दलित-बहुजनों के सवाल अब फिल्मों के लिए भी महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि समाज एक नया दर्शक वर्ग बन चुका है जो अपने जमीनी सवालों को जानता-समझता है। हाल के वर्षों में कई ऐसी फिल्में आयीं। मसलन, प्रकाश झा द्वारा निर्देशित फिल्म ‘आरक्षण’ (2011), पा. रंजीत की फिल्म ‘काला’ (2018), हाल ही में अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘आर्टिकल-15’ और अब बिहार के गणितज्ञ आनंद के उपर केंद्रित बायोपिक फिल्म ‘सुपर 30’।
इस फिल्म की लंबे समय से प्रतीक्षा की जा रही थी। ऋतिक रोशन इस फिल्म में आनंद कुमार बने हैं। वैसे तो यह फिल्म पूरी तरह आनंद के प्रयासों पर केंद्रित है जो बिहार की राजधानी पटना के कुम्हरार नामक इलाके में गरीब छात्रों को इंडियन इन्स्टीच्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) संस्थानों में प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी कराते हैं। यह इलाका दलित-पिछड़ा बहुल है और आज भी यहां बदहाली की स्थिति है। कालखंड के हिसाब से बात करें तो यह फिल्म 1990 के बाद बदल रहे बिहार की कहानी भी कहती है। वह 1990 का ही वर्ष था जब बिहार में कांग्रेस का वर्चस्व खत्म हुआ और इसी के साथ यहां की राजनीति में ऊंची जातियों की दबंगई भी। राजनीतिक स्तर पर हुए इस बदलाव का असर समाज पर भी पड़ा। शिक्षा के क्षेत्र में भी असर देखने को मिला। आनंद की कहानी भी बीसवीं सदी के अंत के वर्षों में शुरू होती है।

फिल्म का मुख्य संदेश है – ‘शिक्षा पर सबका अधिकार है।’ इसमें डॉ. बी.आर. आंबेडकर का संदेश निहित है। उन्होंने कहा था — शिक्षा शेरनी का दूध है, जो इसे पीता है वह दहाड़ता है। कहना अतिश्योक्ति नहीं कि सुपर-30’ यदि आकार ले पाता है तो इसके पीछे वही शेरनी का दूध (शिक्षा) है।
आनंद के जीवन पर केंद्रित यह फिल्म शुरू होती है फुग्गा कुमार (विजय वर्मा) के लंदन में आयोजित मेधावी इंजीनियरों के एक कार्यक्रम में दहाड़ने (वक्तव्य) से! यह पात्र कहता है – “जी हां! इंडिया से! थर्ड वर्ल्ड कंट्री! डेवलपिंग नेशन, चीप लेबर का देश! फिर हम सोचते हैं पेप्सीको का वर्ल्डवाईड हेड कौन है, यूनीलीवर कौन चला रहा है, कौन चला रहा है मास्टर कार्ड, एडोबी, वोडाफोन, ड्यूश बैंक! अगर किसी को नहीं पता है तो गूगल कर लीजिए न! यदि लगेगा कि गूगल का हेड कौन है तो वो भी एक इंडियन ही है! कोलंबस इंडिया का खोज करने निकले थे, पता नहीं अमेरिका कैसे पहुंच गए। दुनिया का हर सातवां आदमी तो इंडियन है, किसी से पूछ लेते भाई कहां है इंडिया, कोई भी बता देता।”

यह पात्र अपना परिचय देते हुए कहते हैं, “हमारा नाम फुग्गा कुमार है, फुग्गा मतलब वैलून।…हमारे पिता जी गुब्बारा बेचते थे, वो (आपलोगों के बीच) बैठे हैं माई फादर…एंड माई मदर। मेरे पिताजी सड़क पर गुब्बारा बेचते थे अब यहां बैठे हैं आप लोगों के बीच में! यह सब हो सका केवल एक आदमी के वजह से, जिन्होंने हमारा लाईफ चेंज कर दिया। और यह उन्हीं की कहानी है।”
…और फिर शुरू होती है आनंद कुमार के संघर्ष और फर्श पर रहने वाले मेहनतकशों का ‘सुपर 30’ के माध्यम से अर्श पर पहुंचने का ख्वाब देखने की दास्तान।
फिल्म के निर्देशक विकास बहल ने आनंद के संघर्षों को पर्दे पर उतारा है। फिल्म बताती है कि आनंद किस प्रकार संघर्ष करते हुए आगे बढ़ते हैंl गणित में उनकी रुचि होती है और संसाधनों के अभाव के बाद भी उन्हें जुनून की हद तक गणित से प्यार होता हैl इसी के चलते उनका कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में चयन हो जाता है, लेकिन वह पैसे और सम्पन्न परिवार से नहीं होने के कारण वहां एडमिशन नहीं ले पातेl इसी आपाधापी में उनके पिताजी की मृत्यु हो जाती है और घर का सारा दारोमदार उनके कंधे पर आ जाता है और वह पापड़ बेचने लगते हैंl

