रजनी तिलक (27 मई, 1958 – 30 मार्च, 2018) पर विशेष
द्विज जिसे मुख्यधारा का साहित्य कहते हैं या फिर जिसकी एक शाखा प्रगतिशील साहित्य के रूप में जाना जाता है, और दलित साहित्य में एक बुनियादी फर्क है। यह फर्क इस कारण से भी है कि दलित साहित्य में काल्पनिक तत्वों की आवश्यकता नहीं होती। भोगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति ही दलित साहित्य की मुख्य विशेषता है। रजनी तिलक (27 मई, 1958 – 30 मार्च, 2018) द्वारा रचा गया साहित्य भी इसका पुख्ता प्रमाण है।
रजनी तिलक की रचनाओं पर दृष्टि डालने से पहले उनके व्यक्तिगत जीवन व संघर्षों को जान लेना बेहतर होगा। इससे उनकी रचनाओं में शामिल वेदना और विद्रोह दोनों को समझने में सुविधा होगी। एक निर्भीक स्त्री, कुशल लेखिका, कवियत्री, प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता एवं आत्मकथाकार रजनी तिलक जी का जन्म पुरानी दिल्ली मछलीवालां नामक बस्ती में रहने वाले दलित परिवार में हुआ। पिता दर्जी थे और मां गृहणी। रजनी ने सामाजिक असमानताओं को बचपन से ही झेला। पारिवारिक स्थितियां विषम थीं। परंतु, इन विपरीत परिस्थितियों ने उन्हें धैर्य व साहस के साथ पढ़ने-लिखने तथा सामाजिक गैर-बराबरी के विरुद्ध आवाज़ उठाने तथा संघर्ष करने का हौसला दिया। जबकि वह भलीभांति जानती थीं कि समाज में दलित वर्ग से आने वाली स्त्रियों के लिए तो यह संघर्ष दोहरा होता है।
रजनी तिलक समाज में अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों के साथ होने वाले अन्याय, अपमान एवं हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली कर्मठ आंदोलन कर्मी थीं। आज उनके दूसरे परिनिर्वाण दिवस के मौके पर उनकी रचनाओं का पुनर्पाठ कर रहीं हूं तो आभास हो रहा है कि इतने लम्बे अरसे तक उनके सानिध्य में रहने पर भी शायद इस रजनी तिलक को तो हमने कभी जाना ही नहीं। वह अपनी वास्तविक जिंदगी में भी वैसी ही थीं जैसी कि उनकी रचनाओं में रची-बसी, संघर्ष करती रजनी तिलक।
रजनी तिलक का पहला कविता संग्रह उनके कथानानुसार – “‘पदचाप’ वर्ष 2000 में तब आया जब दलित साहित्य को लेकर काफी हलचल थी। संवाद और बहस की तीखी झड़पें चल रही थीं। पुरुष साहित्यकार ही सक्रिय थे। महिला साहित्यकार परदे के पीछे थीं।”
“पदचाप” संग्रह से जहां हिंदी में दलित साहित्य और दलित साहित्य में भी दलित स्त्री लेखन की पदचाप सुनाई देती है। वहीँ 2014 में प्रकाशित कविता संग्रह ‘हवा सी बेचैन युवतियां’ में स्त्रियों की स्वायत्तता और स्वतंत्रता का आभास होता है। साथ ही न केवल सामाजिक स्तर पर दलित स्त्री की पीड़ा उसके संत्रास को अभिव्यक्त करती है, बल्कि पढ़ी-लिखी सुशिक्षित स्त्रियों को सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करने के लिए भी प्रेरित करती हैं।
प्रधानमंत्री बनो/
मत भुलाना उन दलित की बेटियों को।
जो करोड़ों-करोड़ है/ वे दूर गांवों में
फ़ैक्टरियों में / विश्वविद्यालयों / दफ्तरों/ अस्पतालों में
श्रम के पसीने से लथपथ हैं/ सड़क बुहारती हैं।
बिन बिजली/ बिन पानी/ रात के अंधेरे में कच्ची कालोनियों
मलिन बस्तियों की झुग्गियों में/ अपने जने बच्चों को
पुलिस की ठोकरों से बचाती/
हड्डियों के ढांचे पे अपने जिस्म को ढोती।
सत्ता ही नहीं तुम इतिहास बदल सकती हो।
कवियत्री केवल इनदोनों कविता संग्रहों के शीर्षकों को लेकर ही गंभीर नहीं हैं बल्कि कविताओं के विषय भी उनके गहन सामाजिक सरोकारों के अनुभव को दर्शाते हैं। मसलन उनके काव्य संग्रह “हवा सी बैचैन युवतियां” की शुरुआत समर्पण से होती है, जिसमें वे इस संग्रह को किसी महान विभूति, चिन्तक, माता-पिता अथवा गुरु को समर्पित नहीं करती; बल्कि अपनी छोटी बहन पुष्पा भारती को समर्पित करती हैं, जो हवा की तरह प्रकृति में विलीनं हो गई। यहां लेखिका की अपनों के प्रति गहन अपनत्व पूर्ण प्रेमानुभूति व् संवेदनशीलता का अंदाज़ा हो जाता है। उनके इसी संग्रह में पृष्ठ 67 पर अंकित उनकी एक अन्य कविता “तुम्हारे चीखने से” में भी उनकी अपनों के प्रति इसी ममता का पता चलता है जिसमें वे शायद अपनी दूसरी बहन को बड़ी बहन होने के नाते सामाजिक जीवन दर्शन से परिचित करती दिखती हैं।
