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त्रिवेणी संघ का बिगुल

बिहार में गैर बराबरी और सामंतवाद के खिलाफ वंचितों के बीच सामाजिक-राजनीतिक एका कायम करने के लिए 1933 में त्रिवेणी संघ की स्थापना हुई। कालांतर में यह एक ऐसी बुनियाद बनी जिसके आधार पर बिहार की राजनीति और सामाजिक क्षेत्र में बदलाव की आंधी बही। इसका असर केवल बिहार तक सीमित नहीं रहा। पढ़ें, त्रिवेणी संघ का यह मूल दस्तावेज जो वर्ष 1940 में प्रकाशित हुआ

उत्तर भारत में हुए सामाजिक परिवर्तनों में बिहार में गठित ‘त्रिवेणी संघ’ की अहम् भूमिका रही है। इस संगठन की स्थापना 1930 के आसपास तत्कालीन शाहाबाद जिले (वर्तमान में रोहतास) में  हुई थी, जिसके संस्थापक चौधरी जे.एन.पी मेहता, सरदार जगदेव सिंह यादव और शिवपूजन सिंह थे। इस संगठन ने अछूतों, छोटे किसानों और छोटे व्यवसासियों के साझा आंदोलन पर बल दिया तथा बिहार की राजनीति में तत्कालीन कांग्रेस पार्टी को नाको चने चबाने पर मजबूर कर दिया। त्रिवेणी संघ ने ही जो विचारधारा और वैचारिक उर्जा पैदा की, उसने आजादी के बाद  में  बहुजनवाद और सामाजिक न्याय की राजनीतिक तैयार की, जिसमें  रामस्वरूप वर्मा, ललई सिंह यादव, जगदेव प्रसाद, कर्पूरी ठाकुर, कांशीराम, लालू प्रसाद अलग-अलग रूपों में फले-फुले।

त्रिवेणी संघ के कामों को सामने लाने की दिशा में प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत ने महत्वपूर्ण कार्य किया है, लेकिन इसके बावजूद आज के परिप्रेक्ष्य में संघ की वैचारिकी का बडे पैमाने पर प्रचार-प्रसार और कार्यान्वयन आवश्यक है।

समाज और राजनीति में इतने वृहत्त हस्तक्षेप के बावजूद त्रिवेणी संघ के योगदान को बौद्धिक दुनिया में उस रूप में रेखांकित नहीं किया गया है, जिसका वह हकदार है। बल्कि इसके संस्थापकों की जाति के आधार पर इसे कोइरी, कुर्मी और यादवों का संगठन कह वैचारिक रूप से हाशियाकृत करने की कोशिश की गई। संगठन को अपमानित तथा इसके संबंध में दुष्प्रचार करने वालों अनेक प्रतिष्ठित लेखक, बुद्धिजीवी व राजनेता शामिल थे।
इसी आवश्यकता के मद्देनजर हम संघ के घोषणा पत्र ‘त्रिवेणी संघ क बिगुल’ को फारवर्ड प्रेस के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। इसमें आप देखेंगे कि त्रिवेणी संघ एक सुदृढ वैचारिक आधार वाला संगठन था, जिसका उद्देश्य अछूत जातियों का सशक्तिकरण, छोटे किसानों व छोटे व्यवसासियों के उत्पीडन का अंत तथा जाति मुक्ति था।  उनके पास उस समय भी हर देश वासियों के लिए  नागरिक सुविधाओं व सुंदर-सुखी परिवार व समाज  का एक स्पष्ट सपना था।

हम इस ऐतिहासिक दस्तावेज का अंग्रेजी अनुवाद भी शीघ्र ही प्रकाशित करेंगे। इसे चौधरी जेएनपी मेहता ने मूल रूप में हिंदी में 1940 में लिखा था, तथा पुस्तकाकार प्रकाशित करवाया था। हमने इसे यहां प्रसन्न कुमार चौधरी व श्रीकांत की पुस्तक ‘बही धार त्रिवेणी की’, 1998 से सभार लिया है। -प्रमोद रंजन, प्रबंध संपादक, फारवर्ड प्रेस


त्रिवेणी संघ का घोषणा पत्र ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’, पृष्ठ दर पृष्ठ, शब्दश:

समर्पण

जिसके हृदय में देश तथा समाज के शोषितों,

शासितों तथा दलितों के प्रति अपार श्रद्धा

है- जिसके हृदय में अन्यायों, अत्याचारों

तथा जुल्मों को नाश करने के लिए

चिनगारियाँ निकल रही हैं-

जिसके हृदय में किसान,

मजदूर और व्यवसाइयों

के लिए अमृत की वर्षा

हो रही है

उसके कर

कमलों

में

सादर समर्पित

                               जे.एन. मेहता

      

धन्यवाद-पत्र

मैं निम्नलिखित महानुभावों को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ, जिन्होंने मुझे ‘‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’’ प्रकाशित कराने में तन, मन, धन से सहयोग दिया है।

  1. बा. ब्रह्मदेव सिंह, प्र. संरक्षक त्रिवेणी शक्ति कार्यालय, मु. शीतल टोला, पी. ओ. आथर, आरा।
  2. बा. श्रीराम सिंह,  कोरान सरइयाँ, आरा।
  3. बा. किशुनचंद सिंह, बसदेवा, आथर, आरा।
  4. बा. भृगुनाथ सिंह,  बसदेवा,  आथर,  आरा।
  5. बा. रामायण सिंह,  जिनेश्वरगढ़,  आथर,  आरा।
  6. बा. महाराज सिंह,  जिनेश्वरगढ़,  आथर, आरा।
  7. बा. रामरूप सिंह, कंवई, बभनवल, आरा।
  8. बा. राजगृही सिंह, कंवई, बभनवल,  आरा।
  9. बा. डुंगुर सिंह, कंवई,  बभनवल,  आरा।
  10. बा. भजन सिंह, कंवई,  बभनवल, आरा।
  11. बा. रामनवमी सिंह,  तेंदुनी,  विक्रमगंज, आरा।
  12. बा. गंगाराम सिंह,  धवडांड, सासाराम, आरा।
  13. बा. रामसुंदर महतो, उचितपुरु, सासाराम, आरा।
  14. बा. रमण महतो, सासाराम, आरा।
  15. बा. नंदकिशोर सिंह,  तेंदुनी, जगदीशपुर, आरा।
  16. बा. रामध्यान सिंह,  संगमटोला, जगदीशपुर, आरा।
  17. बा. भुनेश्वर सिंह, उत्तरदांहा, जगदीशपुर, आरा।
  18. बा. राधाकृष्ण सिंह, उत्तरदांहा, जगदीशपुर, आरा।
  19. बा. रामगृही सिंह, पुराना भोजपुर, आरा।
  20. बा. रघुनाथ सिंह, मसरियाँ, चौंगाई, आरा।
  21. बा. रामअवतार सिंह, सासाराम, आरा।

– प्रकाशक

त्रिवेणी संघ का बिगुल

पापिन के पाप नाशै, त्राश यमदूतन के,

भव-रुज-परिवार नाशै धार त्रिवेणी की।

तिहिं भांति त्रास नाशै, दुष्ट अन्यायियों के,

गिरै को उठावे नीत, संघ त्रिवेणी की ।। १ ।।

मान औ गुमान नाशै, जाल दुष्ट जालिम के,

सबै भांति सहाय करै, शोषित दल श्रेणी की।

देश धर्म लाज राखै, सबहिं समान राखै,

याही हेतु बही धार, संघ त्रिवेणी की ।। २ ।।

                                                                                                                               

मेरे दो शब्द

प्रिय बंधुओं!

त्रिवेणी संघ का प्रचार जोरों में हो चला है। जनता भी इसके लिए लालायित रहती है। पर अभी तक त्रिवेणी संघ की कोई पुस्तक नहीं निकली थी। यह अभाव त्रिवेणी जगत के लिए रात-दिन खटक रहा था। मेरे कई मित्रों ने ‘‘त्रिवेणी संघ’’ की किताब लिखने के लिए कई बार अनुरोध किया। जिसमें मुख्य- त्रिवेणी संघ की माता सरदार जगदेव सिंह, पं. शिवधानी सिंह, बा. रामलाल वर्मा तथा बा. बालरूप सिंह हैं। पर मैं सर्वथा अपनी कमजोरी महसूस करता रहा कि ‘त्रिवेणी संघ’ की पुस्तक लिखने के लिए बड़े भारी विद्वान की जरूरत है। लेकिन लेखक का अभाव और मित्रों के बार-बार के अनुरोध ने मेरे हृदय में साहस का संचार किया- आत्मा ने साथ दिया कि ‘कायर न बनो – लिख डालो।’ फलस्वरूप ‘‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’’ नामक पुस्तक आपके सामने मौजूद है।

बंधुओं! इस पुस्तक को जैसा परिपूर्ण होना चाहिए, मुझ से न हो सका क्योंकि मैं विद्वान् नहीं – साधारण पढ़ा-लिखा आदमी हूं। तिस पर भी यह मेरा पहला प्रयास है और किताब प्रेस में ही लिखते-लिखते छपी है। अस्तु, आप लोग किताब की वाक्य-पटुता पर न जाकर भाव पर जाने की कृपा करेंगे और जो कुछ त्रुटि हुई हो, उसके लिए क्षमा प्रदान करेंगे।

विनीतलेखक

त्रिवेणी संघ का संक्षिप्त परिचय

बीसवीं सदी अपने शैशवकाल को समाप्त कर युवावस्था को प्राप्त कर रही थी। उसका बिगुल, दुनिया के हर जगह में बजना शुरू हो रहा था। सभी जातियां, धर्म, देश तथा समाज भी अपने-अपने को संभालने लग गये थे। सभी अपनी-अपनी उन्नति के लिए अग्रसर हो रहे थे। पर, साथ ही साथ शोषक और शासक भी चुपचाप बैठे न रहे। उन्होंने भी अपने अत्याचारों का पारा बढ़ाना शुरू किया। जो जाति उठना चाहती थी उसको दबाना शुरू किया।

किसी के जनेऊ तोड़े जाने लगे तो किसी का विवाह-शादी बंद किया जाने लगा। किसी पर मालगुजारी की नालिश होने लगी तो किसी का खेत नीलाम किया गया। किसी के लिए इनार-कुआं बंद किया जाने लगा तो किसी के रास्ते रोक दिये गये। किसी को गाली-बात सुनाया जाने लगा तो किसी पर मार पड़ने लगी। किसी के दरखास्त गुम होने लगे तो किसी की नौकरी ही बर्खास्त की जाने लगी। याने चारों तरफ से जालिमों ने दबाना शुरू कर दिया था।

यह भी पढ़ें : साहित्य में त्रिवेणी संघ और त्रिवेणी संघ का साहित्य

ठीक ऐन मौके पर तारीख 30 मई 1933 ई. को शाहाबाद जिले के शुभ स्थान करगहर में त्रिवेणी संघ का जन्म हुआ। जिसके जन्मदाताओं में चौधरी जे.एन.पी. मेहता, सरदार जगदेव सिंह यादव तथा डा. शिवपूजन सिंह आदि मान्य हैं। पहले पहल इस संघ का संगठन कुशवाहा क्षत्रिय सभा, यादव क्षत्रिय सभा तथा कुर्मी क्षत्रिय सभा द्वारा जिला में होना शुरू हुआ। पर, उसका उद्देश्य तथा कार्यक्रम शोषित, शासित तथा दलित याने सभी, अनुन्नत समाज की उन्नति के लिए हुआ।

संघ का संगठन खूब जोरों में चला और सभी अनुन्नत समाजों ने इसमें भाग लिया। फलस्वरूप – कितने ही गर्वियों के गर्व चूर हो गये। संघ ने अनुन्नत समाज के धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक तीनों क्षेत्रों में आंदोलन शुरू कर दिया। फलस्वरूप गत एसेम्बली के चुनाव में कांग्रेस और त्रिवेणी संघ का संघर्ष हो गया। त्रिवेणी संघ चाहता था कि कुछ उम्मीदवार पिछड़ी हुई जातियों (Backward Class) के भी लिये जायें! पर कांग्रेस ने एक न सुनी और सब उम्मीदवार उच्च जाति High Class[1] के रखे गये। अपने सिद्धांत और उचित न्याय के अनुसार संघ ने शाहाबाद जिला में बा. तपसी महतो और बा. नंदकिशोर सिंह यादव दो उम्मीदवारों को खड़ा कर दिया। लड़ाई ने बड़ी जाति और छोटी जाति का रूप पकड़ लिया। यद्यपि संघ हार गया लेकिन सबको संघ की शक्ति को महसूस करना पड़ा। गत् साल 1939 ई. में संघ ने शाहाबाद डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चुनाव की लड़ाई लड़ी – फलस्वरूप 1/3 भाग अपने मेम्बरों को जिला बोर्ड और लोकल बोर्डों में भेजा। यों तो त्रिवेणी संघ का प्रचार हिंदुस्तान भर में होना शुरू हो रहा है, लेकिन बिहार में खूब जोरों पर है।

नोट : त्रिवेणी संघ का इतिहास बड़ा ही रोचक और प्रभावोत्पादक है; किंतु स्थानाभाव के कारण न दिया जा सका।

त्रिवेणी कुंज

 ईश-प्रार्थना

 भजन

भगवान हमारा जीवन संसार के लिए हो।

यह जिंदगी हो लेकिन उपकार के लिए हो।।

ब्रह्मचर्य के व्रती हों सतधर्म के रती हों।

बस लग्न जो लगी हो, प्रचार के लिए हो।।

उत्तम स्वभाव हमारा,  दुश्मन का मन रिझाये।

वह देखते ही कह दे, तुम प्यार के लिए हो।।

मन से शरीर धन से जग का सदा भला हो।

मन से घृणा हमारे कुविचार के लिए हो।।

संसार ही की सेवा शुभ टेक हो हमारी।

चाहे हमारा यह तन तलवार के लिए हो।।

                                

 त्रिवेणी संघ की धारा     

त्रिवेणी संघ की धारा जय बोल बोल बोल ।। टेक ।।

उत्तम संघ हमारा, प्राणों से बढ़कर प्यारा।

क्लेश मिटावन हारा, त्रिवेणी संघ की धारा।।

आजाद बनाने वाला जय बोल बोल बोल।

त्रिवेणी संघ की धारा, जय बोल बोल।। १ ।।

सोये को होत प्रात जगावै, आजादी का पाठ पढ़ावै।

मुर्दे को जिंदा कर देवे, दीन अनाथन के संग देवै।।

आजादी बिगुल वाला, जय बोल बोल बोल।

त्रिवेणी संघ की धारा, जय बोल बोल बोल ।। २ ।।

अत्याचारिन के लादहिं[2] फारे, अन्याइन के आंख निकाले।

दुष्टन के जड़ खोजि खोजि खौदे, बदमाशन के पकड़ निकाले।।

शांति रचाने वाला जय बोल बोल बोल।

त्रिवेणी संघ की धारा, जय बोल बोल बोल ।। ३ ।।

ऊंच नीच का भेद मिटावै, सब हैं भाई समान बतावै।

छूत भूत को अग्नि जलावै, गले गले में सबै मिलावै।।

सब है भाई हमारा, जब बोल बोल बोल।

त्रिवेणी संघ की धारा, जय बोल बोल बोल ।। ४ ।।

गुलामी का गुलशन तोड़ै पापिन के भंडा नित फोड़ै।

सच्ची सच्ची बात बतावै, भारत को आजाद बनावै।।

प्रकाश कराने वाला, जय बोल बोल बोल।

त्रिवेणी संघ की धारा, जय बोल बोल बोल ।। ५ ।।

        

जुलूसगान

त्रिवेणी संघ के सैनिक हैं, हम समरांगण में जायेंगे।

आवेश भरा है नस नस में, हम करके कुछ दिखलायेंगे।।

जब हम रण में घुस पायेंगे, रिपुओं के मुंह फिर जायेंगे।

प्राणों का मोह न लायेंगे, ले विजयश्री को आयेंगे।।

बस, स्वतंत्रता का हृदय हार ले, माता को पहनायेंगे।

त्रिवेणी संघ के सैनिक हैं, हम समरांगण में जायेंगे।।

मर जाएंगे, मिट जाएंगे, माता को नहीं लजायेंगे।

प्राणों की भेंट चढ़ाएंगे, हम हो हर्षित बलि जायेंगे।

अर्पित कर अपने सीस सुमन मां की गोदी भर जायेंगे।

त्रिवेणी संघ के सैनिक हैं, हम समरांगण में जायेंगे।।

माता को धैर्य बंधायेंगे, हम काम देश के आयेंगे।

दुखिया के दिन फिर जायेंगे, हम सच्चे पूत कहायेंगे।।

चल रण सागर की ओर बंधु, मिट रण सागर में जायेंगे।

त्रिवेणी संघ के सैनिक हैं, हम समरांगण में जायेंगे।।                                          

जुलूसगान

            वतन तेरे लिए सम्मां सभी सुख के भुला दूंगा।

मिटूंगा खुद तुझे लेकिन मुसीबत से बचा दूंगा।।

अगर तेरे लिए मैदानों में मेरी जान भी जाये।

तो आगे ही बढ़ूंगा पग न पीछे को हटा दूंगा।।

चढ़ूगा दार पर फांसी पै सर अपना चढ़ा दूंगा।

वतन पर मर के नाम अपना शहीदों में लिखा दूंगा।।

वतन को गर मेरे दुनिया में कोई आंख दिखलाए।

तो उसको खंजरों की मार से भू पर सुला दूंगा।।

जरूरत गर हो ईंटों की भवन कौमी बनाने में।

तो अपने तन के टुकड़ों की वहां ईंटें बना दूंगा।।

जरूरत लकड़ियों की हो भवन के ठाठ के खातिर।

तो अपनी हड्डियों की ही बना छप्पर चढ़ाऊंगा।।

धर्म का वृक्ष मुरझाते हुए आंखों से गर देखूं।

तो अपना खून दे उसको हरा फिर से बना दूंगा।

यही अरमान है दिल में फकत अब ‘‘इंद्र’’ के यारो।

वतन के वासते अपना खुशी से सर कटा दूंगा।।

नवयुवकों सेदादरा

टेक- कुछ तो कर लो जवानों जवानी में।

हरदम रहो तैयार परोपकार के लिए।

बहते हुए मंझधार में संसार के लिए।

अड़ना सीखो मुसीबत विरानी में ।। १ ।।

खोकर तमाम सिफ्त और अपना तमाम राज।

बन करके बिलकुल नपुंसक से आज।

क्यों दिन काटे हो खसलत जवानी में ।।२।।

किसको नहीं मालूम बंधा सर से कफन है।

जीवन का एक-एक लमहा भी अनमोल रतन है।

फिर क्यों खोते हो किस्से कहानी में ।। ३।।

बढ़ो बिताकर तुम भी जब ये मास मई का।

बारिश में मजा देता है घर धान गयी का।

बसना छोड़ो हवेली पुरानी में ।। ४।।

जो हिंद में रहते हैं उन्हें भाई बनाओ।

कर करके प्यार उन्हें छाती से लगाओ।

रक्खा क्या है बड़ा और छोटनी में ।। ५।।                                                            

भजन

टेक- भाई धर्म की नैया बचा लेना रे,  डूबी जाती किनारे लगा लेना रे।

मिल आपस में सब भाई बनो, एक दूजे के सबही सहाई बनो।

पुरुषार्थ का बीड़ा उठा लेना रे,  डूबी जाती. ।। १ ।।

यह धर्म की नाव हमारी है, पड़ी बीच भंवर मंझधारी है।

कोई ऐसी तजवीज बना लेना रे,  डूबी जाती. ।। २ ।।

इस नैया से जो हैं जुदाई हुए गोते खा खाके बहुत सौदाई हुए।

बांह पकड़ के साथ मिला लेना रे, डूबी जाती. ।। ३ ।।

हम तो आये विरोध को टारन को,  संसार की दशा सुधारन को।

तुम कदम न पीछे हटा लेना रे, डूबी जाती. ।। ४ ।।

हाय ! पापों से नैया भारी हुई, इसी कारण से भारी लाचारी हुई।

कर्म धर्म के चेप्पे लगा देना रे, डूबी जाती.।। ५ ।।

भजन

            धर्म के वास्ते गर जान जाती है तो जाने दो।

मुसीबत लाख आती है खुशी से सर पै आने दो।।

अमर है आत्मा सबकी यही आदेश गीता का।

चढ़ाते हैं अगर वह दार सूली पर चढ़ाने दो।

अड़ा दो अपने सीने को सदाकत पर रहो कायम।

जहर का तीर कातिल गर चलाते हैं चलाने दो।।

अगर तकलीफ हो तुमको मुबारिक समझो उस दिन को।

गले का हार समझो तुम न दिल पर मैल आने दो।।

धर्म के वास्ते जां अपनी देना कुछ नहीं परवाह।

मिटाता है जमाना जुलम से तुमको मिटाने दो।।

कमर बस्ता रहो कुछ दिन जमाना रंग बदलेगा।

हकीकत की तरह लाखों को अब तो सर कटाने दो।।                                                       

                                                                       

 स्वागतगान

स्वागत, स्वागत भाई पधारो।

कष्ट लिया है, धन्य किया है, दर्श दिया है मोह लिया है।

संजीवन रसदान किया है,  क्षमा करो जो दोष निहारो ।। १ ।।

मिले हमें जो सभापति हैं, ज्ञान पति हैं धर्म रती हैं।

सर्वस त्यागी परम पति हैं, परमानंद रहो दुख हारो ।। २ ।।

भाई – भाई हम हैं सारे, धर्म कोष के खोजन हारे।

सदा पाप से रहते न्यारे, आओ हिलमिल प्रेम प्रचारो ।। ३ ।।

सेवा कार्य सदा करना है,  मातृभूमि का दुःख हरना है।

विपदाओं से क्यों डरना है, वीर बनो तुम देश उबारो ।। ४ ।।

                                                                                                                                            

भारतवर्ष

जय जय प्यारा देश।

जय जय प्यारा जग से न्यारा, शोभित सारा देश हमारा।

जगत मुकुट जगदीश दुलारा, जय सौभाग्य सुदेश ।। जय.।।

प्यारा देशश जय देश, अजय अशेष सदय विशेष।

जहां न संभव अघ का लेश, संभव केवल पुण्य प्रवेश ।। जय. ।।

स्वर्गिक शीश फूल पृथ्वी का, प्रेम मूल प्रियलोक त्रयी का।

सुललित प्रवृत्ति नटीका टीका, ज्यों निशि का राकेश ।। जय. ।।

जय-जय शुभ्र हिमाचल श्रृंगा, कलरव निरत कलोलित गंगा।

भानु प्रताप चमत्कृत अंगा तेज पुंज तव पेश ।। जय ।।

जग में कोटि-कोटि जुग जीवे, जीवन सुलभ अमीरस पीवै।

सुखद वितान सुकृत का सीवै, रहे स्वतंत्र देश हमेश ।। जय. ।।

                                                                                                           

 श्रमजीवियों की मातृ वंदना

भारतभूमि हमारी भाई भारतभूमि हमारी ।। भाई भा. ।।

और न कोई इस मंदिर का हो सकता अधिकारी।

हम मजूर ही इसके रक्षक, सेवक और पुजारी ।। भाई भा. ।।

आज तो यह तुम देख रहे हो महलें और अटारी।।

लगा रक्त का गारा इसमें तन की ईंट हमारी ।। भाई भा.।।

तन-मन देकर हमने सजाई यह सुंदर फुलवारी।

फूल सूंघ लो पर न तोड़ना मर्जी बिना हमारी ।। भाई भा. ।।

जग-सर बिच यह नील कमल सम विकसित मुनिमन हारी।

हम तिसके मधु पीवनहारे कारे भ्रमर सुखारी ।। भाई भा. ।।

रत्नवती इस वसुंधरा के इक हमहीं भंडारी।

‘‘माधव’’ इस पशुपति के सुत इस कृष्ण गोप हलधारी ।।भाई भा.।।

                                                                                                           

 त्रिवेणी संघ का बिगुल

 संघेशक्तिकलौयुगे

 प्रथम अध्याय

 त्रिवेणी संघ क्या है?

