त्वरित टिप्पणी
झारखंड विधानसभा चुनाव का परिणाम आ चुका है। झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम), कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) गठबंधन 81 सीटाों वाले विधानसभा में बहुमत के लिए आवश्यक 41 सीटों के आंकड़े को पार कर चुका है। लिहाजा यह तय हो गया है कि भाजपा को झारखंड में हार मिल चुकी है। लेकिन यह वही झारखंड है जहां इसी वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में 14 सीटों में 12 सीटें भाजपा को मिली थी। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और अन्य पार्टियां तो खाता भी नहीं खोल सकीं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर आठ महीने में ऐसा क्या हुआ कि झारखंड की जनता ने भाजपा को सत्ता से बेदखल कर दिया?
जमीन के कारण बे-जमीन हुई भाजपा
झारखंड के लोगों में भाजपा के खिलाफ माहौल का बनना तभी शुरु हो गया था जब मुख्यमंत्री रघुबर दास ने कारपोरेट के लिए रेड कारपेट बिछा दिए। यह चरम पर तब पहुंचा जब 16-17 फरवरी, 2017 को रांची में ‘ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट’ का आयोजन किया गया। भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान व रांची निवासी महेंद्र सिंह धोनी का इसका ब्रांड आंबेसडर बनाया गया। इसके लिए लोगो भी बनाया गया जिसमें एक हाथी को उड़ता हुआ दिखाया गया। दरअसल, रघुबर दास सरकार ने इस आयोजन के जरिए कारपोरेट जगत को आश्वस्त किया कि वह उद्याेगपतियों के फायदे के लिए हर स्तर पर कानूनी सुधार करेगी। फिर चाहे वह जल-जंगल-जमीन अधिग्रहण का मसला हो या फिर सस्ते श्रम का।
इस क्रम में कारपोरेट जगत को जमीन अधिक आसानी से मिल सके, इसके लिए राज्य सरकार ने जमीन अधिग्रहण संबंधी कानूनों को कमजोर किया। मसलन, वर्ष 2013 में सरकार ने जमीन अधिग्रहण विधेयक 2013 में संशोधन किया। इस अधिनियम के जरिए कृषि योग्य जमीन के अधिग्रहण की भी छूट दे दी गई और इसमें सामाजिक आकलन करने की भी आवश्यकता नहीं समझी गई। यह सब तक किया गया जब झारखंड के सीएम अर्जुन मुंडा थे।
हालांकि तब इस मुद्दे का असर भाजपा की सेहत पर नहीं पड़ा, क्योंकि यह मुद्दा झारखंड के आदिवासियों के बीच ले जाने में विपक्षी विफल रहे।

रघुबर दास सरकार ने भाजपा की पूर्ववर्ती सरकार के एजेंडे को खुलकर आगे बढ़ाया। वर्ष 2015 में पूंजीपतियों एवं औद्योगिक घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए ही सीएनटी एवं एसपीटी एक्ट में संशोधन का प्रस्ताव लाया था और भारी विरोध के बीच उसे विधानसभा में पारित कराया। परंतु राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। इस एक घटना से झारखंड के आदिवासियों के मन में यह बात घर कर गई कि उनके हितों का रक्षक कोई आदिवासी ही हो सकता है।
उद्योगपतियों को झारखंड में सस्ते दर पर श्रमिक मिल सकें, इसके लिए उसने 20 जुलाई 2018 को में विधानसभा के मानसून सत्र में विपक्ष के विरोध के बावजूद बिना चर्चा कराए जिसमें तीन मजदूर विरोधी विधेयक पारित करवा लिया। इनमें – औद्योगिक विवाद अधिनियम (झारखंड संशोधन) विधेयक 2018, ठेका मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) (झारखंड संशोधन) विधेयक 2018 और झारखंड श्रम विधियां (संशोधन) प्रकीर्ण उपबन्ध अधिनियम विधेयक 2018 शामिल रहे।
सरकार के इस कदम का तब कड़ा विरोध भी हुआ। दरअसल, इन कानूनों में संशोधनों के जरिए यह प्रावधान किया गया कि 50 से कम श्रमिक वाले निजी संस्थानों/कारखानों में श्रम कानून लागू नहीं होंगे। साथ ही, छंटनी के शिकार मजदूरों को 3 माह के अंदर ही अपील करनी होगी तथा पीएफ व ईएसआई जैसी स्कीमें भी अनिवार्य नहीं रह जाएंगी।
पत्थलगड़ी ने रघुबर दास सरकार के खिलाफ बनाया माहौल
जल-जंगल-जमीन को लेकर पहले से ही संघर्षरत झारखंड के आदिवासियों ने विरोध का नया तरीका अपनाया। एसपीटी-सीएनटी कानूनों में प्रस्तावित संशोधनों को आदिवासियों ने अपनी स्वायत्तता पर हमला माना। इसके विरोध में पांचवीं अनुसूची में शामिल प्रावधानों के तहत ग्रामसभाओं के स्तर पर पत्थलगड़ी आंदोलन शुरु हुआ। भारतीय संविधान को इस आंदोलन का आधार बनाया गया। लोग अपने-अपने गांवों में पत्थर गाड़ कर उसपर संविधान में वर्णित प्रावधान, सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट के कई न्यायादेशों को इंगित किया। सरकार द्वारा उनके इस आंदोलन को दबाने की पूरी कोशिश की गई। इस क्रम में सरकार ने दस हजार लोगों के उपर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया। यह झारखंड के किसी एक जिले में नहीं, बल्कि लगभग हर जिले में हुआ।
