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कबतक हाशिए पर रहेंगे ओबीसी मुसलमान?

लेखक जुबैर आलम बता रहे हैं कि ओबीसी नेतृत्व में आपको हिन्दू नेता मिल जायेंगे लेकिन आपको ठीक से चार मुस्लिम नेता भी नहीं मिलेंगे जिनकी पहचान ओबीसी नेता की हो। ओबीसी के स्थापित नेतागणों को बताना चाहिए लगभग तीस साल के इस सफर में आखिर क्यों मुस्लिम समुदाय से ओबीसी नेतृत्व सामने नहीं ला पाये?

देश में भाजपा के अत्यधिक उभार से सबसे दुखदायक स्थिति बहुजनों की राजनीति करने वाले दलों की है। आप लोग कहेंगे कि यह कहना किस तरह उचित है। इसका जवाब बड़ा रोचक है। इन दलों के नेताओं का समान रूप से मानना है कि मुसलमानों का एक मुश्त वोट लेने के लिये भाजपा का डर बना रहना चाहिये। इस कोशिश में ही यह दल सत्तासीन रहते हुए भी ठोस सामाजिक बदलाव से भागते रहे हैं। इन्होंने व्यवस्था परिवर्तन की जगह सत्तासीन होने में सारा ज़ोर लगाया है।

क्या विभिन्न धार्मिक समूहों और जातियों का हुजूम रखने वाले ओबीसी वर्ग में नेतृत्व के स्तर पर विविधता का अभाव कोई और कहानी नही बताता है? मंडल कमीशन की आधी-अधूरी सिफ़ारिशों के लागू होने के बाद यह बदलाव ज़रूर नज़र आया कि पिछड़ी जातियों के नेताओं को मुख्यधारा में आने का अवसर मिला। परंतु यह सवाल आज भी बना हुआ है कि ओबीसी के स्थापित नेताओं में तमाम पिछड़ी जातियों का समावेश है? क्या आज का ओबीसी नेतृत्व पूरे विश्वास के साथ कह सकता है कि उसके अंदर तमाम ओबीसी जातियों का प्रतिनिधित्व है? अति पिछड़ा वर्ग और अत्यन्त पिछड़ा वर्ग के नुमाइन्दे कहां हैं?

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मंडल कमीशन ने लगभग चार हज़ार ओबीसी जातियों को चिन्हित किया था। इस कमीशन के एक सदस्य एल. आर. नायक ने इन जातियों में मौजूद असमानता पर भी प्रकाश डाला था और उनका मत था कि ओबीसी में वर्गीकरण तर्क संगत है। मंडल कमीशन ने सेकुलर- कम्युनल के दायरे से निकल कर पहली बार स्पष्टता से कहा कि मुस्लिमों की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा ओबीसी में आता है। अनुमान के आधार पर इसे कुल मुस्लिम जनसंख्या का लगभग पचासी प्रतिशत कहा जाता है। इनमें अधिकतर की हालत दयनीय है। इसी आधार पर उत्तर प्रदेश में हुकूम सिंह के नेतृत्व में ओबीसी वर्गीकरण के लिये बनी ‘सामाजिक न्याय समिति’ ने मुस्लिम ओबीसी को अत्यन्त पिछड़ा वर्ग में रखने की सिफ़ारिश की थी। ‘सच्चर कमेंटी’ ने भी मुसलमानों को तीन वर्ग में विभाजित किया। इस प्रकार मुस्लिमों को एक इकाई समझने वालों का दावा खारिज हो गया।

बहुजन/ओबीसी नेतृत्व और मुस्लिम ओबीसी

उत्तर प्रदेश और बिहार सहित देश भर में बहुजन एवं ओबीसी जातियों पर आधारित दलों के उभार के बाद नेतृत्वकर्ता के रूप में जो लोग सामने आये उनसे निम्नलिखित सवाल किया जाने चाहिए।

  1. क्या यह लोग ओबीसी में सिर्फ हिन्दुओं की जातियों को मानते हैं?
  2. क्या उनके अनुसार मंडल कमीशन ने मुस्लिमों को गलत तरीक़े से ओबीसी में जोड़ दिया है?
  3. अगर मुस्लिमों के एक हिस्से को उनके पिछड़ेपन के आधार पर इस वर्ग में शामिल किया जाना न्याय संगत है तो क्यों अभी तक यह वर्ग पहचान से वंचित है?
  4. आखिर एक ही समय में ओबीसी वर्ग में चिन्हित किये गये दो समूहों में नेतृत्व के स्तर पर एक पक्ष का नेतृत्व नगण्य क्यों हैं?
  5. क्या मुस्लिम ओबीसी को उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर हाशिये पर नहीं रखा गया है?
  6. क्या राम मनोहर लोहिया के ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ’ और कांशीराम के ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’ जैसे नारों के दायरे में मुस्लिम ओबीसी नहीं आता है?