 त्रिवेणी। यह न तो कोई नया शब्द ही है और न कोई नयी वस्तु ही। यह तो वह पवित्र और व्यापक वस्तु है जिसके बंधन में सारी सृष्टि तक बंधी हुई है। ईश, माया और प्रकृति की त्रिवेणी- जिससे सृष्टि की उत्पत्ति हुई। सृष्टि की तरफ नजर दौड़ाया तो उसे सत्, रज तथा तम की त्रिवेणी से ओत-प्रोत पाया। जिसके आधार पर सृष्टि का व्यापार चलता है। लोकों में भ्रमण किया तो दिव, अंतरिक्ष और मर्त्त्यलोक की त्रिवेणी पाया, जिसके आधार पर सृष्टि अभी तक कायम है।

देवलोक में गया तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन त्रिदेवों तथा सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा त्रिदेवियों की त्रिवेणी को देखा- जिनसे सृष्टि का चक्र चल रहा है। भूतल पर दौड़ लगाया तो धन, बल और विद्या की त्रिवेणी देखी जिसके घर इस त्रिवेणी की धारा बह रही है वही इस दुनिया में सब कुछ है। याने वही ज्ञानी है, वही पंडित है- वही वक्ता है- वही कुलीन है- वही श्रीमान् है  वही धर्मात्मा और वही परमात्मा है। शरीर का अन्वेषण किया तो वात, पित्त और कफ की त्रिवेणी पाया, जिससे इस शरीर का अस्थिपंजर खड़ा है। इस त्रिवेणी में यदि जरा भी गड़बड़ हो जाये तो सारा शरीर रोग का खजाना बन जाता है।

त्रिवेणी संघ के संस्थापक सदस्य चौधरी जे. एन. पी. मेहता की पेंटिंग (चित्रकार : डॉ. लाल रत्नाकर)

योगसाधना के लिए तैयार हुआ तो इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की त्रिवेणी में स्थित पाया। जिसने इस त्रिवेणी को पा (साध) लिया, उसने मृत्यु को भी जीत लिया। उत्थान की तरफ दौड़ा तो उसे शारीरिक, मानसिक और आत्मिक इन तीन शक्तियों की त्रिवेणी में विहार करते पाया। जिसके पास इस त्रिवेणी का खजाना है- वह दुनिया में जो चाहे कर सकता है। लक्ष्मी उसके सामने हाथ जोड़ कर खड़ी रहेंगी। कठिनाई लाखों कोस दूर भागेगी। असफलता पास ही न आयेगी। विजय का हार सदा उसके गले में रहेगा। उसके लिए दुनिया में असंभव कोई चीज नहीं। प्रयागराज पहुंचा तो गंगा, जमुना और सरस्वती के त्रिवेणी संगम को देखा, जिसकी धारा में लोग अपने पापों को धो रहे थे। राष्ट्र-तट पर खड़ा हुआ तो तिरंगे झंडे को फहराते हुए पाया, जो भारतीयों को जगाते तथा ब्रिटिश गवर्नमेंट के लाद को फाड़े हुए चला जा रहा है।

कार्यक्षेत्र में पदार्पण किया तो धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक धाराओं में सबको बहते हुए देखा। सभी के सभी अपना-अपना राग अलापते हुए चले जा रहे हैं। पैर टिकने का ठिकाना भी नहीं है। लेकिन पूछिये  तो कहेंगे कि शांति और स्वराज की खोज में जा रहे हैं। धर्मावलंबी महात्मागण, अपने-अपने धर्मों की दुहाई देते हुए चिल्ला रहे हैं कि हमारा धर्म सबसे श्रेष्ठ है। हम सबको स्वर्ग पहुंचायेंगे, मोक्ष प्राप्त करायेंगे। तो कोई कहता है कि हमारा धर्म सबसे श्रेष्ठ है, वह जल्दी स्वराज्य और शांति स्थापित करा सकता है क्योंकि वह लेने के सिवा देने का नाम ही नहीं जानता। तो कोई अपना झंडा हिला रहा है कि कुछ न करो केवल राम कहो। खूब घड़ी, घंटे बजाओ, रात-दिन नमाज पढ़ो बस, स्वराज्य और शांति हासिल हो जायेगी। उन्हें इसकी जरा भी परवाह नहीं कि कौन दुखी है और कौन सुखी है।

मैंने कहा, नहीं बाबा! आपको दो समुद्र अभी और नांघने हैं। पर अफसोस है कि आपके पैर आगे-पीछे दोनों तरफ चल रहे हैं। दूसरे महाशय को देखा कि वह समाज की रूढ़ियों की गठरी लादे लुढ़कते हुए चले जा रहे हैं। उसी में उनका शान, मान और गौरव है। सुधार का नाम आते ही उन्हें छींक आती है। जरा-सी भी छेड़छाड़ किये कि उनकी त्योरी चढ़ जाती है और भूखे शेर की तरह टूट पड़ते हैं। उनके लिए धर्म और राजनैतिक क्षेत्र कुछ नहीं है। सब कुछ उनके समाज का घमंड ही है। मैंने कहा, नहीं महाशय! आप बिना सिर-पैर के आदमी तथा बिना पेंदे के लोटे जैसे दिखायी पड़ते हैं, खूब टटोल कर देखें। तीसरे के पास पहुंचा तो उन्हें राजनीति के फेरे में आकाश-पाताल छानते हुए पाया। उनके लिए कर्म्य और अकर्म्य कुछ भी नहीं। राजनीति के नाते वे दुनिया में जो चाहे कर सकते हैं। धर्म और समाज को तो वे अपने रास्ते में बाधक समझते हैं। समझें भी क्यों न? नहीं तो मुर्गी के अंडे का जायका कैसे मिलेगा तथा उन्हें मनमाने काम करने को कैसे मिलेंगे? लेकिन फिर भी कहते हैं कि हम स्वराज्य और शांति के क्षितिज पर पहुंच गये हैं।

त्रिवेणी संघ के संस्थापक सदस्य सरदार जगदेव सिंह की पेंटिंग (चित्रकार : डॉ. लाल रत्नाकर)

मैंने कहा, नहीं जी! अभी तो लाखों कोस दूर हो। अजी! जिसके घर में ‘तीन कनउजिया तेरह चूल्हा’ की खिचड़ी पके तथा ऊंच-नीच और छूत-अछूत का भूत सिर पर नाच करे और वह कहे कि मैं क्षितिज पर हूं, तो यह ढकोसला नहीं तो और क्या है?

अजी! धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक, बिना इन तीनों की त्रिवेणी के कोई उन्नति ही नहीं कर सका। क्योंकि इन तीनों में एक-दूसरे का संबंध है। एक के बिना दूसरा चल ही नहीं सकता। धर्म बंधन बांधता है। समाज उसे संगठित कर जकड़ता है और राजनीति उसे स्थायी करता है। इसीलिए तीनों को मिलाकर त्रिवेणी संगम बना सबको समान अधिकार दिलावो- बस, क्षितिज क्या- स्वराज्य और शांति की गोद में हो। और, यदि उसकी साक्षात् मूर्ति का दर्शन करना हो तो प्रातः स्मरणीय महात्मा गांधी को देखो- जो त्रिवेणी के साक्षात् अवतार हैं।

चारों तरफ नजर दौड़ाकर गौर से देखा तो, राष्ट्र की त्रिवेणी किसान, मजदूर और व्यवसायियों को पाया, जिनके बिना कोई राष्ट्र ही नहीं तैयार हो सकता है। पर उनकी भी दशा बड़ी ही दयनीय है। बेचारे किसान-बूढ़े-बूढ़ी, युवक-युवती, बाल-बच्चे सभी- रात को रात और दिन को दिन न समझते हुए, जेठ की दुपहरी में, आग के समान लू की लपट लपक रही है और बेचारे किसान इसकी परवाह न कर खून को पसीने में बहा-बहाकर खेतों में काम कर रहे हैं, और सारी दुनिया चादर तान फों-फों कर रही है। सावन और भादों के महीनों में मूसलाधार वृष्टि हो रही है, हफ्तों सूर्य का दर्शन नहीं, वर्षा की झड़ियां लगी हुई हैं- पर किसान सपरिवार ठुठुरते हुए धानों की रोपनी कर रहे हैं? और सारी दुनिया झरोखों में बैठ कजरियों की तान छेड़ रही है।

पूस और माघ के महीने हैं- खेत और खलिहानों में धान की ढेरियां लगी हुई हैं, ठहाके का जाड़ा पड़ रहा है। पर, पुआल के सिवा ओढ़ना नहीं। छोटा-सा लड़का एक पैसे की मिठाई के लिए अपने पिता से दांत खिखड़ रहा है और पिता शर्म से भू माता की तरफ देख रहा है। उसके नयनों से आंसू टपक रहे हैं। मानो, कह रहा है- “हाय भू माता! अपने बाल-बच्चों के लिए मैंने तुझे उत्पीड़न करके धान उपजाया- लेकिन एक पैसे के   धान बेचने का अधिकारी नहीं… (क्योंकि जमींदार का पहरा पड़ा हुआ है) फटो हे माता! और मुझ अभागे किसान को शरण दो। यदि इसका सच्चा दृश्य देखना हो तो बर्मा में जाकर चौतग्गा और जियावडी ग्रांट के भारतीय किसानों में देखें।

मजदूरों की भी दशा कम शोचनीय नहीं है। बेचारे गरीब मजदूरों से दिन भर पशुओं की तरह काम लिया जाता है और केवल ३ सेर धान गरीबों को दिये जाते हैं, जो उनके परिवार के लिए आधे पेट भी होना मुश्किल है। जमींदारों और पूंजीपतियों ने तो गजब ढा दिया है। जमींदार तो इतना जुल्म करते हैं कि मजदूरी भी नहीं देते और देते भी हैं तो बहुत कम। बल्कि इनाम में लात, मुक्के, घूंसे तथा गालियों की बौछार लगा देते हैं। पूंजीपति भी तो इनके चचेरे भाई ही हैं, जो रात-दिन पशुओं की तरह मजदूरों से काम लेते हैं और मजदूरी का बीसों गुणा नफा आप लेते हैं। पर मजदूरों की अवस्था पर तनिक भी विचार नहीं करते।

त्रिवेणी संघ के संस्थापक सदस्य शिवपूजन सिंह की पेंटिंग (चित्रकार : डॉ. लाल रत्नाकर)

ठीक ऐसी ही हालत हमारे छोटे-छोटे व्यवसायी भाइयों की भी है। वे तो बड़े व्यवसायियों से ही शोषण कर लिये जाते हैं। पर सरकार का इनकमटैक्स विभाग भी इनको दम लेने नहीं देता। टैक्स के योग्य नहीं होते हुए भी अफसरों की दुर्निगाहों से बेचारों पर टैक्स का बोझ लाद दिया जाता है। लाख चिल्लाते रहते हैं, पर गरीबों की सुनता ही कौन है?

किसी भी राष्ट्र को उन्नत तथा अवनत बनाने में इन्हीं तीन विभूतियों का हाथ रहता है। पर, इस अभागे देश में तो इन तीनों की दुर्गति हो रही है। मैंने कहा- तुम राष्ट्र विभूति हो, राष्ट्र को स्वतंत्र करने की बागडोर तुम्हारे हाथ है। लेकिन लोभियों ने तुम्हारी दुर्गति कर डाली है। यदि तुम संसार में सुख और शांति से जीवन बिताना चाहते हो- यदि चाहते हो कि दुनिया में सुख और शांति का स्वराज्य हो और हमारा भारत स्वतंत्र हो, तो निष्कपट हो मिल कर त्रिवेणी संगम बनाओ और प्रेम के साथ जीवन बिताओ। बोलो, स्वतंत्र भारत की जय!

किसान चीजों को पैदा करते हैं और मजदूर उसे भिन्न-भिन्न रूपों में तैयार कर व्यवसाय के योग्य बनाते हैं, और व्यवसायी उसे एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाते हैं- जिसे कहते हैं संसार का व्यापार। क्या उत्तम तीनों का प्राकृतिक संबंध है- जिसे कहते हैं त्रिवेणी संगम या त्रिवेणी संघम्।

भारत की दशा का गौरपूर्वक अध्ययन करने पर पता चला है कि देश के प्रायः ९० प्रतिशत मनुष्य, शोषित, शासित तथा दलित वर्ग के हैं। जिन्हें हम कहते हैं- राष्ट्र के भाग्य विधाता। जो सोलह आने के सोलह आने हैं- किसान, मजदूर और व्यवसायी। जिनका करते हैं शोषण-शासन तथा ताड़न- भारत के केवल 10 प्रतिशत महानुभाव। इन लोगों ने उन बेचारों की दशा को इतनी दयनीय बना दी है कि देख और सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जब तक इनकी दशा का सुधार तथा समान अधिकारों की रक्षा नहीं होती है- सुराज्य और शांति लाखों कोस दूर हैं।

ये बेचारे लाखों चिल्लाते हैं। पर इनकी सुनने वाला कोई नहीं है। लीडरी गांठने वाला तो बहुत हैं। हमने कहा है- शोषित, शासित तथा दलित भाइयो! तुम अपना भाग्य-विधाता आप बनो। जब तक तुम अपने पैरों पर खड़े नहीं होते- दुनिया तुम्हारी तरफ ताक भी नहीं सकती। अस्तु, आओ! मिलो और त्रिवेणी की धारा में गोते लगाते हुए- बोलो, त्रिवेणी संघ की जय और अपने दुःखों की ऐसी आवाज उठाओ कि एक बार पृथ्वी तक हिल जाय। जिसे लोग कहेंगे ‘त्रिवेणी संघम्’ और जिससे होगा भारत का उद्धार।

खुलासा : त्रिवेणी संघ है शोषित, शासित तथा दलित कृषक, मजदूर और व्यवसायियों के अश्रुओं की धारा तथा आहों का नगाड़ा, जिनके धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक अधिकारों को कुचल कर, भारत के ही नहीं- बल्कि संसार के अल्पसंख्यक लोग कर रहे हैं मौज। जो अपनी दुर्भेद्य आवाजों से अपने हक और अधिकारों के लिए एक बार अपनी तल को हिला कर करता है विश्व शांति की कामना, जिसे कहते हैं ‘त्रिवेणी संगम’।

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ऐ सुराज्य और शांति के पुजारियों! यदि सच्चे दिल से शांति और सुराज्य चाहते हो तो त्रिवेणी संघ में आजा और त्रिवेणी बंधुओं को गले लगा।

 द्वितीय अध्याय

त्रिवेणी संघ क्या चाहता है?

सुराज्य और शांति

(धार्मिकसामाजिकराजनैतिक, (तथा आर्थिक) साम्राज्यवादों का अंत)

            यदि मुझसे पूछा जाये कि त्रिवेणी संघ क्या चाहता है? तो मैं यही कहूंगा कि वह भारत के ही अंदर नहीं बल्कि विश्व के अंदर चाहता है सुराज्य और शांति।

सुराज्य या स्वराज्य?

नहीं! नहीं!! स्वराज्य ही नहीं सुराज्य। त्रिवेणी संघ चाहता है सुराज्य। स्वराज्य का माने होता है अपना राज्य- याने भारत का स्वराज्य हुआ भारतीय राज्य। स्वराज्य मात्र हो जाने से इस देश के लोग सुखी और समृद्धिशाली हो जायेंगे, यह मानना कोरी कल्पना है।

क्योंकि भारत में तो विदेशियों के राज्य हुए अभी 150 वर्ष भी नहीं हो रहे हैं- पहले भारतीय ही राज्य था। लेकिन मैं पूछता हूं कि सुख और शांति थी? सबको धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक क्षेत्रों में समान अधिकार थे? सबका आपस में प्रेम था? गरीबों की सुनवायी होती थी? चाहे वह हिंदू राज्य हो या मुसलमानी राज्य अथवा आज भी जिन देशों में विदेशियों का शासन नहीं है, उनका ‘निजी शासन है- वहां उपरोक्त नियमों का पालन होता है? यदि नहीं तो ऐसे स्वराज्य से क्या लाभ? ऐसा राज्य तो धनिकों और जबर्दस्तों का होगा। फिर हम गरीब और निर्बलों को क्या मिलेगा? वही- इनकी गुलामी। तो ऐसे स्वराज्य से हमें क्या मतलब? इसका मतलब यह नहीं कि हम विदेशी राज्य का प्रतिपादन कर रहे हैं।

 हम चाहते हैं सुराज्य

कैसा?

जिसमें धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक अधिकारों में सबको समान अधिकार मिले। चाहे वह मणि-जड़ित महलों में पैदा हो या रात-दिन कुटौनी-पिसौनी करनेवाली बुढ़िया के झोंपड़े में।

 कैसे होगा?

जब तक धार्मिक साम्राज्यवाद, सामाजिक साम्राज्यवाद, राजनैतिक साम्राज्यवाद तथा आर्थिक साम्राज्यवाद का अंत न होगा, तब तक सुराज्य हो ही नहीं सकता।

 क्योंकि

जब तक ये साम्राज्यशाही रहेंगे, तब तक सबको समान अधिकार न होने देंगे, और जब तक आपस में समानता और पारस्परिकता नहीं आएगी, तब तक आपस में प्रेम हो ही नहीं सकता। जब तक आपस में प्रेम न होगा, तब तक एकता आ ही नहीं सकती, और जब एकता ही नहीं,  सुराज्य, स्वराज्य और भारत की स्वतंत्रता कहां?

