[ईवी. रामासामी ने यह भाषण 28 अक्टूबर 1956 को चेन्नई के निकट, वेल्लूर नगर निगम द्वारा डॉ. आंबेडकर की मूर्ति के अनावरण के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में दिया था। इसके कुछ ही दिन पूर्व, 14 अक्टूबर 1956 को डॉ आम्बेडकर ने अपने लाखों अनुयायियों के साथ धर्मपरिवर्तन किया था। पेरियार का यह अल्पज्ञात भाषण धर्म के प्रति उनके नजरिए को समझने के लिए एक प्रतिनिधि दस्तावेज है। – प्रबंध संपादक]
वेल्लूर नगर परिषद के अध्यक्ष ने आज (28 अक्टूबर, 1956)[i] पढ़े गए अपने स्वागत भाषण में मेरी प्रशंसा की है। अपनी विद्वता के लिए दुनिया-भर में मशहूर, महान प्रतिभाशाली डॉ. आंबेडकर के चित्र का अनावरण करने हेतु, यहां आगमन पर आपने मेरा गर्मजोशी से स्वागत किया है। इसके लिए मैं आप सभी को धन्यवाद देता हूं। जैसा हमारे मित्र कृष्णासामी ने बताया है, कुछ अर्सा पहले तक मेरे जैसे व्यक्ति का नगर परिषद जैसे सरकारी निकायों द्वारा, शायद ही कभी स्वागत किया गया था। मैं मानता हूं कि मुझे यह सम्मान, मेरे कार्यों की सार्वजनिक स्वीकृति है। उन कार्यों की जो मैंने एक नेता के रूप में लोकहित को ध्यान में रखकर किए हैं। विश्व-भर में हो रहे परिवर्तनों के फलस्वरूप, लोगों ने मेरे जैसे व्यक्तियों को इस तरह सम्मानित करने का साहस किया है।
सामाजिक समानता
दुनिया में, विशेषरूप से हमारे देश में, लोगों को ऊंचा और नीचा बताकर भेदभाव करने की प्रवृत्ति कुछ सीमा तक कमजोर पड़ी है। लोग समानता की भावना को आत्मसात करने लगे हैं।
आंबेडकर को न केवल उनकी उत्कृष्ट मेधा और बौद्धिक कौशल के कारण अत्यंत बुद्धिमान माना जाता है, अपितु इसलिए भी माना जाता है कि उनकी विद्वता एवं योग्यता का उपयोग, जनसाधारण की भलाई के लिए किया जा रहा है। बाकी लोग अपने ज्ञान और बौद्धिक-कौशल का उपयोग अपने स्वार्थ अथवा वर्ग-विशेष के लाभ हेतु करते आए हैं।
सामाजिक क्षेत्र में, यहां एक महान क्रांति जन्म ले रही है। आर्थिक समानता के लक्ष्य तक पहुंचने से पहले सामाजिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त करना जरूरी है। पश्चिमी राष्ट्र सामाजिक समानता के क्रांतिकारी लक्ष्य को प्राप्त कर चुके हैं। वहां, व्यक्ति के जन्म(चाहे जाति हो या संप्रदाय) पर आधारित असमानता के उन्मूलन से कहीं भी, किसी को भी —कोई नुकसान नहीं पहुंचा है। हमारे यहां जो लोग(जाति-आधारित समाज में) सामाजिक असमानता से पहले से ही लाभान्वित थे, वे सत्ता के केंद्र में हैं। परिणामस्वरूप हमारे देश में सामाजिक क्रांति का आंदोलन मजबूत नहीं हो पाया है। सामाजिक समानता की दिशा काम करने के लिए सिर्फ कुछ लोग ही आगे आते हैं।
