क्या वाकई भारतीय जनता ने जात-पात को पीछे छोड़ते हुए इस बार लोकसभा चुनाव में मतदान किया है? क्या सचमुच भारत जाति मुक्त भारत की राह पर आगे बढ़ चुका है जिसका प्रमाण इस बार के चुनाव परिणाम दे दिए हैं? क्या अब देश में आरक्षित वर्गों के सवाल बेमानी हो गए हैं? ऐसे कई सारे सवाल हैं। खासकर हिंदी प्रदेशों में जहां जाति व्यवस्था अभी भी उतनी ही जड़ है जितना कि यह पूर्व में थी।
इंडियन एक्सप्रेस में 27 मई 2019 को प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में क्रिस्टोफर जैफरलोट और गिल्स वर्मीअर्स ने उपरोक्त सवालों का हल खोजने का प्रयास किया है। लेखकद्वय के मुताबिक 1990 में मंडल युग के आगमन के साथ ही भारतीय राजनीति में हिंदी प्रदेशों की भूमिका बढ़ी।इन प्रदेशों में बिहार,उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड आदि राज्य शामिल हैं। मंडल युग में संसद में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के सांसदों की संख्या 11 प्रतिशत से बढ़कर 22 प्रतिशत हो गई। इस दौरान न केवल उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने ओबीसी उम्मीदवारों को मौका दिया बल्कि कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों ने भी तरजीह दी।
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यह मंडल का ही प्रभाव रहा कि बनिया और ब्राह्मणों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा ने अपनी रणनीति में बदलाव किया और यह स्वीकार किया कि अब ओबीसी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इसका एक प्रमाण कल्याण सिंह को 1991 में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाना रहा। बिहार में लालू प्रसाद ओबीसी वर्ग का प्रतिनिधित्व पूरी मजबूती के साथ कर रहे थे। इसका प्रमाण उन्होंने उन दिनों लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनावों में भी दिये।
सभी पार्टियां (हिंदी प्रदेशों से निर्वाचित सांसदों की जातिवार संख्या)
1989 | 1991 | 1996 | 1998 | 1999 | 2004 | 2009 | 2014 | 2019 | |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
ऊंची जातियां | 86 | 82 | 85 | 80 | 77 | 73 | 96 | 95 | 88 |
गैर आरक्षित गैर सवर्ण जातियां | 19 | 13 | 17 | 20 | 17 | 16 | 13 | 16 | 14 |
ओबीसी | 45 | 52 | 54 | 53 | 57 | 59 | 45 | 52 | 53 |
एससी | 41 | 42 | 40 | 41 | 41 | 40 | 39 | 40 | 41 |
एसटी | 18 | 18 | 17 | 18 | 20 | 19 | 21 | 18 | 18 |
मुस्लिम | 14 | 12 | 10 | 12 | 12 | 16 | 10 | 4 | 9 |
अन्य | 1 | 3 | 1 | 1 | 2 | 2 | 1 | 1 | 0 |
स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट से साभार
खैर, यह उस दशक की बात है जब मंडल का प्रभाव चरम पर था। ऊंची जातियों का सामाजिक वर्चस्व टूटने लगा था। ऐसा न केवल राजनीतिक स्तर पर बल्कि लोगों के आम जनजीवन में भी दिखा था। दलित और ओबीसी एक-दूसरे के निकट आए और इस निकटता ने भारतीय राजनीति में नयी संभावनाओं को जन्म दिया।
हिंदी प्रदेशों में भाजपा की जातिगत हिस्सेदारी (प्रतिशत में)
1989 | 1991 | 1996 | 1998 | 1999 | 2004 | 2009 | 2014 | 2019 | |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
ऊंची जातियां | 50.8 | 56.3 | 47.1 | 47.2 | 40.2 | 41 | 47.6 | 45.5 | 44.9 |
गैर आरक्षित गैर सवर्ण जातियां | 3.2 | 4.5 | 6.7 | 7.3 | 8.0 | 9 | 3.2 | 7.3 | 7.9 |
ओबीसी | 15.9 | 14.9 | 17.6 | 19.5 | 18.8 | 16.7 | 17.5 | 19.9 | 19.7 |
एससी | 15.9 | 18.4 | 21.8 | 17.1 | 19.6 | 17.9 | 12.7 | 18.8 | 18.5 |
एसटी | 11.1 | 3.4 | 5.9 | 7.3 | 11.6 | 14.1 | 17.5 | 8.4 | 8.4 |
मुस्लिम | 1.6 | 1.1 | 0.0 | 0.0 | 0.9 | 0.0 | 0.0 | 0.0 | 0.6 |
अन्य | 1.6 | 1.1 | 0.8 | 0.8 | 0.0 | 1.3 | 0.0 | 0.0 | 0.0 |
स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट से साभार
भारतीय राजनीति में ओबीसी का प्रभाव 2009 में ही कमजोर पड़ने लगा। लेकिन 2014 में मोदी लहर ने मंडल राजनीति को अप्रासंगिक बना दिया। इस बार हुए चुनाव में तो यह साबित हो गया कि यह मंडल युग के पहले की राजनीति फिर से वापस आ गयी है। गौर से देखें तो इसके कारण एकआयामी नहीं हैं। इसके कई आयाम हैं। आरक्षण को लेकर राजनीति अब ऐसे मोड़ पर आ गयी है जहां कोई राजनेता यह कहकर सफल नहीं हो सकता है कि आप मुझे वोट दें, मैं आपको आरक्षण दूंगा।