 इसलिए त्रिवेणी संघ चाहता है, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक साम्राज्यवादों का अंत और उनके स्थान पर धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक साम्यवाद का प्रचार तथा औद्योगिक क्रांति, जिससे सभी फूल-फल सकें और हो सुख और शांति का स्वराज्य।

कुछ लोग ऐसा कहेंगे कि त्रिवेणी संघ तो यह झगड़ा फैला रहा है- बुझी हुई अग्नि को फिर से सुलगा रहा है। इसलिए यह देश की स्वतंत्रता का घातक है। ऐसा कहने वाले प्रायः राष्ट्रवादी ही मिलेंगे लेकिन मैं उनसे अर्ज करूंगा कि वे अपने देश की भीतरी अग्नि को शांत कर दिये हैं? जी नहीं! वे तो इतना ही कर पाये हैं कि उन्होंने एक सड़े और भयंकर घाव पर पाउडर छिड़क कर पट्टी बांध दिये हैं, जिसने भीतर-ही-भीतर घाव को और भी भयंकर बना दिया है, जो पद-ग्रहण के समय से फूट भी चला है।

मैं पूछता हूं कि घाव को साफ कर उसके स्थान पर दवाई लगाना रोगी के लिए हितकर होगा या चिल्लाने के भय से ऊपर ही पट्टी बांध कर छोड़ देना? आप कहते हैं कि अभी ऐसा कर देता हूं, फिर मौका मिलने पर साफ कर देंगे। तो मैं तो यही कहूंगा कि तब तो आप उस रोगी को यमपुर पहुंचाने के लिए रास्ता बनाने जा रहे हैं कि रास्ते में उसे कहीं रुकावट न आवे।

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अजी आप भ्रम में हैं, जो कहते हैं कि स्वतंत्रता प्राप्त कर लेने पर ये समस्याएं हल हो जायेंगी। मैं तो कहता हूं कि बिना इसे हल किये आप स्वतंत्रता प्राप्त ही नहीं कर सकते। आप तो उसी पागल-सा काम कर रहे हैं, जिसके घर में आग लगी हो और वह लट्ठ लेकर दौड़े हुए पिछवाड़े में चोरी की रखवाली करने जाता हो।

 आइये, देखिये अपने घर की हालात

धार्मिक साम्राज्यवाद :

जिस तरह बड़े-बड़े और शक्तिशाली राष्ट्र साम्राज्यशाही का पोषण कर छोटे-छोटे राष्ट्रों को हड़पे जा रहे हैं तथा बड़े-बड़े पूंजीपति बेचारे गरीब किसानों और मजदूरों का खूब शोषण कर अपना-अपना तोंद फुलाये जा रहे हैं, ठीक उसी तरह धर्म के ठेकेदार अपना तोंद फुलाने के लिए, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, नरक-स्वर्ग तथा मोक्ष आदि के अड़ंगे लगा-लगा जनता को कूपमंडूक बना-बना, उनकी आंखों में धूल झोंक दिन-दोपहर लूट रहे हैं, जिसे हम कहते हैं- धार्मिक साम्राज्यवाद। जो साम्राज्यशाही तथा आर्थिक साम्राज्यवाद से भी अधिक लोकतंत्र के लिए भयावह है, क्योंकि किसी भी उत्थान में धर्म की ईंट पर दीवार चुनी जाती है।

ये धार्मिक साम्राज्यवाद वाले तो उस सौतेली मां से बढ़कर हैं, जो अपने सौतेले शिशु को मारने तथा रोगी बनाने के लिए अपने स्तनों में विष का लेप कर बड़े प्यार से दूध पिलाती है तथा उसे अंधा बनाने के लिए खूब ही चूम चाट कर सेहुंड़ के दूध का अंजन लगाती है।

यह सौतेली मां तो सौतेले शिशु को निकम्मा बनाकर ही छोड़ देती है और इस परोपकार के लिए कुछ भी दक्षिणा नहीं लेती। पर ये धर्म के ठेकेदार तो जनता के नेत्र रहते हुए भी अंधा बनाते हैं और साथ ही इस काम के उपलक्ष्य में उसे खंखड़ कर टेंट भी गरम कर लेते हैं।

एक बेचारे गरीब की एक ही बछिया है। दो लड़के, तीन लड़कियां तथा स्त्री-पुरुष आप हैं। खेत एक धूर भी नहीं। किसी जमींदार महोदय की मेहरबानी से- नहीं-नहीं चालाकी से- तीन-चार धूर जमीन एक कोने में मिल गयी है, जहां भुवन भास्कर महाराज की भी शक्ति नहीं काम करती। घास-फूसों की एक झोपड़ी लगा दी है, जिसमें उसके परिवार के सातों सदस्यों सहित बछिया भी रहती है।

एक कोने में चूल्हा-चौका है तो दूसरे में कुछ अंट-संट सामान, तीसरे कोने में बछिया बांधी हुई है और चौथे में वह सपरिवार जाड़े के मारे पुआल में सिकुड़ा हुआ लोथ बना पड़ा है। उनकी शारीरिक अवस्था कैसी होगी तथा शरीर के कपड़े किस तरह के होंगे, उसका पाठकगण इसी से अनुमान लगा लेवें कि एक आदमी मजदूरी करने वाला और सात खाने वाले। वह मजदूरी भी रोज की मिलने वाली नहीं। हाय! उसकी तकलीफों की क्या कहें- दो-दो दिन तक चूल्हा नहीं जलता। स्त्री-पुरुष उपास काट लेते हैं। किसी-किसी तरह बच्चों के संतोष के लिए कुछ उपाय कर देते हैं। कहना नहीं चाहिए, लेकिन क्या करें? बच्चों का शरीर कंकाल बन गया है तथा स्त्री श्मशान की चुड़ैल बन रही है। पुरुष का क्या कहना है, वह भी उसके नजदीक ही पहुंच चुका है। मतलब कि सारा परिवार श्मसान बन रहा है।

अब, रही बेचारे की बछिया! सो आज रात को उस पर एक और पहाड़ टूटा कि किसी सांप ने बछिया को काट डाला और वह बंधे हुए ही मर गयी।

सुबह होते ही, बेचारा बछिया को खोलने के लिए जाता है, पर उसकी दशा देख धड़ाम से जमीन पर गिर जाता है। जितना शोक उसको बछिया के मरने का नहीं है, उससे बढ़कर भय धर्म का है। बछिया को चर्मकारों के जिम्मे कर वह किसी तरह खांसते-खूंसते पुरोहित जी महाराज के यहां पहुंचता है। पांव लागी के बाद रोते हुए शब्दों में कहता है- ‘‘महाराज! आज रात में हमारी बछिया को सांप ने डंस दिया और वह मर गयी।’’ पंडित जी ने अफसोसजनक शब्दों में कहा- ‘‘ओह हो! क्या वह बांधी हुई थी?’’

‘‘जी हां, सरकार।’’

‘‘अजी, तब तो तुम्हें बड़ा भारी प्रायश्चित लगा।’’

‘‘अब क्या करें महाराज? इसी विचार के लिए आये हैं।’’

पंडित जी ने कहा- ‘‘अच्छा, तुम शकुन लाए हो?’’ बेचारे गरीब ने गिड़गिड़ाकर कहा- ‘‘महाराज, मेरे पास है ही क्या…। आज सात दिनों से बीमार तथा दो दिनों से उपासा हूं। विचार कर डालिये कि जिससे धर्म न जाने पावे। कमाकर आपका शकुन दे दूंगा।’’ पंडित जी ने उत्सुकतापूर्वक कहा- ‘‘अच्छा, काहे को दूसरे यहां जायेगा। मेरे चबूतरे पर मिट्टी डालना ही है, दस दिन काम कर देना।’’ बेचारे गरीब ने सिर हिलाकर अंगीकार कर लिया।

अब पुरोहित जी महाराज को क्या था। झट, अताल थुन्ही पताल खंभा वाला किस्सा चरितार्थ कर फैसला सुना दिया कि ‘‘भाई, तुम्हें प्रायश्चित लग चुका है। तुम बहुत गरीब आदमी हो, इसीलिए तुम पर दस ब्राह्मण भोजन का दंड लगा है और दस दिन घर से बाहर भीख मांग कर खाना पड़ेगा।’’
अब तो बेचारे पर और भी आफत पड़ी। धर्म से किसी तरह छुटकारा न देख, वह लगा फूंका फाड़ कर रोने। पुरोहित जी महाराज को भी दया आ गयी। उन्होंने तोष बोध दे चुप कराया और मीठे-मीठे शब्दों में कहने लगे- ‘‘घबराओ मत, तुम्हारे उद्धार का उपाय मैं बता दूंगा। अच्छा कहो, तुम इसीलिए न रो रहे हो कि तुम बीमार हो, गांव-गांव कैसे घूम सकते हो और प्रायश्चित के लिए खर्च कहां से ला सकते हो।’’ गरीब ने आशा की दृष्टि से नजर उठाते हुए कहा- ‘‘जी हां, महाराज।’’

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महाराज ने झपकी लेते हुए कहा- ‘‘देखो, शास्त्र कहता है कि यदि भिक्षाटन न कर सके तो ड्योढ़ा ब्राह्मण को दंड दे, यानी दस का पंद्रह। रहो, देखो, घबड़ाना न। जिस तरह ये तुम्हारी भिक्षाटन वाली समस्या हल हो गयी- मैं इसे भी हल कर दूंगा। देखो पंद्रह ब्राह्मणों को खिलाने में पंद्रह रुपया से कम नहीं खर्च हो सकते। लेकिन मैं दस रुपये में दक्षिणा कर तुम्हारा उद्धार कर देता हूं।’’ गरीब ने कहा, ‘‘ठीक है महाराज, लेकिन दस रुपये हैं कहां?’’

महाराजजी ने अपनी संवेदना प्रकट करते हुए कहा- ‘‘ठीक है…। लेकिन धर्म ऐसी अमूल्य वस्तु है कि  इसके लिए प्राण तक दे देना चाहिए, किन्तु धर्म न जाने देना चाहिए। मैं जानता हूं कि तुम इस समय बड़े संकट में हो। तुम्हारा धर्म जाना चाहता है। यदि मैं इसे देख कर रह जाऊं तो इसका पाप मुझे भी लगेगा। इसलिए मैं तुम्हारा प्रायश्चित करा 10 रुपये का दक्षिणा कर लेता हूं। इसके बदले तुम इस कागज पर निशान बना दो और मेरे ही यहां कमा-कमाकर वसूल कर देना। इस तरह तुम्हारा उद्धार हो जायेगा। बेचारे गरीब ने भी दूसरा उपाय न देख ऐसा ही कर दिया।

हाय रे! हमारे धर्म के ठेकेदार, अब आगे उस बेचारे की क्या दशा करोगे, यह तो भगवान ही जानें! क्या इसे हम धार्मिक साम्राज्यवाद नहीं कह सकते? क्या यह देश की स्वतंत्रता में, जमींदारों की जर्जराहट और पूंजीपतियों की ठनठनाहट से कम भयानक और घातक है? तो त्रिवेणी संघ ऐसे धार्मिक साम्राज्यवाद का अंत कर देना चाहता है।

अब, आगे भी इनकी करतूतों को देखिये। पंडितजी महाराज शाम को उस गरीब के घर जाते हैं और कुछ इधर-उधर लीप-पोत तथा छिड़ीक-छुड़ूक के बाद कहते हैं कि अब तुम्हारा प्रायश्चित से उद्धार हो गया। हम जाते हैं, तुम आनंद से रहो।

पंडितजी खरगोशी चाल से अपने घर की ओर लपके आ रहे हैं और मन में इतराते हैं कि ‘‘आज मैंने जिंदगी भर के लिए हलवाहा ठीक कर लिया। अच्छा एक काम तो हो गया, लेकिन जी का जंजाल, अब रह गयी छूई हुई बछिया। कमबख्त यजमान छोटी-छोटी बछिया को छूकर दे देते हैं, जो दो-चार की भी महंगी होती हैं। हम क्या इनकी दौनी नाथेंगे? अच्छा, आज इन्हें भी ठिकाने कर दूं। इधर ही से रमजनवा के पास होते चलें और उसे रात में बुला लूं।’’

रमजनवा कसाई है, जो महाराज जी की छूई हुई बछियों का संकल्प किया करता है, क्योंकि दूसरे लोग की छुई हुई बछियों के लिए वह हमारे बाबाजी का टेंट गरमा देता है।

जब सारा गांव सो जाता है तो रमजनवा धीरे से बाबाजी के पास पहुंचता है और बाबाजी रुपैया को टेंट में रखते हुए बछियों को हांक देते हैं। रमजनवा ने कहा, ‘‘बाबाजी, जरा बुधुआ को मेरे साथ कर देते कि थोड़ी दूर पहुंचा देता।’’ बाबाजी ने छाती पर हाथ रखते हुए कहा ‘‘अरे बाप रे बाप! खुद मैं ही चलता हूं। दूसरा जानने तक न पावे।’’ हमारे पंडितजी महाराज लाठी उठा, बिचारी बछियों को कसाईखाने तक पहुंचा आते हैं।

यह कोई नयी और कल्पित बात नहीं है। ऐसी घटनायें भारत के अंदर रोजमर्रा हुआ करती हैं। क्या हम इसे धार्मिक साम्राज्यशाही नहीं कह सकते? अगर दूसरे का दोष भी नहीं है तो तोंद फुलाने के मसाले के लिए उसके सिर झूठा दोषारोपण किया जाता है और आप करें तो पाक-के-पाक ही हैं। यहां तो वही कहावत कही जाती है कि ‘‘सात-पांच लड़िका एक संतोष, गदहा मारे तनिको न दोष’’, तो त्रिवेणी संघ ऐसे-ऐसे पाखंडों का अंत कर देना चाहता है।

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देखा जाता है कि एक लड़का, जिसका स्वभाव उदंड-सा होता प्रतीत है, अपने बूढ़े पिता को बड़ी बेरहमी के साथ पीट रहा है। उसी रास्ते से हमारी गुरुजी महाराज आदि बड़े-बड़े सज्जन जा रहे हैं, लेकिन डर के मारे कान भी नहीं हिलाते कि ऐसा क्यों कर रहे हो? वहीं पिता मर जाता है और लड़का पीपल के गाछ में घंट नहीं टांगता है और न बाबाजी लोगों को ही खिलाता है। बस, फिर क्या है? चारों तरफ तहलका मच जाता है और धर्म के ठेकेदारों के तरफ से फाइनल आर्डर निकलता है कि इसने धर्म के विरुद्ध काम किया, जो अपने पिता का श्राद्ध नहीं किया। इसलिए इसका बहिष्कार करो। बोलना-चालना, लेना-देना, खाना-पीना, हुक्का-पानी सब बंद कर दो, जब तक कि श्राद्ध और नियम तोड़ने, दोनों का दंड नहीं चुका देता है।

धन्य हैं हमारे धर्म के ठेकेदार महाराज, धन्य हैं! वही लड़का जब जीते जी अपने बाप को पीट रहा था, बूढ़ा चिल्ला रहा था और आप कानों में उंगली लगाये, दबे पांव चले गये थे। क्या उस समय ये आपके आर्डिनेंस नहीं थे? यदि उसी समय इस आर्डिनेंस को सुना दिये होते, तो कैसा सुधार हो गया होता। लेकिन ये बातें आपको सूझें भी तो क्यों? आपको तो जब टके और पूड़ी नहीं मिलती, तब धर्म की याद आती है। तो त्रिवेणी संघ धर्म की ऐसी ठेकेदारी का सदा के लिए अंत कर सच्चा धर्म फैलाना चाहता है। हमारे धर्म की बागडोर कुछ खास लोगों के हाथों में दे दी गयी, जिससे उन्होंने धर्म के नाम पर मनमाना कानून तक बना डाला। कहते हैं कि वेद ईश्वर के वाक्य हैं, तो यह नहीं समझ में आता है कि उन्होंने क्यों आर्डिनेंस लगा दिये कि स्त्री और शूद्र को वेद पढ़ना निषेध है-

यथा- स्त्रीशूद्रौनाधीयताम्।।

यहां तक लिख डाला कि यदि शूद्र वेद पढ़े तो उसकी जीभ काट लो और सुने तो कानों में शीशा गलाकर डाल दो।

यथा- अथ हास्य वेदमुप श्रण्वतस्तुपन तुभ्यां श्रोत्र प्रतिपूरणं।

उदारहणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीर भेदः।।

यही नहीं, यहां तक लिख डाला गया कि-

न शूद्राय मति दयात् नोच्छिष्टं न हविष्कृतम्।

न चास्योपदिशेत् धर्म न चास्य व्रतमादिशेत्।।

अर्थात् शूद्र को बुद्धि नहीं दो, जूठ या प्रसादी भी मत दो, किसी प्रकार का धर्मोपदेश न दो तथा उन्हें कोई व्रत करने की आज्ञा न दो। मैं पूछता हूं- ऐसा क्यों? क्या वे ईश्वर के बच्चे नहीं है? यदि हैं तो फिर क्यों इन्हें ईश्वर की दी हुई चीजों से वंचित किया जाता है? क्या इसे धार्मिक साम्राज्यशाही नहीं कहा जा सकता?

बिचारे अछूतों के रुपये-पैसे, फल-फूल ठाकुरजी को चढ़ाकर हड़प लिया जाता है। लेकिन उसे मंदिर के भीतर पैर तक रखने नहीं दिया जाता। क्या यह अन्याय नहीं है? क्या वह मूर्ति सर्वव्यापक परमात्मा की मूर्ति नहीं है? यदि है तो क्यों नहीं उस परमात्मा की सभी संतान उस महाप्रभु के पास पहुंच सकती है? यह अन्याय हो या अंधेर, लेकिन प्रेम, एकता और देश के लिए कितना घातक है?

देखा जाता है कि एक लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर ब्राह्मण, जो आठ-आठ दिनों पर स्नान कर, बाजारों की सैर किया करे, लेकिन मंदिर का पुजारी वही हो सकता है, यज्ञ-हवन आदि कर्मों को वही करा सकता है, विवाह, श्राद्धादि का संपादन वही करा सकता है, दक्षिणा-दान वही ले सकता है, और एक दूसरा, जो धर्म के ठेकेदारों के घर का नहीं है, अच्छा पढ़ा-लिखा विद्वान है, नित्य संध्यावंदन किया करता है, वेदानुकूल उसके सभी लक्षण ब्राह्मण के हैं, पर वह धार्मिक कार्यों का संपादन करने का अधिकारी नहीं। क्या यह धार्मिक ठेकेदारों की स्वार्थपरता नहीं है?

यहीं तक नहीं, धार्मिक मंदिरों और मठों के बाहर साइन-बोर्ड टंगा हुआ है कि ‘‘जाति पांति पूछै नहीं कोई, हरि के भजे से हरि के होई।’’ लेकिन भीतर जाकर देखिये कि कैसी-कैसी करामातें हो रही हैं। पुजारी कौन हो सकता है? जो उसमें जाति का ब्राह्मण हो। चाहे वह नया हो, साधु या कम ही पढ़ा-लिखा क्यों न हो। भंडारी कौन हो सकता है? जो उसमें जाति का ब्राह्मण हो। चाहे उसे पाचन-कर्म का ज्ञान भले ही न हो। अमुक साधु अमुक जाति का है, इसलिए उसे अमुक काम दिया जाये। ब्राह्मण साधु दूसरी जाति के साधु का बनाया हुआ नहीं खा सकता। क्या यहां धर्म की ओट में धर्म का शिकार नहीं किया जाता?

तो, त्रिवेणी संघ ऐसी धार्मिक धांधलियों, लूटों, अन्यायों, अत्याचारों, अंधेरों और स्वार्थों का अंत सदा के लिए कर देना चाहता है और उसके स्थान पर, धर्म का सच्चा रूप बताकर जनता को उजाले में ले जाना चाहता है। वह बतला देना चाहता है कि सभी मनुष्य एक ही परमपिता परमेश्वर के बनाये हुए हैं और उस पिता की बनायी हुई वस्तु पर सबका समान अधिकार है तथा सबका धर्म एक ही प्रेम है। प्रेम ही से दुनिया में सुख और शांति का सुराज्य हो सकता है। अस्तु, सब कोई आपस में प्रेम करो और परस्पर भेदभावों को छोड़ दो, यही सच्चा धर्म है।

 सामाजिक साम्राज्यवाद :

हमारे समाज की कुत्सित भावनाओं ने ऐसा उग्र रूप धारण किया है कि उसे हम सामाजिक साम्राज्यशाही कहे बिना नहीं रह सकते। ऊंच-नीच और छूत-अछूत की भेद-भावनाओं ने बड़े-बड़े महात्माओं तथा नेताओं को भी नहीं छोड़ा है। यही कारण है कि हमारे देश में एकता नहीं होने पाती।

शहरों में ऐसी नीच भावनाएं बहुधा कम पाई जाती हैं। यदि इसका नग्न नृत्य देखना हो तो देहातों में आकर देखिये कि देखकर रोमांच हो उठता है। एक अस्सी वर्ष का बूढ़ा हाथों से लकड़ी के सहारे टगता हुआ चला जाता है और एक 8 वर्ष का लड़का, जो अपने को ऊंची जाति का समझता है, उसे अरे-अरे और तू-तू कहकर संबोधित करता है और वह बूढ़ा अजी और रउआ-रउआ कहकर बातें करता है। यहीं तक नहीं, अपने को उच्च समझने वालों को दूसरों के विद्वानों को भी तुम-ताम करते शर्म नहीं आती। बेंच, कुर्सी और खटिया की कौन कहे, एक मिट्टी के टीले पर भी बैठे रह जाने पर भौंहें चढ़ जाती हैं। अगर कोई साफ-सुथरा रहता है तो ताना मारा जाता है कि इसका तलवा जमीन पर नहीं पड़ता है।

बेचारे अछूतों के लिए गांव के बाहर कुएं होते हैं, जो बाबा आदम के जमाने के बने हुए होते हैं। बेचारी औरतें आधा-आधा मील की दूरी से पानी लाती हैं। चाहे सावन-भादो की झड़ी हो या पूस-माघ की थरथराहट अथवा जेठ की दुपहरिया की लहकती हुई लू की लपट ही क्यों न हो- इन्हें वहीं से पानी लाना पड़ेगा। पास ही बाबू साहब या अन्य सवर्ण महोदय का कुआं मौजूद है, लेकिन उसमें एक लोटा भी पीने के लिए जल नहीं काढ़ सकतीं। रात-दिन उनके पति-पुत्र उन्हीं सवर्णों के पशुओं को उन्हीं कुओं से पानी भर कर पिलाते हैं, सो भी निकास घड़े से, लेकिन अपने पीने के लिए पानी नहीं भर सकते। आह! कैसा, अंधेरखाता है- क्या हम इसे समाज की साम्राज्यशाही नहीं कह सकते? क्या यह और साम्राज्यशाहियों से कम है?

 अछूत :

जिस प्रकार धनियों की स्वार्थपरता ने पूंजीवाद को जन्म दिया, उसी प्रकार धर्मांधों और समाज-खूंखारों ने गुलाम बनाने के लिए ‘अछूत’ (शूद्र) शब्द को पैदा किया।

एक धोबी बेचारा इसलिए अछूत कहा जाता है कि वह सबके गंदे-गंदे कपड़ों को, मरीजों और प्रसूतों के कपड़ों को, जिनको छूने के लिए माता और बहन भी तैयार नहीं, ले जाता है और साफ कर आपको दे जाता है।

एक चमार इसीलिए अछूत कहा जाता है कि आपके मरे हुए ढोरों को- जब तक कि द्वार पर से न उठाये जाएं, आप पानी तक न पी सकें- उठा ले जाता है और आपके काम योग्य चमड़ा तैयार कर आपके कहे अनुसार सामानों को बना कर दे जाता है, जिसे पहन कर आप बड़े गर्व के साथ चिल्लाते हैं। तो वह चमार हुआ अछूत और आप हुए पवित्र!

आप घर में पखाना कर करके बाल्टी-के-बाल्टी भर देते हैं, जिसे उठा कर मेहतर बेचारा फेंक आता है। तो वह साफ करने वाला मेहतर हुआ अछूत और आप गंदा करने वाले हुए पवित्र!

