(भारत सरकार के नौकरशाहों में जिन चंद लोगों ने अपने को वंचित समाज के हितों के लिए समर्पित कर दिया, उनमें पी.एस. कृष्णन भी शामिल हैं। वे एक तरह से आजादी के बाद के सामाजिक न्याय के जीते-जागते उदाहरण हैं। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने सामाजिक न्याय संबंधी अपने अनुभवों को डॉ. वासंती देवी के साथ साझा किया। वासंती देवी मनोनमनियम सुन्दरनर विश्वविद्यालय, तमिलनाडु की कुलपति रही हैं। संवाद की इस प्रक्रिया में एक विस्तृत किताब सामने आई, जो वस्तुतः आजादी के बाद के सामाजिक न्याय का इतिहास है। इस किताब का हिंदी अनुवाद किताब के रूप में शीघ्र प्रकाश्य है। हम किताब प्रकाशित करने से पहले इसके कुछ हिस्सों को सिलसिलेवार वेब पाठकों को उपलब्ध करा रहे हैं। आज की कड़ी में पढ़ें कि किन कारणों से मंडल कमीशन के लागू होने के करीब तीन दशक होने को हैं और अबतक अन्य पिछड़ा वर्ग काे 27 फीसदी आरक्षण नहीं मिल सका है। साथ ही यह भी कि इसके समाधान क्या हैं – संपादक)
आजादी के बाद के सामाजिक न्याय का इतिहास : पी.एस. कृष्णन की जुबानी, भाग – 20
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वासंती देवी
वासंती देवी : आपके विचार से मंडल आयोग लागू किए जाने के ऐतिहासिक निर्णय से ओबीसी किस हद तक लाभान्वित हुए हैं। हालिया आंकड़े बताते हैं कि जहां तक केन्द्र सरकार के अंतर्गत नौकरियों का प्रश्न है, पिछड़े वर्गों को उनके लिए निर्धारित 27 प्रतिशत से कहीं कम नौकरियां हासिल हो सकी हैं। उच्च पदों पर तो पिछड़े वर्गों के व्यक्तियों की संख्या बहुत कम है। निर्धारित कोटे का इस तरह खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन कैसे संभव हो सका और इस स्थिति को बदलने के लिए क्या किया जा सकता है?
भारत सरकार ने सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने का निर्णय सन् 1990 में लिया था। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय द्वारा इंदिरा साहनी बनाम भारतीय संघ प्रकरण में न्यायालय के फैसले और न्यायालय द्वारा निर्धारित शर्तें पूरी करने के बाद 8 सितंबर 1993 को लागू हुआ। इस तरह संविधान के लागू होेने के लगभग चार दशक बाद ओबीसी को केन्द्रीय सेवाओं में आरक्षण मिल सका। शुरूआत में यह आरक्षण केवल भारत सरकार, केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों और बैंकों के अंतर्गत पदों और सेवाओं के लिए था। शैक्षणिक संस्थाओं में उन्हें आरक्षण देने में तेरह और साल लग गए और तब भी यह आरक्षण केवल शासकीय और शासन से अनुदान प्राप्त शैक्षणिक संस्थाओं में दिया गया। इस निर्णय को लागू करने में दो साल और लग गए। यह तभी लागू हो सका जब उच्चतम न्यायालय ने केन्द्रीय शैक्षणिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 और संविधान के अनुच्छेद 15 में एक नए उपबंध (5) को जोड़े जाने को संवैधानिक दृष्टि से वैध ठहराया। उपबंध (5), राज्य को शासकीय और अनुदान प्राप्त शैक्षणिक संस्थाओं मेें आरक्षण प्रदान करने का अधिकार देता है। जहां तक निजी शैक्षणिक संस्थानों का सवाल है, उनमें आरक्षण देने का अधिकार राज्य को 93वें संविधान संशोधन अधिनियम 2005 – जिसके जरिए अनुच्छेद 15 में नया उपबंध (5) जोड़ा गया है – के द्वारा प्राप्त हो गया है परंतु इसे अब तक लागू नहीं किया गया है। चिकित्सा, इंजीनियरिंग और तकनीकी पाठ्यक्रमों की अधिकांश सीटें, कम से कम तटीय प्रदेशों में, निजी क्षेत्र के महाविद्यालयों में हैं और पूरे देश में शनैः-शनैः निजी व्यावसायिक शैक्षणिक संस्थाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। इसके कारण शिक्षा के क्षेत्र के एक बड़े हिस्से में ओबीसी और एससी-एसटी को आरक्षण उपलब्ध नहीं है। एससी-एसटी को इनामदार प्रकरण में निर्णय के पहले तक निजी शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण उपलब्ध था।
निजी शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण प्रदान करने से सरकारें अब तक बचती रही हैं। मैं मानव संसाधन मंत्रालय के प्रभारी मंत्रियों के साथ निजी चर्चा में, विभिन्न रिपोर्टों के जरिए और मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा सन् 2012 में अनुसूचित जातियों के शैक्षणिक विकास के पर्यवेक्षण के लिए गठित समिति की बैठकों में समय-समय पर यह मुद्दा उठाता रहा हूं।
जहां तक केन्द्र सरकार और केन्द्रीय संस्थानों के अंतर्गत सेवाओं में ओबीसी के लिए आरक्षण – जो 1993 से शुरू हुआ – का प्रश्न है, मैंने एक पेपर तैयार किया है जिसमें मैंने यह बताया है कि यह आरक्षण विभिन्न स्तरों पर किस सीमा तक लागू हो सका है। इससे पता चलता है कि कमी मुख्यतः समूह ‘अ‘ और समूह ‘ब‘ के पदों में है, जो राज्यों में प्रथम श्रेणी और द्वितीय श्रेणी के पदों के समकक्ष हैं। विस्तृत विवरण नीचे दी गई तालिका में दिया गया है।
दिनांक 1 जनवरी 2014 की स्थिति में केन्द्र सरकार के विभागों में सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व – 62 मंत्रालयों/विभागों से प्राप्त जानकारी के आधार पर
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समूह कुल पद पिछड़ा वर्ग वास्तविक प्रतिशत पिछड़े वर्ग 27 प्रतिशत के हिसाब से होने चाहिए 27 प्रतिशत के हिसाब से कमी पिछड़े वर्ग 27 प्रतिशत के दो तिहाई अर्थात 18 प्रतिशत के हिसाब से होने चाहिए 18 प्रतिशत के हिसाब से कमी/आधिक्य
