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दलित-बहुजनों के आरएसएस में होने का अर्थ

अनिल वर्गीज दो लोगों की कहानी बता रहे हैं; एक उत्तर भारतीय दलित, तो दूसरे दक्षिण के ओबीसी। दोनों को संघ ने “दूसरों” से नफरत करना सिखाया गया और यह भी कि अंततः दोनों को अपने अनुभव से प्रतीत हुआ कि वे स्वयं उसी “दूसरे” में सम्मिलित थे। दोनों ने संघ से अपना नाता तोड़ा

वर्ष 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस और वर्ष 2002 में गुजरात में हुए मुसलमानों के कत्लेआम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के शूद्र और अतिशूद्र कार्यकर्ताओं ने अहम भूमिका निभायी थी। कहने की ज़रुरत नहीं कि वे अपने द्विज आकाओं के इशारे पर काम कर रहे थे। हाल के कुछ वर्षों में गौरक्षा के नाम पर दलितों और मुसलमानों की पीट-पीट कर हत्या की कई घटनाएं सामने आईं हैं। लव जिहाद का मुद्दा आज भी जीवित है जबकि उसके अस्तित्व का कोई प्रमाण अब तक सामने नहीं आया है। मुसलमानों के खिलाफ विषवमन अनवरत जारी है और अब उनकी लानत-मलामत करने वालों को नागरिकता कानून ने एक नया बहाना दे दिया है। इन सब के पीछे “दूसरे” के प्रति नफरत का भाव है।

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लेखक के बारे में

अनिल वर्गीज

अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रधान संपादक हैं

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