आपने मुझे डॉ. भीमराव आंबेडकर के चित्र का अनावरण करने का अवसर दिया है। इससे मैं अत्यंत प्रसन्न हूं, और आपके सुखद अनुरोध का पालन करते हुए खुद को सम्मानित महसूस कर रहा हूं। आंबेडकर विश्व की महानतम मेधावी प्रतिभाओं में से एक हैं। बुद्धिमत्ता और ज्ञान के बल पर वे इतने महान कैसे हो गए? उनकी शिक्षा और बौद्धिक क्षमता की महत्ता तो बाद की बात है। ऐसे लोग भी हैं जो उनसे भी अधिक पढ़े-लिखे और योग्य हैं। आंबेडकर को विलक्षण प्रतिभाशाली का सम्मान उनकी विद्वता और बौद्धिक कौशल के कारण नहीं मिला है, बल्कि इसलिए प्राप्त हुआ है क्योंकि उनकी शिक्षा और योग्यता का उपयोग जनसाधारण की भलाई के लिए किया जा रहा है। बाकी लोग अपने ज्ञान और क्षमताओं का उपयोग केवल अपने स्वार्थ और सकीर्ण लाभ के लिए करते हैं।
आंबेडकर एक नास्तिक हैं। यह अभी की बात नहीं है, अपितु बहुत पहले से वे नास्तिक बन चुके हैं। मैं आपको एक बात बता देना चाहता हूं : दुनिया-भर जितने भी महान बुद्धिजीवी हैं, सभी नास्तिक हैं। केवल एक नास्तिक ही विवेक और तर्कशीलता की पराकाष्ठा को छू सकता है; वही तीक्ष्ण बुद्धि वाला बेहतरीन इंसान बन सकता है। वे सभी जो पढ़े-लिखे हैं, आवश्यक नहीं है कि सब के सब तर्कशील और विवेकवान हों। नब्बे प्रतिशत लोग अपने विचारों को खुलेआम, सबके सामने कहने से डरते हैं। न केवल उन्हें जो ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार करते हैं, बल्कि उन्हें भी जो ईश्वर से जुड़े काल्पनिक वृतांतों पर मुक्त मन से विचार करने का साहस कार्य करते हैं—नास्तिक माना जाता है।
डॉ. आंबेडकर प्रखर प्रतिभावान हैं, यही वजह है कि वे नास्तिक हैं। अपनी चिंतन प्रक्रिया से उन्होंने जो निष्कर्ष निकाले हैं, उन्हें खुलकर अभिव्यक्त किया है। हमारे देश में बुद्धिजीवी वर्ग अपने विचारों की मुखर अभिव्यक्ति के मामले में अत्यंत बुजदिल होता है। लेकिन डॉ. आंबेडकर ऐसे नहीं हैं, उनमें जैसा वे सोचते हैं, उसे वैसा ही अभिव्यक्त करने का पर्याप्त साहस है।
एक अद्भुत घटना
हाल ही में कुछ अद्भुत घटना घटी है, इसे दुनिया में लंबे समय तक याद रखा जाएगा। वह घटना है आंबेडकर का बौद्ध धर्म में दीक्षित होना। उन्होंने अभी-अभी जो किया है, वह तो महज औपचारिकता है। सच तो यह है कि वे काफी लंबे समय से बौद्ध रहे हैं।
बौद्ध कौन है? विश्व बौद्ध संगठन के अध्यक्ष आदरणीय मलालशेखर ने, इरोड (तमिलनाडु) में जनवरी 1954 के तीसरे सप्ताह में आयोजित बौद्ध सम्मेलन में इसकी व्याख्या की थी। सिद्धार्थ ने बौद्ध दर्शन की नींव रखी थी। उनका असली नाम बुद्ध नहीं था। सिद्धार्थ ने अपनी बुद्धि (तर्क-सामर्थ्य अथवा बुद्धिमत्ता) का प्रयोग किया था, उसके बाद वे बुद्ध कहलाए। बुद्ध का मतलब है, चैतन्य, प्रबुद्ध, आत्मजाग्रत व्यक्ति।
डॉ. आंबेडकर हिंदू धर्म की मान्यताओं से विगत 20-30 वर्षों से असहमत थे। उन्होंने मनुस्मृति समर्थक, दकियानूसी हिंदू होने तथा वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करने के लिए गांधी(1869-1948) की कई बार आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि कट्टर और परंपरावादी हिंदू होने के कारण गांधी ने आदि द्रविड़ों (अथवा भारत के मूल बाशिंदों) के उत्थान के लिए कुछ भी ठोस या उल्लेखनीय कार्य नहीं किया है।