अ 63423 6752 10.65 17124 10372 11416 - 4664
ब 173332 20337 11.73 46800 26463 31200 - 10863
अ + ब 236755 27089 11.44 63924 36835 42616 - 15527
स (सफाई कर्मचारियों को छोड़कर) 2450150 506890 20.69 661541 154651 441027 + 65863
अ+ब+स 2686905 533979 19.87 725464 191485 483643 + 50336
स - केवल सफाई कर्मचारी 45373 5528 12.18 12250 6722 8167 + 2639
अ+ब+स-सफाई कर्मचारी +स सफाई कर्मचारी 2732278 539507 19.75 737715 198208 491810 + 47697
स्त्रोत : कार्मिक, जनशिकायत व पेंशन मंत्रालय की वार्षिक रपट 2015-16
इस तालिका से निम्न तथ्य स्पष्ट हैंः
- सभी समूहों में ओबीसी के कुल प्रतिनिधित्व के आंकड़ों से सही चित्र नहीं उभरता।
- हमें सभी समूहों में ओबीसी के प्रतिनिधित्व को अलग-अलग देखना होगा।
- अलग-अलग देखने से यह स्पष्ट है कि समूह अ एवं ब में ओबीसी का प्रतिनिधित्व सबसे कम है – लगभग 11 प्रतिशत।
- समूह ‘स‘ (सफाई कर्मचारियों को छोड़कर) में उनका प्रतिनिधित्व लगभग 20 प्रतिशत और समूह ‘स‘ (सफाई कर्मचारियों) में लगभग 12 प्रतिशत है।

1993 में ओबीसी आरक्षण लागू होने के समय जो कर्मचारी कार्यरत थे, उनमें से अधिकांश ‘ऊँची‘ जातियों के थे, विशेषकर समूह ‘अ‘ व ‘ब‘ में, और काफी हद तक पुराने समूह ‘स‘ में, जिसमें सहायक और चालक स्तर के कर्मचारी थे (पुराने समूह ‘द‘, जिसमें चपरासी आदि शामिल थे, को कुछ वर्ष पूर्व समाप्त कर दिया गया था और इन पदों पर भर्ती बंद कर दी गई थी। इस समूह को समूह ‘स‘ में शामिल कर दिया गया है)। शासकीय नौकरियों में किसी व्यक्ति का कार्यकाल लगभग तीस वर्ष होता है। इसलिए शासकीय सेवाओं में पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व 27 प्रतिशत होेने की अपेक्षा सन् 2023 तक ही की जा सकती है। परंतु यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक होगा कि इस पूरी अवधि में हर वर्ष इन वर्गों के 27 प्रतिशत कर्मचारी भर्ती किए जाएं। दिनांक 1 जनवरी 2014 को ओबीसी आरक्षण लागू हुए लगभग 20 वर्ष बीत गए थे। इस तरह, हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि इस तिथि तक ओबीसी का शासकीय सेवाओं में प्रतिनिधित्व 27 प्रतिशत का दो-तिहाई, अर्थात 18 प्रतिशत हो जाना था। तालिका के कॉलम 7 व 8 में 18 प्रतिशत के हिसाब से कितने कर्मचारी होने चाहिए थे और उनमें कितनी कमी या आधिक्य है, का विवरण दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि कमी मुख्यतः उच्च स्तरों अर्थात समूह ‘अ‘ व ‘ब‘ में है। यह कमी वर्तमान में कितनी है, इसकी गणना कर इसे समाप्त किया जाना चाहिए और अब से लेकर सन् 2023 तक समुचित और नियमित पर्यवेक्षण से यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि हर वर्ष होने वाली भर्तियों में इन वर्गों का कम से कम 27 प्रतिशत प्रतिनिधित्व हो। सरकारी तंत्र के विभिन्न स्तरों पर यह पर्यवेक्षण किया जाना जरूरी है परंतु यह पर्याप्त नहीं है। राष्ट्रीय, राज्य व जिला स्तर पर इसका पर्यवेक्षण करने हेतु एक मजबूत संस्थागत ढ़ांचा विकसित किया जाना चाहिए और इसमें विभिन्न पिछड़े वर्गों के समर्पित प्रतिनिधियों सहित सरकारी और ऐसी संस्थाओं के प्रतिनिधि भी शामिल किए जाने चाहिए, जो इन वर्गों के अधिकारों के लिए काम कर रहे हैं। इस तंत्र में पिछड़े वर्गों के प्रतिनिधियों की संख्या नाममात्र नहीं होनी चाहिए और उन्हें कम से कम सरकारी प्रतिनिधियों के बराबर प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।
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ओबीसी के प्रतिनिधियों में ऐसे व्यक्ति नहीं होने चाहिए जो किसी राजनैतिक दल से जुड़े हों। वे या तो इन वर्गों के समर्पित प्रतिनिधि या ऐसे विशेषज्ञ होने चाहिए जो पिछड़े वर्गों, एससी, एसटी व महिलाओं को सामाजिक न्याय दिलवाने के प्रति प्रतिबद्ध हों।
पिछड़े वर्गों के सदस्य और उनके प्रतिनिधि क्रीमी लेयर की अवधारणा और उच्चतम न्यायालय द्वारा इस सीमा के ऊपर के व्यक्तियों को आरक्षण की जद से बाहर रखे जाने के निर्णय पर अप्रसन्नता व्यक्त करते रहे हैं। मुझे लगता है कि क्रीमी लेयर शब्द अनुपयुक्त और अपमानजनक है। इनके लिए सही शब्द होगा ‘पिछड़े वर्गों के सामाजिक दृष्टि से उन्नत व्यक्ति/वर्ग (एसएपी/एस)‘। मंडल आयोग प्रकरण के निर्णय में अधिकांशतः इसी शब्द का प्रयोग किया गया है। ओबीसी चाहते हैं कि क्रीमी लेयर की अवधारणा को समाप्त कर दिया जाए। उनका कहना है कि शासकीय तंत्र में ओबीसी के प्रतिनिधित्व में कमी का मुख्य कारण यह है कि कई पात्र उम्मीदवार आरक्षण की जद से इसलिए बाहर हो जाते हैं क्योंकि वे क्रीमी लेयर में होते हैं और गैर-क्रीमी लेयर के पात्र उम्मीदवार पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं होते। यह बात समूह ‘अ‘ और ‘ब‘ के बारे में सही हो सकती है परंतु समूह ‘स‘ (सफाई कर्मचारियों को छोड़कर) और समूह ‘स‘ (केवल सफाई कर्मचारी) के संदर्भ में यह सही नहीं है।
उच्चतम न्यायालय का निर्णय अब देश का कानून है। उसे केवल उच्चतम न्यायालय की ऐसी बेंच द्वारा बदला जा सकता है, जिसमें मंडल बेंच से ज्यादा न्यायाधीश हों। मंडल बेंच में 9 न्यायाधीश थे। जाहिर है कि यह परिवर्तन करवाना आसान नहीं होगा। उच्चतम न्यायालय ने मंडल के बाद के अपने कई निर्णयों, जिनमें नागराज प्रकरण (2006) शामिल है, में भी क्रीमी लेयर की अवधारणा पर जोर दिया है।