रजनी तिलक द्वारा मानवीय मूल्यों के साथ जीवन के हर संघर्ष को किसी चुनौती की तरह स्वीकारना तथा उनकी प्राप्ति के लिए लड़ना उनका सहज मानवीय गुण रहा। इसलिए शायद वे “लड़ाकी” जैसे उपनाम से भी सुशोभित रहीं। जैसाकि उनकी “हां में लड़ाकी हूं” (पृष्ठ-37) शीर्षक कविता में दिखता है। कवियत्री का यह स्वीकार उनकी कविता में बेहद सहज भाव के साथ सकारात्मक रूप में आता है। स्वयं रजनी कहती थीं कि उन्हें लड़ाकी कहलाना पसंद था। दरअसल पितृसत्तात्मक समाज में शब्दों के अर्थ और मायने कितनी शीघ्रता से बदलते हैं, इसे यंहां “लड़ाकी” शब्द के माध्यम से बड़ी है सरलता से समझा जा सकता है। “लड़ाकी” शब्द जब किसी स्त्री के लिए प्रयुक्त होता है तो वह बेहद नकारात्मक भाव के साथ आता है। किन्तु यही शब्द जब पुरुष के साथ जुड़ जाता है तो “लड़ाका” यानि वीर, साहसी और बलशाली हो जाता है, जिसमें पुरुष आत्मगौरव का अनुभव करता है। कहने का तात्पर्य यह कि जिस व्यवस्था में शब्दों के अर्थ भी लिंग के आधार पर तय किये जाते हों, वह समाज किसी स्त्री का मुखर होकर अपने हितों के लिए संघर्ष करना कैसे गंवारा कर सकता है।
लेकिन रजनी तिलक न तो आलोचनाओं से घबरायीं और न ही उन्होंने अपने कदम पीछे खींचे। वह हमेशा बंदिशों को तोड़ आगे ब़ढ़ने का आह्वान करती थीं। एक अन्य कविता में वह दलित स्त्री को धार्मिक मिथकों से बाहर निकल कर स्वयं की पहचान निर्मित करने की प्रेरणा देते हुए कहती हैं –
तू पढ़ महाभारत
न बन कुंती।
तू पढ़ रामायण
न बन सीता,न कैकेयी।
पढ़ मनुस्मृति
उलट महाभारत, पलट रामायण
पढ़ कानून
मिटा तिमिर, लगा ललकार
पढ़ समाजशास्त्र
बन सावित्री लहरा शिक्षा का परचम।
रजनी तिलक के सामाजिक संघर्ष का बेहद सकारात्मक पहलू यह है कि वे सामाजिक बदलाव को केवल भारत के सन्दर्भ में ही नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर महसूस करती हैं। इसीलिए वामपंथी विचारधारा का प्रभाव भी न उनकी कविताओं में देखने को मिलता है, बल्कि उनके विचारों में भी शामिल होता था।
जैसे अगर उनकी इस कविता को देखें –
गर्मियों में लहू टपकता, बन पसीना तुम्हारा
सर्दियों में अर्ध वस्त्र, ठण्ड से बेहाल बेचारा
दलित तुम ही हो इस देश के सर्वहारा।
दिन भर मीलों में उत्पादन करते
हमारे लिए खानों में काम करते
तुम्हारा दुर्बल शारीर, सख्त चेहरा
तुम्हारी फीकी मुस्कान, कर्कश रुदन
कोई न समझे दर्द तुम्हारा।
शोषण के अधिकारी, ये पूंजीवादी
इंसानियत के गद्दार, हैवान के साथी
तुम्हें न देते दो जून भरपेट रोटी
दलित तुम ही हो इस देश के कृषक सर्वहारा।
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जीवन के गणित को समझने के लिए जिस सूक्ष्म तथा पैनी दृष्टि की ज़रूरत होती है, वह रजनी तिलक के पास थी। इसका पता उनकी कविता “जीरो” दे देती है। इसमें वह स्त्री के अस्तित्व की पूरी बहस का सार हमें स्त्री को जीरो से संख्या में बदल कर दे जाती हैं और अपना स्थान अपना वजूद जता देती है; तथा समाज में स्त्री को दोयम समझने वालों को सबक भी सिखाती हैं।
मैं स्त्री हूँ,
जीरो हूूं
जीरो से संख्या में बदल सकती हूँ
और अपना स्थान रखती हूं।
पितृसत्त्तात्मक पुरुषवादी समाज की पोल खोलते हुए अपनी कविताओं में वह दलितों पुरुषों में पनपी पुरुषवादी मानसिकता के लिए उन्हें भी लताड़ती हैं, तथा आईना दिखने का काम भी सफलतापूर्वक करती हैं। अपनी “आदिपुरुष” कविता में वह कहती हैं-
दलित रचनाकारों तुम्हारी ओछी नज़र में
स्त्री का सुंदर होना उसका मेरिट
सुंदर न होना उसका डी-मेरिट
सवर्णों की नज़र में, केवल वही हैं मेरिट वाले
तुम हो डी-मेरिट .