जातिप्रथा उन्मूलन के बारे में आंबेडकर का दृष्टिकोण पूर्णतः तर्कसंगत है। उनका पंजाब में जातिप्रथा को समाप्त करने लिए काम करने वाला एक संगठन[ii](जात-पात तोड़क मंडल) था। उन्होंने मुझे भी एक सदस्य के रूप में सूची-बद्ध किया हुआ था। उन्होंने आंबेडकर से सम्मेलन की अध्यक्षता करने का अनुरोध किया था। उसे स्वीकारते हुए आंबेडकर ने अपना अध्यक्षीय भाषण[iii](जाति का विनाश) तैयार किया था। उसे आयोजकों के पास भेजा गया। उससे आयोजकों को लगा कि आंबेडकर जाति-प्रथा को नष्ट करने के नाम पर, हिंदू धर्म को ही नष्ट करने पर जोर दे रहे हैं। उन्होंने आंबेडकर से अपने भाषण का आपत्तिजनक अंश हटाने का अनुरोध किया। उनका कहना था कि उनकी संस्था जाति उन्मूलन के लिए बनाई गई थी न कि हिंदू धर्म का उन्मूलन करने के लिए। इसपर आंबेडकर ने कहा था कि हिंदू धर्म जाति-व्यवस्था का संबल, उसकी आधार-रचना है। उन्होंने भाषण का आपत्तिजनक लगने वाला हिस्सा हटाने से इंकार कर दिया था। वे अपना व्याख्यान देने पंजाब भी नहीं गए। मैंने उनसे भाषण की प्रति प्राप्त की थी और 1936 में उसे ‘जातीयाई ओझिक्का वाझी’ शीर्षक से तमिल में प्रकाशित किया था।
यद्यपि हम रामायण के दहन की चर्चा कर रहे थे [iv], डॉ. आंबेडकर ने उसका दहन 1932 में ही कर दिया था।[v] मिस्टर शिवराज(रायबहादुर एन. शिवराज) ने उस सम्मेलन की अध्यक्षता की थी।
एक अवसर पर जब डॉ. आंबेडकर मद्रास(अब चैन्नई) आए थे। तब उन्होंने कहा था कि भगवद्गीता किसी उन्मादी की बकबास है।[vi]सर सी. पी. रामास्वामी अय्यर ने उनकी व्याख्या पर यह कहकर आपत्ति जताई थी कि यह किसी साधारण मनुष्य की नहीं, बल्कि वायसराय की परिषद के सदस्य की राय (गीता के बारे में) है। वे ऐसे विचार रखने के लिए अधिकृत नहीं हैं।
1930 में मैंने इरोद में सामाजिक सुधार के उद्देश्य से एक सम्मेलन (स्वाभिमान आंदोलन का दूसरा राज्य सम्मेलन), आयोजित किया था। उस सम्मेलन के लिए मैंने डॉ. आंबेडकर को भी आमंत्रित किया था। इस गलतफहमी से कि वे रोगियों का उपचार करने वाले डॉक्टर हैं, मैंने उन्हें यह आश्वासन देते हुए लिखा था कि हम उन्हें मात्र दो दिन में वापस लौट जाने देंगे, ताकि उनके मरीजों को किसी प्रकार की परेशानी न हो। किन्हीं कारणवश आंबेडकर उस सम्मेलन में नहीं आ सके थे। उस सम्मेलन में सर आर. के. शङ्मुगम (रामासामी कंडासामी शङ्मुगम, जो आगे चलकर आजाद भारत के प्रथम वित्तमंत्री बने) ने स्वागत भाषण दिया था। डॉ. श्री एम. आर. जयकर उस सम्मेलन में पहुंचे थे। उन्होंने हमारे आंदोलन की प्रशंसा की थी। मैं चाहता था कि डॉ. आंबेडकर स्वयं उसमें शामिल होते।