एक दूसरा विकल्प है उच्चतम न्यायालय के निर्णय को पलटने के लिए संविधान संशोधन करना। इसके लिए संसद के दोनों सदनों में अनुच्छेद 368 के प्रावधानों के अनुरूप विशेष बहुमत की आवश्यकता होगी। साधारण बहुमत से काम नहीं चलेगा। ऐसे मुद्दों, जिनपर कोई मतभेद नहीं था, उनमें भी संविधान संशोधित करने में बहुत कठिनाईयां आईं और लंबा समय लगा। इसके कुछ उदाहरण हैं, जिन्हें मैं उन लोगों को उपलब्ध करवा सकता हूं जो इस संबंध में जिज्ञासा रखते हैं। क्रीमी लेयर की अवधारणा और उसकी समाप्ति – इन दोनों मुद्दों पर भारी मतभेद हैं। इस समय ओबीसी सांसदों की संख्या, हाल के वर्षों में सबसे कम है। पिछड़े वर्गों में भी अत्यंत और अति पिछड़े वर्गों के सांसदों की राय अलग हो सकती है। ऐसे में हमें ऐसी राह तलाशनी होगी जो अधिक व्यावहारिक और कम कठिन हो।
जो वैकल्पिक राह मैं सुझाता रहा हूं वह यह है कि इस आशय का एक शासकीय आदेश जारी कर दिया जाए कि किसी भी कैडर के किसी भी पद पर भर्ती के समय गैर-क्रीमी लेयर के सभी पात्र उम्मीदवारों के चयन के पश्चात भी यदि ओबीसी कोटे में पद रिक्त हों तो वे तथाकथित सामान्य श्रेणी, जिसमें सामाजिक दृष्टि से अगड़ी गैर-एससी, गैर-एसटी व गैर-ओबीसी उम्मीदवार होते हैं, को भर्ती करने की बजाय इन पदों पर क्रीमी लेयर के ओबीसी उम्मीदवारों को भर्ती किया जाना चाहिए।
यह प्रक्रिया शासन के आदेश से लागू हो सकती है। ओबीसी के निर्वाचित व अन्य प्रतिनिधियों व उनके लिए काम कर रहे एनजीओ और उनके अन्य शुभचिंतकों को एक राय होकर सरकार पर यह आदेश जारी करने का दबाव बनाना चाहिए।
इसी आशय की अनुशंसा संसद की स्थायी समिति ने सन् 2007-08 में केन्द्रीय शैक्षणिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) प्रकरण {अशोक कुुमार ठाकुर बनाम भारतीय संघ (2008) 6 एससीसी 1} के संदर्भ में मेरे द्वारा समिति के सदस्यों को दिए गए सुझाव के बाद की थी। यद्यपि इस मुद्दे को उच्चतम न्यायालय के समक्ष रखा गया था परंतु निर्णय में इसकी कोई चर्चा नहीं है। दूसरे शब्दों में इसे न तो स्वीकार किया गया और ना ही अस्वीकार। अतः इस विषय पर कार्यपालिका द्वारा आदेश जारी किया जा सकता है।
हमारे देश मेें एक दुर्भाग्यजनक प्रवृत्ति है, जो न केवल ओबीसी के हितों वरन् राष्ट्रीय हित के भी विरूद्ध है। यह प्रवृत्ति है ओबीसी, एससी, एसटी या महिलाओं के हितों की रक्षा या उन्हें उनके अधिकार सुलभ कराने के उद्देश्य से उठाए गए किसी भी वैध और संवैधानिक दृष्टि से उचित कदम के विरोध में रिट याचिकाएं और पीआईएल दाखिल करना। इसलिए हमें इसके लिए तैयार रहना होगा कि अगर ऐसा आदेश जारी किया जाता है तो इसके विरूद्ध रिट याचिकाएं और पीआईएल दाखिल की जाएंगी। ओबीसी और उनके निर्वाचित व अन्य प्रतिनिधियों और उनके लिए काम कर रहे एनजीओ और सामाजिक कार्यकर्ताओं को केन्द्र सरकार के स्तर पर और सभी राज्यों में उच्च न्यायालयों या उच्चतम न्यायालय में इस निर्णय के विरूद्ध दायर किसी भी रिट याचिका या पीआईएल पर नजर रखने और उसका विरोध करने के लिए तैयार रहना होगा। ओबीसी, एससी व एसटी समुदायों के वकीलों के अलावा ऐसी अनेक महिला वकील हैं, जिन्हें इस योजना में शामिल किया जा सकता है।
ज्योंही ऊपर बताए गए आदेश को जारी किया जाता है, पहला कदम यह होना चाहिए कि संबंधित न्यायालयों में चेतावनी दाखिल की जाएं ताकि ओबीसी व सरकार के पक्ष को सुने बगैर कोई अदालत इस आदेश को रद्द करने या उसका अमल रोकने का आदेश जारी न करे। तत्पश्चात, जब भी इस आदेश के विरूद्ध उच्च न्यायालयों में कोई रिट याचिका या पीआईएल दाखिल हो तब इस समूह को उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर कर यह प्रार्थना करनी चाहिए कि ऐसी सभी याचिकाओं को उच्चतम न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया जाए क्योंकि यह विषय किसी एक राज्य से नहीं बल्कि पूरे देश से संबधित है। अतः इस पर विचारण और निर्णय केवल उच्चतम न्यायालय को करना चाहिए। इससे विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा विरोधाभासी निर्णय सुनाने से उत्पन्न होने वाली समस्या से बचा जा सकेगा। हमने यही रणनीति मंडल प्रकरण और केन्द्रीय शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश में आरक्षण से संबंधित प्रकरण में सफलतापूर्वक अपनाई थी।
अदालतों में यह तर्क देने के पर्याप्त आधार हैं कि अगर किसी पद पर भर्ती में गैर-क्रीमी लेयर के पात्र उम्मीदवार पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं होते और इस कारण निर्धारित कोटे में से कुछ पद खाली रह जाते हैं तब ऐसे पदों पर सामाजिक दृष्टि से अगड़ी जातियों की तुलना में क्रीमी लेयर के ओबीसी उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। मैं ओबीसी के किसी भी संगठन या संस्था को इस आशय के तर्क तैयार करने में मदद करने के लिए तत्पर हूं। जिन लोगों की यह मान्यता है कि क्रीमी लेयर की अवधारणा मूलतः गलत है और उसे समाप्त कर दिया जाना चाहिए, उन्हें भी ओबीसी के लिए आरक्षित पदों/सीटों को बचाने के लिए इस अंतरिम राह को अपनाने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।