त्रिवेणी संघ ऐसे अन्यायों को मिटा देना चाहता है और इस अछूत शब्द को तो दुनिया से विदा कर देना चाहता है। ये सब हमारे भाई हैं, जो गाढ़े दिनों में काम आते हैं।

तो त्रिवेणी संघ ऐसे साम्राज्यवाद का अंत सदा के लिए कर देना चाहता है; क्योंकि इसी से समाज की द्वेषाग्नि भभकती है, जो हमें एक सूत्र में नहीं बंधने देती है। इसलिए त्रिवेणी संघ दुनिया को बतलाता है कि जन्म से न कोई बड़ा है और न कोई छोटा। सभी एक ही पिता के पुत्र हैं। अतः आपस में प्रेम करो।

राजनीतिक साम्राज्यवाद :

त्रिवेणी संघ किसी भी सरकार को, जो बुरी हो दूर करना चाहता है, बल्कि वह भीतरी सरकार की जड़ को भी उखाड़ देना चाहता है। यही भीतरी सरकार जमींदार, पूंजीपति और अपने को ऊंचा तथा दूसरों को छोटा समझने वाले अभिमानियों से बनी हुई है, जो गरीबों और अनुन्नत (Back ward) समाज के लिए विदेशी सरकार से भी अधिक खतरनाक है। जिसे हम कहते हैं राजनीतिक साम्राज्यवाद, जो पब्लिक वर्क्स से लेकर सरकारी महकमों तक या हेठ से ऊपर तक (up to head) अपना आतंक फैलाए हुए है। गरीबों की वहां दाल नहीं गलती। यदि कोई भी अनुन्नत (Back ward) समाज का आदमी वहां पहुंच जाता है तो उन्हें छींक आने लगती है और कानाफूसी हो जाती है कि यह छोटी कौम का है- आने न पावे, ठहरने न पावे आदि-आदि।

ये बातें न केवल सरकारी नौकरियों तक ही रह गयी है, बल्कि कांग्रेस जैसी देशभक्त कहाने वाली संस्था में भी आ गयी है जैसा कि विगत चुनावों (Elections) में देखा गया है।

पहले ऐलान किया गया कि योग्य व्यक्तियों को लिया जायेगा। जब इन बेचारों ने योग्य व्यक्तियों को ढूंढ़ना आरंभ किया तो कहा गया कि खद्दरधारी होना चाहिए। जब खद्दधारी सामने लाये गये तो कहा कि जो जेल-यात्रा कर चुका हो। जब ऐसे भी आने लगे तो किसी को झिड़क दिया जाता है कि क्या वहां साग-भंटा बोना है? तो किसी को कहा जाता है कि वहां भैंस दुहना है? तो किसी पर व्यंग्य मारा जाता है कि क्या वहां भेड़ चरानी है? तो किसी को फटकार दिया जाता है कि क्या तेल-नमक तौलना है?

ये बातें कोई कपोल-कल्पित नहीं हैं। जो महाशय राजनैतिक क्षेत्रों से कुछ भी छुआछूत रखते होंगे, उन्हें अवश्य इन बातों का अनुभव होता होगा, बशर्ते अपने सच्चे दिल से पूछें।

मैंने, अपनी आंखों देखा कि जो लोग अमन सभा के सर्वेसर्वा होते थे, सत्याग्रहियों के जत्थे-के-जत्थे जेलों में ठूँसवाते थे। वे भी, जब एसेंबली और बोर्डों का चुनाव आता है तो खद्दर का पैजामा पहन कांग्रेस के नाम पर वोट लेते-देते तथा दिलवाते हैं।

इसका क्या माने कि उनके नस-नस में देशभक्ति व्यापी हुई है? नहीं-नहीं उन्हें तो भीतरी सरकार को मजबूत करना है; क्योंकि भीतरी सरकार का मेंबर कांग्रेस के नाम पर उम्मीदवार खड़ा है। इन भीतरी सरकार वालों को, कांग्रेस का जामा पहन झूठ बोलने तथा आपस में एक-दूसरे को लड़ा देने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं होती, जैसा कि संप्रति देखा जाता है और जो भारत को गारत में मिलाने का मसाला हो रहा है। अस्तु, त्रिवेणी संघ इस भीतरी सरकार और ऐसी राजनीतिक साम्राज्यवादिता की जड़ को खोद कर फेंक देना चाहता है।

इस देश की ९० प्रतिशत जनता अनुन्नत अवस्था में है। जिसे हम बैकवर्ड (Back ward) कह सकते हैं। जो इस देश के लिए बड़े ही दुर्भाग्य की बात है। इसीलिए त्रिवेणी संघ इस अनुन्नत समाज के लिए पब्लिक या सरकारी सभी जगहों में खास रियायत चाहता है, जिससे पिछड़ी हुई जनता आगे बढ़ सके।

हां, कुछ लोग एतराज करेंगे कि ऐसी खास रियायत इन्हीं लोगों के साथ क्यों होनी चाहिए? मैं कहता हूं कि होनी चाहिए। यदि आप चाहते हैं कि भारत में प्रेम और एकता फैले- भारत में सुख और शान्ति का सुराज हो। क्योंकि जब तक इन्हें खास रियायत न दी जायेगी, ये आगे नहीं बढ़ सकते; और जब तक ये फारवर्ड[3] नहीं होते, तब तक भारत की स्वतंत्रता में कंधे-से-कंधे लगाकर भरपूर जोर लगाने में सर्वथा असमर्थ रहेंगे।

न्याय की दृष्टि से मैं पूछता हूं कि यदि एक पिता के चार पुत्र हों और चारों एक साथ बीमार हो जायें। एक के सिर में दर्द तो दूसरे के पेट में, तीसरे के पैर में और चौथे को सन्निपात ज्वर हो जाये तो उस पिता को किस पुत्र का सर्वप्रथम इलाज कराने की आप सलाह देंगे? चौथे याने सन्निपात वाले का, क्योंकि उसकी बीमारी तीनों से अधिक खतरनाक है। तो फिर क्यों पिछड़े हुए को खास रियायत का नाम लेने पर आपके लाद में सियार कूद रहा है? वे सबसे पीछे पड़े हैं, इसीलिए उन्हें साथ लेना जरूरी है और यदि आप ऐसा नहीं होने देते तो इसका मतलब है कि आप सबकी आंख में धूल झोंक अपना राज्य कायम करना चाहते हैं।

 चुनाव :

असेम्बली (Assembly), काउंसिल (Council), डिस्ट्रिक्ट बोर्ड (District Board), म्युनिसिपल बोर्ड (Municipal Board), यूनियन बोर्ड (Union Board), ज्युडिशियल बोर्ड (Judicial Board), एडवाइजरी कमिटी (Advisory Committe) आदि में बहुधा उसी समुदाय के लोग चुने व नौमिनेट (Nominate) किये जाते हैं, जो आगे बढ़े हुए हैं और जिनका बोलबाला अधिक है। कारण कि धन उन्हीं के पास है, बल उन्हीं के पास और कूटनीति तथा सिफारिश भी उन्हीं की है। ये बेचारे अनुन्नत (Back ward) समुदाय के लोग ज्यों का त्यों कोरे बच जाते हैं। इनको बढ़ने के लिए न तो मौका ही दिया जाता है और न साधन ही। त्रिवेणी संघ ऐसा नहीं चाहता। वह चाहता है कि पिछड़े हुए समाज को मौका और साधन दिया जाये; उन्हें चुनावों में इलेक्ट और नौमिनेट किया जाये, जिससे ये आगे बढ़ जावें और भारत में कहने के लिए अनुन्नत समाज ही न रह जाय।

कुछ लोग टीका-टिप्पणी करते हैं कि त्रिवेणी सामुदायिक विभाजन कर रहा है। लेकिन मैं उनसे कहता हूं कि वे अपने छाती पर हाथ रखकर कहें कि वह विभाजन त्रिवेणी संघ करता है या उन्हीं का बहुत कालों से किया हुआ है? वे एकता और संगठन के नाम पर मीठी-मीठी बातें कर सबका हक हड़प जाते हैं, तो वे हैं बड़े भारी देशभक्त और त्रिवेणी संघ गरीबों के हक-हकूकों के लिए आवाज उठाता है तो वह है देशद्रोही! वाह रे स्वार्थपरता!

मैं पूछता हूं कि किसी गांव का संगठन करना है और उस गांव में बीस पारिवारिक घर हैं, तो उन बीसों को साथ लेकर काम करने से संगठन होगा या दो-चार चलते पुरजे घरों को ही लेकर? यदि दो ही चार को लेकर मनमाना काम करते हैं और बाकी की परवाह नहीं करते हैं, तो यह भी एक प्रकार का साम्राज्यवाद है।

यदि किसी अध्यापक के क्लास में दस लड़के हों और वह उन्हीं दो-चार लड़कों को, जो तेज हैं, मन से पढ़ाता हो- उन्हीं पर खयाल रखता हो- और जो कमजोर हैं, उन्हें छोड़ देता हो- तो क्या वह न्याय कर रहा है? उसे तो चाहिए कि कमजोर लड़कों पर और भी अधिक खयाल रखे, जिससे वे आगे निकल जायें। पिछड़े हुए समाज पर विशेष खयाल करना अत्यन्त आवश्यक एवं अनिवार्य है।

 आर्थिक साम्राज्यवाद :

इसका बहुत कुछ संबंध राजनैतिक साम्राज्यवाद से है। इसलिए मैं इसे राजनैतिक साम्राज्यवाद के अंदर ही गिनता हूं। इसके स्रष्टा हैं जमींदार, पूंजीपति तथा सरकार, चाहे वह देशी सरकार हो या विदेशी।

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आजकल जमींदार क्या करता है? वह बैठा-बैठा मुफ्त में किसानों की गाढ़ी कमाई में हिस्सा लेता है। सो भी बेरहमी के साथ, जायज और नाजायज दोनों तरीके से। वह खुली लगान तो लेता ही है, छिपा लगान भी हर वक्त लेता है- हारी, बेगारी, नजराना साथ लेता है। यह सब खुली लूट नहीं तो और क्या है? त्रिवेणी संघ इन जुल्मों को तोड़ किसानों के साथ न्याय चाहता है।

बेचारे मजदूर एड़ी-चोटी का पसीना एक कर पूंजीपतियों का खजाना भर देते हैं, जिससे वे आठ महले पर बैठे हवा खाते हैं और ये बेचारे मील की सड़कों की धूल फांकते हैं। उनके रहने के लिए बेकाम जमीनों में झोपड़ियां बना दी जाती हैं। जो सूखे दिनों में धूलों से सींची जाती है और बरसात में पंक और हीलों से सुरक्षित की जाती हैं।

इतना ही नहीं, मजदूर यदि बीमार हुआ, बूढ़ा हुआ तो निकाल दिया गया। चाहे मुनाफा कितना भी हो, लेकिन मजदूरी वही रहती है। त्रिवेणी संघ ऐसा नहीं चाहता। वह चाहता है कि मुनाफे के अनुसार उसकी मजदूरी रखी जाये। मजदूरों के सर्विस का खयाल किया जाये तथा प्रोविडेंड फंड (Providend fund) या पेंशन की व्यवस्था की जाये, जो उनकी बीमारी या बुढ़ापे में काम आवे।

नौकरी विभाग में भी ऐसे ही अन्याय हो रहे हैं। एक ही आफिस के अंदर किसी को 1000 रुपया मासिक मिलता है तो किसी को दस रुपया।

बेचारे प्राइमरी स्कूल के शिक्षक, जो रात-दिन छोटे-छोटे बच्चों को लेकर रटाते रहते हैं और उन्हें पढ़ने योग्य बनाते हैं। लेकिन उन्हें केवल दस रुपया मासिक मिलते हैं। कितने गुरुओं को मैंने तीन-तीन रुपए में जिंदगी खत्म करते देखा है। वहीं कालेज के प्रोफेसर एक घंटे लेक्चर देकर चले आते हैं, सो भी प्रतिदिन नहीं और हजारों रुपये मासिक पाते हैं। बेचारे उन गुरुओं और किसानों की एक ही हालत है। ये दोनों राष्ट्र के निर्माता ठहरे, पर इनकी तरफ ध्यान नहीं दिया जाता। फिर क्यों नहीं देश रसातल को जाय?

प्रोफेसर साहब को एक ही पत्नी है और गुरुजी को भी एक ही, बल्कि बच्चे गुरुजी को अधिक होंगे। लेकिन समझ में नहीं आता कि गुरुजी के साथ ऐसी बेरहमी क्यों की जाती है, जो शिक्षा की जड़ हैं और जिन पर राष्ट्र की उन्नति बहुत कुछ निर्भर करती है। क्या अच्छा नहीं होता कि प्रोफेसर साहेब को हजार से सौ ही कर दिया जाता और ९०० रुपयों से गुरुजी लोगों का समुचित वेतन कर निःशुल्क शिक्षा करा दिया जाता। इस तरह तीन-तीन काम हो जाते। प्रोफेसर साहेब का भी जीवन-निर्वाह मजे में हो जाता, गुरुजी लोग भी आनंदित हो जाते तथा भारत की निरक्षरता भी दूर हो जाती।

इसी तरह आफिसों में ऐसे बहुतेरे लोग पड़े हैं, जो एक-एक आदमी कई आदमियों का वेतन हड़प रहे हैं और बेचारे नवयुवक पढ़-लिखकर बेकार बन गलियों की धूल फांकते चलते हैं। जहां जाते हैं, उत्तर आता है- नो वेकेन्सी (No vacancy)। यदि इन सौ-सौ के मुशहरा हड़पने वालों का मुशहरा कम कर बंचित रुपए से कोई काम बढ़ा दिया जाता, तो क्यों नहीं एक आदमी में निन्यानबे आदमी घुस जाते और बेकारी की समस्या हल हो जाती। त्रिवेणी संघ इन अन्यायों को दूर करना चाहता है।

 आर्थिक साम्राज्यवाद समाज में :

समाज में आर्थिक साम्राज्यवादियों ने और भी उग्र रूप धारण कर लिया है। अपने को बड़ा समझने वाले पिछड़े हुए लोगों (Back Wards) को धनी होने देना कभी भी मंजूर नहीं करते। यदि पिछड़े हुए समाज के किसी व्यक्ति की अवस्था कुछ अच्छी होने लगती है तो उनके लाद में सियार कूदने लगता है और बेचारे पर उनकी आंखें गड़ जाती हैं।

उस बेचारे को बिगाड़ने के लिए, उसे गरीब बनाने के लिए, उसके धन को हड़पने के लिए नाना प्रकार के जाल फेंके जाते हैं और अनेक प्रकार के मुकदमे, चोरी, डकैती, आदि नीच कर्म कराकर उसका सत्यानाश इसलिए करा दिया जाता है कि वह तरक्की न करने पाये। ब्राह्मणों ने तो यहां तक लिख डाला है कि- शक्तेनापि शूद्रेण कार्यों धनसंचयः।

यदि शूद्र धन संचय करने की भी शक्ति रखता हो तो भी वह धन संचय न करे। ठीक है, बाबाजी महाराज! यदि शूद्र धनी हो जायेगा तो आपकी गुलामी कौन करेगा? और आपका हल कौन चलावेगा? धन्य हैं महाराज! आपने यहीं तक नहीं, यह भी लिखा डाला है कि-

विस्त्रब्धं ब्राह्मणः शूद्रात् द्रव्यापादनमाचरेत्।

नहि तस्यास्त्रि  किचितस्वं भर्तृहार्य धनोहिसः।।

यानी शूद्र के पास धन हो तो ब्राह्मण उसे मालिक (राजा-जमींदार) से छिनवा कर ले ले।

अब ऐसा न होगा महाराज! त्रिवेणी संघ ऐसे अन्यायों, अत्याचारों और अंधेरखातों को जड़ से साफ कर देना चाहता है और आर्थिक क्षेत्र में (धन पैदा करने में) सबको समान अधिकार दिलाना चाहता है।

त्रिवेणी संघ- जो आदमी, एक अदना-सा चपरासी, एक चार पैसे वाले महाजन, एक छोटे से जमींदार के सामने ‘हुजूर अन्नदाता’, ‘मालिक’ कह कर नाक रगड़ता है, उसे आदमी बनाना चाहता है और सभी के हृदय में स्वतंत्रता का बिगुल फूंक देना चाहता है, ताकि भारत को स्वतंत्रता शीघ्र प्राप्त हो जाय।

अपने हक-हकूकों के लिए मर मिटो

 तृतीय अध्याय                         

गरीब का साथ दो

त्रिवेणी संघ क्या कहता है?

सत्य मार्ग पर अटल रहो

 प्रेम से लोथ-पोथ हो;  क्योंकि प्रेम ही जीवन का प्राण है। जिसमें प्रेम नहीं, वह केवल मांस से घिरी हुई हड्डियों को ढेर है। ईश्वर में प्रेम और विश्वास रखो। उसकी शक्ति सदा तुम्हारे साथ है।

यदि तुम आगे बढ़े हुए हो तो पिछड़े हुए लोगों को भी साथ ले लो और यदि पिछड़े हुए हो तो जोर लगाकर साथ हो लो। यही मानव समाज का धर्म है।

अत्याचार और अन्याय जगत् के दुश्मन हैं। अतः इनका नाश करना तुम्हारा परम कर्तव्य है। अन्याय और अत्याचार की जड़ काटने का सबसे बड़ा भारी अस्त्र सत्याग्रह है। लेकिन सत्याग्रही को  आत्मबल का खजाना होना चाहिए।

उसी का जन्म सार्थक है, जिसका प्राण अत्याचार और अन्याय को जलाने में लकड़ियों का काम करता है।

देखो! हलवाहा किसान इस भूतल पर मनुष्य रूप में देवता हैं, क्योंकि सारी दुनिया को खिलानेवाले ये ही हैं। यदि इनके कष्टों का निवारण नहीं हुआ तो समझ लो कि सिर पर अकाल सवार है।

वही नेक सहधर्मिणी है, जिसके सुपत्नीत्व में सभी गुण वर्तमान हों और जो अपने पति के सामर्थ्य से अधिक व्यय नहीं करती।

जब घर में मेहमान हो, तब चाहे अमृत ही क्यों न हो, अकेले नहीं पीना चाहिए।

देखो! जो मनुष्य सदा ऐसी वाणी बोलता है, जो सबके हृदयों को आह्लादित कर दे, उसके पास दुःखों की अभिवृद्धि करने वाली दरिद्रता कभी न आयेगी।

महात्माओं की मित्रता की अवहेलना मत करो और उन लोगों का त्याग मत करो, जिन्होंने मुसीबत के वक्त तुम्हारी सहायता की है।

और कुछ नहीं, नेकी का सार इसी में है कि मनुष्य निष्पक्ष होकर ईमानदारी के साथ दूसरे का हक अदा कर दे, चाहे वह दोस्त हो या दुश्मन।

अपने आचरण की खूब देख-रेख रखो, क्योंकि तुम जहां चाहो खोजो, सदाचार से बढ़कर पक्का दोस्त कहीं नहीं पा सकते। मनुष्य कितना ही बड़ा क्यों न हो, मगर उसका बड़प्पन किस काम का, जबकि वह व्यभिचार से पैदा हुई लज्जा का जरा भी खयाल न करके पर-स्त्री गमन करता है?

यदि तुम सदा ही गौरवमय बनना चाहते हो तो सबके प्रति क्षमा-व्यवहार करो। सबसे बड़ा वही है जिसका हृदय जबरदस्तों को देखकर न तो दहल जाता है और न कमजोरों को देखकर उबल पड़ता है।

खयाल रखो! यदि बड़ा बनना चाहते हो तो अपने से छोटा किसी को न समझो। यदि तुम दूसरे को छोटा समझोगे तो तुमको भी छोटा समझने वाला तैयार है।

पीठ पीछे किसी की निंदा न करो, चाहे उसने तुम्हारे मुंह पर ही तुम्हें गाली दी हो।

गरीबों को देना ही दान है, और सब तरह का देना उधार है।

वही मनुष्य सबके दिलों पर हुकूमत कर सकता है, जिसका हृदय सच्चा है।

त्याग से अनेक प्रकार के सुख उत्पन्न होते हैं। इसलिए अगर तुम उन्हें अधिक समय तक भोगना चाहते हो तो शीघ्र उनका त्याग करो।

लोगों को रुलाकर जो संपत्ति इकट्ठी की जाती है वह क्रंदन ध्वनि के साथ विदा हो जाती है।

धन इकट्ठा करो, क्योंकि शत्रु का गर्व चूर करने के लिए उससे बढ़कर दूसरा हथियार नहीं है। जिसमें शत्रुओं को मित्र बना लेने की कुशलता है, उसकी शक्ति सदा स्थिर रहेगी।

जो लोग अपनी स्त्रियों की श्रीचरणों की अर्चना में लगे रहते हैं, वे कभी महत्व प्राप्त नहीं कर सकते हैं और जो महान् कार्य करने की उच्चाशा रखते हैं वे ऐसे वाहियात प्रेम के फंदे में नहीं फंसते।

वही कुलीन है जो करोड़ों रुपए मिलने पर भी अपने नाम को कलंकित नहीं होने देता।

खुले दिल से सबके साथ मिलो। दुनिया को वश में करने के लिए इससे बढ़कर मंत्र नहीं है।

कार्य कितना ही कठिन क्यों न हो, जब सच्चे दिल से करना शुरू कर दोगे तो अवश्य ही पूरा हो जायेगा, बशर्ते बाधाओं से न घबड़ाओ।

धार्मिक क्षेत्र में

जो उचित है, उसे करना ही धर्म है और न करना ही अधर्म। धर्म ही एक ऐसी वस्तु है जिसकी ईंटों पर दुनिया की दीवार खड़ी है। अपना मन पवित्र रखो। धर्म का समस्त सार बस एक इसी उपदेश में भरा हुआ है।

यद्यपि सभी विद्वानों ने एक मत से कहा ‘‘अहिंसा परमो धर्मः’’। लेकिन आपत्ति काल में, दीन-अनाथों के बचाव में, देश धर्म की रक्षा में तथा बहुसंख्यक के बचाव में कदाचित् हिंसा भी करनी पड़े तो वह धर्म कार्य ही है।

यदि कोई किसी हिंसक पर धावा बोलता हो तो उसकी हिंसा में अधर्म नहीं है। जैसे कोई शेर प्राणियों को मारते हुए चला आ रहा है तो हमारा धर्म है कि उस शेर का अंत करें। यदि ऐसा न करेंगे तो न जाने एक प्राणी कितने ही प्राणियों का संहार कर बैठेगा!

