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दलित-बहुजन के लिए क्यों जरूरी है ‘दलित पैंथर का आधिकारिक इतिहास‘?

ज. वि. पवार की यह किताब मूल रूप से मराठी में थी, जिसका अंग्रेजी अनुवाद पिछले वर्ष फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित किया गया था। महज एक वर्ष के अंदर ही इसके दो संस्करण निकाले जा चुके हैं। अब इसे हिंदी में प्रकाशित किया गया है। सिद्धार्थ बता रहे हैं हिंदी के पाठकों के लिए इस किताब के महत्व के बारे में

आज भी जब हम दलित-बहुजनों के अधिकारों के लिए हुए संघर्षों की बात करते हैं तो द्विज वर्ग याचक कहकर हमारी आलोचना करता है। लेकिन आजाद भारत में एक ऐसा आंदोलन भी हुआ जिसने दलित-बहुजनों की याचक वाली छवि को न केवल समाप्त किया बल्कि एक जुझारू कौम के रूप में स्थापित किया। यह आंदोलन था दलित पैंथर आंदोलन। यह आंदोलन किन परिस्थितियों में शुरु हुआ और कैसे इसने देखते-ही-देखते पूरे महाराष्ट्र के दलितों को जागृत कर दिया, इसका पूरा विवरण इस आंदोलन के सह-संस्थापक रहे जयराम विट्ठल पवार ने अपनी किताब में लिखा है। मूल रूप से मराठी में लिखी गई इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘दलित पैंथर : एन ऑथरिटेटिव हिंस्ट्री’ शीर्षक से फारवर्ड प्रेस द्वारा पिछले वर्ष प्रकाशित की गई थी। अब इसका हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है। पाठक इसे घर बैठे ही यहां क्लिक कर अमेजन के जरिए मंगा सकते हैं।

हर दलित-बहुजन के लिए इस किताब को पढ़ना क्यों जरूरी है? इस सवाल के जवाब के लिए यह समझने की आवश्यकता है कि आखिर इस आंदोलन की नींव कैसे पड़ी। अपनी किताब में ज.वि. पवार विस्तार से बताते हैं कि दलित-बहुजनों के पुनर्जागरण के केंद्र महाराष्ट्र में ज्वालामुखी के विस्फोट की तरह 1972 में दलित पैंथर नामक संगठन का जन्म हुआ। इसके गठन का एक कारण इल्यापेरूमल समिति की रिपोर्ट थी, जिसे 10 अप्रैल 1970 को संसद में प्रस्तुत किया था। एक वर्ष के भीतर ही 1,117 दलितों की हत्या और दलित महिलाओं के साथ बलात्कार और नंगा करके घुमाने की विभिन्न घटनाओं का विवरण दिया गया था। इसने दलित युवकों के तन-बदन में आग लगा दी।  

मुंबई में रहने दो युवकों के मन में एक ऐसा संगठन बनाने की जरूरत महसूस हुई, जो दलितों पर होने अत्याचारों का प्रतिवाद और प्रतिरोध कर सके और तथाकथित उच्च जाति के अत्याचारियों को सबक सिखा सके। ये दो युवक- स्वयं ज. वि. पवार और नामदेव ढसाल थे। दलित पैंथर का गठन होते ही इसके साथ बड़ी संख्या में महाराष्ट्र के दलित युवक जुड़ते चले गए। महाराष्ट्र और महाराष्ट्र के बाहर अन्य प्रदेशों में जगह-जगह इसकी इकाईयां गठित हुईं। लंदन में भी इसकी इकाई गठित हुई। इसने अपने पांच वर्ष के अल्प जीवन-काल ( 1972-1977) में पूरे देश-विशेषकर महाराष्ट्र में यह संदेश दे दिया कि अब दलित युवक दलित समाज पर उच्च जातियों द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।

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इस आंदोलन का तत्कालीन समाज पर क्या असर हुआ, यह जानना पाठकों के लिए अत्यंत ही दिलचस्प होगा कि कैसे दलित पैंथरों ने  गांवों में दलितों पर अत्याचार करने वाली उच्च जातियों को सबक तो सिखाया ही, साथ ही उसने उच्च जातियों के अत्याचारों को संरक्षण देने वाली महाराष्ट्र की सरकार और केंद्र सरकार को कई बार घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया। इस आंदोलन ने उन दलित नेताओं के भी असली चरित्र को उजागर कर दिया, जो कहने के लिए दलित नेता थे, पर वास्तव में दलितों के हितों से उनका कोई लेना-देना नहीं रह गया था।

29 अप्रैल, 1975 को मुंबई के आजाद मैदान में गांधी की एक पुस्तक जलाने के दौरान पुलिस की हिरासत में ज. वि. पवार

दलित पैंथर दलितों पर होने वाले उत्पीड़न एवं अत्याचारों का विरोध करने साथ दलितों के आर्थिक हितों के लिए भी संघर्ष किया। उन्हें उनकी जमीनों पर कब्जा दिलाया। पांच सालों के भीतर दलित पैंथर दलितों के आशा एवं उम्मीद का केंद्र बन गया। दलितों पर कहीं कोई अत्याचार एवं अन्याय होता, दलित पैंथर के कार्यकर्ता वहां पहुंच जाते और तब तक संघर्ष करते जब तक न्याय हासिल नहीं हो जाता।

अमेरिका के ब्लैक पैंथर से प्रेरणा लेकर बना दलित पैंथर दुनिया भर के अध्येताओं के लिए जिज्ञासा के विषय रहा है। सब यह जानना चाहते थे कि आखिर यह संगठन क्यों बना, इसके पीछ प्रेरणा क्या थी, कैसे यह इसे इतने बड़े पैमाने पर दलितों- विशेषकर युवकों- का समर्थन प्राप्त हुआ ?  यह कैसे काम करता था ? इसकी विचारधारा क्या थी? इसके कार्यकर्ताओं और नेता किस तरह के लोग थे? इसे इतने कम समय में इतनी सफलता कैसे मिली? यह क्यों दलितों की आशाओं-आकांक्षाओं का प्रतीक बन गया? क्यों और किस तरह से यह महाराष्ट्र की सरकार और केंद्र सरकार को झुकने के लिए बाध्य कर दिया? आखिर इसक विघटन क्यों हुआ?

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लंबे समय तक उपरोक्त प्रश्नों का कोई तथ्यपरक और प्रमाणिक उत्तर मौजूद नहीं था। इसके बारे में तरह-तरह से कयास लगाए जाते रहे थे। इसके पहले दलित पैंथर का कोई प्रामाणिक दस्तावेज मौजूद नहीं था। ज. वि. पवार की यह  किताब इस ऐतिहासिक जरूरत को पूरा करती है।

प्रस्तुत किताब इस सभी प्रश्नों का तथ्यपरक और प्रमाणिक जवाब देती है, क्योंकि इसे दलित पैंथर के दो संस्थापकों- ज. वि. पवार और नामदेव ढसाल- में एक ज. वि. पवार ने लिखा है। जो इस संगठन के संस्थापक होने के साथ इसके महासचिव भी थे। उनके पास इस संगठन से जुड़ी गतिविधियों के सभी दस्तावेज मौजूद थे और उन्होंने इस किताब को लिखने के लिए सरकारी दस्तावेजों का भी इस्तेमाल किया है। 

(संपादन : नवल)


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