यह भी आवश्यक है कि भविष्य में कार्मिक मंत्रालय अपनी वार्षिक रपटों में आंकड़ों के मामले में पारदर्शिता बरते। नोबेल पुरस्कार विजेता थॉमस पिकेटी, जो कि आधुनिक विश्व में असमानता और उसमें वृद्धि के विशेषज्ञ हैं, लिखते हैं कि हाल की अपनी यात्रा में उन्होंने पाया कि भारत में आंकड़ों के मामले में पारदर्शिता न केवल कम है वरन और कम होती जा रही है। यही बात ओबीसी, एससी व एसटी से सम्बंधित आंकड़ों के बारे में भी सही है।
हर समूह में, विभिन्न स्तरों के पद व रिक्तियां होती हैं। उन्हें एक साथ दिखाने से यह तथ्य सामने नहीं आ पाता कि शासकीय पदक्रम में हम जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते जाते हैं, ओबीसी का प्रतिशत कम होता जाता है। अतः कार्मिक मंत्रालय के लिए यह आवश्यक होना चाहिए कि वह अपनी वार्षिक रपटों में समूह अ के हर स्तर के पदों – अर्थात अवर सचिव, उप सचिव, संचालक, संयुक्त सचिव, अतिरिक्त सचिव, विशेष सचिव और सचिव – के बारे में अलग-अलग-आंकड़े उपलब्ध करवाए। यही दूसरे समूहों के सन्दर्भ में भी किया जाना चाहिए।
मंत्रालय के लिए यह भी आवश्यक होना चाहिए कि वह हर समूह के हर स्तर पर ओबीसी के प्रतिनिधित्व में कमी की जानकारी दे और यह भी बताए कि इसे दूर करने के लिए क्या कदम उठाये गए। इन क़दमों का वर्णन विस्तार से किया जाना चाहिए – अर्थात किस तिथि को क्या किया गया और आगे इस सम्बन्ध में क्या किया जाना है।
वार्षिक रपट में यह भी बताया जाना चाहिए कि वे कौन से विभाग और मंत्रालय हैं, जिनमें कमी है, इस कमी के लिए कौन से अधिकारी ज़िम्मेदार हैं और उनके विरुद्ध क्या कार्यवाही प्रस्तावित है। अगली रपट में यह बताया जाना चाहिए कि क्या कार्यवाही की गयी। ऐसे विभागों और मंत्रालयों के प्रभारी मंत्रियों के नाम भी प्रकाशित किये जाने चाहिए। इसकी जनता और मतदाताओं में क्या प्रतिक्रिया होगी, इसे बताने की ज़रुरत नहीं है।
मंत्रालय से यह भी कहा जाना चाहिए कि वह अपनी रपटों में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों व बैंकों सहित विश्वविद्यालयों और उन सभी संस्थानों से सम्बंधित आंकड़े उपलब्ध करवाए, जहाँ आरक्षण लागू है। ये आंकड़े भी समूह-वार और स्तर-वार होने चाहिए और सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रमों और बैंकों के मामले में, उनके निदेशक मंडल या अन्य शीर्ष शासी निकाय व विश्वविद्यालयों के मामले में व्याख्याताओं/सहायक प्राध्यापकों, रीडरों/एसोसिएट प्रोफेसरों, प्रोफेसरों व कुलपतियों से सम्बंधित जानकारी भी उपलब्ध करवाई जानी चाहिए। इसी प्रकार, अन्य संस्थानों के मामले में भी ऊपर से लेकर नीचे तक के सभी पदों के सम्बन्ध में आंकड़े दिए जाने चाहिए।
निश्चित रूप से मंत्रालय कहेगा कि उसका संबंध केवल केंद्रीय सेवाओं में आरक्षण से है। अलग-अलग मंत्रालय केवल प्रशासनिक सुविधा के लिए बनाये जाते हैं न कि इसलिए कि किसी भी मुद्दे पर समग्र चित्र उपलब्ध न हो सके। इसलिए कार्मिक मंत्रालय को या तो सभी मंत्रालयों के साथ समन्वय करना चाहिए अथवा एक नया आरक्षण मंत्रालय/विभाग गठित किया जाना चाहिए। इस नए मंत्रालय या विभाग का प्रभारी, प्रधानमंत्री को होना चाहिए। अभी कार्मिक मंत्रालय भी प्रधानमंत्री के अधीन रहता है। इस मंत्रालय या कार्मिक मंत्रालय से यह कहा जाना चाहिए कि ओबीसी के प्रतिनिधित्व से सम्बंधित जानकारियां, केंद्रीय सेवाओं के मामले में समूह-वार, स्तर-वार, मंत्रालय-वार और विभाग-वार व अन्य संस्थाओं के मामले में भी इसी तर्ज पर उपलब्ध करवाई जानी चाहिए।
मंत्रालय की यह ज़िम्मेदारी भी होनी चाहिए कि वह उपरवर्णित तरीके से प्रस्तुत आकंड़ों का विश्लेषण करे ताकि प्रक्रियागत कमजोरियों और कमियों की पहचान करने के अतिरिक्त, यह भी पता लगाया जा सके कि क्या किसी स्तर पर इस कार्य में कोताही बरती जा रही है या जानबूझकर नियमों का उल्लंघन किया जा रहा है। क्या किसी अधिकारी का रुख नकारात्मक है? ऐसे अधिकारियों की पहचान कर, उनके विरुद्ध की गयी/प्रस्तावित कार्यवाही का विवरण भी दिया जाना चाहिए।
ये आंकड़े अगली वार्षिक रपट 2016-17 (जो कि वर्ष 2015-16 के बारे में होगी) में नहीं होंगे। इस रपट में 1.1.2015 की स्थिति में आकंडे शामिल होंगे। अतः इस रपट के संसद में प्रस्तुत किये जाने के बाद, कार्मिक मंत्रालय को अन्य मंत्रालयों/विभागों व भारत सरकार के अधीन स्वायत्तशासी संस्थाओं, जिनमें आरक्षण लागू है, के समन्वय से पूरक रपट प्रस्तुत करना चाहिए और इसके लिए सन 2017-18 की वार्षिक रपट का इंतज़ार नहीं किया जाना चाहिए।
संसद के बजट सत्र में केवल कुछ मंत्रालयों के कामकाज पर विस्तृत चर्चा होती है। सामान्यतः, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, जिसके अधीन एससी व ओबीसी कल्याण विभाग आते हैं, और आदिवासी मामलों के मंत्रालय, पर विस्तृत चर्चा नहीं होती। इससे यह भी पता चलता है कि अब तक सरकारों की क्या प्राथमिकताएं रहीं हैं। अतः प्रधानमंत्री और संसदीय कार्य मंत्री के हस्तक्षेप से यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि भले ही सम्बंधित मंत्रालयों पर विस्तृत चर्चा ना हो परन्तु ओबीसी, एससी, एसटी, महिलाओं और विकलांगों के लिए आरक्षण पर संसद में विस्तृत चर्चा होनी ही चाहिए। यह अनुरोध भी किया जा सकता है कि बजट सत्र में सामाजिक न्याय के लिए उठाये जा रहे क़दमों – जिनमें नए कानून बनाने से लेकर वर्तमान में क्रियान्वित की जा रही योजनायें शामिल हों – पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए, भले ही सम्बंधित मंत्रालयों पर चर्चा सदन के एजेंडे में न हो। पार्टियों को भी अपने सांसदों को प्रशिक्षण देना चाहिए ताकि वे इन विषयों से सम्बंधित रपटों का ध्यानपूर्वक अध्ययन कर विशिष्ट मुद्दों को उठाएं, ना कि गोलमोल और दोहराव वाले भाषण देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लें। या फिर पार्टियाँ यह सुनिश्चित करें कि ऐसा करने में सक्षम कुछ सांसद चुन कर आएं।
