महाराष्ट्रीय नवजागरण में निरंतरता
महाराष्ट्रीय नवजागरण में हमें एक ऐसी निरंतरता देखने को मिलती है जो भारत के और किसी प्रांत के नवजागरण में नहीं मिलती। ब्रिटिश शासन के तहत पश्चिमी शिक्षा और पश्चिमी मूल्यों से प्रेरित होकर भी महाराष्ट्रीय नवजागरण एक ओर अपने अतीत यानी तथाकथित मध्ययुग में हुए संतों भक्तों के आंदोलन से जुड़ा हुआ था, दूसरी ओर आगे उभरने वाले राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से भी कई अर्थों में जुड़ा। महाराष्ट्रीय नवजागरण का मराठी में एक नाम सुधारणा भी है। यानी धर्म और समाज का सुधार। महाराष्ट्र में 13वीं से 18वीं सदी तक चले संतों के आंदोलन को भी सुधारणा कहा जाता है। वह भी धर्म और समाज का ही आंदोलन था। इस तरह पेशवा शासन के उत्तरार्ध की अवधि में जबकि ब्राह्मणवाद बहुत मजबूत तथा जाति-प्रथा कठोर हो गई थी, इस अवधि को छोड़कर महाराष्ट्र में 13वीं सदी से लेकर 19वीं सदी तक सुधारणा का ही आंदोलन चलता रहा। 18वीं सदी तक यह संतों के नेतृत्व में चला तो 19वीं सदी में पश्चिमी शिक्षाप्राप्त मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में। यह निरंतरता सिर्फ इसके नाम की नहीं है। इसकी अंतर्वस्तु की भी है। इसे हम संतों के भागवतधर्म और महाराष्ट्रधर्म की निरंतरता कह सकते हैं जिसके केंद्र में था जातिभेद का प्रश्न और महाराष्ट्रीय अस्मिता की चेतना। महाराष्ट्र में आगे उभरने वाली विभिन्न राष्ट्रवादी राजनीतिक धाराओं से महाराष्ट्रीय नवजागरण इस अर्थ में जुड़ा रहा कि जिन प्रश्नों और प्रवृत्तियों को लेकर 19वीं सदी का नवजागरण चल रहा था- जो प्रश्न और प्रवृत्तियां मूलतः आंदोलन की थीं- वे ही प्रश्न और प्रवृत्तियां 20वीं सदी की राजनीतिक धाराओं में भी अर्थपूर्ण बनी रहीं।
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