मेरिट का पहाड़ा जैसा उनका वैसा तुम्हारा
फिर तुम्हारा विचार नया क्या/ क्या वाद तुम्हारा।
दूरसंचार माध्यमों ने हमारे जीवन में किस कदर जगह बना ली है और उसमें भी आधुनिक तकनीक से लैस मोबाइल किस कदर उपभोक्तावादी संस्कृति की नैसर्गिक जरुरत बनते जा रहे हैं, इसे लेकर भी रजनी अपने समय की युवतियों को चेताना नहीं भूलतीं। बल्कि उनकी चिंता अभिभावकों की चिंता से अलग रूप में सामने आती है, जिसपर शायद ही किसी स्त्री ने ऐसे विचार किया होगा। अपनी कविता “तितलियों सी” में वे कहती हैं-
इन्हें ढूंडना आसान है
इन्हें पकड़ पाना है आसान
मोबाइल इनके लिए नहीं
इनके आकाओं की चुगलखोर सखी
है आका का नियंत्रण और औजार भी।
रजनी तिलक की कविताओं की भाषाई खासियत है कि वे बेहद संजीदा मुद्दों को भी बहुत सरलता एवं सहजता के साथ अभिव्यक्त करती थीं। उनकी काव्य भाषा किसी भी प्रकार की बुनावट और बनावट से परे सीधी, सपाट और अनगढ़ सी भाषा है। या कहें कि उनकी कविता किसी सधी, गढ़ी, प्रतीकात्मक, शिल्पगत शैली भाषा की मोहताज बिलकुल नहीं है। इसके बावजूद भी इन कविताओं में काव्य तत्व भरपूर है और ये काव्यात्मकता की हर कसौटी पर निर्विवाद खरी उतरती हैं। उनकी “कहूँ क्या” शीर्षक कविता की पंक्तियां देखें जिसमें वह स्त्रियों के वर्गीय एवं जातीय भेद को ललकारती हैं –
तुम्हारे कानों को सुनाने के लिए बजा रही हूं ढोल सुनो,
कुछ तो सुनो
मैं कह रही हूं सालों से
मैं जहां रहती हूं वहां शौचालय नहीं,
पीने का पानी नहीं
बुझे हुए माहौल में
चुराई छिपाई बिजली के नंगे तार हैं
तुम्हारा बहनापा किस काम का
जिसमें मेरा दुःख शामिल नहीं
तुम्हारी स्त्री मुक्ति की लड़ाई किस काम की
जिसमें मेरी लड़ाई शामिल नहीं।
इसी तरह का कटाक्ष वह अपनी एक अन्य कविता “फर्क” में भी करती हैं। इसमें वह स्त्री-स्त्री के मध्य के भेद अथवा अंतर को वर्ग के आधार पर स्पष्ट करती हैं-
तुम्हारे मेरे बीच जमीन आसमान का फर्क है
तुम लड़ती हो अपनी पहचान के लिए
लड़ती हूं मैं स्वाभिमान के लिए।
ऐसी ही थीं रजनी तिलक। कोई बनावट नहीं। संघर्ष और जीतने की जिद उनके स्वभाव में रही और रचनाओं में भी। उनके कहे शब्द जो वे अक्सर कहा करती थीं कि “अभी बहुत काम बाकी है। अभी तो हर स्तर पर हमें लड़ना और संघर्ष करना पड़ेगा तभी कुछ बदलेगा’, उनकी सक्रियता और आशावादी नज़रिए का परिचायक है। समस्त दलित समाज उनके इस अभूतपूर्व सामाजिक योगदान के लिए उन्हें सदैव याद रखेगा तथा कृतज्ञ रहेगा।
(संपादन : नवल)