आरक्षण की दृष्टि से, कुछ राज्यों में स्थितियाँ केंद्र से भी बदतर हैं। ओबीसी और उनके सच्चे व समर्पित प्रतिनिधियों और मित्रों को प्रत्येक राज्य सरकार से प्रति वर्ष वे आंकड़े उपलब्ध करवाने की मांग करनी चाहिए, जिनका विवरण ऊपर दिया गया है। बेहतर होगा यदि केंद्र सरकार, राज्यों से समन्वय कर, राज्य-वार आंकड़े उपलब्ध करवाए ताकि कमियों और कमजोरियों की पहचान कर उन्हें दूर किया जा सके।
केंद्र सरकार को इस आधार पर ऐसा करने से बचने का प्रयास नहीं करना चाहिए कि राज्यों में आरक्षण राज्य सरकारों का विषय है। आरक्षण एक केंद्रीय विषय है। यह देश एक है और इसलिए यह उपयुक्त होगा कि ओबीसी, एससी, एसटी, महिलाओं और विकलांगों के आरक्षण के मामले में, केंद्र समन्वयकर्ता की भूमिका निभाए, जैसा कि वह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम और एससी-एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम के मामलों में करता आ रहा है। हालांकि यह काम भी अप्रभावी और यांत्रिक ढंग से किया जा रहा है।
कई राज्यों में ओबीसी को आरक्षण प्रदान करने के लिए कोई कानून नहीं है। आरक्षण कानून और कार्यपालिक आदेश – दोनों के ज़रिए प्रदान किया जा सकता है। परन्तु कानून अधिक पारदर्शी और मज़बूत होने के कारण, बेहतर होता है। कई राज्यों जैसे तमिलनाडू, ओडिशा, उत्तरप्रदेश व मणिपुर में इस बारे में कानून हैं। आंध्रप्रदेश ने जुलाई 2007 में, मुसलमानों के पिछड़े वर्गों के लिए अलग से चार प्रतिशत उप-कोटा निर्धारित करने के लिए कानून बनाया। इन वर्गों की पहचान मैंने जून 2007 में प्रस्तुत अपनी रपट में की थी।
मैं सभी सरकारों/गठबन्धनों/राजनैतिक दलों से, एससी, एसटी व ओबीसी के सन्दर्भ में उनके कार्यक्रमों और योजनाओं पर चर्चा करता रहा हूँ। इसी कारण, सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्ध मंत्रियों, सांसदों व नेताओं के ज़रिये मैं एससी, एसटी व ओबीसी की भलाई हेतु अन्य क़दमों के साथ, आरक्षण हेतु कानून बनाने की बात को सन 2004 की यूपीए सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल करवा सका।
ओबीसी आरक्षण कानून बनाने का मसला, क्रीमी लेयर और पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दों पर उलझ गया। क्रीमी लेयर के मामले में उच्चतम न्यायालय के फैसले और पदोन्नति में आरक्षण पर कोई निर्णय न लिए जा सकने के कारण, सरकार ने ओबीसी से सबंधित कानून के मसविदे में इन दोनों मुद्दों को शामिल करने में असमर्थता व्यक्त कर दी और यह मामला लटक गया (एससी-एसटी के लिए आरक्षण सम्बन्धी कानून, अन्य कारणों से नहीं बनाया जा सका, जिनका विवरण मैंने अन्यत्र किया है)।
ओबीसी के लिए सही व व्यावहारिक रास्ता यह था और आज भी है कि वे वर्तमान कार्यपालिक आदेशों के तहत आरक्षण के बारे में कानून बनाने की मांग करें और फिर दो या तीन उलझे हुए मुद्दों पर सरकार से निर्णय करवा कर, संशोधन विधेयक के ज़रिये उन्हें भी कानून में शामिल करवा लें।
सरकारी तंत्र में 35 साल के मेरे व्यावहारिक अनुभव से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि किसी भी कानून में पहली बार में वह सब शामिल नहीं करवाया जा सकता, जिसे हम उचित और आवश्यक मानते हैं। व्यावहारिक तरीका यह है कि हम पहले हल्ले में अधिक से अधिक हासिल कर लें और फिर संशोधनों की बात करें। मैंने यही रणनीति एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 और इस अधिनियम को संशोधित करने के लिए, सन् 2015 में प्रस्तुत किये गए विधेयक के मामले में अपनाई। सन 2015 के संशोधन अधिनियम में कई ऐसे प्रावधान हैं, जिन्हें मेरी दृष्टि में 1989 के मूल अधिनियम का हिस्सा होना था। परन्तु अगर मैं उन्हें शामिल करने पर जोर डालता, तो यह अधिनियम पारित ही नहीं हो पाता। चूँकि सन् 1989 में अधिनियम पारित हो गया, इसलिए उसे 2015 में संशोधित करना संभव हो सका और बीच की अवधि में इस अधिनियम के कारण एससी-एसटी को सुरक्षा मिल सकी।
आरक्षण हेतु कानून बनाया जाना अति-आवश्यक है। यह एक के बाद एक सभी सरकारों, इन सरकारों के नेताओं और राष्ट्रीय पार्टियों के रोडमैप का भाग रहा है क्योंकि इस कानून के बनने के बाद ही जीवन के सभी क्षेत्रों में एससी, एसटी व ओबीसी की अन्य वर्गों के साथ समानता सुनिश्चित की जा सकेगी।
अगर अपने संयुक्त प्रयासों से हम इस आशय का कार्यपालिक आदेश जारी करवा सकें कि ओबीसी के लिए आरक्षित कोटे के अतिशेष पदों पर क्रीमी लेयर के उम्मीदवारों को नियुक्त किया जायेगा तो हम इस बिंदु को कानून का हिस्सा बनवा सकेंगे। अगर हम इस कार्यपालिक आदेश को कानून बनने के पूर्व जारी नहीं करवा सके तो अधिनियम के पारित होने के बाद, हम उसमें संशोधन की मांग कर सकते हैं।