फिल्म में बताया गया है कि आनंद कुमार गणित का मेधावी छात्र है, जो पिछड़े समाज से आता है। वर्ष 1996 में रामानुजन डिबेट का प्रथम पुरस्कार (महान मैथेमेटेशियन रामानुजन के नाम पर प्रतिष्ठित पुरस्कार) जीतने पर आनंद कुमार को शिक्षा मंत्री श्रीराम सिंह (पंकज त्रिपाठी) पुरस्कार से नवाजते हैं।
बॉलीवुड फिल्मों में ‘प्यार’ के जरिए एक्सट्रा वैल्यू ऐड करने की परिपाटी रही है। इस फिल्म में भी आनंद के जीवन में प्यार को दिखाया गया है। उनकी प्रेमिका रीतू रश्मि का किरदार मृणाल ठाकुर ने निभाया है। हालांकि वास्तविक जीवन में आनंद ने अंतर जातीय प्रेम विवाह किया है। यानी रील लाइफ में आनंद रीतू रश्मि के ब्वॉयफ्रेंड हैं तो रियल लाइफ में हसबैंड।
फिल्म की कहानी आगे बढ़ती है। रामानुजन पुरस्कार जीतने से उत्साहित आनंद कुमार अपनी प्रेमिका रितु रश्मि (मृणाल ठाकुर) से कहता है, “बहुत मेहनत करेंगे, कैंब्रिज जाएंगे, आक्सफोर्ड जाएंगे, मैथ में पीएचडी करेंगे। ईश्वर (आनंद के पिता राजेंद्र कुमार, आनंद अपने पिता को ईश्वर नाम से पुकारता है, जिसका किरदार वीरेंद्र सक्सेना ने निभाया है।) की भी यही इच्छा है।”

आज जिस आनंद कुमार को विश्व स्तरीय पर सराहा जा रहा है, उसी आनंद को अपमान के कड़वे घूंट भी पीने पड़े। मसलन, एक दृश्य में दिखाया गया है कि गणित से जुड़े शोध ग्रंथों के अध्ययन के आनंद दिल्ली के एक कॉलेज लाइब्रेरी में जाते हैं और उन्हें आउटसाइडर कह अपमानित किया जाता है। लेकिन आनंद हार नहीं मानते हैं। उनके जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ तब आता है जब लाइब्रेरी का चपरासी आनंद से कहता है, “तुम्हें विदेशी जनरल ही चाहिए न! एक रास्ता है इसे पाने का। यदि तुम्हारा लिखा हुआ आर्टिकल इसमें छपेगा न तो पूरी जिंदगी घर बैठे फ्री में आएगा। समझे!”
उसकी बात सुनकर आनंद गणित एक ऐसे प्रमेय का हल निकालते हैं जो पहले किसी ने सुलझाया नहीं था। वह यह विदेशी जनरल पाने के लिए करते हैं।
फिल्म के जरिए बिहार के सामाजिक हालात का भी बखूबी से चित्रण किया गया है। फिल्म में दिखाया गया है कि प्रमेय हल करने के बाद उसे विदेशी जनरल शोध पत्र में प्रकाशन के लिए लंदन भेजने की जब बारी आती है तब आनंद को पैसे कम पड़ जाते हैं। उनके पिता राजेंद्र कुमार डाकिया हैं। वे आनंद से पूछते हैं कि पोस्ट में क्या है, तो आनंद कहते हैं—’फॉरेन जनरल के आर्टिकल भेज रहे हैं, मैथ का प्राब्लम है जो आजतक साल्व नहीं हुआ है तो हम कर दिए।’
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आनंद की बात सुनकर पोस्ट-ऑफिस का एक अधिकारी त्रिवेदी चौंक जाता है और कहता है— ‘मतलब अंग्रेजवा सब जो नहीं किया है वो तुम कर दिये?’
तब आनंद के पिता कहते हैं—’अरे छोड़िए त्रिवेदीजी, इनकरेज कीजिए। इसे भेजने के लिए थोड़ा-थोड़ा चंदा दीजिएगा न, इ छप गया न तो बिहार का नाम बहुत रोशन होगा।’
जवाब में त्रिवेदी कहता है— ‘कुछो नाम रोशन नहीं होगा बिहार का। इ अंग्रेज लोग इसी तरह से हमारा ब्रिलिएंट दिमाग को चुरा लेता है। हमारे धरमग्रंथों का सारा ज्ञान यही लोग चुरा लिए।’
आनंद के पिता जवाब देते हैं—’इ पूरा ज्ञान काहे गायब हुआ, काहे? काहे कि हम उसको बांटे नहीं। बांटने से ज्ञान दू का चार हो जाता है, नहीं बांटने से दू से जीरो।’
त्रिवेदीजी— ‘अरे, आंटने-बांटने से कुछ नहीं होता है राजेंद्र बाबू, राजा का बेटा राजा बनता है। अब बुझाया।’
आनंद के पिता उसका विरोध करते हुए कहते हैं — ‘आप अभी भी पुराना कलेंडर देख रहे हैं त्रिवेदी बाबू। समय बदल गया है। अब राजा का बेटा राजा नहीं होता, ऊ होता है जो हकदार होता है।’
बहरहाल, पूरी फिल्म में सुगठित तरीके से आनंद के संघर्षों को दर्शकों के सामने लाती है। अभिनय के दृष्टिकोण से सभी कलाकारों ने उम्दा प्रदर्शन किया है। लेकिन तारीफ करनी होगी ऋत्विक रोशन की जिन्होंने आनंद के कैरेक्टर को न केवल निभाया है बल्कि उसे पर्दे पर जीया है। खासकर पटना के टोन में उनके डायलॉग दर्शकों को कभी ताली बजाने को मजबूर कर देते हैं तो कभी आंखें नम भी हो जाती हैं।
फिल्म इस संदेश के साथ समाप्त होती है कि शिक्षा पर सबका अधिकार है। असल में यह हल्ला बोल है समाज के दलितों, आदिवासियों और ओबीसी वर्ग की ओर से। आनंद के रूप में यह वर्ग आह्वान करता है कि शिक्षा पर अब केवल द्विजों का अधिकार नहीं है। इस पर उसका भी अधिकार है जो समाज के वंचित तबके से आता है। गंदे नालों में काम करता है। फैक्ट्रियों में काम करता है। बड़े शहरों में रिक्शा चलाता है। बटाई पर खेती करता है।
(कॉपी संपादन : नवल)
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