यदि कोई शक्तिशाली निर्बल और असहायों को सता रहा है तो उसका प्रतिकार करना परम धर्म है। यदि उसमें कदाचित् हिंसा भी हो जाये तो वह हिंसा धर्मयुक्त है।

यदि अल्पसंख्यक की क्षति से बहुसंख्यक का बचाव तथा उस बचाव से अल्पसंख्यक की अपेक्षा अधिक उपकार हो तो अल्पसंख्यक की हिंसा भी धर्मयुक्त है; क्योंकि यह बात इतिहास प्रसिद्ध है कि यवनों ने अपनी लड़ाई में गायों को सामने कर दिया, जिससे हिंदुओं ने हथियार रोक लिये। उसका फल जो हुआ, उसे भारत आज तक भोग रहा है। जहां हमारे हिन्दुओं ने थोड़ी सी गायों का खून बहाना नामंजूर किया और उनकी रक्षा की, वहां आज अपने सामने ही गायों के खूनों की नदी बहते हुए देखते हैं और 70 हजार गायें प्रतिदिन भारत में काटी जाती हैं। यही हुआ अल्पसंख्यक के बचाव से बहुसंख्यक का संहार। अस्तु, ऐसी परिस्थिति में हिंसा भी धर्म है।

‘‘सत्यं ब्रूयात’’ इसे भी प्रायः सभी लोगों ने धर्म का मूल माना है। लेकिन कहीं-कहीं असत्य से भी धर्म का कार्य हो जाता है, जबकि उस असत्य भाषण से किसी को नुकसान नहीं पहुंचता हो अथवा जिससे लोकोपकार होने वाला हो। जैसे महर्षि तिरुववल्लुवर ने भी कहा, ‘‘उस झूठ में भी सच्चाई की खासियत है, जिसमें सरासर नेकी ही होती है।’’

आज हमारा धार्मिक क्षेत्र इतना संकुचित हो गया है कि वह किसी खास समुदाय की पैतृक संपत्ति-सा हो गया है। जिससे दूसरे लोगों को उससे वंचित हो जाना पड़ता है। इसलिए इस क्षेत्र में सुधार करना तथा सबको अधिकार दिलाना हमारा परम कर्तव्य होना चाहिए।

धर्माचार्यों से

यदि आप लोगों को धर्म का ठेकेदार कहा जाये तो कोई अत्युक्ति नहीं; क्योंकि आपने धर्म का बनाने-बिगाड़ने, रखने व न रखने का टीका अपने सिर लगाया है। यदि ऐसा न होता तो आप क्यों जान देने लगते हैं, जब दूसरे लोग विवाह-शादी तथा श्राद्धादि कार्यों का संपादन करने लगते हैं?

महाराज! आपने धर्म को इतना संकुचित बना दिया है कि आदमी की कौन कहे, पवन महाराज के भी छक्के छूट जाते हैं। कोमल इतना बना दिये हैं कि बकरी भी मुंह चला देती है और निष्ठुर भी इतना बना दिया है कितनों के जिंदगी भर आंसू भी नहीं सूखते।

महाराज! जब कभी धार्मिक सुधार की बातें चलने लगती हैं तो आपके लाद में सियार कूदने लगते हैं और धर्म-अधर्म की दुहाई देकर चिल्लाने लगते हैं। शूद्र को कौन कहे- क्षत्रिय, वैश्य तक का संस्कृत और वेद पढ़ना आप पसंद नहीं करते। यहां तक कहते हैं, यदि शूद्र वेद को पढ़े तो उसकी जीभ काट लो और सुने तो उसके कानों में शीशा गलाकर डाल दो। आप अपनी छाती पर हाथ रखकर कहें कि यह न्याय है या अन्याय? यदि कोई जनेऊ पहनने लगता है तो आपकी त्योरी चढ़ जाती है। यदि कोई अछूत भाई ठाकुरबाड़ी में चला जावे  तो डंडों से उसकी पूजा करने लगते हैं। क्या वह ठाकुरजी का नहीं है और ठाकुरजी उसके नहीं हैं?

यदि कोई दूसरा आदमी वेद-शास्त्र का रीति से धार्मिक कार्य कराने लगता है तो आप अधर्म के नारे लगाने लगते हैं और आपका आदमी जो रात-दिन गांजा-भांग छाना करता है, बाजारों में सैर-सपाटा किया करता है- लिख-लोढ़ा पढ़ पत्थर है। लेकिन वह पाक-साफ ही है। मैं पूछता हूं कि खेती आप ही करें, पुलिस विभाग में आप ही रहें, वाणिज्य-व्यापार भी आप ही करें, पानी-पांडे का काम आप ही करें, रसोइयादार आप ही होवें, पुरोहिताई भी आप ही करें, घर-घर में कान आप ही फूंका करें, जर-जमींदारों पर आप ही दखल जमायें तो और लोग कहां जायें? कदाचित् कोई आप ही काम कर लेता है तो वह कौन-सी पाप की गठरी बटोर लेता है? करता तो है धार्मिक ही कार्य न!

बाबा! आपने तो वर्ण-व्यवस्था को बिगाड़ दिया और सभी का काम आप करने लगे। यदि दूसरा आपका काम शुरू करता है तो अधर्म के नारे लगाने लगते हैं। यह कहां का न्याय है? आप अपने हृदय से पूछें कि आप सुराज्य और शांति के लिए कितने घातक हो रहे हैं। अब वह समय न रहा। सबको आंखें हो चली हैं। अस्तु-

  • धर्म को संकुचित न बनावें। धार्मिक कार्यों में सबको अधिकार देवें, क्योंकि उसे संकुचित करना अपनी जड़ को नष्ट करना है।
  • उस समय तो आपकी खुशी की सीमा न रहनी चाहिए, जब अछूत (शूद्र) भाई वेद-शास्त्र के श्लोकों के गीत गाने लगें और मंदिरों में घंटी-घंटे बजाने लगें; क्योंकि तलवे से ही मनुष्य की स्थिति का पता चल जाता है।
  • आपके धर्म की समता आकाश भी नहीं कर सकता, जब आप सभी के गले में गला मिलाने लगेंगे।
  • धर्म ऐसी वस्तु नहीं है जो खान-पान, आदान-प्रदान तथा स्पर्श मात्र से चला जावे, फिर उसे क्यों चुराये चलते हैं?
  • धर्म तो ऐसा पारस-पत्थर है जिसके स्पर्श मात्र से अशुद्धता और अस्पृश्यता लाखों कोस दूर भागती है।
  • संसार में सुख और शांति फैलाने से बढ़कर धर्म दूसरा नहीं है। अतः अपने हृदय के किवाड़ को खोल डालें।
  • क्या यह कानून बनाते समय आपको शर्म नहीं आयी कि औरतों की गलती पर तो उन्हें कत्ल कर दिया जाये, पर पुरुषों की पीठ ठोंकी जाय?
  • क्या आपने विधवाओं की लाल-लाल आंखों को देखा है? रोते-रोते फूल गयी हैं? समझ रखें- वे आपके लिए काल हो रही हैं, जो आपको नष्ट किये बिना न छोड़ेंगी। अस्तु, विधवा विवाह जारी करो।
  • क्या लिख-लोढ़ा पढ़-पत्थर, रात-दिन गांजा-भांग छानने वाले, शराब-ताड़ी पीने वाले, बाजारों में सैर-सपाटा करने वाले, स्वांग बना-बना मजलिसों में नाचने वाले, रात-दिन झूठ बोलने वाले, घर-घर झगड़ा लगाने वाले, मुकदमों की ठेकेदारी देते रहे। इन्हें क्यों नहीं शूद्र कहते?

यथाः-

क्रियाहीनश्च मूर्खश्च सर्व धर्मविवर्जितः।

निर्दय; सर्वभूतेषु विप्रः चांडाल उच्यते।                                       (पद्म पु.)

यानी संध्यावंदन आदि क्रिया कर्म से हीन, मूर्ख, निरक्षर भट्टाचार्य, सब प्राणियों पर निर्दयता करने वाला, धर्महीन ब्राह्मण चांडाल कहा जाता है।

पुनश्च-

गारेक्षकान् वाणिजकान् तथा कारु कुशीलवान

प्रेप्यान् वाधुर्षिकान् चैव विमान् शूद्रवदाचरेत।।59।।

अर्थात् जो विप्र गोपाल हो, जो बनिया हो, कारीगरी करता हो या नाच-तमाशा करता हो, जो पठवनियां काम करता हो, जो सूद लेता हो, उसके साथ शूद्र के समान व्यवहार करना चाहिए।

१०-       इससे बढ़कर कोई अधर्म नहीं, जो उचित को अनुचित और अनुचित को उचित कहा जाये।

११-       यदि आप अपने पैर को स्थिर करना चाहते हैं तो रात-दिन परमात्मा से प्रार्थना करें कि-

ओम् सहनाववतु। सहनौभुनक्तु सहवीर्यंकरवाहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु। माविद्विषावहै। ओम् शांतिः।

हे प्रभो! हमारा जीवन एक साथ व्यतीत हो। हम साथ मिलकर भोजन करें, हमारे बल-वीर्य की वृद्धि साथ हो, हमारा पढ़ना-लिखना तेजस्वी हो- अर्थात् सफल हो और हे परमात्मा, हम परस्पर कभी द्वेष न करें।

वर्ण व्यवस्था और धर्म

वर्ण-व्यवस्था और धर्म का गहरा संबंध है। पर इस समय तो कहीं वर्ण व्यवस्था की टांग में धर्म बांधकर घसीटा जाता है, तो कहीं धर्म की टांग में वर्ण व्यवस्था ही। नहीं तो लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर, करिया अक्षर भैंस बराबर, गांजा-भांग छानने वाला, शराब-ताड़ी पीने वाला, दिन-रात झूठ बोलने वाला, मुकदमा लड़ाने वाला, घर-घर फूट फैलाने वाला भी ब्राह्मण कहा जाता? और एक दूसरा जो वेद-शास्त्रों को जानने वाला, सन्ध्या-गायित्री करने वाला, सत्यनिष्ठ कर्मों को करने वाला, सदाचार से जिंदगी बिताने वाला हेय दृष्टि से देखा जाता और उसे धार्मिक कार्य करने का अधिकार नहीं मिलता? वर्ण-व्यवस्था तो कहती है कि जो जिस काम को कर सके, उसको  वही व्यवस्था दी जाये। यथा-

अध्यायनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।।

वेद पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, कराना, दान लेना तथा देना- ये छह कर्म ब्राह्मणों के रचे हैं। यानी इन छह कर्मों को करनेवाला ब्राह्मण है।

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्यायनमेव च।

विषयेष्व प्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः।।

अर्थात् प्रजाओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना और संसार के विषयों में आसक्ति न रखना, ये कर्म क्षत्रियों के रचे हैं। यानी इन्हीं कर्मों को करनेवाला क्षत्रिय है।

पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्यायनमेव च।

वणिक्पथं कुसीदंच वैश्यस्य कृषि मेव च।।

अर्थात् पशुओं का पालन करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज लेना तथा खेती करना ये कर्म वैश्य के हैं। यानी इन कर्मों को करने वाला वैश्य है।

इसी तरह शूद्रों के लिए ‘‘सुश्रूषा  मनसूयया’’ याने सबकी सेवा करने वाला शूद्र है। लोहे का काम करने वाला लोहार, तेल निकालने वाला तेली, गौ की सेवा करने वाला ग्वाला, चमड़े का काम करने वाला चर्मकार (चमार), धुलाई का काम करने वाला धोबी आदि। तो फिर, दूध बेचने वाले ब्राह्मण या क्षत्रिय को हम ग्वाला क्यों न कहें? तेल-नून बेचने वाले को ब्राह्मण व क्षत्रिय क्यों न कहा जाय? और बनिया क्यों न कहें? पानी-पांड़े  के काम करने वाले, घर-घर रोटी दाल बनाने वाले, अपने को ब्राह्मण क्यों कहें? उन्हें शूद्र क्यों न कहा जाय? यथा-

कृषिकर्मरतोयच गवांच प्रतिपालकः।

वाणिज्य व्यवसायश्य सविप्रो वैश्य उच्यते।।

अर्थात् जो खेती के काम में लगा हो, गायों का पालन करता हो- यानी उसी से जीविका करता हो, व्यापारादि हो, वह ब्राह्मण वैश्य कहलाता है।

लाक्षा लवणसंमिश्रं कुसुम्भं क्षीर सर्पिषः।

विक्रेता मधु मांसनांसविप्रो शूद्र उच्यते।।

अर्थात् जो लाख, नमक, केशर, दूध, घी, मधु, मांस को बेचते हैं, वे ब्राह्मण शूद्र कहे जाते हैं।

असिजीवी मसीजीवी देवलो ग्रामयाचकः।

धावकः पाश्चकश्चैव षडेते शूद्रवद् द्विजाः।।

यानी तलवार से जीविका करने वाला, लेखक, मंदिर का पुजारी, ग्राम में भिक्षा मांगने वाला, पठवनिया, रोटी पकाने वाला- वे छह द्विज शूद्र के समान हैं।

रात-दिन धर्म में रत रहने वाले, वेद शास्त्र पढ़ने वाले सर्वगुणों से युक्त शूद्र के लड़के को ब्राह्मण क्यों न कहा जाय? जबकि शास्त्रकार कहते हैं कि ज्ञान (विद्या) से युक्त शूद्र भी संस्कार से द्विज हो जाते हैं। यथा-

‘‘शूद्रोपति आगम सम्पनो द्विजोभवति संस्कृतः।।’’

कहा जाता है कि हम जन्म से ब्राह्मण या अमुक हैं; परंतु जन्मजात प्राणी तो बिना दूसरे जन्म के बदलते नहीं। फिर आप क्यों मुसलमान या ईसाई बन जाते हैं? इससे सिद्ध होता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जातियां जन्मजात नहीं बल्कि कृत्रिम हैं। याने उपाधि हैं।

कहा जाता है कि हम ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए, इसलिए सबसे बड़े और शूद्र पैर से पैदा हुआ, इसलिए वह सबसे छोटा है। हम तो इसे मानते नहीं। लेकिन थोड़े समय के लिए आप ही की बात सही। यदि आप मुख से पैदा हुए तो आपकी परंपरा होनी चाहिए कि मुख से ही पैदा होवें। यदि वह परंपरा नहीं तो आप ब्राह्मण कैसे हैं?

चरण से पैदा होने के सबब आप शूद्रों को सबसे नीच मानते हैं। लेकिन मैं कहता हूं कि सबसे उच्च हैं, क्योंकि गंगाजी की उत्पत्ति भी विष्णु के उन्हीं चरणों से हुई है जिसमें स्नान कर लोग पापों से मुक्त हो जाते हैं। चरणों का ही चरणोदक होता है, जिसे लोग बड़ी भक्ति से पीते हैं। और उन्हीं चरणों पर माथा टेका जाता है, कहीं माथे पर माथा नहीं टेका जाता। यदि कोई माथे से माथा टिकाए तो कोई दूसरी ही आपत्ति चली जायेगी। तो बतलाइए- इन्हीं चरणों से पैदा हुआ शूद्र क्यों नीच कहा जाय? पैर की तरह उसकी भी पूजा क्यों न की जाय?

खुलासा- जन्म से न तो कोई ऊंच है और न नीच। लोग अपने-अपने कर्तव्य से ऊंच-नीच हुआ करते हैं। वर्ण-श्रेणी क्लास या दरजे को कहते हैं और उसकी ठीक-ठीक व्यवस्था का नाम वर्ण-व्यवस्था है। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि उसकी उपाधियां हैं। जो व्यक्ति जिस योग्य हो, उसको उसकी उपाधि देना वर्ण-व्यवस्था में धर्म है।

 खानपान और धर्म

खान-पान को जाति-पांति और धर्म से संबंध लगाकर लोगों ने भारत को और भी गारत कर दिया है। यदि एक जाति का आदमी दूसरी जाति का बनाया हुआ खा लेता है तो उसकी जाति चली जाती है और वह धर्म से च्युत कर दिया जाता है! लोगों का यह भ्रम है। ऐसी व्यवस्था एक भारत के सिवाय और कहीं नहीं पाई जाती और इसी पर हम गर्व भी करते हैं। पर यह हिन्दुस्तान की उन्नति में उतना ही बाधक है जितना भोजन के लिए गले का घाव।

आजकल प्रायः हर एक जाति में खान-पान के अलग-अलग रिवाज हैं। यदि एक जाति का आदमी दूसरी जाति के हाथ का खा लेता है तो जाति च्युत कर दिया जाता है और इसमें सनातन धर्म की दुहाई दी जाती है। खाने-पीने में ही सब धर्म समझ बैठे हैं। इसी में ऊंच-नीच का भाव विद्यमान है। परंतु यह सब सनातन धर्म के विरुद्ध है। सनातन धर्म की नींव इतनी मजबूत है कि उसका विच्छेद कालत्रय में भी नहीं हो सकता। परंतु वर्तमान सनातन धर्म में ऐसी बीमारी घुस गयी है जिसके कारण सनातन धर्म का क्रमशः मूलोच्छेद होता जा रहा है। चौरासी प्रकार के ब्राह्मण हैं। इनमें परस्पर खान-पान नहीं। भेदों को अलग छोड़िए, कान्यकुब्ज के हाथ की छुई रोटी तो अलग रही, पूड़ी तक नहीं खाते। ऐसी ही दशा क्षत्रियों, वैश्यों तथा अनेक जातियों, उपजातियों की है। जो जितना ही आडंबर करता है, वह उतना ही ऊंचा गिना जाता है। यदि कोई दूसरी जाति अपने यहां ब्राह्मणों को निमंत्रण दे और तरकारी में कहीं नमक डाल दे, बस, बिहार और यू.पी. में ब्राह्मण लोग उसे न खावेंगे। पर, वे ही बाजार में गंदे हलवाइयों के हाथ की पूड़ी, नमक डाली हुई तरकारी जूता पहने खरीद ले जाते और खाते हैं। यह आडंबर नहीं तो क्या है? ब्राह्मण लोग मछली-मांस भले ही खा लेवें परंतु पका हुआ शुद्ध अन्न खाने में पाप समझते हैं। यह पाखंड नहीं तो क्या है? सब जाति के लोग बाजार में सोडा वाटर और लेमनेड लेकर बर्फ मिलाकर पीते हैं। परंतु यदि कोई दलित साफ लोटे में पानी भरकर ला देवे तो उसके पीने में जाति चली जाती है। परंतु सोडावाटर मुसलमान के हाथ का भी पीने में जाति नहीं जाती। क्या यह पाखंड नहीं है?

जिन लोगों को गाड़ी में सफर करने का अवसर मिला होगा, वे जानते हैं कि रेलगाड़ी में कहां छुआछूत का विचार रहता है। गर्मी का दिन है। प्यास लगी हुई है। स्टेशन पर गाड़ी पहुंची और लोग लोटा, बधना लेकर नल पर टूट पड़े। वहां कोई किसी की जाति नहीं पूछता, बधने और लोटे की खूब लड़ाई होती है। रेलगाड़ी ने सीटी दी, बस ले लेकर भागे, गाड़ी में आकर पिया। बतलाओ यदि इसी छुआछूत को सनातन धर्म मानते हो तो तुम्हारा धर्म कहां रहा?

ऐसे ही दवाखानों की दवा, अतारों के यहां के अर्कों का हाल समझो। दवा देने वाले हिंदू-मुसलमान दोनों होते हैं, अर्क दोनों उतारते हैं। डाक्टर मुसलमान-हिंदू दोनों होते हैं। अपने हाथ से पानी मिलाकर दवा मिलाते हैं। बतलाओ- जाति रही? छुआछूत कहां भाग गयी?

गुलाब जल का भी यही हाल है। इसे भी हिंदू-मुसलमान दोनों बनाते हैं और लोक शौक से व्यवहार में लाते हैं। यहां तक कि ठाकुरजी पर भी छिड़का जाता है।

जब गुलाब जल तथा अतारों और डाक्टरों के हाथ की दवा खाने-पीने, जगन्नाथजी में सर्व जाति की जूठन खाने से जाति नहीं गयी, तो क्या किसी के हाथ का शुद्ध जल पीने तथा भात-रोटी खाने में जाति चली जायेगी? क्या यह भ्रम नहीं है? देखिये खान-पान में वेद की क्या आज्ञा है-

समानी प्रापासहवो अन्नभागः।

समाने योकत्रे सहवो युनज्मि:।।

(अथर्ववेद ३-६-३७)

ईश्वर आज्ञा देता है तुम लोगों के पानी पीने का स्थान एक ही हो, तुम्हारा अन्नभाग अर्थात् भोजनादि का व्यवहार साथ ही हो। ऐ मनुष्यों, तुम लोगों को ससमान ही रस्सी में हम युक्त करते हैं।

फिर देखिये, सहभोज की आज्ञा कैसी स्पष्ट है-

तं सखायः पुरोरुचं यूयं वयं च सूरयः।

अश्यामः बाजगन्ध्यं सनेम वाजस्पस्त्यम्।।

ऋ. ९-९-८-१२

हे सखाओं! आप और हम ब्रह्मज्ञानी पुरुष सब कोई मिलकर साथ-साथ सामने में जो उपस्थित रुचिप्रद दाल-रोटी आदि अन्न हैं, खावें। वह अन्न कैसा है बलप्रद, पुनः बलदायक अनेक प्रकार के व्यंजनादि युक्त।

अब देखिये, पूर्वकाल में खान-पान की कैसी व्यवस्था थी? शबरी के आश्रम में श्रीरामचंद्र जाते हैं और वह पाद्य और आचमनीय आदि सब प्रकार का भोजन देती है। यथा- ‘‘पाद्यं आचमनीयं च सर्वं प्रादाद् यथा विधः।’’ और उसे वे ग्रहण करते हैं, तो क्या उनकी जाति चली गयी थी?

