वर्ग के एसोसिएट प्रोफेसर की संख्या 130 (4.96 प्रतिशत), एसटी वर्ग के एसोसिएट प्रोफेसर की संख्या 34 (1.30 प्रतिशत) और ओबीसी वर्ग के एसोसिएट प्रोफेसर की संख्या शून्य है। जबकि सामान्य वर्ग के एसोसिएट प्रोफेसर की संख्या 2620 में 2434 (92.90 प्रतिशत) है।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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