इन दलों में मुस्लिमों को टिकट दिया जाता है लेकिन नेतृत्वकर्ता  इस बात को कभी सामने नहीं लाते कि उनका प्रत्याशी मुस्लिमों के कौन से वर्ग से आता है। नेतृत्वकर्ता यह नही कहते कि बनारस कैंट विधानसभा का प्रत्याशी मुस्लिम ओबीसी है और बनारस उत्तरी विधानसभा का प्रत्याशी मुस्लिमों के सवर्ण वर्ग से है। इसका दिलचस्प उदाहरण यूपी विधानसभा का पिछला चुनाव है। बसपा नेताओं ने 100 मुस्लिमों को टिकट देने की बात को कई बार दोहराया लेकिन यह नही बताया कि उनके चुने गये प्रत्याशियों में कितने मुस्लिम ओबीसी हैं और कितने सवर्ण मुस्लिम। इन दलों के इस रवैये के पीछे आखिर कौन सा डर काम कर रहा है?

राजनीतिक हाशिए पर पसमांदा मुसलमान

यह आश्चर्यजनक स्थिति है। ओबीसी नेतृत्व में आपको हिन्दू नेता मिल जायेंगे लेकिन आपको ठीक से चार मुस्लिम नेता भी नहीं मिलेंगे जिनकी पहचान ओबीसी नेता की हो। ओबीसी के स्थापित नेतागण लगभग तीस साल के इस सफर में आखिर क्यों मुस्लिम समुदाय से ओबीसी नेतृत्व सामने नहीं ला पाये? इस सवाल पर विचार करते समय एक और सवाल उभरता है। बहुजनों या ओबीसी के नाम पर सत्ता में रहे इन दलों ने अभी तक अपनी सरकारों का गठन किस प्रकार के समीकरण के तहत किया है?

बहुजन/ओबीसी नेताओं का समीकरण

उत्तर प्रदेश और बिहार इस समीकरण को समझने में सहायक हैं। उत्तर प्रदेश में 1990 के बाद की राजनीति का केंद्र ओबीसी और दलित बने। मुलायम सिंह यादव को ओबीसी नेता और मायावती को दलित नेता के तौर पर पहचान मिली। इन दोनों नेताओं को प्रदेश में सरकार चलाने का अवसर कई बार मिला। यह सामन्यत: माना जाता है कि इस दौर में पिछड़ों और दलितों का इक़बाल बढ़ा था। इसी संदर्भ को पिछड़े मुस्लिमों पर लागू किया जाये और पूछा जाये कि इनके अधिकारों में और मान सम्मान में क्या वृद्धि हुई थी? यह सवाल इसलिये भी जायज़ है कि इन्ही मुस्लिमों के एकतरफा समर्थन की वजह से मुलायम सिंह यादव “मुल्ला मुलायम” कहे गये। इसी आधार पर मायावती की भी आलोचना की गयी। यूपी के पिछले विधान सभा चुनाव में उन्होंने ज़्यादा मुस्लिमों को टिकट दे कर मुलायम सिंह यादव को मात देने की कोशिश भी की थी।

तमाम प्रयासों के बाद भी ओबीसी में शामिल अलग-अलग जातियों विशेषकर मुस्लिम ओबीसी नेतृत्व का नही उभरना इस बात का संकेत है कि इन दलों की नियत में खोट है। ‘पिछड़ा-पिछड़ा एक समान, हिन्दू हो या मुसलमान’ जैसे नारों से साफ था कि भविष्य का समीकरण यही हो सकता है क्योंकि इसमें एक दूसरे के प्रति सम्मान एवं अधिकारों के प्रति चेतना थी। ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’ का नारा देने वाले कांशीराम की बसपा का सफर रोचक है। कभी ‘तिलक तराजू और तलवार’ कहने वाला दल ‘हाथी नहीं गणेश है, विष्णु ब्रह्मा महेश’ तक आ गया। इस सफर में बसपा ने सवर्णों का साथ लिया और सत्ता के लिये जिताऊ फार्मूले के तहत मुस्लिमों को एक इकाई के रूप में देखा।