1930 के दशक में डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि वे मुस्लिम बनने पर विचार कर रहे थे। उसके बाद एस. रामानाथन (स्वाभिमान आंदोलन के संस्थापक) और मैंने उन्हें लिखा था—
‘‘जल्दबाजी न करें। आपके साथ कम से कम एक लाख लोगों को इस्लाम अपनाना चाहिए। केवल तभी वे आपके विचारों का सम्मान कर पाएंगे। अन्यथा आपको वही करना पड़ेगा, जो मौलाना कहते हैं। मुस्लिमों का कहना है कि इस्लाम इकलौता आदर्श धर्म है। उसमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। जिस धर्म में सिवाय प्रार्थना करने, नमाज अदा करने के कोई और गुंजाइश ही न हो, आपको वह जेलखाने जैसा लगेगा।’’
बर्मा में : सन 1954
वे (डॉ. आंबेडकर) उन दिनों भी धर्मांतरण के लिए उत्सुक थे। इस बार वे बौद्ध धर्म से प्रभावित थे। लेकिन वे तो बौद्ध धर्म में शामिल होने के पहले से ही बौद्ध थे। डॉ. आंबेडकर और मैं, दिसंबर 1954 में बर्मा(अब म्यामार) में आयोजित विश्व बौद्ध सम्मेलन में शामिल हुए थे। यहां तक कि बगैर मुझसे पूछे ही आयोजकों ने मेरा नाम सम्मेलन के कार्यक्रम में शामिल कर लिया था। इसलिए मैं वहां पहुंचा था। लेकिन किसी कारणवश(आखिरकार उन्होंने मुझे बताया था कि) वे मेरे स्थान पर किसी अन्य प्रतिनिधि से भाषण देने को कह चुके हैं। (किसी तरह से पेरियार अनौपचारिक रूप से प्रतिनिधियों के बीच, उनके अनुरोध पर, अपना मंतव्य प्रस्तुत किया था)।
डॉ. आंबेडकर वहीं पर बौद्ध धर्म को गले लगा लेना चाहते थे। उस सम्मेलन में सीलोन(अब श्रीलंका), बर्मा, अमेरिका आदि देशों के लगभग 500 प्रतिनिधि सम्मिलित थे। उनके अलावा स्थानीय दर्शक भी थे। लेकिन वहां 2000 से अधिक बौद्ध श्रमण (भिक्षु) उपस्थित थे। वे वहां विभिन्न संस्कारों एवं अनुष्ठानों में लिप्त थे, जिनमें हिंदू पुजारियों और पुरोहितों से भी ज्यादा दिखावा था। ऐसे बौद्ध भिक्षुओं की ओर संकेत करते हुए मैंने आंबेडकर से कहा था—
‘‘आप बौद्ध बनने की हड़बड़ी में हैं। यहां इन पुजारियों(भिक्षुओं) के बीच हम भला क्या कर सकते हैं? हम तर्कसंगत ढंग से सोचते हैं। हम भिक्षुओं के(आदेश के) अनुसार कैसे निभा सकते हैं? अभी हम, कम से कम हिंदू पुजारियों से संघर्ष करने के अभ्यस्त हो चुके हैं। लेकिन मैं इन बौद्ध भिक्षुओं के प्रति आशंकित हूं। हमें वहां दो या तीन बार जाकर लोगों से मिलना चाहिए। उसके बाद हमें उसमें (बौद्ध धर्म में) कम से कम एक लाख समर्थकों के साथ दीक्षित होना चाहिए। तभी वे हमारा सम्मान करेंगे और हमारी बौद्ध धर्म की शिक्षाओं की (तार्किक और मानवतावादी) व्याख्या से सहमत हो पाएंगे।’’