ओबीसी और इन वर्गों के लिए काम कर रहे व्यक्तियों को यह प्रयास करना चाहिए कि आरक्षण के मामले में एक वर्ग के रूप में तो उनके साथ न्याय हो ही, उनकी विभिन्न श्रेणियों, उनकी महिलाओं और उनके वर्ग के विकलांगों को भी उनके अधिकार मिलें। यह न्याय के लिए तो ज़रूरी है ही, इसलिए भी ज़रूरी है ताकि आरक्षण का लाभ नीचे तक पहुंचे, ओबीसी में परस्पर बैरभाव और शत्रुता उत्पन्न न हो और उनकी एकता बनी रहे।
हमारे देश में, ओबीसी की सभी श्रेणियों तक आरक्षण का लाभ पहुँचाने के लिए जो कार्यप्रणाली विकसित की गयी है, वह यह है कि उनके लिए आरक्षित कोटे के अन्दर, विभिन्न श्रेणियों के लिए अलग-अलग उप-कोटा निर्धारित किया जाये। यह तरीका दक्षिणी राज्यों में लम्बे समय से अपनाया जा रहा है – एक मामले में तो स्वतंत्रता के पहले से। केरल में एक विस्तृत योजना के अंतर्गत ओबीसी को आठ श्रेणियों में बाँट कर, उनके लिए उप-कोटा निर्धारित किये गए हैं। आंध्र प्रदेश में शुरुआत में चार श्रेणियां थीं – समूह ए (घुमंतू और विमुक्त जातियां), समूह बी (पेशा-आधारित जातियां, जिनमें मुख्यतः हस्तशिल्पी हैं) समूह सी (ईसाई धर्म अपना चुके एससी और उनके वंशज) और समूह डी (अन्य ओबीसी)। सन 2007 से, मेरी रपट और सलाह के आधार पर, इसमें पांचवीं श्रेणी जोड़ी गयी – समूह ई – जिसमें मुसलमानों की ओबीसी जातियों, जातियों जैसे समुदाय और समूह, जिनकी पहचान मैंने की थी, को शामिल किया गया। तमिलनाडू में ओबीसी को पिछड़े वर्गों व अति-पिछड़े वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। महाराष्ट्र में भी उप-श्रेणियों और उप-कोटा की व्यवस्था है।
दक्षिण भारतीय राज्यों में इस उप-वर्गीकरण से ओबीसी में आरक्षण के लाभों का बेहतर वितरण संभव हो सका है और इन वर्गों के अलग-अलग स्तर के पिछड़ों के बीच असमान प्रतिस्पर्धा की सम्भावना कम हुई है। कर्नाटक और आंध्रप्रदेश (अब तेलंगाना और आंध्रप्रदेश) में इस वर्गीकरण में कुछ सुधार की ज़रुरत है। तमिलनाडू में वर्गीकरण का कार्य अभी अपूर्ण है और अन्य तीन दक्षिण भारतीय राज्यों की तरह, इसे अधिक व्यापक बनाये जाने की ज़रुरत है। महाराष्ट्र में भी यही किये जाने की आवश्कयता है।
ओबीसी के उप-वर्गीकरण के मामले में, उत्तर भारत के राज्य काफी पीछे हैं। उत्तर भारत में, बिहार सबसे आगे रहा है। वहां श्री कर्पूरी ठाकुर, जो कि अपनी निष्ठा और ईमानदारी के लिए जाने जाते थे और एक अति-पिछड़े वर्ग से आते थे, के कार्यकाल में यह काम किया गया। विन्ध्य पर्वतमाला के उत्तर में स्थित कई राज्यों ने वर्गीकरण और उप-कोटा की व्यस्वस्था लागू कर दी है परंतु अने राज्यों में ऐसा किया जाना बाकी है।
केंद्र सरकार, जिसे इस मामले में अग्रणी होना चाहिए था, सबसे पीछे है। मेरे द्वारा व्यक्तिगत रूप से पत्रों के ज़रिये सलाह, कार्यकारी समूहों और स्टीयरिंग कमेटियों, जिनका मैं सदस्य था, की रपटों और मंत्रियों व विभिन्न पार्टियों के नेताओं, जिनमें कांग्रेस और भाजपा के नेता शामिल हैं, के साथ मेरी चर्चा और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा मेरी पहल पर 1999 में, और इसके बाद भी, इस आशय की सिफारिशों के बावजूद केंद्र ने इस सम्बन्ध में कोई कदम नहीं उठाया। गत 2 अक्टूबर 2017 को, भारत सरकार ने ओबीसी के वर्गीकरण पर विचार करने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जी. रोहिणी की अध्यक्षता में एक आयोग की नियुक्ति की है। ओबीसी, उनके संगठनों और उनके मित्रों को आयोग की कार्यप्रणाली पर नज़र रखनी चाहिए ताकि उसकी सिफारिशें निष्पक्ष, तथ्यों पर आधारित और अदालतों द्वारा स्वीकार्य हों।
ओबीसी में असमान प्रतिस्पर्धा को रोकने और उसके कारण उत्पन्न होने वाले बैरभाव की संभावना को समाप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि इन वर्गों का विस्तृत और व्यापक उप-वर्गीकरण किया जाए। अगर ऐसा नहीं होता तो इससे ओबीसी की विभिन्न जातियों की एकता प्रभावित होगी और न केवल आरक्षण की व्यवस्था के उचित क्रियान्वयन में समस्याएं आएंगी बल्कि सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए उठाए जाने वाले अन्य आवष्यक कदमों की राह में भी बाधा उत्पन्न होगीे। इससे इन वर्गों की अगड़ी जातियों से समानता स्थापित नहीं हो सकेगी।
दुर्भाग्यवश, इस तरह के वर्गीकरण का ओबीसी की कम पिछड़ी जातियों, विशेषकर भूस्वामी जातियों, द्वारा अपरोक्ष ढंग से विरोध किया जा रहा है। ऐसा करने वाले अदूरदर्शी हैं। उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में भी यह वर्गीकरण नहीं हुआ है और ना ही केन्द्रीय स्तर पर इस मामले में कोई पहल की गई है। तमिलनाडु में भी वर्गीकरण आधा-अधूरा और सीमित है और इसे भी वन्नीयारों के आंदोलन के बाद किया गया है।
सभी राज्यों में ओबीसी की कम पिछड़ी जातियों को दूरदर्शी और उदार रवैया अपनाते हुए सभी राज्यों और केन्द्र में इन जातियों के वर्गीकरण की पहल करनी चाहिए ताकि इस वर्ग के भीतर असमान प्रतियोगिता रोकी जा सके। वे ऐसे राज्यों में यह काम आसानी से कर सकते हैं जहां ओबीसी मुख्यमंत्री हैं या जहां इन वर्गों की पार्टियों का शासन है जैसे बिहार, उत्तर प्रदेश (सन् 2017 तक), तमिलनाडु, असम (2017 के बाद से चूंकि मुख्यमंत्री एसटी हैं)। अन्य राज्यों और केन्द्र में यह वर्गीकरण करवाने हेतु उन्हें संयुक्त प्रयास करने होंगे।