गैर आदिवासी बना मुख्य मुद्दा
इस बार हुए विधानसभा चुनाव में मुख्य मुद्दा यही रहा कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा। जेएमएम-राजद-कांग्रेस गठबंधन की ओर से हेमंत सोरेन चेहरा बने तो दूसरी ओर भाजपा के चेहरा थे रघुबर दास, जिनके उपर पहले से ही आदिवासी विरोधी होने का ठप्पा लग चुका था। इस पूरे प्रकरण में अर्जुन मुंडा को झारखंड से बाहर रखे जाने पर भी सवाल उठे।
बताते चलें कि अर्जुन मुंडा को रघुबर दास ने 2014 में ही सूबाई राजनीति से बाहर कर दिया था। इसके लिए उन्होंने अर्जुन मुंडा को राजनाथ सिंह के खेमे का साबित किया और खुद को तेली जाति (अन्य पिछड़ा वर्ग) कह सीएम की कुर्सी पर कब्जा कर लिया। तब तर्क यह भी दिया गया कि केंद्र में पीएम भी तेली और झारखंड में सीएम भी तेली। और इस प्रकार रघुबर दास झारखंड के पहले गैर आदिवासी सीएम बनने में सफल रहे।
लोहरदग्गा निवासी सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद उरांव का मानना है कि “रघुबर सरकार ने आदिवासियों को हर मामले में छला। जैसे कि उन्होंने जनजाति आयोग का गठन की बात कही, लेकिन अंत-अंत तक नहीं बनाया। एक दूसरा मामला आदिवासी महिला द्वारा गैर आदिवासी पुरुष से शादी किए जाने के उपरांत जमीन पर अधिकार से जुड़ा था। रघुबर दास ने आश्वस्त किया था कि इसके खिलाफ कानून बनाएंगे। लेकिन यह महज केवल आश्वासन ही रहा। हम लोगों ने आदिवासियों के लिए जनगणना प्रपत्र में अलग धर्म कॉलम की मांग रखी। रघुबर दास ने कहा था कि वह इसके लिए केंद्र को अनुशंसा भेजेंगे, लेकिन उन्होंने नहीं किया।”
द्विज-गैर आदिवासी भी थे रघुबर दास से नाराज
दरअसल, झारखंड में आदिवासियों के बाद दूसरी सबसे बड़ी आबादी कुर्मी जाति के लोगों की है। भाजपा की हार की एक बड़ी वजह यह भी कि आजसू के साथ भाजपा का गठबंधन नहीं हो सका। उन्होंने रामटहल चौधरी जो कि कुर्मी जाति के स्थापित नेता हैं, उनका टिकट लोकसभा चुनाव में कटवा दिया। कुर्मी जाति के लोग इस बात से भी नाराज थे। इस प्रकार भाजपा को द्विज मतदाताओं के अलावा जिस गैर आदिवासी समुदाय का समर्थन मिल जाता था, इस बार नहीं मिल सका। झारखंड की राजनीति के विशेषज्ञ व वरिष्ठ पत्रकार अरविंद शर्मा के मुताबिक “रघुबर दास किसी के भी साबित नहीं हुए। उनकी कार्यशैली ऐसी थी जो उनके ही दल के लोगों को नागवार गुजरती थी। वे सीएम के रूप में नहीं, बल्कि मालिक के रूप में सरकार चला रहे थे। उन्होंने भाजपा के आधार मतों को भी निराश किया। मसलन 2015 में उन्होंने उन लोगों को नोटिस भेजवा दिया जो गैर आदिवासी थे और आदिवासियों के साथ सहमति के आधार पर जमीन लेकर रह रहे थे। इसे लेकर तब खूब बवाल भी मचा था।”
एनआरसी ने ठोंक दी आखिरी कील
इक्यासी सीटों वाले झारखंड विधानसभा चुनाव को पांच चरणों में कराया गया। भाजपा नेतृत्व को यह उम्मीद थी कि उनके पास झारखंड की जनता को आकर्षित करने का पर्याप्त मौका मिलेगा। वे इसकी पूरी रणनीति बना भी चुके थे। लेकिन जल्द ही उन्हें निराशा हाथ लगी। इसी बीच पूरे देश में एनआरसी को लेकर बहस छिड़ गई और हजारों लोग सड़क पर उतर पड़े। इसका असर झारखंड के चुनाव पर भी पड़ा। इसका एक प्रमाण यह कि गढ़वा में एक चुनावी रैली में कम भीड़ को देख अमित शाह अपने कार्यकर्ताओं पर बरस भी पड़े थे। उनका कहना था कि इतनी कम भीड़ से चुनाव नहीं जीता जा सकता। चरण-दर-चरण भाजपा को नुकसान होता गया। इस प्रकार आखिरी कील एनआरसी पर उठे बहसों ने ठोंक दी। दरअसल, बाहरी का मुद्दा झारखंड के लिए भी महत्वपूर्ण है। इसका एक कारण यह भी कि असम के चाय बगानों में काम करने वालों बड़ी संख्या झारखंड के संथाल एवं अन्य आदिवासियों की भी है। लिहाजा झारखंड के लोगों ने भी इसे अपने खिलाफ माना और भाजपा के खिलाफ मैंडेट दिया।
(संपादन : गोल्डी)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in