जिस समय मैं डॉ. आंबेडकर से बातें कर रहा था, एक बौद्ध भिक्षु वहां पहुंचा। वह करीब 30 वर्ष का रहा होगा। वह दुबला-पतला, लंबा और गौर-वर्ण था। वह बंगाल से आया था। उसने मुझसे मेरे गृह-स्थान के बारे में जानना चाहा। मैंने उसे बताया कि मैं मद्रास प्रांत (अब तमिलनाडु) से पहुंचा हूं। इसी बीच एक व्यक्ति जो मेरे पीछे बैठा था, बोला—‘वह पेरियार रामासामी है’। मुझे देखकर बौद्ध साधु (भिक्षु) को पता नहीं चला था कि मैं कौन था। मेरा नाम सुनने के बाद ही वह मुझे पहचान सका। उसके बाद उसने मुझसे कहा—‘क्या आप यहां बौद्ध धर्म को बचाने के लिए आए हैं, अथवा इसे नष्ट करने के लिए?’ मैंने तत्क्षण सवाल किया, ‘बौद्ध धर्म अपनाने से पहले क्या तुम पारपान (ब्राह्मण) थे?’ उसने बताया, ‘हां।’ फिर उसने कहा, ‘इसका अब क्या मतलब है?’ उसके बाद वह चला गया। आशय है कि वह पारपान से बौद्ध बना था। मैंने डॉ. आंबेडकर से इस घटना के बारे में चर्चा की। डॉ. आंबेडकर ने मुझे बताया, ‘मैसूर के महाराजा का बौद्ध धर्म के सिद्धांतों से गहरा लगाव है। उन्होंने मुझे बहुत बड़ी जमीन दान में देने का आश्वासन दिया है। मैंने मैसूर में स्थायी रूप से रहने का फैसला कर लिया है। मैं दान से रकम जुटाकर वहां एक विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहता हूं। इस तरह की बातों का, जिन्हें हम आमतौर पर मृत्युपर्यंत करते रहते हैं, भला क्या औचित्य है? क्या हमें मरने से पहले कुछ नहीं करना चाहिए?’’ इस सिलसिले में उन्होंने और भी कई बातें बताई थीं।
हाल ही में उन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाने की दिशा में अपने साहसिक कदम आगे बढ़ाए हैं। एक वक्तव्य भी उन्होंने जारी किया है। आप उसे अखबारों में पढ़ चुके होंगे। उनका कहना है—‘इसके बाद मैं राम, कृष्ण, शिव, रुद्र आदि को ईश्वर नहीं मानूंगा। मैं अवतार की अवधारणा में भी विश्वास नहीं रखूंगा। मैं जातिप्रथा, स्वर्ग, नर्क आदि को भी नहीं मानूंगा। मैं कोई संस्कार, अनुष्ठान भी नहीं करूंगा। मैं अपने माता-पिता का श्राद्ध भी नहीं करूंगा।’ उन्होंने इन सभी चीजों को नकारकर, इनमें विश्वास करना छोड़ दिया था। ठीक वैसे ही जैसे हम कर चुके हैं।
हिंदू धर्म असल में कोई धर्म नहीं है
डॉ. आंबेडकर के धर्मांतरण के पश्चात कई मीडिया-कर्मी मेरे पास आए थे। ‘धिना-थांती’ (एक प्रमुख तमिल दैनिक) के एक पत्रकार ने मुझसे पूछा था—‘क्या मैं भी हिंदू धर्म छोड़ने वाला हूं?’ मैंने उसे बताया कि हिंदू धर्म नाम का कोई धर्म नहीं है, जो मुझे छोड़ना पड़े। इसका कोई संस्थापक, मुखिया, विशिष्ट दर्शन, आधिकारिक धर्मशास्त्र भी नहीं है, जैसा कि ईसाई, इस्लाम, सिख धर्मों में है। जो श्रद्धालु राम, कृष्ण, विष्णु, गणेश, शिव आदि को ईश्वर मानकर पूजते हैं, वे भी हिंदू हैं और जो इनसे नफरत करते हैं, वे भी हिंदू माने जाते हैं। न केवल आस्तिक, बल्कि नास्तिक भी हिंदू हैं। विभिन्न अवसरों पर, विभिन्न लोगों ने, परस्पर विरोधी, एक-दूसरे का खंडन करने वाले, अलग-अलग सिद्धांतों और अनुष्ठानों को प्रतिपादित किया है। वे सभी एक साथ हिंदुत्व की सामान्य पहचान में आ जुड़े हैं। इस रूप में वे धर्म की आवश्यक विशेषताओं को पूरा नहीं करते। इसलिए मुझे या मेरे समर्थकों को धर्मांतरण की आवश्यकता नहीं है।