आजकल जहां देखें वहां भोजन बनाने का काम ब्राह्मण करते हैं। बल्कि पीर बावर्ची, भिश्ती, खर इन चारों का काम अकेले ब्राह्मण देव करते हैं, पर क्या शास्त्रों में इसका कहीं उल्लेख है? क्या भोजन बनाना ब्राह्मण का काम है? कदापि नहीं, यह तो स्त्री और शूद्रों का काम है। देखें-

आर्याः प्रयता वैश्य देवे अन्न संस्कर्तारः स्युः।

आर्याधिष्टता व शूद्राः संस्ककर्तारः स्युः।।

बड़ी सावधानी से पवित्र होकर आर्य वैश्य देव का अन्न पकावें अथवा आर्यों की देख-रेख में शूद्र अन्न पकावें। देखिये-

महाभारत के ‘विराट पर्व’ में लिखा है कि जब पांचों पांडव राजा विराट् की सभा में गये तो भीम ने राज विराट् से कहा-

नरेन्द्र शूद्रोस्मि चतुर्थवर्णभाक्गुरुपदेशात्परिचारकर्मकृत्।

जानामि सृपांश्च रसाश्च

संस्कृतान् मांसान्य पूपांश्च पचामि शोभनाम्।।

हे राजा, मैं चतुर्थ वर्ण का शूद्र हूं। गुरु के उपदेश से सेवा-कर्म अच्छी तरह जानता हूं। दाल तथा अनेक प्रकार के सुसंस्कृत रसों तथा मांस को बनाना जानता हूं।

बंधुओं! आप लोगों ने देख लिया कि खान-पान के छुआछूत का भेद कहीं नहीं है। वेद आज्ञा देता है कि एक साथ मिलकर खाओ। प्राचीन काल में भी इसका भेदभाव नहीं था। अस्तु, इन भेदभावों को छोड़ो और परस्पर एक-दूसरे के यहां खूब खुशी के साथ दाल, भात, रोटी खाओ और खिलाओ। यह नहीं कि वह पुरुषों का बनाया हुआ हो, बल्कि स्त्रियों का बनाया हुआ हो। पूआ-पूड़ी के चाल को उठा दो; क्योंकि यह धर्म की रूढ़ि हो गयी है। पूड़ी खानेवाले को भी अपने घर का बनाया हुआ दाल-भात खूब आवभगत से खिलाओ। यदि नहीं खाए तो दूर से ही सलाम करके छोड़ दो। इसका यह माने नहीं कि तुम पूआ-पूड़ी खाओ ही नहीं-बल्कि उसको न खिलाओ, जो तुम्हारा बनाया हुआ भात नहीं खाता। खूब याद रखो- यह त्रिवेणी संघ का संदेश है।

विवाहशादी और धर्म

विवाह-शादी में भी लोगों ने धर्म की टांग को अड़ा दिया है। यदि किसी जाति का पुरुष दूसरी जाति की स्त्री से शादी कर ले तो वह धर्म-भ्रष्ट समझा जाता है। यह प्रणाली भी भारत के सिवा और कहीं नहीं है। यह भी भारत को उसी तरह सता रही है जिस तरह औरतों को चुड़ैल।

कितनी ही लड़कियां इस समाज और धर्म के संताप से, अपने प्रेमी को न पाकर फांसी पर लटक गईं, गंगा में डूबकर मर गईं और कितने लड़के भी प्रेमिका को न पाकर आत्मघात कर डाले। और कितने ही लड़के-लड़कियां जिन्होंने अंतरजातीय शादी की; मारे-मारे फिरते चलते हैं। क्या यह देश और समाज के लिए अफसोसजनक नहीं है?

क्या सचमुच धर्म ने ऐसा अड़ंगा लगाया है? नहीं-नहीं। धर्म तो कहता है एक स्त्री जाति है और दूसरी पुरुष। दोनों में परस्पर पाणिग्रहण होता है। जाति और समाज का बखेड़ा तो हम लोगों ने लगाया है। प्राचीन काल में जब स्वयंवर से शादियां होती थीं, तो क्या उसमें जाति विभेद माना जाता था? उसमें तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी जाते थे। जिसको वह कन्या वर लेती थी, या जो स्वयंवर के लक्ष्य को पूरा करता था उसी के साथ उस कन्या की शादी की जाती थी। ऐसे प्रमाण पुराणों में बहुत मिलते हैं।

यदि इस तरह की (अंतरजातीय) शादियां प्रचलित हो जाती हैं तो भारत के उज्जवल दिन आते देर न लगेंगे, क्योंकि सब जाति के साथ सबका संबंध हो जायेगा और एक समाज बन जायेगा।

बिगुल की फूंक

सभी अपने धर्म के अधिष्ठाता आप होते हैं। इसीलिए आप भी अपने धर्म का अधिष्ठाता आप बनो। अब तक तुम्हारे धार्मिक कार्य किसी खास समुदाय द्वारा संपादन किये जाते थे। यही कारण है कि तुम पिछड़े हुए हो। खूब पढ़ो-पढ़ाओ, विवाह-शादी, श्राद्धादि धार्मिक कार्य करो-कराओ, दक्षिणा-दान लेवो-देवो। यही इस समय के लिए तुम्हारा धार्मिक कार्य है।

सामाजिक क्षेत्र में

समाज क्या है? जिसकी आड़ में, जिसकी छत्रछाया में रहने से सांसारिक रूपों का ताप न लग सके, हम उसे ही समाज कहते हैं।

आदर्श समाज वही कहा जाता है, जिसमें दुःखी-सुखी, अमीर-गरीब, बड़े-छोटे का पता लगाने में बड़े-बड़े तत्त्वदर्शियों के छक्के छूट जाएं। परंतु हमारे समाज का संगठन बिगड़ गया है। कोई खाने बिना मर रहा है तो कोई खाते-खाते अफर रहा है, जिसे दवाई खिला-खिला कर पचाया जाता है। कोई काम करते-करते मर रहा है, जिसकी दवाई पौष्टिक अन्न खाना और विश्राम करना है, पर उसे ये नहीं मिल सकते। तो दूसरा काम करे बिना मर रहा है। बैठे-बैठे उसका स्वास्थ्य खराब हो रहा है। पौष्टिक चीजें खाते-खाते अफरा हो रहा है, जिसकी दवा हलके अन्न खाना और खूब मेहनत करना है पर यह उससे होने को नहीं। एक को बड़े के अभिमान से ‘उल्लू-पाजी’ कहते-कहते मुंह पर पपड़ी पड़ी हुई तो दूसरे को ‘बाबू-बाबू’ कहते-कहते मुंह फट चले हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? यही है समाज की बीमारी और जब तक समाज की विषमता दूर नहीं की जाती, यह बीमारी दूर ही नहीं हो सकती। और जब तक यह बीमारी दूर नहीं होती, सुख और शांति का सुराज्य हो ही नहीं सकता।

बड़ाछोटा

बड़े और छोटे की समस्या तो भारत की उन्नति के मार्ग में पहाड़ के समान उपस्थित हो गयी है और जिसकी पहुंच सभी क्षेत्रों में हो गयी है। एक कहता है कि मैं जन्म से ही बड़ा हूं और तुम छोटे हो, इसलिए तुम पर हुकूमत करना, तुम्हें गाली देना, ताड़ना देना, तुम्हारा शोषण करना हमारा काम है और हमारी गुलामी करना तुम्हारा काम है।

क्या तुम जन्म से बड़े हो? जिस ईश्वर ने इतनी बड़ी सृष्टि की रचना की। जिसने हाथी का इतना विशाल शरीर और इतनी छोटी आंखें बनाईं तथा एक सूंड़ लटकाई और ऊंट की इतनी बड़ी गरदन बनाईं-क्यों वह आपको एक पूंछ नहीं लगा देता? जिससे आप पहचाने जाते कि आप जन्म से बड़े हैं।

भाई! अब इन जाल-फरेबों को छोड़ो। वह जमाना गया जब खलील खां फाके उड़ाते थे। ईश्वर ने किसी को बड़ा-छोटा नहीं बनाया है। उसने सबको समान बनाया है। सुनो –

  • यदि आप दूसरे को छोटा और नीची निगाह से देखते हो तो समझ लें कि आप उस दीवार की ईंट को खिसका रहे हैं जिस पर कि आप खड़े हैं।
  • यदि आप अपने को बड़ा समझते हो तो बड़ी बात है, लेकिन आप में बड़प्पन तभी आएगा जब किसी को छोटा न समझोगे।
  • यदि आप यह समझते हो कि किसी को छोटा समझने ही से, उन्हें तरह-तरह की झिड़कियां देने ही से, उनका अपमान करने ही से, उन्हें कड़ी जबान बोलने ही से- आप बड़े समझे जायेंगे, तो यह आपका भ्रम है। आप अपने को जितना ही ऊंचा समझ रहे हैं, उतने ही नीचे जा रहे हैं।
  • यदि आप एक बार फल से लदे हुए पेड़ों को गौर से देख लेंगे तो आपको मालूम हो जायेगा कि बड़प्पन कैसे निभाया जाता है!
  • महत्ता सर्वदा ही विनयशील होती है और दिखावा पसंद नहीं करती। मगर क्षुद्रता संसार में अपने गुणों का ढिंढोरा पीटती फिरती है।
  • महत्ता सर्वथा ही अपने छोटों के साथ नरमी और मेहरबानी से पेश आती है। मगर क्षुद्रता को तो घमंड की पुतली ही समझो।
  • बड़प्पन हमेशा ही दूसरों की कमजोरियों पर परदा डालना चाहता है, मगर ओछापन दूसरों से ऐबजोई के सिवा और कुछ नहीं करना जानता।
  • यदि आप चाहते हैं कि आपको दूसरे के दरवाजे पर ऊंचा आसन मिले, तो अपने दरवाजे पर आप उसे दूर से ही लेकर ऊंचे आसन पर बैठा लीजिए।
  • यदि दूसरों को ऊंचे आसन पर बैठे देख आपकी आंखें फूटी जाती हों, तो आपको चाहिए कि उन आंखों को फोड़ ही डालें, क्योंकि ये आपकी मनुष्यता को नष्ट कर रही हैं।
  • यदि किसी ने आपको गाली के बदले गाली दी तो उस पर आग-बबूला होने की क्या आवश्यकता है? उसने तो आपकी दी हुई थाती को ही लौटाया है।

 त्रिवेणी बंधुओं से

यदि समाज में आपके बनाने से न तो कुछ बनने वाला है और बिगाड़ने से न बिगड़ने वाला ही, फिर दुनिया को आपके बनने-बिगड़ने का क्या गम! क्योंकि झुकाव और प्रेम तो बिना भय के होता नहीं।

मुरदे से भी लोगों को भय लगता है। अगर भूत बनकर नहीं तो सड़ कर ही लोगों को बेहाल कर डालता है। पर तुम्हारे इस जिंदा शरीर से क्या लाभ, जो रात-दिन लात-मुक्के और गाली-बात की वर्षा होते रहने पर भी रोएं तक नहीं हिलते?

संसार में अनेक तरह के पाप हैं। लेकिन इससे बढ़कर कोई पाप नहीं है, कि अन्याय और अत्याचार को बर्दाश्त कर लिया जाये और उसका प्रतिकार न किया जाये।

जिसने पुश्तों से तुम्हारे खून का शोषण किया है, जिससे उसका तोंद फूला हुआ है, वह भला कब तुमको बढ़ते हुए देख सकता है? वह तो यही चाहेगा कि तुम मूर्ख और अंधे बने रहो, जिससे उसका तोंद फूला रहे।

सिंह की गोद से बकरी के बच्चे को निकाल लेना आसान है। लेकिन इन दो पैर के समाजखोरों से समाज को बचाना मुश्किल है; क्योंकि ये आगे-पीछे दोनों तरफ चलते हैं। इनको दुरुस्त करने के लिए समाज में जबर्दस्त संगठन की आवश्यकता है।

तुम अपनी शक्ति को ओछी न समझो। तुम्हारे अंदर अथाह शक्ति छिपी हुई है। बस, डटकर तैयार हो जावो- उन जुल्मियों के जुल्मों तथा अन्यायों को नाश करने के लिए विश्वास रखो, शक्ति तुम्हारे साथ है।

याद रखो! ‘‘संघे शक्ति कलौयुगे’’। हे बंधुओं! संघ की छत्रच्छाया में इकट्ठे होकर अपने उद्धार के लिए जबर्दस्त आवाज उठाओ। किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं, बल्कि जुल्म, अत्याचार और अन्याय की जड़ काटने के लिए। लेकिन सावधान! जरा भी इधर-उधर हुए कि दाने के समान चुग लिये जावोगे।

सभ्यता और शिष्टता तो कहती है कि अपकार के बदले उपकार करो और अपमान के बदले सम्मान करो। लेकिन समाज के इन जालिमों के लिए नहीं। इन्होंने तो सभ्यता और शिष्टता की जड़ ही काट डाली है। इन्हें इसी की बीमारी हो गयी है। जिसकी दवाई है ‘जैसे को तैसा’, भले ही यह दवाई कड़वी लगे, लेकिन लाभ की होगी।

यदि तुम्हें कोई तिरस्कार की नजरों से देखता है तो उसे क्या हक है कि वह तुमसे सम्मान पावे? जो हमेशा तुम्हारे बड़े लोगों तथा बूढ़े जनों को तुम-ताम से संबोधित करता है तो उसके बड़े तथा बूढ़े लोगों को क्या हक है कि तुम्हारे द्वारा आदरसूचक शब्दों में संबोधित किये जाएं? जो हमेशा आपका अमंगल सोचा करता है, उसको क्या हक है कि वह तुमसे सहायता मांगे? और तुम्हारा क्या हक है कि तुम उसका साथ दो, जबकि इसका फैसला तुम्हारा समाज ही करने को तैयार है?

जो अपने दरवाजे या कहीं पर तुम्हें खटिया, कुर्सी या अन्य किसी ऊंचे मान्य आसन पर बिठाने में अपनी नाक को हेठ होना समझता है, उसको क्या हक है कि वह तुम्हारे दरवाजे पर मान्य आसनों पर बैठकर अपनी नाक को ऊंची करे? उसकी नाक क्यों न काट ली जाये?

यदि तुम चाहते हो कि सामाजिक अन्यायों, अत्याचारों और जुल्मों का नाश हो तो संघ की छत्रच्छाया में आ त्रिवेणी संघ का बिगुल बजाओ।

हिंदूमुसलमान

हिंदू-मुसलमान की समस्या ने तो और भी गजब ढा दिया है। इनको अलग-अलग भूत सवार हो गये हैं। इनको समझना चाहिए कि राम-रहीम एक ही हैं। हिंदू राम-कृष्ण कहकर पूजते हैं तो मुसलमान अल्लाह और ईसाई गॉड (God) के नाम से। और कुछ नहीं।  सबके परमात्मा एक ही हैं। लेकिन भिन्न-भिन्न भाषा की वजह से भिन्न-भिन्न नाम हो गये हैं। पर नासमझी के कारण खींचातानी हो रही है और दंगे कर करके नाहक खून बहाया जाता है।

प्रायः इन दंगों को करानेवाले पंडित और मौलवी ही हुआ करते हैं, जो अपनी-अपनी जीभों की घुड़दौड़ की बाजी मारने के लिए सांप्रदायिक आग लगा देते हैं। जिससे गरीब हिंदू-मुसलमानों के खून की नदी बह चलती है तथा लाखों-करोड़ों की बरबादी हो जाती है।

इसके अलावा कुछ मनचले गुंडे भी दंगा फैला-फैलाकर लाभ उठाया करते हैं। इधर से उधर और उधर से इधर की झूठी अफवाहें उड़ाकर दंगा करा देते हैं और आप अपना काम बना लेते हैं। ये गुंडे कहीं मंदिरों में गाय का अंग फेंक देते हैं तो कहीं मस्जिदों में सूअर का कोई अंग। अस्तु।

भाई हिंदू-मुसलमान। तुम लोग सावधान हो जाओ। अक्ल से काम करो। व्यर्थ के झगड़े में न फंसो। झगड़ा लगानेवाले ताली पीट-पीटकर अपना मतलब साधते हैं, लेकिन गरदन कटती है आप गरीब भाइयों की। हिंदू अपने मंदिर में खूब घड़ी-घंटा बजावें और मुसलमान अपनी मस्जिद में अपनी नमाज पढ़ें। हिंदू के मंदिर के सामने से बाजा बजाते हुए मुसलमान अपना जुलूस ले जाएं और मस्जिदों के सामने से बाजा बजाते हुए हिंदू अपना ले जाएं। इसमें झगड़े की क्या आवश्यकता? अस्तु! समझ-बूझकर काम करो और आपस में प्रेम रखो।

 शुभ कार्यों में अछूतों का भाग

अगर हम किसी काम को छोटा समझते हैं तो उस काम को करने वाला भी छोटा समझा जाने लगेगा। और एक दिन ऐसा आएगा कि वह उस काम को छोड़ ही डालेगा; क्योंकि मनुष्य का यह स्वभाव है कि भरसक वह अपने को अपमानित नहीं होने देता।

सामाजिक क्षेत्र में हमारे पूर्वजों ने उनका, जिन्हें आज हम अछूत कहते हैं, कैसा आदर किया था, जो आज तक भी चला आता है? विवाह-शादियों में हमारे पूर्वजों ने चमारों को पहला स्थान दिया है। शुरू में ही चमार लोगों का ढोल पूजा जाता है, जिसे ‘मानर’ पूजना कहते हैं। इसके बाद ही दूसरी कार्रवाई होती है। ऐसा उन्होंने क्यों किया? इसीलिए कि चमार कहीं अछूत और नीच न समझे जा सकें! लेकिन इसके महत्व और मतलब को हम लोग नहीं समझ सके हैं। अस्तु! इन्हें अछूत कहना नादानी है।

अछूतों से

भाई! तुम्हारी दशा तो और भी दयनीय है, लेकिन हताश न हो, हिम्मत करो, ईश्वर पर विश्वास करो। उसने सारी शक्तियां तुममें भरी हैं जैसे और लोगों में- जरूरत है उन शक्तियों को विकसाने की। सर्वप्रथम तुम अपने मन को पवित्र और बड़ा बनाओ, क्योंकि इस शरीर का राजा मन ही है और उसी के अनुसार तुम्हारी शक्तियां भी होंगी। कहा भी जाता है- ‘‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’’ अस्तु, कभी भी अपने मन को छोटा और गरीब न समझो तथा कमर कसकर अपनी उन्नति के लिए तैयार हो जावो।

खयाल रखो- जब तब तुम अपने पैरों पर आप तैयार नहीं होते हो, दुनिया में तुम्हारी सहायता करनेवाला कोई नहीं, क्योकि दुनिया का स्वभाव है कि वह बिना स्वार्थ तथा भय के किसी तरह नजर भी नहीं उठाती। क्या आपने नहीं देखा, जब महात्मा गांधी ने आपके उद्धार के लिए अनशन की घोषणा की थी, उस समय क्या हो रहा था? कहीं अछूतों की सभा-कराकर बड़ी-बड़ी स्पीचें झाड़ी जाती थीं, तो कहीं सहयोग होता था, तो कहीं अछूतों को मंदिर-प्रवेश कराया जाता था, तो कहीं कुंओं पर पानी भरवाया जाता था। इस तरह भारत के कोने-कोने में महात्माजी के पास तार और चिट्ठियां पहुंचने लगी थीं कि हम लोगों ने अछूतों को अपना लिया। हम लोगों को उनसे किसी प्रकार की घृणा नहीं है। इसी तरह अछूतों की तरफ से भी पत्र पहुंचने लगे कि ‘‘हमें किसी प्रकार का कष्ट नहीं। हमारा अधिकार भी सवर्ण हिन्दुओं-सा हो गया है। आप अनशन न करें।’’ मैं उम्मीद करता हूं कि इन आशयों के पत्र महात्माजी के पास इतने पहुंचे होंगे कि वे चिट्ठियों के पोथों से घिर गये होंगे।

लेकिन क्या हुआ? आपका उद्धार हुआ? ‘‘फिर वही रंगत, वही चाल और वही खंजड़ी, वही ताल।’’ इससे अधिक कुछ नहीं दिखलाई पड़ता। हां, आपके पढ़ने-लिखने के लिए तथा आपके पढ़े-लिखे लोगों को कुछ सुविधाएं तो अवश्य हुई हैं, पर ये सुविधाएं भी सरकार की हैं। समाज तो उसी अड़ियल टट्टू-सा अड़ा ही हुआ है।

आप अपनी छाती पर हाथ रखकर कहें, क्या आपको धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में हक मिले? हां, राजनीतिक क्षेत्र में अवश्य कुछ अधिकार मिला है, लेकिन धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में तो वही पुरानी बेढंगी चाल है। जो उस समय आपके लिए बड़ी-बड़ी स्पीचें झाड़ते थे, इस समय उनके मंदिर में आप घुस सकते हैं? कुंओं पर पानी भर सकते हैं? क्या आप पर होने वाली लात-मुक्कों की वर्षा और गालियों की बौछार छूट गयी? नहीं जी, आप दूर तक दृष्टि फैलाकर देख लें।

चुनावों में आपने देखा कि बड़े-बड़े जमींदार, जिनकी नजरों के सामने कोई खड़ा नहीं हो सकता था, आपकी झोपड़ि़यों में घुस जाते थे और आपके हाथ पकड़कर खटिया पर बिठा लेते थे। चुनाव समाप्त हो गया। अब जाइए तो जरा उनके सामने। खटिया को कौन कहे, टाट भी बैठने को नहीं मिलेगा। भाई! ये सब स्वार्थियों की चालें हैं। मौका पड़ने पर ये आपके पैरों पर गिर पड़ेंगे और काम हो जाने पर गर्दन पर सवार हो जाएंगे।

भाई! धनी की सहायता धनी करता है और गरीब की सहायता गरीब ही। इसलिए आप सब त्रिवेणी संघ के झंडे के नीचे चले आओ; क्योंकि त्रिवेणी संघ गरीबों की ही संस्था है।

राजनीतिक क्षेत्र में

उत्थान की सारी कुंजियां राजनीतिक क्षेत्र में ही रहती हैं। राजकीय विभाग में जिस समाज का बल जितना ही अधिक होगा, वह समाज उतना ही अधिक आगे बढ़ सकेगा।

हमारा अधिकार

राजनीतिक क्षेत्र में हमारा अधिकार एकदम नहीं के बराबर है। सब-के-सब पूंजीपति और जमींदार भरे हुए हैं, जो हम लोगों को वहां नहीं पहुंचने देते।

कैसे मिलेगा?

भाई! दुनिया में शक्ति राज्य है। जिनके पास शक्ति है, वह दुनिया को चाहे जिस तरफ बहा दे। अस्तु, हम लोग शक्तियों को इकट्ठा कर शक्तिशाली हो जायें। वह शक्ति और कुछ नहीं, केवल संगठन है। बिना संगठन के कुछ नहीं हो सकता। अस्तु, हम लोगों को चाहिए कि आपस में भेद-भावों को छोड़कर संगठित हो जाएं। जिस दिन हम लोग संगठित हो जायेंगे, उसी दिन राजनैतिक क्षेत्र में हम लोगों का अधिकार हो जायेगा।

धूर्तों से सावधान

जिस दिन आपके संगठन का पता इन धूर्तों को लग जायेगा, वे चुपचाप बैठे न रहेंगे। आपके संगठन को तोड़ने के लिए नाना प्रकार के भेद-भाव उपस्थित करेंगे। अनेक प्रकार के प्रलोभन भी देंगे। अनेक प्रकार की झूठी खबरें भी उड़ायेंगे। कहीं-कहीं पर दबाव भी डालेंगे। आपको अनेक प्रकार से तंग करने की कोशिश करेंगे। लेकिन सावधान! इनके फंदे में न पड़ना। उन्नति के पथ में बाधाएं उपस्थित होती ही हैं।

भाई! ये ठग राक्षसों की नाईं अनेक प्रकार का रूप बदलकर आएंगे और आपके संगठन को बिगाड़ने की कोशिश करेंगे। क्या आपने नहीं देखा है कि जिनके बाबा, जिनके बाप-दादों के लिए हल चलाना पाप है, वे भी किसान सभा की लीडरी गांठते हैं और जिनके दरवाजे पर अछूतों पर मार पड़ती है, वे भी अछूतों के भक्त होते हैं? सभा में बैठना हुआ तो खद्दर को धोती पहन लिया और कलेक्टर साहब से हाथ मिलाना हुआ तो झट हैट-पैंट पहन लिया। बाप काला जमींदार और बेटा किसान सभा का लीडर, और उन्हीं की जमींदारी में किसानों को निकाला जाता है पिसान! यह बगुला भक्त की चाल नहीं तो क्या है? इसलिए सावधान!