ओबीसी व एससी-एसटी को एक साथ मिलकर यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि इन वर्गों की महिलाओं और विकलांगों को आरक्षण में समुचित हिस्सा मिले। कुछ राज्यों में एससी, एसटी और ओबीसी आरक्षण में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत का उप-कोटा निर्धारित कर दिया गया है। अगर पर्याप्त संख्या में पात्र महिलाएं उपलब्ध न हों तभी महिलाओं के लिए आरक्षित ये पद, संबंधित वर्ग के पुरूषों को दिए जा सकते हैं। आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव ने सबसे पहले यह प्रावधान किया था।
महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत उप कोटा वांछनीय होगा परंतु कम से कम 33 प्रतिशत उप-कोटा तो उन्हें उपलब्ध करवाया ही जाना चाहिए। हर वर्ग और श्रेणी में विकलांग होते हैं। केन्द्र सरकार ने शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के लिए तीन प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की है (सन् 2016 के अंत में शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम 2016 के अंतर्गत यह आरक्षण चार प्रतिशत कर दिया गया है)। ओबीसी, एससी व एसटी को मांग करनी चाहिए कि इन वर्गों के विकलांगों के लिए चार प्रतिशत उप-कोटे का प्रावधान किया जाए और यदि ऐसे उम्मीदवार पर्याप्त संख्या में उपलब्ध न हों तब अतिशेष पद उसी वर्ग/श्रेणी के महिला या पुरूष उम्मीदवारों को दिए जाने चाहिए। यही व्यवस्था शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण के मामले में भी की जानी चाहिए।
सामान्यतः नौकरियों में आरक्षण पर ही जोर दिया जाता है। यह महत्वपूर्ण है परंतु शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण भी उतना ही महत्वपूर्ण है। ओबीसी और उनके प्रतिनिधियों और हितचिंतकों को शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण के संबंध में विश्वविद्यालय-वार व संकाय-वार आंकड़े प्रतिवर्ष जारी किए जाने की मांग करनी चाहिए।
सन् 2005 में उच्चतम न्यायालय ने इनामदार प्रकरण में अपने निर्णय में कहा कि वर्तमान संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत, सरकार को यह अधिकार नहीं है कि वह निजी चिकित्सा व अन्य व्यावसायिक शैक्षणिक संस्थानों को आरक्षण लागू करने का आदेश दे सके। इसके पश्चात, संसद ने सर्वसम्मति (केवल एक सदस्य उपस्थित नहीं था) से संविधान (93वां संशोधन) विधेयक पारित किया, जिसके जरिए अनुच्छेद 15 में एक नया उपबंध 5 जोड़ा गया। यह उपबंध कहता है कि राज्य (अर्थात केन्द्र व राज्य सरकारों) को शासकीय शैक्षणिक संस्थानों के साथ-साथ, निजी शैक्षणिक संस्थानों में भी एससी, एसटी व ओबीसी के लिए आरक्षण की व्यवस्था करने का अधिकार है। यहां यह बताना समीचीन होगा कि संविधान (प्रथम) संशोधन विधेयक, संसद में जिसके भारसाधक सदस्य प्रधानमंत्री नेहरू और कानून मंत्री बाबा साहेब आंबेडकर थे, पेरियार द्वारा उच्चतम न्यायालय के चंपाकम डोराईराजन और वेंकटरम्मना मामलों में निर्णय के खिलाफ चलाए गए जबरदस्त आंदोलन के बाद पारित गया था। इस संशोधन के जरिए व संविधान के अनुच्छेद 15 के उपबंध चार के अंतर्गत, राज्य को ओबीसी व एससी व एसटी की बेहतरी के लिए कोई भी कदम उठाने का अधिकार दिया गया।
नए उपबंध पांच के प्रावधानों के अंतर्गत, भारत सरकार ने संसद में केन्द्रीय शैक्षणिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) विधेयक 2006 पारित करवाया जिसके अंतर्गत एससी-एसटी व ओबीसी को शैक्षणिक संस्थानों मेें आरक्षण प्रदान किया गया। परंतु यह व्यवस्था केवल शासकीय एवं शासकीय अनुदान प्राप्त शैक्षणिक संस्थाओं के लिए थी। इनामदार प्रकरण में निर्णय के पूर्व भी, अनेक राज्यों में एससी व एसटी और कुछ राज्यों में ओबीसी के लिए आरक्षण उपलब्ध था।
सन् 2006 के अधिनियम को अत्यंत सतर्कतापूर्वक तैयार किया गया था ताकि आरक्षण देने के बावजूद सामान्य सीटों (जिन पर लगभग पूरी तरह से सामाजिक दृष्टि से अगड़ी जातियों का कब्जा रहता था) की संख्या में कमी न आए। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सभी संस्थानों में सीटों की संख्या में इतनी वृद्धि की गई कि आरक्षण के बावजूद सामान्य सीटें कम न हों। सीटें बढ़ाने के कारण होने वाले अधोसंरचनात्मक व्यय को सरकार ने शैक्षणिक संस्थाओं को अतिरिक्त आवंटन कर उपलब्ध करवाया।
अगर सरकार का उद्देश्य केवल ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण उपलब्ध करवाना होता (एससी-एसटी को पहले से ही शासकीय व अनुदान प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण उपलब्ध था) तो धन के अतिरिक्त आवंटन की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह अतिरिक्त व्यय केवल अगड़ी जातियों के विद्यार्थियों को लाभ पहुंचाने के लिए किया गया। इन शैक्षणिक संस्थानों के उन अध्यापकों का कार्यकाल भी बढ़ाया गया, जो सेवानिवृत्ति की कगार पर थे।
इस तरह, इस व्यवस्था का लाभ उठाकर, किसी भी ओबीसी उम्मीदवार के इन शैक्षणिक संस्थाओें में प्रवेश लेने के पूर्व (उच्चतम न्यायालय ने इस अधिनियम के क्रियान्वयन पर सन् 2008 तक रोक लगा दी थी), अध्यापक (जिनमें से अधिकांश अगड़ी जातियों के थे) को इस अधिनियम से लाभ मिल गया। इसके बावजूद, हमारे विद्वान मीडिया ने कहा कि ओबीसी के कारण सरकार को अतिरिक्त व्यय करना पड़ा!