आंबेडकर एक महान नेता
डॉ. आंबेडकर वह व्यक्ति हैं जो लोगों का मागदर्शन करते, उन्हें राह दिखाते हैं। वे जाति और धर्म पर अपने विचार सुसंगत तरीके से अभिव्यक्त करते हैं। निस्वार्थ भाव से लोगों के लिए काम करते हैं। वे पूरे देश में भली-भांति जाने जाते हैं। उन्होंने अपने समर्थकों को बौद्ध धर्म अपनाने की सलाह दी थी। इसकी पर्याप्त संभावना है कि वे यहां (तमिलनाडु में) भी पहुंच जाएं। उनके आने पर यहां के अनेक लोग धर्मांतरण का फैसला कर सकते हैं। अपने समुदाय के लिए शिक्षा और रोजगार को सुनिश्चित करके उन्होंने उन्हें ऊपर उठाने का कार्य किया है। सचमुच, वे एक महान नेता है। उनके बाद, कोई भी दूसरा व्यक्ति उनके जैसी महानता को प्राप्त नहीं कर सकता।
[स्रोत : विदुथालाई, तमिल तर्कवादी दैनिक, दिनांक 6 और 7 नवंबर, 1956]
( अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद एवं संदर्भ: ओमप्रकाश कश्यप)
संदर्भ
[i] कोष्ठक में दी गई टिप्पणियां इस भाषण के तमिल से अंग्रेजी अनुवादक असान की हैं।
[ii] ‘जात-पात तोड़क मंडल’ की स्थापना आर्यसमाजी संतराम(1887-1988) ने लाहौर में 1922 में की थी। मंडल के सदस्य जाति-प्रथा का संपूर्ण उन्मूलन चाहते थे। वे सहभोज और अंतर्जातीय विवाह के समर्थक थे। दो वर्ष के भीतर ही मंडल और आर्यसमाज के समर्थकों के मतभेद सामने आने लगे। दरअसल ऊंची जाति के आर्यसमाजी जात-पात तोड़क मंडल द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों से असहमत थे। अपने अभियान में मंडल को पर्याप्त सफलता भी मिली। 1931 की जनगणना के दौरान मंडल ने लोगों से जनगणना के कॉलम में जाति न लिखवाने का आवाह्न किया था। उसके प्रभाव में आकर अनेक लोगों ने उस कॉलम को खाली छोड़ दिया था।
[iii] डॉ. आंबेडकर का यह भाषण उनकी सर्वाधिक विद्वतापूर्ण रचनाओं में एक है। भारत समाज के लिए इसका वही महत्त्व है, जो श्रमिक आंदोलन के इतिहास में कार्ल मार्क्स के ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ का है। अंतर केवल इतना है कि मार्क्स ने अपना भाषण श्रमिकों के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में दिया था, डॉ. आंबेडकर ने जिस अधिवेशन के लिए इस भाषण को लिखा था, उसे आयोजकों ने ही रद्द कर दिया था। ‘जात-पात तोड़क मंडल’ का उपर्युक्त सम्मेलन मई 1936 में लाहौर में प्रस्तावित था। मंडल के कई सदस्य डॉ. आंबेडकर को सम्मेलन का अध्यक्ष बनाए जाने का विरोध कर रहे थे। उनका लिखित भाषण मिलने के बाद गोकलचंद नारंग, हंसराज, भाई परमानंद, राजा नरेंद्रनाथ ने उस सम्मेलन से खुद को अलग कर लिया था। बाद में पत्र लिखकर डॉ. आंबेडकर से अनुरोध किया गया था कि वे आपत्तिजनक अंशों को हटा लें। दिनांक 22 अप्रैल 1936 को मंडल की ओर से भेजे गए पत्र में हर भगवान ने लिखा था कि उनके भाषण में वेदों और हिंदू धर्मशास्त्रों पर अनावश्यक रूप से हमला किया गया है। आंबेडकर अपने विचारों पर दृढ़ थे। परिणामस्वरूप आयोजकों ने उस सम्मेलन को रद्द कर दिया था।(विशेष अध्ययन हेतु पुस्तक : जाति का विनाश, फारवर्ड प्रेस बुक्स, प्रकाशक : दि मार्जिनलाइज्ड, दिल्ली, देखी जा सकती है)