वोट (Vote)

वोट क्या है? राजनीतिक क्षेत्र की कुंजी है। जिसको अधिक वोट हैं, उसी का अधिकार है। लेकिन अफसोस है कि हम लोग वोट के महत्व को नहीं समझते। उसे केवल कोरे कागज का टुकड़ा ही जानते हैं। जिसे हम केवल पूड़ी खाने और मोटर पर चढ़ने में ही बेच देते हैं। और उन्हीं वोटों द्वारा जमींदार, पूंजीपति तथा समाज के खूंखार जीत जाते हैं, जो हमें पनपने ही नहीं देते। देखिये, अपनी ही भूल से हम लोग कैसे अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारते हैं!

अजी वोटों का महत्व तो आप इसी से समझ लो कि जिसके दरवाजे पर भिखारी को भीख भी नहीं मिलती है, वह भी वोट के लिए पूड़ियों का सदाव्रत खोल देता है! जो आपको देखने में भी अपनी हेठी समझता है, वह आपकी उन गंदी झोपड़ियों में, जहां नाक-मुंह बंद किये बिना जाना मुश्किल है, बेधड़क पहुंच जाता है और मोटरों में बैठाकर सैर कराता है। इसी से वोटों के मूल्य का अंदाजा आप लगा लें। ९० प्रतिशत वोट तो हमारे ही हैं, पर इन वोटों से हम लोग लाभ नहीं उठाते। अस्तु, हम लोगों को चाहिए कि जितने चुनाव आवें, उन सब में अपने योग्य और ईमानदार उम्मीदवार खड़े किये जायें और अपना सब वोट उन्हीं को दिया जाये; क्योंकि जब तक हम लोग इस राजनैतिक क्षेत्र में नहीं पहुंचते हैं, हम लोगों का उद्धार नहीं हो सकता है। हम लोगों के सभी प्रोग्राम पानी के बुलबुले जैसे होकर रह जाएंगे।

 त्रिवेणी संघ और कांग्रेस

कुछ लोग प्रचार करते चलते हैं कि त्रिवेणी संघ कांग्रेस के खिलाफ की संस्था है। यह बात बिलकुल झूठ है। त्रिवेणी संघ तो देश और समाज के लिए मर मिटने वाला है। त्रिवेणी संघ किसी के खिलाफ नहीं है।

हां, कांग्रेस में कुछ ऐसे भी पुजारी हैं, जो त्रिवेणी बंधुओं को नोंच-नोंच कर खाते हैं और उनकी तरक्की देखना नहीं चाहते। उनके लिए तो त्रिवेणी संघ अवश्य खिलाफ है, न कि कांग्रेस के पुजारी के खिलाफ। त्रिवेणी संघ तो परतंत्र हृदय को स्वतंत्र बनाना चाहता है। शोषित, शासित तथा दलितों को धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकारों को दिलाना चाहता है। कांग्रेस के खिलाफ है? हां, यदि इन सिद्धांतों के खिलाफ काल भी आवे तो त्रिवेणी संघ उससे भी लड़ने के लिए तैयार है।

 आर्थिक क्षेत्र में

यदि मैं आर्थिक क्षेत्र को सब क्षेत्रों की ज्योति कहूं तो कोई अत्युक्ति नहीं, क्योंकि अर्थ (धन) ही एक ऐसी वस्तु है जिससे संसार का व्यापार चल रहा है। महात्मा फुले तिरुवल्लुवर ने ठीक ही कहा है- ‘‘वह अविश्रांत-ज्योति, जिसे लोग धन कहते हैं, अपने स्वामी के लिए सभी अंधकारमय स्थानों को ज्योत्सनापूर्ण बना देती है।’’

 धन पैदा करो

क्योंकि

‘‘अप्रसिद्ध और बेकद्रोकीमत लोगों को प्रतिष्ठित बनाने में जितना धन समर्थ है, उतना और कोई पदार्थ नहीं।’’

यस्यास्ति वित्तं सनरः कुलीनः

स पंडितः स श्रुतवान् गुणज्ञः।

स एव वक्ता स च दर्शनीयः

सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ति।।

याने जिसके पास धन है, वही कुलीन, पंडित, शास्त्रज्ञ तथा गुणी है, वही वक्ता है, वही दर्शन करने योग्य है। सब गुण कांचन (धन) के ही आश्रय से रहते हैं।

‘‘गरीबों का सभी अपमान करते हैं, मगर धन-धान्यपूर्ण मनुष्य की सभी जगह अभ्यर्थना होती है।’’

‘‘दयाद्रता जो प्रेम की संपत्ति है, उसका पालन-पोषण करने के लिए संपत्ति-रूपिणी दयालु-धाय की आवश्यकता है।’’

‘‘देखो, धनवान् आदमी जब अपने हाथ में काम लेता है तो वह उस मनुष्य के समान मालूम होता है जो एक पहाड़ी की चोटी पर से हाथियों की लड़ाई देखता है- अर्थात् वह बिना किसी भय और चिंता के अपना काम करता है।’’

‘‘धन इकट्ठा करो, क्योंकि शत्रु का गर्व चूर करने के लिए उससे बढ़कर हथियार नहीं है।’’ लेकिन-

‘‘जो धन, दया और ममता से रहित है, उसकी तुम कभी इच्छा मत करो और उसको अपने हाथ से छूओ मत।’’

‘‘देखो, जो धन पापरहित निष्कलंक रूप से प्राप्त किया जाता है, उससे धर्म और आनंद का स्रोत बह निकलता है।’’

-महात्मा तिरुवल्लुवर।

एक बूढ़े ने मुझसे ठीक ही कहा था- ‘‘यदि मर्द का मर्द मर जाये तो वह कौड़ी का तीन हो जाता है।’’ मैंने पूछा- ‘‘बाबा, मर्द का मर्द कैसा होता है?’’ उसने शुष्क मुस्कान के साथ कहा- ‘‘बाबू, तुम नहीं जानते, स्त्री का मर्द तो उसका पति है और मर्द का मर्द उसका धन है। जिस तरह पुरुष के मरने पर स्त्री असहाय हो जाती है, उसी तरह धन निकल जाने पर पुरुष असहाय हो जाता है। उसकी बातों को सुननेवाला कोई नहीं होता है।’’ अस्तु, धन पैदा करो!

 हमारा आर्थिक संकट

हमारे यहां धन पैदा करने के लिए तीन प्रमुख साधन दिखलाई पड़ते हैं। कृषि, व्यवसाय तथा नौकरी। पर तीनों विभाग में गरीब तथा अनुन्नत (Backward) समाज के लोग कुचले जाते हैं।

जमींदार सरकार को टैक्स तो बहुत कम देता है, लेकिन किसानों से अनेक गुणा अधिक वसूल करता है। यही नहीं, जायज-नाजायज हारी, बेगारी, सूद-दर-सूद आदि अनेक तरह का टैक्स वसूल कर किसानों का शोषण कर लेता है। जब तक इन नाजायज टैक्सों को बंद कर मालगुजारी में कमी न की जायेगी, किसानों की दशा सुधर नहीं सकती। पूंजीपति, मजदूरों द्वारा पैसे की वस्तुओं में रुपयों का लाभ उठाता है, लेकिन उन्हें बहुत ही कम देता है। यही नहीं- मौका पाकर उनकी रोजी भी काट ली जाती है।

नौकरी

अच्छी-अच्छी जितनी नौकरियां हैं, वे उन्हीं पूंजीपतियों, जमींदारों तथा उनकी हैं जिनका बोलबाला अधिक है। इस तरह गरीब समाज नौकरी में भी पीछे ही है।

 व्यवसाय

मिल वालों ने हमारे व्यवसायी भाइयों का गला ही काट डाला है। मिल की बनी हुई चीजों के सामने हाथ की बनी हुई चीजों की कुछ कीमत नहीं है। इससे ये बेचारे लाचार हैं। सरकार को चाहिए कि उपर्युक्त कठिनाइयों को दूर करे।

 उद्धार

जब तक ये शोषित वर्ग अपना संगठन कर इन शोषकों का मुकाबला नहीं करेंगे और व्यवस्थापिका तथा केन्द्रीय परिषदों में स्वयं नहीं जाएंगे, तब तक उद्धार होना केवल कल्पना मात्र है।

 धन का अपव्यवहार

एक तो त्रिवेणी समाज यों ही गरीब है, लेकिन साथ ही धन का सदुपयोग करना भी नहीं जानता। वाहियात खर्चों से इस समाज को नाकों दम आ गया है। तिस पर भी समाज नहीं समझता। विवाह-शादी, तिलक, दहेज, नाच, तमाशा, बाजे-गाजे, श्राद्ध और तीर्थों में पानी की तरह रुपया बहा देता है। इन फिजूलखर्चियों को शीघ्र रोकना चाहिए।

जमींदारों से

जमींदारों और महाजनों! गांवों में तुम्हारा राज है। शहरों में भले ही ब्रिटिश हो पर देहातों के राजा तुम हो। वहां तुम्हारी ही तूती बोलती है, तुम्हारी ही हुकूमत चलती है। तुम्हारे पास थैलियां हैं, तुम आदमी खरीदते हो। पुलिस तुम्हारी मुट्ठी में रहती है। सरकारी अफसर तुम्हारे इशारे पर नाचते हैं। तुम जो चाहते हो, करते हो; क्योंकि तुम वहां के सबकुछ हो।

तुम्हारी इज्जत बहुत बड़ी है। इतनी बड़ी की पूछो मत! उसकी दीवालें ताश की पत्तियों पर खड़ी रहती हैं, जो गरीब किसानों की सांस लगने से ही कांप सकती हैं। इसलिए उसकी रक्षा के लिए तुम उनके खून तक कर डालते हो। तुम्हे क्रोध आते देर ही नहीं लगती। बात ही बात में तुम्हारी त्योरियां चढ़ जाती हैं; क्योंकि तुम तुनुक मिजाज हो, लक्ष्मी के लाड़ले हो। दूसरे दाने को मोहताज हैं। तुम्हारी इज्जत की बुनियाद उसकी बरबादी पर है, इसलिए वे तुच्छ हैं।

लेकिन समझ लो –

अगर तुम हमारी ओर से उदासीन रहे तो तुम्हारा सर्वनाश होगा। तुम मुफ्त मौज नहीं लूटते हो, तुम्हारे पास धन है, दिमाग है। तुमने, तुम्हारे पुरखों ने, दिमाग लड़ा कर बड़े परिश्रम से यह धन इकट्ठा किया है। हम अभागे, कर्महीन आलसी हैं, इसलिए इस अवस्था के सर्वथा योग्य हैं। यह सच भी हो सकता है। फिर भी, अगर तुम ऐसा सोचते हो तो, निश्चय जानो, तुम्हारा नाश बिलकुल समीप है। तुम उदासीन रहकर भी गुलछर्रे नहीं उड़ा सकते। हमारे शरीर में रक्त-मांस नहीं है, पर हमारे दिल में ‘आह’ तो है।

जमीन किसकी है? जमीन अपने हाथ हल चलानेवाले किसानों की है। तुम तो केवल उसके प्रबंधकर्ता हो। प्रबंधकर्ता भी नहीं, गुलछर्रे उड़ानेवाली बुलबुल हो। पर, याद रखो अब गुलछर्रे उड़ाने को न मिलेंगे। यह तो उनकी मर्जी पर है, तुम्हें रखें या न रखें! यदि तुम इस स्वप्न का वक्तव्य समझते हो, तो ऐसे भ्रम में न पड़ो। वह समय निकट ही है, जब किसान राज्य कायम होगा और तुम्हें भी किसान बनना पड़ेगा। यह आपकी बर्बरता पर ही निर्भर करता है। आपकी बर्बरता जितना ही अधिक उग्र रूप धारण करेगी, वह समय भी उतना ही जल्दी आएगा।

इसलिए समझ-बूझकर काम करो और किसानों पर होनेवाली खराबियों को रोको।

‘‘देखो! यदि तुम सचमुच जमींदार हो तो तुम्हें जमीन की सेवा करनी चाहिए और किसानों को अपना भाई समझना चाहिए।’’

‘‘तुम्हें तो अपनी जमींदारी के किसानों को अपना परिवार समझना चाहिए और अपने को केवल प्रबंधकर्ता।’’

‘‘यदि तुमको ईश्वर की दया से जमींदारी या राज मिला है तो तुम्हें अपनी प्रजा के साथ ऐसा बर्ताव करना चाहिए कि नेकनामी के वोट से वे तुम्हारा नाम सबसे पहले पेश करें और तुम्हारे बिछुड़ने पर आंसुओं की दरिया बहा डालें।’’

‘‘तुम्हें समझना चाहिए कि संसार के अन्नदाता किसान हैं। यदि ये हाथ पर हाथ रखकर चुपचाप बैठे रह जाएं तो उन लोगों को भी कष्ट हुए बिना न रहेगा, जिन्होंने समस्त वासनाओं का परित्याग कर दिया है।’’

“समझ रखो, किसान मनुज शरीर में देवता हैं। वे लोग समाज के लिए धुरी के समान हैं: क्योंकि जोतने-खोदने की शक्ति न होने के कारण जो लोग दूसरे काम करने लगते हैं, उनको रोजी देने वाले वे ही लोग हैं।”

“जिस राज्य में किसानों को कष्ट होता है, वह राज्य उसी तरह नष्ट हो जाता है जिस तरह मरुभूमि के पौधे।”

“अजी, रावण-सा प्रतापी और ऐश्वर्यशाली तो खाली हाथ चला गया। फिर क्यों नहीं उससे शिक्षा ग्रहण करते, जो लोगों को तकलीफ दे-देकर पाप बटोर रहे हो?”

‘‘याद रखो सूर्य- नदी, तालाब, समुद्र आदि से पानी का शोषण कर आकाश में जमा करता है और मेघों द्वारा मौके-मौके पर वर्षा कर वापस कर देता है। ऐसा क्यों? यदि वह ऐसा न करे तो आकाश मंडल फट जाये; क्योंकि वह पानी को शोषण कर ले गया है। उसी तरह जो राजा अपनी प्रजा का केवल शोषण करता है, उसका राज्य नष्ट हो जाता है।’’ यदि तुम्हें तुम्हारे कर्मों की कहानी सुननी हो तो एक बार किसानों के बच्चों और औरतों में घुसकर सुन लो।’’

 किसानों से

तुम्हारे अधिकारों को जमींदार कुचल देना चाहते हैं। अस्तु, उनके फंदे में न पड़ो। अपना संगठन कर अपने हक के लिए तैयार हो जाओ।

 पूंजीपतियों से

क्या ईश्वर ने आपको इसीलिए धन दिया कि गरीबों को सताओ, मजदूरों के खून का शोषण कर मौज उड़ाओ और उनके दुःख-सुख का कुछ खयाल न करो, मोटर में कुत्तों को बैठाकर उसका चुम्मा लो और एक मजदूर, जो अपनी मजदूरी के लिए चिल्ला रहा है, उसे ठोकर मारो?

आपके लिए महर्षि तिरुवल्लुवर ने ठीक ही कहा है- ‘‘सूई के छिद्र से ऊंट का निकल जाना संभव हो सकता है, लेकिन धनिकों का स्वर्ग में जाना-यह बिलकुल असंभव है।’’

देखो, यदि आपके पास धन है तो आपको ऐसा काम करना चाहिए जिससे मानव-समाज की भलाई हो, जो सूर्य और चंद्रमा के चले जाने पर भी आपके नाम का प्रकाश करता रहे।

इसमें कोई शक नहीं कि मजदूरों के जत्थे आपकी तरफ नजर लगाये हुए हैं, लेकिन आपकी पूंजी भी उन्हीं की बाट खोज रही है। आपकी यह पूंजी जो बढ़ रही है, वह पूंजी और मजदूर दोनों के सहयोग से बढ़ रही है। इसलिए उस बढ़ी हुई पूंजी पर, पूंजी और मजदूर दोनों का अधिकार हुआ। तो फिर मजदूरों के साथ क्यों न्याय नहीं करते?

यह आपको मानना पड़ेगा कि आपके यहां मजदूरों को उचित मजदूरी नहीं मिल रही है। यदि आप मजदूरों के फटे हुए कपड़े, उनके रहने का स्थान तथा उनके बाल-बच्चों को निहारेंगे तो आपकी आत्मा यदि काठ के पुतले में न होगी तो अवश्य ही पिघल जायेगी। जितना खर्च आप इधर-उधर की घूसखोरी तथा हड़तालों को फेल कराने में लगाते हैं, यदि वे खर्च मजदूरों की मजदूरी में बढ़ा देते तो आपके यहां हड़ताल ही नहीं होती।

मजदूरों को आप अपना सिपाही समझो। यदि इनसे काम लेना चाहते हो तो उचित मजदूरी दो। नहीं तो मजदूरों का संगठन भी जोरों से हो रहा है, जो आपका सत्यानाश किये बिना न छोड़ेगा। ठीक ऐन मौके पर हड़ताल हो जायेगी तो जितना घाटा आपको मजदूरी बढ़ाने में न होगा, उससे कहीं अधिक हड़ताल होने पर हो जायेगा।

 मजदूरों से

बंधुओं! दुनिया में शक्ति का राज्य है। अतः अपना जबर्दस्त संगठन करो। एक बोली सब बोलो। फिर देखो न- ये लक्ष्मी के लाड़ले कैसे ठीक हो जाते हैं! सारा खेल तो तुम्हारे हाथ है।

लेकिन सावधान! बिना आवश्यकता और बिना समझे-बूझे हड़ताल न किया करो। देखा जाता है कि कितने मनचले लोग मिल-मालिकों से लाभ लेने के लिए हड़ताल करा दिया करते हैं और थैली मिल जाने पर इधर-उधर कर सुलह करा देते हैं। जिसमें हमारे गरीब मजदूर तबाह हो जाते हैं। कितने को तो हड़ताल करने-कराने की बीमारी हो जाती है, इससे भी सावधान!

 पारिवारिक क्षेत्र से

क्या स्वर्ण का सुख उसे लुभा सकता है, जिसका वास- सुव्यस्थित और सुसंचालित परिवार में कुछ दिन भी हुआ हो?

 माताओं से

किसी भी समाज, जाति तथा देश के उत्थान-पतन का अधिकतर बोझ माताओं पर ही निर्भर करता है। संतान को योग्य और अयोग्य बनाने में अधिक हाथ माताओं का ही रहता है। संतान पर भला-बुरा, योग्य-अयोग्य तथा वीर-कायर का प्रभाव गर्भ से ही पड़ने लगता है।

माताओं! यदि तुम लोग इस शब्द को समुद्र में फेंक देती तो हम लोगों का उत्थान होते देर न लगता- ‘‘बबुआ जिअसु तीन सेर बिनहारी त करीहन।’’ यह शब्द तुम लोग ठीक उसी समय निकालती हो जबकि घर में कोई लड़का पैदा होता है। इसे तुम्हारा वरदान कहें या शाप कहें,  लेकिन बिना पड़े नहीं रहता।

तुम अपने बच्चों के नाम रखने में कंजूसी क्यों करती हो? ऐसा नाम रखो कि सुनने वाले की भी तबीयत प्रसन्न हो जाये। प्रायः तुम अपने बच्चों से गालियां दिलवाया करती हो। जैसे दादी-नानी की, मौसी-बुआ आदि की। इसका असर लड़कों पर बहुत बुरा पड़ता है। वही लड़के आगे चलकर अपने बड़े-बूढ़ों को गाली दिया करते हैं। यदि तुम लोग इन गालियों के बदले भगवान का नाम याद करातीं, श्लोकों को पढ़ातीं, अच्छी-अच्छी कहानियां सुनातीं तो कितना लाभ होता?

तुम अपनी बहुओं को बहुत तंग किया करती हो। मैं मानता हूं कि उनके स्वभाव अभी कुछ उतावले हैं, पर वे स्वाभाविक हैं। क्षमा करना- तुम्हारी दशा भी एक दिन ऐसी ही रही होगी, तब तुम भी बहू की अवस्था में होगी। तुम अपनी बहू को इतनी गालियां क्यों दिया करती हो? क्या सासू होकर, अपने सासूवाले गुस्से को, प्रताड़नाओं को तुम अपनी बहू पर उतारना चाहती हो? देखो, तुमको तुम्हारी बहू से लड़ाई ही न रह जायेगी, जब तुम उसे अपनी लड़की समझने लगोगी।

देखो! जब तुम्हारी बहू गर्भवती हो, उसे भूलकर भी तंग न करो। उसके हृदय को चोट न पहुंचाओ। उसे रुलाओ मत, बल्कि उसकी चिंताओं को दूर कर उसे सदा प्रसन्न रखो; क्योंकि गर्भवती माता के हार्दिक और मानसिक विचारों का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर पड़े बिना नहीं रहता।

यदि तुम अपनी बहू की गोद में सुन्दर और तेजस्वी बालक देखना चाहती हो तो उसे सदा प्रसन्न रखो और उसके शयनागार में वीर योद्धाओं और धर्मात्मा पुरुषों के सुन्दर-सुन्दर चित्र टांग दो और अच्छी-अच्छी कहानियां पढ़ाओ तथा सुनाओ; क्योंकि ‘‘बुद्धिमान संतति होने से बढ़कर दूसरी नियामत हम नहीं जानते।’’                                                                                                                                 (तिरुवल्लुवर)

 पिताओं से

‘‘पुत्र के प्रति पिता का कर्तव्य क्या है? बस यही कि उसे सभा में प्रथम पंक्ति में बैठने योग्य बना दे! वह मनुष्य धन्य है, जिसके बच्चों का आचरण निष्कलंक है- सात जन्म तक उसे कोई बुराई न छू सकेगी।’’ ये वचन महर्षि तिरुवल्लुवर के हैं। इन दोनों मंत्रों का सार इसी में है कि आप उसे अच्छे पुरुषों की संगत में रखें। पर अफसोस है कि जब लड़के सभा-सोसाइटियों में जाते हैं तो आप उन पर उबल पड़ते हैं। पर, नाच-तमाशे में जाते हैं तो टेंट से पैसे निकालकर दे देते हैं।

 पुत्रों से

‘‘पिता के प्रति पुत्र का कर्तव्य क्या है? यही कि संसार उसे देखकर उसके पिता से पूछे कि किस तपस्या के बल से तुम्हें ऐसा सुपुत्र हुआ है?’’