इस तरह की स्थिति इसलिए निर्मित होती है क्याेंकि हमारे देश के प्रिंट और दृश्य-श्रव्य मीडिया दोनों को ओबीसी व एससी-एसटी के दृष्टिकोण से कोई लेनादेना ही नहीं है। इसके कुछ अपवाद हैं जैसे इंडियन एक्सप्रेस, फ्रंटलाईन और पुथिया थलामुरई। सन् 2007 में चंद मौकों पर मुझे जब सीएनएन-आईबीएन जैसे चैनलों पर चर्चा के लिए आमंत्रित किया गया तब और कुछ समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में लिखे गए मेरे लेखों में मैंने इस विडंबना की ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया। मैंने बताया कि सामाजिक दृष्टि से अगड़ी जातियों को फायदा पहुंचाने के लिए किए गए व्यय को ओबीसी के सिर पर मढ़ा जा रहा है परंतु इस तथ्य को न तो अगड़ी जातियांे ने महत्व दिया और ना ही मीडिया ने, जिस पर अगड़ी जातियों का वर्चस्व है।
इसके बावजूद भी इस अधिनियम को अनेक रिट याचिकाओं और पीआईएल के माध्यम से चुनौती दी गई। तत्कालीन केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्री अर्जुन सिंह, जिन्होंने राजनैतिक स्तर पर इस संवैधानिक संषोधन और उसके बाद पारित हुए अधिनियम की जमकर वकालत की थी और इस मंत्रालय के सचिव श्री सुदीप बैनर्जी, जो सामाजिक न्याय के पैरोकार थे – दोनों ही मंडल आयोग की रपट लागू किए जाने और उच्चतम न्यायालय में उसके सफल बचाव में मेरी भूमिका से वाकिफ थेे। उन्होंने मुझसेे अनुरोध किया कि मैं सरकार के जवाबी हलफनामें तैयार करने और सरकार और उसके वकीलों को इस अधिनियम का बचाव करने में सहायता करूं। इस हेतु मुझे मंत्रालय में सलाहकार नियुक्त किया गया। मैंने सरकार के जवाबी हलफनामे तैयार किए और तत्कालीन साॅलिसिटर जनरल गुलाम वाहनवती (जो आगे चलकर एटार्नी जनरल बने) और तत्कालीन अतिरिक्त साॅलिसिटर जनरल श्री गोपाल सुब्रमण्यम (जो आगे चलकर सालिसिटर जनरल बने) को ऐसी जानकारियां और तथ्य उपलब्ध करवाए, जिनसे अधिकांश अधिकारी, राजनैतिक नेता और वकील अनभिज्ञ थे। दोनों ने न्यायालय में अपने तर्क प्रस्तुत करने के बाद खुली अदालत में मेरे योगदान की प्रशंसा करते हुए कहा कि मेरे द्वारा उपलब्ध करवाई गई जानकारियों के कारण ही वे इतने प्रभावशाली ढंग से अपने तर्क प्रस्तुत कर सके। मैंने सरकार के विशेष वकील श्री के. पारासरन, जो कि पूर्व एटार्नी जनरल और हमारे देश के सबसे प्रतिष्ठित विधिवेत्ताओं में से एक थे और सामाजिक न्याय के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध थे, के अलावा, राज्य सरकारों के वकीलों जैसे कर्नाटक के श्री रविवर्मा कुमार और ओबीसी संगठनों के वकीलों को भी जानकारियां उपलब्ध करवाईं। नतीजे में हमारे वकीलों ने याचिकाकर्ताओं के वकीलों, जिनमें श्री हरीश साल्वे और श्री पीपी राव जैसे जानेमाने वकील शामिल थे, के तर्कों के अदालत में परखच्चे उड़ा दिए और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने 10 अप्रैल 2008 को इस अधिनियम को संवैधानिक दृष्टि से वैध करार देते हुए सर्वसम्मति से अपना निर्णय सुनाया।
परंतु मेरी लिखित सलाह और तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल से मिलकर व्यक्तिगत रूप से अनुरोध किए जाने के बावजूद, यूपीए सरकार ने निजी शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण हेतु कानून नहीं बनाया। इसके बाद मैंने मंत्रालय से किनारा कर लिया। यूपीए सरकार में किसी ने भी इस विषय में रूचि नहीं ली और निजी क्षेत्र के कालेजों और विश्वविद्यालयों को विद्यार्थियों से मोटी फीस वसूलकर भारी कमाई करने की छूट दे दी। इसका प्रभाव यह हुआ कि व्यावहारिक दृष्टि से एससी-एसटी और ओबीसी विद्यार्थी इन संस्थाओं में प्रवेश से वंचित हो गए। शासकीय संस्थानों की तुलना में निजी संस्थानों में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में सीटों की संख्या कहीं अधिक है और 93वें संविधान संशोधन विधेयक ने सरकार को इन संस्थाओं में आरक्षण देने का अधिकार दे दिया था, इसके बावजूद सरकार ने इस दिशा में कोई पहल नहीं की। इस प्रकार एससी-एसटी, ओबीसी व विकलांगों के लिए निजी शैक्षणिक संस्थानों के द्वार बंद कर दिए गए और सरकार ने सामाजिक न्याय स्थापित करने की अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया। चिकित्सा, तकनीकी और अन्य व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों को स्थान मिलने की संभावना क्षीण हो गई।
हमें यह देखना होगा कि वर्तमान एनडीए सरकार इस कमी को दूर करने के लिए कितनी तत्परता से कार्य करती है। मैंने इस मुद्दे को व्यक्तिगत तौर पर और यूपीए व वर्तमान एनडीए सरकार में एससी-एसटी व विकलांगों के शैक्षणिक विकास संबंधी राष्ट्रीय पर्यवेक्षण समिति के सदस्य बतौर कई बार उठाया। तब से लेकर अब तक इस समिति की तीन बैठकें हो चुकी हैं, जिनकी अध्यक्षता मंत्रियों श्री कपिल सिब्बल, श्री पल्लम राजू और श्रीमती स्मृति ईरानी ने कीं।
इस सिलसिले में आधिकारिक स्तर पर जो कुछ किया जाना था, किया जा चुका है। अब केवल यह राजनैतिक निर्णय लिया जाना है कि निजी शैक्षणिक संस्थाओं (विशेषकर चिकित्सा व अन्य व्यावसायिक पाठ्यक्रम संचालित करने वाले महाविद्यालयों) में आरक्षण की व्यवस्था की जाए।
यह राजनैतिक निर्णय तभी संभव होगा जब एससी-एसटी व ओबीसी मिलकर सरकार पर दबाव बनाएं। सामाजिक न्याय के लिए काम कर रहे संगठनों को इस तरह के विशिष्ट मुद्दों पर फोकस करना चाहिए।
(क्रमश: जारी)
(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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