[iv] 1922 में पेरियार को तमिलनाडु कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था। उसी वर्ष तिरूपुर में आयोजित पार्टी के प्रांतीय सम्मेलन में पेरियार ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया था, जिसमें मांग की गई थी कि द्रविड़ अछूतों को मंदिर प्रवेश तथा वहां पूजा आदि करने का अधिकार मिलना चाहिए। कांग्रेस के ब्राह्मण सदस्यों के विरोध के कारण वह प्रस्ताव पास न हो सका था। उससे क्षुब्ध होकर पेरियार ने उसी बैठक में घोषणा की थी कि वे सामाजिक ऊंच-नीच और वर्ण-व्यवस्था समर्थक ग्रंथों, रामायण, मनुस्मृति आदि को जला देंगे।(कलेक्टेड वर्क ऑफ पेरियार ई. वी. रामासामी, पेरियार सेल्फ रेस्पेक्ट प्रोपेंडा इंस्टीटयूशन, चैन्नई, पृष्ठ-9)
[v] अब तक उपलब्ध जानकारी के अनुसार एन. शिवराज ने जिन सम्मेलनों की अध्यक्षता की थी, उसकी तारीख 19 अप्रैल, 1931,(पृ. 160), जनवरी 12-13, 1936(पृ. 261) और जुलाई 18-19 1942(पृ. 550) थी। पहली बैठक में डॉ. आंबेडकर ने राउंड टेबल कांफ्रेंस के सामने पढ़ी गई रिपोर्ट सामने रखी गई थी। उसमें सरकार से अनुरोध किया गया था कि वह अगली राउंड टेबिल कांफ्रेंस में दमित वर्ग के अधिक प्रतिनिधि रखने की व्यवस्था करे और उन्हें आधिकारिक दर्जा दे। 1936 की बैठक में धर्मांतरण पर बातचीत हुई थी, जिसमें एन. शिवराज ने कहा था कि छूआछूत से मुक्ति के लिए दमित जातियों को हिंदू धर्म छोड़ धर्मांतरण करना आवश्यक नहीं है। वे चाहें तो नया धर्म आरंभ कर सकते हैं, या फिर आदि द्रविड़ के किसी पुराने धर्म को पुनर्जीवित कर सकते हैं। तीसरी बैठक, 1942 में डॉ. आंबेडकर को वायसराय की एक्सीक्यूटिव काउंसिल का सदस्य चुने जाने पर बधाई के लिए आयोजित की गई थी। 1932 में दमित जातियों की दृष्टि से एक विशेष मीटिंग कम्युनल एवार्ड से संबंधित थी। उसकी भी अध्यक्षता एन. शिवराज ने नहीं की थी-स्रोत- धनन्जय कीर- डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, जीवन चरित
[vi] गीता से संबंधित डॉ. आंबेडकर के विचार उनकी अधूरी पुस्तक ‘कृष्ण और उनकी गीता’ में आए हैं। लगता है उनका विचार गीता पर स्वतंत्र पुस्तक लिखने का था। उन्होंने लिखा है कि गीता के माध्यम से एक प्रतिक्रांति की शुरुआत हुई थी। जिसका उद्देश्य बौद्ध धर्म के उभार से शुरू हुई सामाजिक क्रांति को अवरुद्ध करना था। उनके अनुसार गीता अतार्किक, मूर्खतापूर्ण और कमजोर तर्कों पर गढ़ी गई पुस्तक है.—डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर : लेख और भाषण, खंड—3, अध्याय 13.
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