देखो! माता की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रह जाता, जब उसके गर्भ में लड़का उत्पन्न होता है। मगर उससे कहीं ज्यादा खुशी उस वक्त होती है, जब वह लोगों के मुंह से उसकी प्रशंसा सुनती है।

खयाल रखो! यदि अच्छे कुल में उत्पन्न हुए मनुष्य की जबान से फूहड़ और वाहियात बातें निकलेंगी तो लोग उसके जन्म के विषय तक में शंका करने लगेंगे।

तुम्हारी सच्ची मर्दानगी तो इसी में है कि तुम अपने वंश को, जिसमें तुमने जन्म लिया है, उच्च अवस्था में लाओ। यदि तुम्हारे माता-पिता कुछ बुरा भी कह डालें तो उसे बर्दाश्त कर लो और उनकी सेवा से न टलो। यदि पुत्र के रहते हुए उसके माता-पिता को कोई कष्ट हुआ हो तो उस पुत्र के लिए अभाग्य की बात है।

‘‘देखो! जिस पुत्र को ईश्वर रूपी उसके माता-पिता का शुभाशीष रोज मिला करता है- दुनिया की कोई शक्ति उसे विचलित नहीं कर सकती।’’

बहुओं से

देखो! राज्य रूपी परिवार की उत्तराधिकारिणी तुम्ही हो। अतः अपने कार्यों को संभालो। खयाल रखो; तुम्हारे मुंह से ऐसी बात न निकलने पावे, जो परिवार में विभेद का कारण हो। यदि तुम्हारे कारण परिवार में कलह उठा, तो समझ लो कि तुमने अपने पिता के सात कुलों का नाम डुबो दिया। परिवार में तुम सबसे पहले जागो और सबसे पीछे सोओ।

भूल कर भी सास की सेवा करना न छोड़ो। यदि तुम्हारी सास तुम्हें गालियां दे रही हैं तो कानों में उंगली डाल लो। यही शरीफ घर की लड़कियों की निशानी है। भूल कर भी सास के साथ लड़ाई-झगड़ा न करो; क्योंकि तुम्हें भी एक दिन सास होना पड़ेगा। यदि सास को तुम अपनी माता समझने लगो, तो फिर झगड़े की गुंजाइश ही न रह जायेगी।

 चतुर्थ अध्याय

 हमारा प्रोग्राम

(साथियों से दो बातें : ग्राम सुधार, पंचायत, त्रिवेणी सेवादल और उसके कार्यक्रम, मुठिया, निरक्षरता निवारण, पुस्तकालय, व्यायामशाला, स्वास्थ्य और सफाई, गृहचिकित्सा, खाद, गृहउद्योग, सहयोग समितियां)

 साथियों से दो बातें

बंधुओं! आपने शोषित-शासित तथा दलित समाज को उन्नत बनाने के लिए, अन्याय और अत्याचारों का नाश करने के लिए, मनुष्य को मनुष्य-सा व्यवहार करने का पाठ पढ़ाने के लिए, परतंत्र हृदय में स्वतंत्रता का बिगुल फूंकने के लिए, मानव समाज का अधिकार बताने के लिए, देश को स्वतंत्र बनाने के लिए, किसान, व्यवसायी तथा मजदूरों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए तथा कृषि, शिल्पकला आदि उद्योग-धंधों को उन्नत बनाने के लिए त्रिवेणी संघ को पैदा किया। लेकिन अभी तक आप अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कोई ठोस रूप में कार्य न कर सके हैं, और जब तक आप ठोस रूप में कार्य न करेंगे, आप के अभीष्टों की सिद्धि नहीं हो सकती।

बंधुओं! सभी उत्थानों का मूल सेवा-धर्म में ही छिपा हुआ है। इसलिए सर्वप्रथम हम लोगों को सेवा का ही मंत्र जपना चाहिए। ऐसे तो कार्य बहुत हैं, लेकिन चलो, चलें, गांवों की ओर देहातों में जहां देश के 90 प्रतिशत मनुष्य भारत के लिए ही नहीं, बल्कि मानव-समाज के लिए, सूर्य की प्रचंड-से-प्रचंड किरणों में, मेघों के घोर-घोर गर्जन और वर्षन में, शीत की खूब-से-खूब थरथराहट में कायिक तपस्या कर रहे हैं। इसलिए चलो, चलें उन्हीं की सेवा की जाये; क्योंकि वे राष्ट्र के देवता हैं।

आह! यह राष्ट्र के निर्माता- राष्ट्र के भाग्य-विधाता और इनकी यह दशा! रहने का ठिकाना नहीं। यदि है तो बैठने की जगह नहीं। चारों तरफ घास लगी हुई हैं, दिन-दोपहर मच्छर भनभना रहे हैं, सामने ही गोबर का थाह और कूड़े-करकट की ढेरी लगी हुई है। कभी पांक और हीलों के मारे गलियों में चलना मुश्किल हो जाता है, तो कभी धूलों के मारे ही एक डग नहीं बढ़ सकते। कहीं घर-घर में मलेरिया की थरथराहट सुनाई पड़ती है, तो कहीं हैजे और चेचक के प्रकोप! तो कहीं-कहीं छोटी-छोटी बातों में सरवा-ससुरा हो रहा है तो कहीं एक इंच जमीन के लिए खपर-फुटव्वल हो रही है। कहीं हिस्से-बखरे और लड़ाई-झगड़े के कारण कचहरियों में पानी की तरह रुपये बहाए जा रहे हैं, तो कहीं पर गरीब रुपए के अभाव से पानी की तरह सुखाए जा रहे हैं।

कहीं पर बैकुंठ जाने के लिए दान-पुण्य का जयकार मचा हुआ है तो कहीं जीव रखने के लिए गरीबों का हाहाकार मचा हुआ है। (जैसे यज्ञ आदि में) कहीं एक-एक पोरसे की लाठी लिए जमींदारों के अमले-पियादे यमदूतों की नाई ग्रास रहे हैं तो कहीं पांडे जी पोथी-पत्रा लिए सटक रहे हैं। ओह! ऐसी भीषण दुर्दशा! भाई! यहीं ठहर जाओ। हम लोग इन्हीं की सेवा करें। ये बेचारे तपस्वी हैं। तपस्वियों के शरीर पर घास-फूस जम ही जाते हैं, पर इनको क्या गम है! पर, इनको गम कराना पड़ेगा। इन्हीं के चुप रहने के कारण है कि देश अभी तक गुलाम बना हुआ है। तप करते-करते इनको देश-दुनिया की कुछ भी खबर नहीं। इनको जगाना पड़ेगा- दुनिया की खबर सुनानी पड़ेगी और बताना पड़ेगा कि तुम्हारी अभीष्ट सिद्धि कैसे होगी।

इसलिए, चलो ग्राम सुधार करें। ग्रामीण भाइयों में जीवन की ज्योति जगावें। उनका संगठन करें। उनमें नैतिक शिक्षा का प्रचार करें। उन्हें स्वास्थ्य और सफाई का हाल बतावें। उन्हें दुनिया से परिचित करावें। उनके हक और अधिकारों की कुंजी बतावें। उनको मनुष्य-सा रहने का पाठ पढ़ावें। उनकी आर्थिक गुत्थियों को सुलझावें। चलो, शीघ्र चलें? उनके कामों में सहयोग प्रदान करें।

हमारा ग्रामसुधार :

हमारा सुधार कैसा हो? जिससे अर्थ-धर्म, काम-मोक्ष याने विद्या बल, धन और सेवा (सत्कर्म) चारों की सिद्धि हो। जिसका उद्देश्य होगा- गांवों का संगठन करना। ग्राम पंचायत कायम करना। गांवों में होनेवाली बुराइयों को रोकना। गांवों में होने वाली बीमारियों को रोकने का उचित प्रबंध करना। गांवों की सफाई के लिए उचित प्रबंध करना। निरक्षरता को दूर करना। गृह उद्योगों का प्रचार करना। अखाड़ों (व्यायामशाला) को खुलवाना, कृषि-सुधार तथा गो-पालन की व्यवस्था कराना।

जिस गांव का संगठन करना हो, उस गांव के सभी लोगों को एक जगह इकट्ठा करके, संगठन के महत्व, अपना कार्यक्रम तथा उससे होने वाले फायदे को समझाना चाहिए। जब आप देखें कि आपकी बातों को सभी लोग समझ गये, तो उन्हें लोगों से चुनवा कर पांच व सात तथा गांव की छोटाई-बड़ाई के अनुसार कम व अधिक पंच मुकर्रर कर दें। पर खयाल रखें, पंचों की संख्या अधिक भी न होने पावे। अच्छी बात हो कि पंचायत को मानने के लिए लोग अपने दस्तखत भी कर दें। यदि दस्तखत करने में हिचकिचाएंगे तो न करावें। यह चुनाव एक वर्ष तक चलेगा। दूसरे वर्ष के लिए दूसरा चुनाव कर लेना चाहिए।

अब गांव के जितने कार्य हों, आप उसी पंचायत के सहयोग से किया करें। जहां ग्राम पंचायत हो वहां ‘त्रिवेणी सेवा दल’ का भी होना आवश्यक है। जो आपके ग्राम-सुधार के कार्यों को करेंगे। इस पंचायत का तथा सेवा दल की सूचना जिले के कलेक्टर तथा त्रिवेणी संघ के आफिस में भेज देना चाहिए।

पंचायत के काम :

गांव के भले-बुरे सभी कामों की निगरानी करनी होगी। गांव संबंधी सभी झगड़े पंचायत में लाए जाएंगे और पंचायत उसका निपटारा करेगी। पंचों को चाहिए कि हफ्ता या दो हफ्ता पर एक जगह इकट्ठा हुआ करें और गांव की समस्याओं पर विचार करें। कम-से-कम महीने में एक दिन गांव की भी मीटिंग होती रहनी चाहिए, जिसमें सबको महीने भर की कार्रवाई को सुना देनी चाहिए, ताकि किसी को संदेह न होने पावे। पंचों को गांव की हर एक बात पर विचार तथा झगड़े और समझौते आदि का निपटारा निष्पक्ष भाव से करना चाहिए।

 त्रिवेणी सेवा दल :

हर एक गांव में एक स्वयंसेवक दल होगा, जिसका नाम होगा त्रिवेणी सेवा दल। सेवा दल और पंचायत दोनों का एक ही संबंध रहा करेगा। सेवा दल के सभापति और मंत्री भी ग्राम-पंचायत में लिये जाएंगे। सेवा दल में वही लोग भर्ती किये जाएंगे, जो सेवा कार्य के लिए प्रतिज्ञा करेंगे। हर एक स्वयंसेवक को नित्य प्रति चार काम करना अनिवार्य होगा- अध्ययन, कसरत, निजी व्यवसाय तथा ग्राम सुधार कार्य। ग्यारह स्वयंसेवकों के ऊपर एक कप्तान रहेगा, जिसके आदेशानुसार स्वयंसेवक गण कार्य किया करेंगे।

सेवा दल के कार्य

संगठन :

किसी भी सुधार तथा उत्थान कार्य का मूल संगठन पर ही खड़ा होता है। जिसे कार्य का संगठन जितना ही अधिक मजबूत होगा, उस कार्य की सिद्धि भी उतनी ही जल्दी होगी। इसलिए खयाल रखें, संगठन बिगड़ने न पावे।

 मुठिया :

आपके संगठन तथा सुधार कार्य में मुठिया बड़ा सहायक होगा। मुठिया का कार्य आपको उलझन-सा प्रतीत होगा और उलझन का कार्य है भी। लेकिन समझ रखो, गुलाब के फूल कांटों के बीच में ही छिपे रहते हैं। आप कहेंगे कि एक मुट्ठी चावल से क्या होगा? इससे तो अच्छा होगा कि हर पंद्रहवें या महीने वाले दिन एक सेर चावल या अन्न ले लिया जाये! भाई! ऐसा न करो! आपका यह कार्य मुठिया के महत्व का नहीं है। जिस घर में औरतें मुठिया निकालने लगेंगी, एक तो उनको नियमित काम करने की आदत पड़ जायेगी। दूसरे, उनका मस्तिष्क खिंचाव सुधार की तरफ हो जायेगा। तीसरे, अगर एक बच्चा रोज मुठिया निकालते हुए देखता है, तो उसके दिमाग का झुकाव भी उस तरफ हो जायेगा और वह बचपन से ही सुधारक हो जायेगा। चौथे, यह जो मुठिया लिया जाता है, वह संचित धन में नहीं है, बल्कि सबके आहार में से निकाला हुआ है, जिसका किसी को पता भी नहीं लगता है। देखो, मुठिया कहता है- ‘‘लाद-काटकर निकलहूं आया, पता न पाया कोय। कितने लादों को भर डाला, विरलै बूझे कोय!!’’ ठीक है, एक-एक घर से दो-दो सेर चावल महीने में निकल आते हैं। अस्तु, मुठिए के झंझट से न भागो। धैर्य से काम लो। जिसके घर से मुठिया आपने वसूल कर लिया, समझ लो कि उसके परिवार को सुधार लिया।

मुठिया की विधि :

एक दिन गांव के पंच और स्वयंसेवक सहित निकल जाओ और घर-घर से एक-एक छोटी हंड़िया मांगकर उस पर नंबर लगा दो और वह नंबर तथा उस घर के मालिक का नाम रजिस्टर में लिख लो तथा एक मुट्ठी चावल अपने सामने डलवा दो। फिर प्रचार करते रहो और एक-एक हफ्ते पर वसूल करते रहो।

 निरक्षरता निवारण :

गांवों में 95 फीसदी लोग निरक्षर भट्टाचार्य हैं। जो दस्तखत की जगह टीपा ही चमकाया करते हैं और पांच की जगह पचास दिया करते है। सभी तरक्कियों की जड़ काटनेवाली यही अविद्या रूपी कुठार है। इसलिए अपने गांवों में किसी को भी मूर्ख न रहने दो। अक्सरहां, शाम को लोग दो-दो, चार-चार घंटे तक बैठकर गप्प लड़ाया करते हैं। गांव में एक-दो या चार केन्द्र खोल दो। देखो! और हर केन्द्र में अपढ़ लोगों को पढ़ाना शुरू कर दो। देखो! देश और समाज की गुलामी तोड़नी है तो एक हर पढ़े-लिखे आदमी का कर्तव्य होना चाहिए कि साल में कम-से-कम एक निरक्षर को अवश्य ही साक्षर बना दे। स्त्रियों की निरक्षरता तो देश और समाज को और भी रसातल में लिये जा रही है; क्योंकि समाज की उन्नति औरतों के ही अधिक हाथ में है। कारण कि समाज की उन्नति भावी संतान पर ही निर्भर करती है और संतान का अच्छा या बुरा होना माता पर निर्भर करता है। इसलिए औरतों को साक्षर बनाना बहुत जरूरी है। पढ़े-लिखे युवकों को तो अपनी-अपनी औरतों को पढ़ाने के लिए आज से ही प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिए।

पुस्तकालय :

विद्या प्रचार तथा सुधार कार्य के लिए पुस्तकालय का होना बहुत जरूरी है; क्योंकि लोगों में ज्ञान का प्रकाश करानेवाली, समुद्र पार के भी बड़े-बड़े विद्वानों के विचारों और उपदेशों को बताने वाली, समाज में ज्योति और उत्साह फैलानेवाली पुस्तकें ही हैं। अस्तु, हरेक गांव में एक-एक पुस्तकालय अवश्य होना चाहिए। चाहे वह छोटा ही क्यों न हो। पुस्तकालय का आसान तरीका तो यह है कि पहले जितने आदमी हों, वे एक-एक पुस्तक जमा कर देवें और बारी-बारी से सब लोग पढ़ना शुरू कर दें। इस तरह कुछ किताबें भी इकट्ठी हो जाएंगी और कुछ प्रचार भी हो जायेगा। मुठिया की आमदनी भी पुस्तकालय में खर्च होनी चाहिए।

सर्वप्रथम दो-तीन अखबार मंगा लेना चाहिए। किताबें ऐसी रखनी चाहिए, जिससे लोगों को तत्काल लाभ हो सके। जैसे- गृह-चिकित्सा, पशु-चिकित्सा, खेती-बाड़ी की पुस्तकें आदि। अब लोगों को पुस्तकालय से लाभ दिखलाई पड़ने लगेगा तो वे अवश्य ही आपकी सहायता करने लगेंगे।

व्यायामशाला (अखाड़ा) :

हर गांव में व्यायामशाला या अखाड़े का होना बहुत जरूरी है और हर नौजवान को नित्य प्रति अखाड़े में कसरत करना भी अनिवार्य है। सभी कसरतियों का नाम सेवा दल के रजिस्टर में दर्ज होना चाहिए। व्यायाम की नयी-नयी पुस्तकें छपी हुई हैं, उन्हें मंगाकर पढ़ना चाहिए तथा मौके-मौके पर पुरस्कार भी बांटते रहना चाहिए जिससे कसरत के लिए उत्साह बढ़ा रहे। यह मत पूछो कि कसरत करने से क्या फायदा होगा? एक मतवाले हाथी को ही देखकर अंदाजा लगा लो कि किस तरह उसका रास्ता साफ होता हुआ चला जाता है।

कसरत शरीर को बल देनेवाला और सदा निरोग रखनेवाला है। बलवान आदमी ही अपने धन, धर्म और इज्जत की रक्षा कर सकता है। जिसको बल नहीं, उसका धन और स्त्री को दूसरे के हाथ में गया ही हुआ समझो। कहावत भी है- ‘‘अबले की लुगाई सबकी भौजाई।’’ बलवान् पुरुष ही अन्यायियों, अत्याचारियों और दुश्मनों का मुकाबला कर सकता है। राष्ट्र की संपत्ति बलिष्ठ नौजवान ही हैं। हृष्ट-पुष्ट नौजवानों का मुंह राजा भी हमेशा देखा करता है। हुकूमत हमेशा उनकी (बलवानों) चेरी रहती है। अस्तु, नौजवानो! शरीर के लिए जितना जरूरी तुम खाने और पखाने को समझते हो, उसी तरह कसरत को भी समझा करो।

 स्वास्थ्य और सफाई :

मनुष्य को निरोग रहने के लिए स्वास्थ्य के नियमों के पालन और सफाई पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है। पर, देहात में लोग स्वास्थ्य और सफाई का नाम ही नहीं जानते हैं, जिससे अनेक तरह की बीमारियां फैली रहती हैं। गलियों में जहां-तहां कूड़ा-करकट फेंक दिया जाता है। परदानशीन घरों के पास तो प्रायः गलियां ही पखाना हो जाती हैं। बहुत सी गलियां नालों के पानी से महक उठती हैं। इस प्रकार अनेक तरह से गलियां गंदी हो जाती हैं। इनकी सफाई पर ध्यान देना होगा।

सर्वप्रथम, इन गंदी आदतों की बुराइयों को समझना चाहिए और इन आदतों को छोड़ने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। नहीं कामयाबी मिलने पर सभी स्वयंसेवकों को खांची, कुदाली और झाड़ू लेकर तैयार हो जाना चाहिए और निःसंकोच भाव से, बिना किसी घृणा के, कूड़े-करकट तथा मैले को उठा-उठाकर गांव के बाहर, छाती भर गहरा, चौकोना गड्ढा खोद कर डाल देना चाहिए, जो खाद बन जायेगा। इस तरह बुहार-बुहारकर सभी गली-कूचों को साफ कर देना चाहिए। यही सेवा का आदर्श है और यही बड़ा होने का तरीका है। आपको बार-बार साफ करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। आपकी भक्ति और प्रेम देखकर प्रत्येक घरवाले ही अपना-अपना घर साफ करने लगेंगे।

यदि आप की सफाई में कोई बाधा डालने को तैयार हो तो पहले उसे समझाना चाहिए। यदि न माने तो इस मामले को ग्राम पंचायत में भेजना चाहिए। वहां भी न माने तो उसकी बहिष्कारी शुरू कर देनी चाहिए तथा जिले के कलैक्टर को इसकी सूचना देनी चाहिए। वह कानूनन आपकी मदद करेगा।

इसके अतिरिक्त भूले हुए आदमियों को उसके घर पहुँचाना तथा मेला, बाजार, त्यौहार आदि उत्सवों में सुव्यवस्था करना भी सेवा दल का काम होगा। यदि गांवों में पशुओं की बीमारी फैल रही हो तो झट वेटेनरी (Veterinary) डाक्टर को खबर देनी चाहिए। वह मुफ्त में बीमारी का प्रबंध करेंगे; क्योंकि इसीलिए वह रखे गये हैं। यदि हैजे या चेचक का प्रकोप बढ़ रहा हो तो डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन को सूचना देनी चाहिए। स्वयंसेवकों को देखते रहना चाहिए कि कहां उनकी जरूरत है।

(कॉपी संपादन : नवल/इमानुद्दीन/राजेश)

 

[1] इस शब्द का उपयोग उच्च जातियों के लिए किया गया है। हालांकि वर्तमान में इसके लिए इस शब्द का उपयोग नहीं किया जाता है।

[2] पेट

[3] यहां फारवर्ड का उपयोग प्रगतिशील के संदर्भ में किया गया है।


 

लेखक के बारे में

त्रिवेणी बन्धु चौधरी जे. एन. पी. मेहता

त्रिवेणी बन्धु चौधरी जे.एन.पी मेहता 30 मई 1933 को बिहार के रोहतास जिले के करगहर में स्थापित त्रिवेणी संघ के संस्थापक सदस्य थे

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