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यह फार्मूला भय और आशंका से पीड़ित मुस्लिमों की मजबूरी का दोहन है। इस सियासी समीकरण की वजह से इन दलों के लिये ज़रूरी था कि भाजपा के लिये जगह बनी रही अन्यथा मुसलमान हाथ से निकल जायेंगे। समाजवादी पार्टी ने यह फार्मूला ज़्यादा तत्परता के साथ अपनाया। यही कारण है कि इस पार्टी के शासनकाल में मुस्लिमों के विरुद्ध हिंसा के ज़्यादा मामले सामने आते रहे हैं। सत्ता के लिये सपा ने भी सवर्णों को जोड़ा और इसी जिताऊ फार्मूले पर अमल करते हुए मुस्लिमों को एक इकाई के तौर पर संगठित किया। यह अलग बात है कि इस क्रम में दोनों दल अपनी स्थापना के उद्देश्य से बहुत दूर चले गये।

ओबीसी मुस्लिमों का भविष्य

यूपी और बिहार सहित देश भर में कितने ऐसे नेताओं के नाम गिनाये जा सकते हैं जिनकी धार्मिक पहचान मुस्लिम है एवं सामाजिक व्यवस्था में उन्हें ओबीसी वर्ग में गिना जाता है? चार या पांच नाम भी किसी को याद नहीं होगा। इसलिये यह बात पूर्णत: सच है कि बहुजनों एवं ओबीसी की राजनीति मुस्लिमों विशेष रूप से ओबीसी मुस्लिमों के हितों के विपरीत रही है। इसका कारण सामाजिक व्यवस्था नहीं है। इसका कारण बहुजन एवं ओबीसी दलों का पक्षपाती और दिशाहीन नेतृत्व है। यह नेतृत्व कभी सत्ता के लिये विपरीत सोच वाले दलों के साथ गठजोड़ करता है तो कभी एक विशेष धार्मिक पहचान को अपनाता है।

आज भी यह पार्टियां इसी फार्मूले पर चल रही हैं। इसका जीता जागता उदाहरण 2019 का लोकसभा चुनाव है। सपा, बसपा और रालोद के गठबंधन में किसी भी दल के पास एक भी ऐसा मुस्लिम नेता नहीं है जिसकी पहचान ओबीसी नेता की हो। इसी तरह बिहार में भी बताना मुश्किल है कि राजद, कांग्रेस और अन्य दलों के गठबंधन में कितने ऐसे मुस्लिम नेता हैं जिनकी पहचान ओबीसी नेता की है। मुस्लिमों के अंदर मौजूद सभी वर्गों की नुमाइन्दगी करने वाले नेताओं की कमी यह दर्शाती है कि मुसलमान आज भी इन दलों के लिये एक इकाई के रूप में सिर्फ वोट बैंक हैं। इनकी मदद से चुनाव जीतना इन दलों का एक मात्र उद्देश्य है।

इस बहस के संदर्भ में कुछ सवाल उठते हैं। इन दलों के जातीय विशेष से आने वाले नेताओं ने जिस तरह अपना नेतृत्व स्थापित करने की कोशिश की है क्या वह इसी प्रकार अपने स्वभाविक घटक अर्थात ओबीसी मुस्लिमों में भी नेतृत्व तैयार करने में सहायक बनेगें? कम्युनल वातावरण में ओबीसी मुस्लिमों के अधिकारों पर जो संकट मौजूद है उससे उबरने में इन दलों की क्या भूमिका होगी? इन्हीं सवालों पर बहुजन एवं ओबीसी राजनीति निर्भर है। भविष्य में बहुजन एवं ओबीसी दलों के नेताओं का रवैया अपने समान लोगों के साथ किस प्रकार का होगा इसी से वंचितों अर्थात ओबीसी तथा अन्य बहुजनों की दिशा और दशा निर्धारित होगी।

(कॉपी संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

जुबैर आलम

जुबैर आलम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोधार्थी हैं तथा स्वतंत्र रूप से विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर लेखन कार्य करते रहे हैं

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