पर्दे के पीछे
(अनेक ऐसे लोग हैं, जो अखबारों की सुर्खियों में भले ही निरंतर न हों, लेकिन उनके कामों का व्यापक असर मौजूदा सामाजिक-सांस्कृतिक व राजनीतिक जगत पर है। बातचीत के इस स्तंभ में हम पर्दे के पीछे कार्यरत ऐसे लोगों के विचारों को सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं। इस कड़ी में हम प्रस्तुत कर रहे हैं, पूर्व केंद्रीय मंत्री और शाहबानों प्रकरण के दौरान चर्चित आरिफ मोहम्मद खान का साक्षात्कार।स्तंभ में प्रस्तुत विचारों पर पाठकों की प्रतिक्रिया का स्वागत है। -प्रबंध संपादक)
कुमार समीर (कु.स)- कश्मीर में जो कुछ इन दिनों चल रहा है, उसे आप किस तरह देख रहे हैं?
आरिफ मोहम्मद खान (आरिफ मो.) – कश्मीर पिछले तीस सालों से सीमापार प्रायोजित आतंकवाद से आहत है। असंख्य लोग अपनी जान गँवा चुके हैं और उससे ज़्यादा ज़ख़्मी हुए हैं। इतना ही नहीं, बड़ी संख्या में लोग अपने घरों को छोड़ने को मजबूर किए गए। जो लगभग पिछले तीस साल से अपने ही देश में शरणार्थी बन कर रह रहे हैं। मुझे उम्मीद है की जो कार्यवाही की गई है,वह आतंकवाद को समाप्त करने और परिस्थिति को सामान्य करने में प्रभावी साबित होगी।
कु.स-अनुच्छेद 370 समाप्त किए जाने पर आपका क्या स्टैंड है? क्या इसकी जरूरत थी, क्योंकि यह मामला अदालत तक आ चुका है। पांच सदस्यीय संविधान पीठ इस पूरे मामले को देख रही है।
आरिफ मो.-अनुच्छेद 370 का लाभ कश्मीर में केवल आभिजात्य लोगों को मिलता था। साधारण नागरिक को नहीं। ज़रा याद कीजिए कश्मीर में होने वाले पहले चुनाव में सारे 75 विधायक निर्विरोध चुने गये थे। विपक्षी उम्मीदवारों की नामजदगी को रद्द कर दिया गया था।अगर 370 ना होता तो यह उम्मीदवार न्याय के लिए भारत के चुनाव आयोग के पास आ सकते थे। लेकिन 370 की मौजूदगी ने उनके इस अधिकार को छीन लिया था। इसी तरह दूसरे प्रदेशों की तरह कश्मीर की राज्य सरकार की बहुत सारे मामलों में कोई जवाबदेही ही नही बनती थी। वैसे भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जब कभी विशेषाधिकार पैदा किये जायेंगे तो, उसका लाभ सभ्रान्त वर्ग को मिलता है और समता का संवर्धन करने से आम आदमी सशक्त होता है।

कु.स-कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप पर आपका क्या कहना है ? देश के राजनीतिक दलों के नेताओं को वहां जाने से रोका जा रहा है, आपकी नजर में क्या यह उचित है ?
आरिफ मो. – कश्मीर में पाकिस्तान प्रेरित आतंकवादियों द्वारा मानवाधिकारों का उल्लंघन पिछले तीस साल से हो रहा है। अब तो इस स्थिति की समाप्ति के लिये क़दम उठाये जा रहे हैं, ताकि आतंकवाद से मुक्ति पाकर हमारे कश्मीरी बहन भाई भी सामान्य जीवन बिता सकें।
कु.स- एक एनजीओ की रिपोर्ट आयी है जिसे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जे. चेलेश्वर ने जारी किया है जिसमें कहा गया है कि पुलिसवाले मुस्लिमों को आपराधिक प्रवृत्ति का मानते हैं। इस पर आपका क्या कहना है ?
आरिफ मो.- मुझे ना तो इस रिपोर्ट की जानकारी है और ना ही मैंने इसका अध्ययन किया है। लेकिन पुलिस की कार्यशैली के बारे में और उसमें सुधार करने के लिये कई अधिकारिक रिपोर्टें पहले से मौजूद हैं जैसे प्रकाश सिंह रिपोर्ट। मैं मानता हूं कि सरकारी संस्थाओं की कार्यशैली को बेहतर बनाने के प्रयास, एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो इस नई रिपोर्ट को भी संज्ञान में लेकर उसके रचनात्मक सुझावों पर ग़ौर कर सकती है।
कु.स- आज मुसलमानों के खस्ताहाली के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है?
आरिफ मो.- अकेले मुसलमानों में नहीं और अकेले भारत में भी नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में जो वर्ग ख़स्ताहाल हैं उसका एक ही कारण है शिक्षा का अभाव। अगर हमें परिस्थतियों को बदलना है तो सभी के लिये अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी।
कु.स- तीन तलाक़ की लड़ाई आपने भी लड़ी है और अब तीन तलाक़ को अपराध ठहरा दिया गया है लेकिन इसका विरोध भी हो रहा है। कट्टरपंथी मुस्लिम, संगठन इसे ग़लत ठहरा रहे हैं। इस पर आपका क्या कहना है और इससे कैसे निपटें ?
आरिफ मो.- कुरीतियों को दूर करने और सामाजिक सुधार के लिये काम करने का अगर विरोध ना हो तो, यह अचंभे की बात होगी। निहित स्वार्थ सदैव इस जंग को आख़िर तक लड़ते हैं। ना तो इस विरोध की चिन्ता करनी चाहिए और ना ही इससे परेशान होना चाहिए।
कु.स- शाहबानो प्रकरण पर जब तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का विरोध किया था, तब आपने असहमति जताई थी और इस्तीफा दे दिया था। नरसिंहा राव का उस समय दिया गया, वह बयान मुस्लिमों के लिए गटर वाला काफी चर्चा में रहा था। इस वाकये के बारे में थोड़ा बताएं ?
आरिफ मो.- नरसिहं राव जी ने जो भी कहा था, उसका उद्देश्य यह था कि मैं अपना त्यागपत्र वापस ले लूं। अब इस विषय को विराम दे देना चाहिए।
कु.स- माब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ रही हैं, इस पर आपका क्या कहना है ?
आरिफ मो.- मेरे लिये माब लिंचिंग कोई शास्त्रार्थ का विषय नहीं है। 1986 के बाद ख़ुद मेरे ऊपर कई हमले हुए थे इसलिए इस मामले में मेरी संवेदनशीलता का आप ख़ुद अन्दाज़ा लगा सकते हैं। हम एक लोकतंत्र हैं हमारे यहां विधि का शासन है। यहां अपराधी के ख़िलाफ़ कार्यवाही भी एक न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से होती है। यहां किसी को यह अधिकार नहीं दिया जा सकता कि वो क़ानून को अपने हाथ में लेने का प्रयास करे। एक मासूम इंसान की जान लेना त्रासदी है। ऐसी घटनाओं पर साम्प्रदायिक लेबल लगाने की बजाय उन्हें केवल एक जघन्य अपराध के रूप में देखा जाना चाहिए। मैं मानता हूं कि सरकार और समाज सभी ने इन घटनाओं को गम्भीरता से लिया है और अपराधी तत्वों के ख़िलाफ़ कार्यवाही की है।
( कॉपी संपादन-सिद्धार्थ)
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