भाजपा ने तो आरक्षण का माखौल बनाते हुए आर्थिक आधार पर सामान्य वर्ग को दस फीसदी आरक्षण दे दिया और ओबीसी की राजनीति करने वाले तमाम नेता उसका विरोध तक नहीं कर सके। इसकी एक वजह और भी है। ओबीसी अब कोई एक वर्ग मात्र नहीं रह गया है। अब यह कई जातियों में बंट चुका है और हर जाति के पास अपना राजनीतिक दल है। जैसे यादवों ने बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और उत्तर प्रदेश में सपा को अपना दल मान लिया है। वैसे ही बिहार के कुर्मी जाति के लोगों ने नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाईटेड (जदयू) को अपनी पार्टी मान ली है।
हिंदी प्रदेशों में कांग्रेस की जातिगत हिस्सेदारी (प्रतिशत में)
1989 | 1991 | 1996 | 1998 | 1999 | 2004 | 2009 | 2014 | 2019 | |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
ऊंची जातियां | 41.2 | 31.7 | 31.4 | 26.3 | 40.0 | 40.0 | 51.3 | 37.5 | 16.7 |
गैर आरक्षित गैर सवर्ण जातियां | 5.9 | 13.3 | 17.1 | 18.4 | 11.4 | 14.9 | 10.0 | 12.5 | 0.0 |
ओबीसी | 2.9 | 13.3 | 11.4 | 13.2 | 14.3 | 12.8 | 10.0 | 25.0 | 16.7 |
एससी | 23.5 | 16.7 | 14.3 | 13.2 | 5.7 | 12.8 | 15.0 | 0.0 | 0.0 |
एसटी | 20.6 | 18.3 | 20.0 | 23.7 | 20.0 | 12.8 | 7.5 | 0.0 | 38.3 |
मुस्लिम | 5.9 | 5.0 | 5.7 | 5.3 | 5.7 | 4.3 | 5.0 | 12.5 | 16.7 |
अन्य | 0.0 | 0.0 | 0.0 | 0.0 | 0.0 | 0.0 | 0.0 | 0.0 | 0.0 |
स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट से साभार
मंडल युग के पहले से राजनीतिक परिदृश्यों की पुनर्वापसी इस मायने में भी इस बार सामने आयी कि भाजपा ने हिंदी प्रदेशों के 147 गैर आरक्षित सीटों से सवर्ण उम्मीदवार उतारे और इनमें 80 जीतने में कामयाब रहे। जातियों के आधार पर विस्तार से बात करें तो भाजपा कोटे से ब्राह्मण जाति के सांसदों की संख्या 2009 के मुकाबले 2014 में 30 प्रतिशत से बढ़कर 38.5 प्रतिशत हो गई। इस बार भी हिंदी प्रदेश में ब्राह्मणों ने अपना दबदबा कायम रखा है। जबकि राजपूत संख्या में अधिक होने के बावजूद अपना वर्चस्व बरकरार रख पाने में नाकाम हुए हैं। 2009 में राजपूत सांसदों की संख्या 43 फीसदी थी जो इस बार घटकर 34 फीसदी रह गयी। हिंदी प्रदेश के 199 सीटों में से भाजपा ने 37 ब्राह्मणों और 30 राजपूतों को उम्मीदवार बनाया। इनमें से 33 ब्राह्मण और 27 राजपूत जीतने में कामयाब रहे।
हिंदी प्रदेशों में क्षेत्रीय पार्टियों की जातिगत हिस्सेदारी (प्रतिशत में)
1989 | 1991 | 1996 | 1998 | 1999 | 2004 | 2009 | 2014 | 2019 | |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
ऊंची जातियां | 30.9 | 18.7 | 20.0 | 16.4 | 20.3 | 20.2 | 32.0 | 12.5 | 17.5 |
गैर आरक्षित गैर सवर्ण जातियां | 12.2 | 1.3 | 0.0 | 0.0 | 5.4 | 2.1 | 2.7 | 4.2 | 0.0 |
ओबीसी | 26.0 | 41.3 | 48.3 | 43.6 | 40.5 | 40.4 | 32.0 | 45.6 | 40.0 |
एससी | 18.7 | 20.3 | 15.0 | 21.8 | 21.6 | 19.1 | 25.3 | 16.7 | 20.0 |
एसटी | 3.3 | 5.3 | 1.7 | 0.0 | 0.0 | 2.1 | 1.3 | 8.3 | 2.5 |
मुस्लिम | 8.1 | 10.7 | 13.3 | 16.4 | 10.8 | 14.9 | 6.7 | 12.5 | 17.5 |
अन्य | 0.8 | 1.3 | 1.7 | 1.8 | 1.4 | 1.1 | 0.0 | 0.0 | 0.0 |
स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट से साभार
ओबीसी में शामिल यादव जाति को सबसे अधिक नुकसान हुआ है। जहां एक ओर सपा और राजद जैसी पार्टियों ने यादव जाति के उम्मीदवारों को तरजीह दी तो जवाब में भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों ने ओबीसी में शामिल अपेक्षाकृत कम ताकतवर जातियों पर फोकस रखा। यही वजह रही कि 2009 में जहां यादवों की हिस्सेदारी 29 फीसदी थी, इस बार 2019 में घटकर 16 फीसदी रह गयी। हिंदी प्रदेशों में भाजपा के 199 उम्मीदवारों में केवल 42 ओबीसी उम्मीदवार जीत सके। इनमें से 7 यादव और 8 कुर्मी जीतने में कामयाब रहे। ओबीसी के तर्ज पर भाजपा ने इस बार दलितों में गैर जाटवों पर फोकस किया। अपने 35 उम्मीदवारों में से भाजपा ने केवल 3 जाटवों को मैदान में उतारा। 5 पासी जाति के लोगों को उम्मीदवार बनाया और इनमें से चार जीतने में कामयाब रहे।
(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ)
(आलेख परिवर्द्धित : 29 मई 2019 7:16 AM)
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