मराठों के आरक्षण के संबंध में बम्बई हाईकोर्ट के फैसले से देवेंद्र फड़णवीस सरकार को बड़ी राहत मिली है। अदालत ने मराठों को ओबीसी के समान सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा मानते हुए आरक्षण देने की बात मान ली है। हालांकि अदालत ने राज्य सरकार द्वारा प्रस्तावित 16 फीसदी आरक्षण को घटाकर शिक्षा के क्षेत्र में 12 प्रतिशत तथा नौकरियों में 13 प्रतिशत कर दिया है, इसके बावजूद इसे राज्य सरकार की बड़ी जीत के रूप में देखा जा रहा है।
बीते 27 जून को अदालत ने मराठों को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग (एसईबीसी) अधिनियम, 2018 के तहत आरक्षण देने के महाराष्ट्र सरकार के निर्णय पर मुहर लगा दी। इसके साथ ही महाराष्ट्र में आरक्षण अब 65 प्रतिशत हो गया है। हाईकोर्ट ने कहा कि मराठों को राजनीति में अच्छा ख़ासा प्रतिनिधित्व हासिल है और राज्य के कई पूर्व मुख्यमंत्री इस वर्ग से आते हैं, पर इसका मतलब यह नहीं है कि सामाजिक रूप से भी ये सशक्त हो गए हैं। साथ ही अदालत ने कहा कि मराठों में पिछड़ेपन की तुलना एससी/एसटी से नहीं की जा सकती है। लेकिन इनकी तुलना अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल समूहों से उनकी तुलना की जा सकती है।
न्यायमूर्ति रणजीत मोरे और भारती एच डांगरे की पीठ ने आरक्षण का प्रतिशत क्या हो इस बारे में महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग (एमएसबीसीसी) की बात मानी है। अदालत ने सरकार की दलील को ख़ारिज करने और आयोग की बात मानने के बारे में कहा कि आयोग ने आरक्षण का जो प्रतिशत निर्धारित किया है वह क्वांटिफिएबल डाटा पर आधारित है।
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अदालत ने इस बात को माना कि मराठों को आरक्षण देने के साथ ही राज्य में आरक्षण का प्रतिशत इंदिरा साहनी मामले, 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की जो सीमा 50 प्रतिशत निर्धारित की है उससे बढ़ जाएगी। इस संबंध में अदालत का कहना था कि विशेष परिस्थितियों में अपवादजनक स्थिति में यह सीमा बढ़ाई जा सकती है बशर्ते कि उस विशेष समूह के पिछड़ेपन, उनके अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की बात आंकड़ों से साबित होती है। कोर्ट ने कहा कि इस बारे में एमएसबीसीसी ने जो सुझाव दिए हैं उसके समर्थन में पर्याप्त नवीनतम और अनुभवजन्य आंकड़े दिए गए हैं और इसलिए उनके पास इसमें हस्तक्षेप करने का कोई विशेष आधार नहीं है।
हाईकोर्ट ने कहा कि इस बारे में एमएसबीसीसी ने जो सुझाव दिए हैं उसके आधार पर मराठों के आरक्षण के साथ ही आरक्षण की सीमा का 50 प्रतिशत से अधिक हो जाना उचित है और राज्य विधानसभा को एसईबीसी अधिनियम को पारित करने का क़ानूनी सक्षमता हासिल है। अदालत ने कहा कि ऐसा लगता है कि यह प्रावधान संवैधानिक रूप से सही है और ज़रूरतों और विशेष परिस्थितियों के बारे में राज्य की विधायिका ज़्यादा बेहतर जानती है और इसीलिए किसी विशेष वर्ग की ज़रूरत को वह ज़्यादा समझती है।
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अदालत ने माना कि मराठों का आरक्षण से “ग़लत बहिष्करण” एक विशेष परिस्थिति थी, जिसे अब राज्य सरकार बदलना चाहती है। पिछली बार की रिपोर्टों की चर्चा करते हुए अदालत ने कहा कि इससे पहले जितने भी रिपोर्ट इस बारे में सौंपे गए उनमें अनुभवजन्य आँकड़े नहीं थे और इसलिए ये मराठों को पर्याप्त रूप से ‘पिछड़ा’ नहीं साबित कर पाए। अदालत ने कहा कि एमएसबीसीसी ने पहली बार ‘व्यवस्थित वैज्ञानिक विश्लेषण’ किया है जो ज़मीनी सर्वेक्षण और संग्रहीत आंकड़ों पर आधारित है।
ध्यातव्य है कि एमएसबीसीसी ने पूर्व न्यायाधीश जी.एम. गायकवाड़ के नेतृत्व में इस बार एक हजार पृष्ठों की रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि मराठा समुदाय सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा है। एमएसबीसीसी ने इसके लिए 355 तालुक़ा में से प्रत्येक ऐसे के दो गांवों में 45 हजार परिवारों का सर्वेक्षण किया है जहां मराठों की जनसंख्या 50 प्रतिशत से अधिक है। आयोग के सर्वेक्षण के अनुसार 37.28 प्रतिशत मराठा ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं।
बताते चलें कि मराठों के लिए आरक्षण की मांग काफ़ी दिनों से हो रही थी। राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी पहली राजनीतिक पार्टी थी जिसने मराठों को आरक्षण दिलाने का वादा अपने चुनावी घोषणापत्र में किया था। जुलाई 2014 में कांग्रेस-रांकापा की सरकार ने मराठों को 16 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए अध्यादेश जारी किया। परंतु हाईकोर्ट में यह टिक नहीं पाया। इसके बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने भी दिसंबर 2014 में मराठों को आरक्षण देने का प्रावधान किया पर इसे भी हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया था।
बहरहाल, वर्ष 2018 में मराठों ने आरक्षण की माँग के समर्थन में आंदोलन किया। इसे देखते हुए राज्य सरकार ने उन्हें शिक्षा और नौकरियों में 16 प्रतिशत आरक्षण देने का क़ानून बनाया। परंतु, एसईबीसी अधिनियम, 2018 को अदालत में चुनौती दी गई जहां हाईकोर्ट ने इसे आरक्षण की सीमा के 50 प्रतिशत के ऊपर चले जाने के कारण गैर-संवैधानिक बताते हुए ख़ारिज कर दिया।
(कॉपी संपादन : नवल)
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