छत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती पर विशेष
छत्रपति शिवाजी महाराज एक ऐसे नायक थे जो समानता के मूल्यों में यकीन रखते थे। उनके लिए सभी धर्म एक समान थे और कभी जाति के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं किए। लेकिन भारत के द्विजों ने उन्हें हिंदू हृदय सम्राट की उपाधि से नवाजा है। यह एक तरह की साजिश है जो लंबे समय से भारतीय जनमानस पर थोपी जा रही है। इसी साजिश के तहत शिवाजी की जयंती साल में दो-तीन बार मनाने की प्रथा ब्राह्मणी विचारधारा को मानने वालों ने शुरू की। लेकिन अब यह स्थापित हो गया है कि 19 फरवरी ही शिवाजी महाराज की जयंती की तिथि है।
दरअसल बाबासाहब पुरन्दरे ने अपने किताब “राजा शिवछत्रपति” के द्वारा शिवाजी महाराज की छवि “गौ-ब्राह्मण प्रतिपालक” एवं “मुस्लिम विरोधी” के रूप में निर्मित किया। खुद को शिवाचरित्र का बखान गानेवाला यानी लोकशाहीर (लोकगायक अथवा जनगायक) कहलानेवाले पुरन्दरे ने शिवाजी के चरित्र में अनेक विकृतियां घुसेड़ दी हैं। ब्राह्मणों का सांस्कृतिक वर्चस्व बना रहे, इसलिए शिवाजी महाराज के चरित्र को द्विजों के नजरिए से पेश करने का काम पुरन्दरे जैसे अनेक इतिहासकार व साहित्यकारों ने किया है। जबकि इसमें न तो सत्य था और ही इतिहास की कसौटी पर खरे तथ्य। इस तरह से यह एक षडयंत्र ही था। एक उदाहरण देखें कि शिवाजी महाराज ने स्वराज्य का निर्माण कैसे किया, इसके जवाब में पुरन्दरे की यह किताब सारा श्रेय शिवाजी के गुरू रामदास स्वामी और दादोजी कोन्डदेव को देती है।
पुणे शहर से निकलनेवाले संघ के मराठी मुखपत्र “एकता” मासिक में ही पहली बार पुरन्दरे ने इस किताब का पहला हिस्सा प्रकाशित किया था। संघ के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक दृष्टिकोण को लेकर ही पुरन्दरे ने इस शिवचरित्र लेखन की शुरुआत की थी। इसी का जिक्र करते हुए वरिष्ठ विचारक एवं संस्कृत विद्वान और लेखक डाॅ. आ.ह.सालुंखे अपनी बहुचर्चित मराठी किताब “पुरंदरेंची इतिहासद्रोही बखर” में लिखा है।
सालुंखे ने अनेक तथ्यों का खुलासा करते हुए पुरन्दरे द्वारा लिखी इस पुस्तक के मूल उद्देश्य का पर्दाफ़ाश किया है। जिस शिवाजी महाराज को पुरन्दरे ने अपनी किताब के माध्यम से रखा, वह शिवाजी असली शिवाजी के विपरीत थे। इस सच्चाई को सालुंखे ने डंके की चोट पर साबित किया है।
जोतीराव फुले छत्रपति शिवाजी महाराज जी को कुलवाडीभूषण मानते थे। इसका मतलब किसानों और श्रमिकों के राजा होता है। इसका वर्णन करनेवाला पवाडा (बखान) भी उन्होंने रचा हुआ है, जिसमें उन्होंने शिवाजी की सभी धर्मों का सम्मान करनेवाली छवि के बारे में बताया है। यह शिवाजी का वास्तविक छवि है। वह जोतीराव फुले ही थे जिन्होंने रायगढ़ किले स्थित शिवाजी महाराज जी का समाधिस्थल को खोज निकाला था।
यह स्पष्ट है कि ऐसे इतिहास के माध्यम से संघ परिवार को शिवाजी महाराज को हिंदूओं का मसीहा ही नहीं बल्कि विष्णु के एक अवतार बताने का अवसर मिला। इसमें पुरन्दरे की बड़ी भूमिका थी। जबकि इतिहास लेखन में काल्पनिकता को कोई जगह नहीं होती है। मगर द्विजों ने पुरन्दरे की इस पुस्तक में लिखी कई बातों को ही इतिहास मान लिया गया है। संघ द्वारा मान्यता प्राप्त पुरन्दरे को इस ऐतिहासिक कार्य के लिए महाराष्ट्र के फडणवीस सरकार ने भी महाराष्ट्र भूषण से सम्मानित करने की जल्दबाजी की।
सच यह है कि आज भी शिवाचरित्र की वास्तविकता से लोगों को दूर रखा गया है। माता जिजाऊ एवं पिता शहाजी के द्वारा बाल शिवा का लालन-पालन और शिक्षा-संस्कार के बावजूद पुरन्दरे जैसे लेखक इस महासत्य को जानबूझकर नज़रअंदाज़ करने की कोशिश करते है, जिसका उद्देश्य यही होता है कि शिवाजी के छत्रपति बनने के पीछे ब्राह्मणों का ही असली योगदान था। इसलिए वि.दा.सावरकर भी अपने “सहा सोनेरी पाने” नामक मराठी पुस्तक में शिवाजी और उनके महापराक्रम के बारे में लिखते वक्त काकतालीययोग की संज्ञा देते हैं। इसका मतलब शिवाजी एवं उनका स्वराज्य महज संयोग की बात है। कौआ बैठने और डाली टूटने में जैसा संयोग होता है ठीक वैसा ही संयोग शिवाजी के साथ हुआ है। सावरकर के ही वर्णवर्चस्ववादी दृष्टिकोण अपनाते हुए पुरन्दरे ने तथ्यों से दूर शिवाचरित्र का निर्माण किया।
बताते चलें कि महाराष्ट्र में महात्मा जोतीराव फुले, प्रबोधनकार ठाकरे से कामरेड गोविंद पनसारे तक शिवाचरित्र कहने-लिखने वालों की एक अलग परंपरा रही है। इसी परंपरा ने शिवाजी की वास्तविक धर्मनिरपेक्ष छवि को स्थापित किया है। एक उदाहरण यह कि “शिवाजी कोण होता” इस जनप्रिय मराठी पुस्तक के रचयिता शहीद पानसरे थे। हालांकि बाद में ब्राह्मणवादियों ने उनकी हत्या कर दी।
(संपादन: नवल/गोल्डी)